Tuesday, March 14, 2023

अब इस वादे को कौन निभाएगा वैदिक जी !!!






अब इस वादे को कौन निभाएगा वैदिक जी !!!


1985 की बात है। मुझे पीटीआई भाषा में प्रशिक्षु पत्रकार की नौकरी मिले हुए कुछ ही दिन हुए थे। सुबह की पारी आठ बजे शुरू होती थी। सरोजिनी नगर से 50 नंबर की बस पकड़ कर आपाधापी में संसद मार्ग स्थित पीटीआई की पहली मंजिल के समाचार डेस्क पर पहुंचा ही था कि सामने से संपादक पास आकर खड़े हो गए। संयोग था कि उस समय डेस्क पर मैं अकेला ही पहुँच पाया था। अब एक प्रशिक्षु की हालत अपने सबसे शीर्षतम अधिकारी को अपने सामने पाकर क्या होगी अंदाज़ा लगा सकते हैं। उनके पास हाथ से लिखे कुछ पन्ने थे। मुझे पकड़ाते हुए बोले, 'जरा देखो इसमें कोई गलती तो नहीं।' वे तो ऐसा कहकर अपने कक्ष में चले गए। लेकिन मैं हतप्रभ था। भला मैं संपादक के लेख में कोई गलती कैसे निकालता? 


थोड़ी देर बाद उन्होंने बुलवाकर पूछा, 'तुमने पढ़ा, कोई गलती तो नहीं हैं लेख में?' मैं अभी भी सकपकाया हुआ था। धीमे से बोला 'सर मैं क्या देखता इसमें ?' मेरा कहने का अर्थ था कि मेरी क्या औकात कि आप जैसे बड़े पत्रकार के लेख को देखूँ। मेरी स्वाभाविक झिझक को भाँपकर थोड़े स्नेहवत आधिकारिक स्वर बोले, 'यहाँ मैं संपादक नहीं और तुम प्रशिक्षु नहीं। हम दो पत्रकार हैं। और पत्रकारिता का मूल नियम है कि कोई कॉपी बिना दो नज़रों से गुजरे छपने के लिए नहीं दी जाती। इसलिए जाओ और इसे ठीक से पढ़कर वापस लाओ।'  


ऐसे मेरे पहले संपादक थे डॉ वेद प्रताप वैदिक। पत्रकारिता का मेरा यह पहला सबक था जो जीवन भर याद रहा। वैदिक जी इतने ख्यातिप्राप्त और बड़े संपादक होते हुए भी सुबह की शिफ्ट में अक्सर आठ बजे से पहले दफ्तर पहुँच जाया करते थे। मेरी दफ्तर समय से पहुँचने की आदत उन्हीं से पड़ी। उसके थोड़े दिनों बाद की ही बात है।  मेरी एक कॉपी कई सारे लाल निशानों के साथ मुझे वापस मिली। मुझे लगा कि मेरी अनुवाद की हुई कॉपी तो ठीक ही थी। वैदिक जी ने मुझे बुलवाकर कहा, 'तुमने अपनी कॉपी पढ़ी? जरा पहला वाक्य देखो। 15 शब्दों का है। इतना बड़ा वाक्य कौन पढ़ पायेगा ?' फिर बड़े प्रेम से कहा कि एक वाक्य में 5/7 से अधिक शब्द न हों। छोटे वाक्य लिखने की ये सीख डॉ वैदिक से ही मिली। 


उसके बाद से डॉ वैदिक से एक अंतरंगता का नाता जुड़ गया जो जीवन भर चलता रहा। संबंध बनाने और उन्हें जीवन भर निभाने की विलक्षण सामाजिकता वैदिक जी की खासियत थी। काश सब लोग ऐसा कर पाते! उनके ये सम्बन्ध बिना किसी आडम्बर, लोभ, दिखाबे या स्वार्थ के थे। उनके संबंध विचारधारात्मक या राजनैतिक संबद्धता से भी परे होते थे। सभी दलों और उनके  नेताओं से उनका आत्मीयता का नाता रहा।  वे पुरानी बातें भी खूब याद रखते थे। तीन साल पहले जब वे बिटिया दीक्षा के विवाह में आशीर्वाद देने पहुंचे तो सीमा से बोले थे।'बहू, तुम्हारे विवाह में भी में सरोजिनी नगर आया था, तुम्हें याद हैं न?' वे मेरे विवाह का जिक्र कर रहे थे। सीमा को वे बहू कहकर ही बुलाते थे। 







हर महीने दो महीने में उनसे बात होती ही थी। अक्सर उन्हीं का फोन आता था। कोई महीने भर पहले वैदिक जी का फोन आया था। तब उन्होंने दक्षिण एशिया, पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों का एक साझा गैर सरकारी मंच बनाने की बात कही थी। वे चाहते थे कि भारत के नेतृत्व में बनने वाले इस प्रयास में मैं भी रहूँ। भारत के दूरगामी हितों की चिंता और उन्हें आगे ले जाने के प्रयास-ये वैदिक जी के वजूद का अभिन्न अंग था। उनके लेखों और व्याख्यानों में भी यही मूल विषय रहता था। इस नए संगठन के बारे में उनसे मिलकर बात करने का वादा हुआ था।

आप तो चले गए। 

अब इस वादे को कौन निभाएगा वैदिक जी !!!


Friday, January 27, 2023

26 जनवरी 2023 - राजपथ से कर्तव्य पथ की यात्रा का सफर



राज शब्द से सिर्फ राजकाज का बोध होता है। राजकाज अर्थात राजा, दण्ड, नियम, विधान और हुक्मरानों के अधिकार। जब इसे राजकाज के इस भाव को भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर लागू करते हैं तो यह बहुत एकतरफा लगता है। लोकतंत्र यानि जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिए रची गयी व्यवस्था। राज में सिर्फ शासन की धमक सुनाई पड़ती है, इसके उल्टा कर्तव्य में राजा और प्रजा दोनों की ही समग्र कार्यप्रणाली की ध्वनि आती है। किसी भी राष्ट्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था वहाँ रहने वालों की आकांक्षाओं, उसकी विरासत, उसका इतिहास, उसकी संस्कृति और उसकी परम्पराओं के बिना अधूरी ही होती है। वह सिर्फ राज तक कैसे सीमित होकर रह सकती है ?

1950 से ही दिल्ली में 26 जनवरी को #गणत्रंत्रदिवस परेड का आयोजन होता रहा है।1950 से 1954 तक यह परेड अलग अलग स्थानों पर आयोजित की गई। लेकिन 1955 से यह परेड रायसीना की पहाड़ी पर स्थित राष्ट्रपति भवन, जो पहले वायसराय का घर होता था, से शुरू होकर लालकिले पर संपन्न होती रही है। अंग्रेज़ों द्वारा भारत के वायसराय यानि लाटसाहब के लिए बनाये भवन से मुगलों के किले तक की ये परेड एक तरह से हमारे उस इतिहास की और संकेत करती रहीं हैं जब ये देश विदेशियों का गुलाम था। कोई भी अधीनता सिर्फ सैन्य, राजनीतिक और प्रशासनिक ही नहीं होती। उसमें विचार, संस्कृति, मान्यताओं, परम्पराओं, से जुड़े भावों की कई परतें होती है। 

हमारे जैसे देश में जब समाज को कई सौ साल विदेशी आक्रांताओं के अत्याचार सहने पड़े हों, ये बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। दासता के ये भाव हमारे समाज जीवन के कई क्षेत्रों जैसे शिक्षा, भाषा, प्रशासनिक तंत्र, न्याय प्रणाली, कला संस्कृति आदि में गहरे तक पैठ कर गया। एक तरफ इसने कुंठा, निराशा, आत्मदैन्य और हीनता को जन्म दिया।  वहीँ यह भी निर्विवाद है कि इससे बाहर निकलने की छटपटाहट, तड़प और बेचैनी समाज के हर हिस्से में लगातार बनी रही। इसके लिए साहित्यिक, सामाजिक, वैचारिक, सैन्य और राजनीतिक हर स्तर पर आंदोलनों और संघर्षों की एक अनवरत और अनंत लौ को समाज की चिति ने सदा जलाये रखा। 

किसी भी राष्ट्र के लिए राजनैतिक आज़ादी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है लेकिन यही किसी राष्ट्र का एकमात्र और अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। पैरों में पड़ी राजनैतिक गुलामी की जंजीरें तोड़ने के बाद ही समग्र स्वतंत्रता का समर शुरू होता है। यह संग्राम होता है अधीनता की उन सभी उलझी परतों को एक एक करके बंधनमुक्त करना जो लम्बी दासता के बाद किसी भी समाज की भावभूमि में घर बना बैठी हों। इस मायने में राजनैतिक और प्रशासनिक स्वतंत्रता तो आने वाली एक लम्बी यात्रा की एक महत्वपूर्ण सीढ़ी ही कही जा सकती है। #भारत की ये यात्रा 1947 में शुरू हुई। #आज़ादी के #अमृतकाल में अब इसके अमृत की बूंदों का असर राष्ट्रजीवन के हर पहलू पर दिखाई दे रहा है। 

इसमें संदेह नहीं कि 2014 के बाद से इसने एक नयी छलांग लगाईं है। राजपथ से कर्तव्यपथ की इस अनूठी लोकतान्त्रिक यात्रा में देश ने 75 वर्ष ले लिए हैं। इस साल गणत्रंत्र दिवस की परेड में अलग अलग राज्यों से आई झांकियों में इस यात्रा  की पूरी तस्वीर सामने आई। परेड में आत्मनिर्भरता की ओर तेज़ी से कदम रखते हमारे सैन्य बलों के विश्वास और होंसलों का प्रदर्शन तो था ही। अलग अलग राज्यों और विभागों की झांकियों में मंदिरों, नृत्य परम्पराओं, उपासना पद्धतियों, आस्थाओं, आत्मविश्वास ले लबरेज उपलब्धियों, नारी सशक्तीकरण के प्रयासों का चित्रण एक नए भारत के उदय का संकेत है। अयोध्या की देव दीपावली से लेकर कश्मीर के अमरनाथ तक भारत के जनमानस की आस्था के केंद्रों का ऐसा विशद चित्रण अब से पहले 26 जनवरी की परेड में कभी नहीं हुआ। 

आप बहस कर सकते हैं कि आत्मबोध की इस यात्रा में लिया गया ये समय कम है या ज़्यादा। आप चाहे तो इसका विश्लेषण पार्टीगत राजनीति और विचारधारात्मक आधार पर भी कर सकते हैं। मगर इसे सिर्फ इन संकीर्ण नज़रिये से देखना एक गंभीर भूल होगी। ऐसा करते हुए याद रखने की बात है कि झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु राज्यों में बीजेपी की सरकारें नहीं हैं। झारखण्ड की झांकी में बाबा बैजनाथ, पश्चिम बंगाल की झांकी में दुर्गा पूजा और तमिलनाडु की झांकी में अव्वैयाऱ की प्रतिमा के साथ तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर दर्शाया जाना यों ही नहीं है। भारत निश्चय ही बदल रहा है। 

ये बात सही है की इस बार छब्बीस जनवरी की परेड में धुंध के कारण वायुसेना का फ्लाईपास्ट उस तरीके से नहीं हो सका जैसा हर साल होता आया है। पर यकीन मानिये तमाम आशंकाओं, घात प्रतिघातों, कुचेष्टाओं और षड्यंत्रों के बादलों के पीछे से एक आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर, साहसी और समृद्ध भारत का सूर्य अपनी दिव्य आभा के साथ विश्व के फलक पर चमकना शुरू हो गया है।  


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Thursday, January 12, 2023

2023 : भारत के लिए विकट सुरक्षा चुनौतियों का साल





अधिकांश विश्लेषक इस साल को भारत के लिए सम्भावनाओं का साल बता रहे हैँ। जो ठीक भी है। आर्थिक स्थिति देखी जाए तो ये साल देश के लिए अच्छा रहने की सम्भावना है।  पर देश की सुरक्षा के लिए ये गंभीर चुनौतियों का साल अधिक लगता है। अपने पड़ोस पर एक नज़र डालें तो तस्वीर थोड़ा साफ हो जाएगी। हमारे दोनों बड़े पड़ोसी देश यानि चीन और पाकिस्तान बड़े बड़े संकटो से घिरे हुए हैँ। जब पड़ोस के घर में आग लगी हो तो उसकी तपिश से आप कैसी बच सकते हैँ? और जब पड़ोसी आपके घोषित दुश्मन और चिर प्रतिद्वंदी हो आपकी मुश्किलें निश्चय ही बहुत बढ़ जाती हैँ।  


अंतराष्ट्रीय राजनीति में घर के अंदर आई परेशानियों से निपटने का आजमाया हुआ फार्मूला है कि अपने लोगों का ध्यान हटाओ। इतिहास साक्षी है कि जब भी इन दोनों पड़ोसी देशों में अंदरूनी हालात बिगड़े हैं तो इन्होने अपनी जनता का ध्यान बांटने के लिये भारत के खिलाफ साजिशें बढ़ा दीं हैं। सब जानते हैं कि कोरोना के विषाणु चीन से निकल कर दुनिया में फैले। जब दुनिया में कोरोना की पहली लहर चल रही थी तो चीन से भी लाखों लोगों के प्रभावित होने की खबरें थीं। तब चीन के कम्युनिस्ट तंत्र ने इससे ध्यान हटाने को गलवान व अन्य मोर्चों पर घुसपैठ बढाकर अपने देश में भावनाएँ भड़काई थीं। 


इन दिनों चीन उससे कहीं गहरे संकट में फँसा है। वहां हर रोज़ दस लाख से ज़्यादा कोरोना के नए मामले आ रहे हैं। जाहिर है कि कोरोना से मरने वालों की तादाद काफी अधिक होगी। चीन में सबका और खासकर सभी बुजुर्गों का टीकाकरण नहीं हुआ है। पर चीन कोविद से होने वाली विभीषिका को अपनी जनता और दुनिया से छिपा रहा है। इसकी तस्दीक अलग अलग स्रोतों से हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, जो कोरोना महामारी के दौरान चीन का पिछलग्गू बन गया था, ने भी अब चीन के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की आपत्कालीन सेवाओं के निदेशक माइकेल रायन ने कहा है कि "डब्लू एच ओ मानता है कि चीन कोविद से बड़ी संख्या में हुई मौतों को छिपा रहा है।" 


कुल मिलाकर चीन में पिछले कोई छह हफ़्तों से  कोरोना की स्थिति विस्फोटक बनी हुई है। ये हालात इतनी जल्दी सुधरते नहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। चीन मुश्किल में फँसा है। राष्ट्रपति शीजिंगपिंग कम्युनिस्ट प्रचार तंत्र के द्वारा नैरेटिव का खेल खेलने के एक माहिर खिलाड़ी हैं। मुमकिन है कि सर्दियाँ उतरते उतरते जैसे ही भारत-चीन सीमा पर बर्फ पिघलनी शुरू हो, वहाँ पीएलए उकसाने वाली कार्यवाही शुरू कर दे। दिसंबर के महीने में अरुणाचल प्रदेश के तवांग में चीनी फ़ौज की घुसपैठ की नाकाम कोशिश को इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए। उत्तर पूर्वी राज्यों में देश विरोधी ताकतों को चीन बढ़ावा देने की कोशिश भी कर सकता है। वहां और चीन की सीमा पर अगले कई महीने भारत को बेहद सतर्क और मुस्तैद रहना होगा। 


उधर पाकिस्तान के अंदरूनी हालात तो दिनबदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं। पाकिस्तान के स्टेट बैंक के खजाने में बस 5 बिलियन डॉलर बाकी बचे हैं। इससे पाकिस्तान सिर्फ तीन हफ्ते का ज़रूरी सामान ही विदेशों से खरीद सकता है। पाकिस्तान में आटे जैसी बुनियादी ज़रुरत की चीज़ की भी बेहद किल्लत हो गई हैं। देश के कई प्रांतो जैसे सिंध, खैबर पख्तूनवा, पंजाब और बलोचिस्तान  में आटा लेने के लिए लगी कतारों में भगदड़ मचने से कई नागरिकों के मरने की ख़बरें हैं। तेल और गैस की कमी के कारण बिजली का संकट इतना गंभीर है कि बाज़ारों में रेस्टोरेंट व अन्य दुकानों को शाम आठ बजे बंद करने के आदेश दे दिए गए हैं। सरकार ने अब इस्लामाबाद में शादी की पार्टियाँ को भी भी दस बजे तक ख़त्म करने का एलान कर दिया है। इतनी किल्लत के बीच पाकिस्तान को दुनिया में कोई भी क़र्ज़ देने को तैयार नहीं है। 


उधर अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सीमा पर कई टकराव हो चुके है। अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार अब खुले आम पाकिस्तान को बुरा भला कह रही है। पाकिस्तान तो तालिबान को अपना दोस्त समझता था उन्हीके समर्थन से बनी तहरीके तालिबान पाकिस्तान यानि टीटीपी ने पाकिस्तान में जिहादी हमलों की बौछार कर दी है।  दिसंबर के महीने में ही कई अफसरों समेत 40 पाकिस्तानी फौजी इन हमलों में मारे गए है। टीटीपी ने बाकायदा एक वैकल्पिक सरकार की घोषणा कर कई इलाकों में शरिया लागू कर दिया है। पाकिस्तान की फौज ने ही तालिबान के इस जिन को पालापोसा और बड़ा किया था। वही उसके गले की हड्डी बन गया है। 


इस बीच पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति में पूर्व प्रधान मंत्री इमरान खान रोज़ नाम ले ले कर सेना के अफसरों को ललकार रहे हैं। इमरान भी पाक फ़ौज की मदद से सत्ता में आये थे लेकिन सत्ता से हटाए जाने के बाद वे फ़ौज के नेतृत्व को अपना दुश्मन नंबर एक मानते है। इमरान खान की लोकप्रियता इन दिनों शिखर पर है, सो चाहकर भी पाकिस्तानी जरनल उनके खिलाफ कुछ नहीं कर पा रहे। ये पाकिस्तानी इतिहास में पहली बार हो रहा है जब राजनीतिक सभाओं में और सोशल मीडिया में इस तरह फ़ौज के नेतृत्व को खुलेआम गालियाँ दी जा रही हैं। इस समय पाकिस्तान की सेना के प्रति गहरा असंतोष देखा जा रहा है। 


ये जगजाहिर है कि पाकिस्तान को वहां की सेना ही चलाती है। आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा के तीनों मोर्चों पर घिरी हुई पाकिस्तानी सेना और आईएसआई अपनी जनता का ध्यान बटाने के लिए जम्मू कश्मीर और पंजाब में कुछ बड़े षड्यंत्र रच सकते हैं। पंजाब में पिछले दिनों ड्रोन के द्वारा हथियार और ड्रग्स भेजने के मामलों में अभूतपूर्व वृद्धि होना इसकी तरफ साफ़ संकेत है। जम्मू कश्मीर की मौजूदा शांति को हर तरह से भंग करने की कोशिश आईएसआई करेगी ही। उधर पंजाब में भी भारत विरोधी खालिस्तानियों को हवा दी जाएगी। 


खतरे सिर्फ सीमा पर नहीं बल्कि भारत के भीतर भी सिमी जैसे प्रतिबंधित संगठनों के स्लीपिंग सेल मौजूद हैं। इन्हें सक्रिय कर साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने की पूरी कोशिश इस साल होगी। कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान, नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय के साथ साथ माओवाद से प्रभावित रहे छत्तीसगढ और तेलंगाना में इस साल चुनाव भी होने है। माओवादी भी पूरी तरह से परास्त नहीं हुए है। उनके शहरी समर्थक चोला बदल कर कई मुख्य पार्टियों में जा छुपे है। जिन आठ राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें से तकरीबन सभी सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील है। राजस्थान सीमा से लगा प्रान्त है तो कर्नाटक में सांप्रदायिक तनाव के कई मामले हो चुके हैं। पूर्वोत्तर के राज्य तो वैसे भी सुरक्षा के नजरिये से संवेदनशील रहे है। चीन और पाकिस्तान दोनों ही हमारे समाज की दरारों को चौड़ा करने की कोशिश करेंगे। 


इस नाते ये साल भारत के लिए बेहद चुनौतियों का साल रहने वाला है। हमें पटरी से उतारने की कोशिश होगी। सामाजिक द्वेष, साम्प्रदयिक उन्माद और असंतोष फैलाया जायेगा। विघटनकारी शक्तियाँ राजनीतिक प्रतिद्वंदिता का उपयोग कर जनमानस में अपनी पैठ बनाने की कोशिश करेंगी। इसलिए  भारत को 2023 में बहुत चौकन्ना, सतर्क और सावधान रहने की ज़रुरत है।


Thursday, December 15, 2022

मोदी के भारत से क्यों भयभीत है शीजिंगपिंग?




इन दिनों एक वीडियो सोशल मीडिया पर चल रहा है। इसमें चीनी सैनिकों को भारतीय जवान पीटकर खदेड़ रहे हैं। ये वीडियों भारत चीन सीमा के किस हिस्से का है और कब का है ये तो स्पष्ट नहीं है, पर ये साफ़ है भारतीय जवानों ने पी एल के फौजियों की खूब गत बनाई है। ये वीडियो भारतीय फौज की दमदारी और रंगत को दिखाता है। मगर चीन के भारत से आशंकित होने की सिर्फ यही एक वजह नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में चीन भारत को अपना कड़ा प्रतिद्वंदी मानता है। उसे लगता है कि दुनिया का सिरमौर बनने से उसे सिर्फ भारत ही रोक सकता है इसलिए लगातार भारत के लिए सिरदर्दी बढ़ाना उसकी दूरगामी नीति का हिस्सा है। सीमा को अस्थिर बना कर रखना उसी नीति का एक हिस्सा है। 


चीनी राष्ट्रपति शीजिंगपिंग को इस समय महान बनने का भूत सवार है। वे इतिहास के पन्नों में एक शक्तिशाली चीनी सम्राट के बतौर नाम दर्ज़ कराना चाहते हैं इसलिए वे अपने पडोसी देशों पर लगातार दनदना रहे हैं। उनकी महानता के इस सपने में सबसे बड़ी बाधा भारत और उसका मौजूदा नेतृत्व है। इसके कई कारण हैं। पहला, जो इज़्ज़त  और सम्मान भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को दुनिया में मिला हुआ है वैसा चीन की अधिनायकवादी, तानाशाही और निरंकुश कम्युनिस्ट व्यवस्था को नहीं मिलता। इसलिए चीन लगातार अपने प्रचार तंत्र और भारत में मौजूद अपने वैचारिक दत्तक पुत्रों के ज़रिये हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मखौल बनाता रहता है। हमारी व्यवस्था पर ये प्रहार कभी माओवादियों के आतंक के जरिये होता है तो कभी वामपंथी बुद्धिजीवी वर्ग के जरिये। 


याद कीजिये कि किस तरह जब भारत में कोविद महामारी की पहली और दूसरी घातक लहर आई थी तो इन कतिपय लोगों ने बड़े बड़े अख़बारों में लेख लिखकर 'चीन से सीखने' की वकालत की थी। कई भाई लोगों ने तो बीबीसी से लेकर न्यूयोर्क टाइम्स तक में भारत के भीतर ही मार्क्सवादी सरकार के 'केरल मॉडल' की तारीफ में दर्जनों ख़बरें और लेख छपवाए थे। ये बात अलग है कि उनमें दिए अधपके तर्क और तथ्य बाद में गलत साबित हुए। ऐसा ही चीन की कोविद नीति के बारे में भी साबित हुआ। आज भारत की कोविद को हराने की रणनीति को सारा विश्व सही मानता है। 


दुनिया को त्रस्त करने वाली कोरोना महामारी के बारे में कहा जाता है कि ये चीन की प्रयोगशाला से ही पैदा हुईं। कई पश्चिमी विशेषज्ञ तो यहाँ तक कहते हैँ कि इसे जैविक हथियार के तौर पर चीन ने दुनिया को परास्त करने के लिए जानबूझकर कर प्रायोगिक तौर पर  पैदा किया।  पर वही कोरोना अब खुद चीन के लिए भस्मासुर बन गया लगता है। इन दिनों चीन में कोरोना को लेकर कोहराम मचा हुआ है। शी जिनपिंग की 'जीरो कोविद' नीति नाकाम हो चुकी है। त्रस्त चीनी जनता ने खुले आम इसका विरोध किया है और चीन के दर्जनों शहरों और विश्व विद्यालयों में सरकार की कोरोना नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं। वैसे तो चीन के निरंकुश और तानाशाही कम्युनिस्ट तंत्र से ख़बरें बाहर आना मुश्किल है। लेकिन इन प्रदर्शनों को लेकर छन छन कर जो थोड़ी मोड़ी जानकारी बाहर आ पायी है उससे लगता है कि कोरोना को लेकर आम चीनी नागरिक बेहद हताश, निराश और गुस्से में हैं। 


ये प्रदर्शन शुरू तो कोरोना को लेकर हुए थे लेकिन बाद में इनमें शी जिंगपिंग के खिलाफ नारे भी सुनाई दिए है। चीन की कठोर नियन्त्रण वाली व्यवस्था में ये प्रदर्शन किसी विद्रोह से कम नहीं है। 1989 के थ्याननमान प्रदर्शनों के बाद चीन में ये ऐसे पहले व्यापक प्रदर्शन है। 1989 के इन प्रदर्शनों को कुचलने के लिए चीनी सरकार ने अपने निहत्थे नागरिकों पर टैंक चढ़ा दिए थे। मौजूदा प्रदर्शनों के दौरान सैकड़ों लोगों की गिरफ्तारी हुई लेकिन फिर भी चीनियों का आक्रोश नहीं थमा है। हारकर कम्युनिस्ट सरकार को अपनी तीन साल से चल रही 'ज़ीरो कोविद' नीति में कई बड़े परिवर्तन करने पड़े है। इससे स्थितियाँ  ठीक होने की बजाय और भी विषम हो गयीं हैं। चीन में अभी भी सभी बुजुर्गों को टीके नहीं लगे हैं। इसलिए वहां कई इलाकों में कोरोना संक्रमण के तेज़ी से फैलने की खबरें आ रहीं हैं। सघन आबादी को देखते हुए कोरोना से भारी संख्या में मौतों की आशंका की जा रही है। 


लेकिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग आंतरिक स्थितियों से चीन की जनता का ध्यान हटाने में माहिर खिलाड़ी हैं। इसका बेहतर इस्तेमाल उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के पिछले अधिवेशन में किया और तीसरी बार चीन के सर्वेसर्वा बन बैठे। ऐसा माओ के बाद पहली बार चीन में हुआ। अरुणाचल में नियंत्रण रेखा का स्वरुप बदलने की नाकाम कोशिश को भी इस सन्दर्भ भी देखा जाना चाहिए। 


उधर बुनियादी तौर पर भारतीय सभ्यता और विरासत के चिर पुरातन और नित्यनूतन स्वरुप को भी चीनी नेतृत्व एक चुनौती के रूप में देखता है। चीनी कम्युनिस्ट नेतृत्व जानता है कि पुराने समय से भारत आध्यात्मिक और नैतिक नेतृत्व प्रदान करता रहा है। तिब्बत और एशिया के बाकी देशों में बौद्ध धर्म का अमिट प्रभाव इसका अन्यतम उदाहरण है। चीन के लिए यह एक बुनियादी वैचारिक और आध्यात्मिक चुनौती है। 


भारत को आर्थिक और सामरिक रूप से रोकने के लिए चीन 50 दशक से ही पाकिस्तान का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करता आया है। कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद की फंडिंग उसी प्रोजेक्ट का हिस्सा रही है। पर असफल पाकिस्तान अब चीन का सरदर्द बन गया है। इस्लामी आतंकवाद अब खुद पाकिस्तान का नासूर बन गया है। पाकिस्तान में चीन ने अरबों डॉलर लगाए हैं लेकिन वे सब अब बट्टेखाते में जाते दिखाई दे रहे हैं। ये पैसा पाकिस्तान कभी लौटा नहीं पायेगा। दिवालिया होता पाकिस्तान अब और पैसे चाहता है जो चीन अब देने को तैयार नहीं है। उलटे उसे पकिस्तान के पाले पोसे इस्लामी अत्तंकवादियों के जरिये अपने यहाँ कट्टरता फैलने का डर सत्ता रहा है।  लेकिन डर ये है कि पाकिस्तान को दिए कर्ज़े की एवज में चीन उसकी की सेना और आईएसआई से भारत में आतंक फ़ैलाने को कहेगा। कश्मीर और पंजाब दोनों में ही भारत की सुरक्षा एजेंसियों की चिंताएँ आगे और बढ़ने वाली है। 


भारत को उलझाए रखने के अपने इसी मिशन के तहत चीन भारत में माओवादियों और वामपंथी गुटों को बढ़ावा देता रहा है। यही कारण है कि भारत में हर छोटी सी बात पर शोर मचाने वाले वामपंथी बुद्धिजीवियों को उइगर मुसलमानों के निर्दयतापूर्ण दमन पर साँप सूंघ जाता है। हिजाब से लेकर नागरिकता कानून पर मजहबी आज़ादी का झंडा लेकर चलने वाले चीन में हो रहे दमन पर एक बयान तक नहीं देते।  वैसे इन चीनी पिछलग्गुओं से  पूछा जा सकता है कि इन्होने रोहिंग्या मुसलमानों को कभी चीन भेजने की वकालत क्यों नहीं की? भारत में असहिष्णुता का राग अलापने वाले हांगकांग में लोकतंत्र, प्रेस की आज़ादी और मानवाधिकारों को खुले आम कुचले जाने पर चुप क्यों बैठ जाते है ? इसका कारण ये है कि ये चीन को अपना वैचारिक आदर्श और आर्थिक माईबाप मानते हैँ।  दरअसल इनमें से अधिकतर लोग बुद्धिजीवियों की आड़ में भारत को परेशान रखने के लिए चीन के पाले हुए तोते जैसे हैँ। चिंता की बात तो ये है अपने देश के मीडिया और अकादमिक जगत में इनकी अच्छी घुसपैठ है।  


असल बात तो ये है कि इन सारी रूकावटों और अडचनों के बावजूद भारत अपनी अस्मिता के साथ आगे बढ़ता ही गया है। प्रधानमंत्री मोदी कि स्पष्ट नीतियों और ठोस सोच ने भारत को एक नई आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक धार दी है। भारत चीन सीमा पर बन रहे सड़कों और पुलों के नए जाल ने चीन के विस्तारवादी इरादों में खलल डाल दी है। मोदी ने तो चीन के साथ भी मिलकर चलना चाहा भी था। इसलिए कई बार उन्होने शीजिंगपिंग के साथ दोस्ती का हाथ भी बढ़ाया। लेकिन चीनी राष्ट्रपति अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मोदी को अपने प्रतिद्वंदी के रूप में देखते हैँ। 


अरुणाचल के मुख्यमंत्री प्रेमा खंण्डू ने ठीक ही कहा है कि ये 1962 का भारत नहीं है। आज का भारत सिर्फ आत्मविश्वास के साथ दुनिया की आँख से आंख मिलाकर बात करने वाला भारत ही नहीं है । उसकी सेना में किसी टेढ़ी आँख को फोड़ने का दमखम, कूबत और हौसला है।  डोकलाम, गलवान और अब तावांग में ये दुनिया ने देख ही लिया है।  ये इस नए भारत की नई इच्छाशक्ति के प्रतीक हैँ। पर देश को लगातार चौकन्ना रहने की ज़रुरत है। देश सिर्फ फ़ौज के हाथों जिम्मेदारी देकर हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ सकता। चीन को आर्थिक मोर्चे पर भी भयभीत करना आवश्यक है। एक बार फिर से लोगों को चीन से आने वाले साजोसामान पर रोक लगाने की ज़रूरत है। अनावश्यक चीनी माल को प्रतिबंधित कर आम भारतीय ही उसकी आर्थिक हेकड़ी को ढीला कर सकते है। यही विस्तारवादी चीन का पक्का इलाज़ होगा। 


Thursday, November 3, 2022

इमरान खान की हत्या की साज़िश और पाकिस्तान की सेना






#पाकिस्तान में कल पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान पर एक रैली के दौरान हमला हुआ। बताया जा रहा है कि गोली उनके पैर में लगी और सौभाग्य से वे बच गए। लेकिन उनकी पार्टी का एक कार्यकर्ता इस हमले में मारा गया तथा सात और नेता भी घायल हो गए। इमरान खान इन दिनों मौजूदा सरकार को हटाकर फ़ौरन चुनाव कराने के लिए लौंग मार्च पर निकले हुए हैं। गोली चलने की ये घटना वज़ीराबाद में हुई जो पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में पड़ता है। दिलचस्प बात ये है कि इस प्रान्त में इमरान की पार्टी #पीटीआई की ही सरकार है। वहाँ की कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी प्रांतीय सरकार की ही है। 

हमलावर को स्थानीय पुलिस ने पकड़ लिया है। हमलावर के शुरुआती बयान के अनुसार उसने खुद ये हमला किया है क्योंकि वो ये समझता था कि अपनी रैलियों में डीजे बजाने जैसा गैर इस्लामी काम करके इमरान खान देश को गर्त में ले जा रहे थे। इस लौंग मार्च के दौरान इमरान खान सीधे सीधे नाम लेकर पाकिस्तानी सेना के मौजूदा सेनाध्यक्ष जरनल बाजवा व अन्य जरनलों पर निशाना साध रहे थे। इस देश में ये पहली बार हो रहा है कि कोई राजनीतिक पार्टी इस तरह सेना के नेतृत्व को खुलेआम निशाना बनाये। 

सब जानते हैं कि पाकिस्तान में प्रधानमंत्री कोई भी हो, देश को वहां का सेनाध्यक्ष और मुख्य जरनल ही चलाते है। इमरान खान भी 2018 में सेना की मदद से ही प्रधानमंत्री बने थे। शुरू में तो सेना के साथ इमरान के सम्बन्ध ठीक रहे लेकिन बाद में दोनों की बनी नहीं। देश की विदेश नीति, डगमगाती अर्थव्यवस्था और ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख की नियुक्ति को लेकर सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा और इमरान के बीच विवाद हो गया। ये मतभेद इतने गहरे थे कि पिछले अप्रेल में अविश्वाश प्रस्ताव के बाद इमरान को गद्दी छोड़नी पड़ गयी। 

उसके बाद विपक्षी दलों की साझा सरकार नवाज़ शरीफ के छोटे भाई शहवाज शरीफ के नेतृत्व में बनी। दिलचस्प बात है कि नवाज़ शरीफ को भी अदालत के ज़रिये चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया गया था। इसके लिए भी जानकार सेना के नेतृत्व और जरनल बाजबा को ही जिम्मेदार मानते हैं। नवाज़ शरीफ इन दिनों लन्दन में एक तरह से निर्वासन में हैं। 

अप्रेल में गद्दी से हटाए जाने से पहले इमरान ने सार्वजनिक घोषणा की थी कि वे अगर प्रधानमंत्री नहीं रहे तो वे 'बहुत खतरनाक' हो जायेंगे और सबकी पोल खोल कर रख देंगे। उन्होंने ऐसा ही किया और वे सड़कों पर उतर आये। सार्वजनिक सभाओं में उन्होंने सेना के मौजूदा नेतृत्व को मीर जाफ़र, जानवर, चौकीदार और गद्दार और न जाने कितनी और गालियाँ दी हैं। ऐसा वे तकरीबन हर रैली में कर रहे हैं। जरनल बाजवा की तरफ से उन्हें समझाने और कोई समझौता करने की कोशिश भी हुई परन्तु इमरान अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं कि मौजूदा सरकार की फ़ौरन बर्खास्तगी होकर नए चुनाव हों। साथ ही वे ये भी चाहते हैं कि नया सेनाध्यक्ष वे ही नियुक्त करें। जरनल बाजवा इसी महीने रिटायर होने वाले हैं। 

जरनल बाजवा और इमरान खान के बीच तलवारें इतनी खिंच गयी है कि पिछले हफ्ते पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख जर्नल नदीम अंजुम और सेना के प्रवक्ता जरनल बाबर इफ्तिखार ने बाकायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इमरान खान की बातों का खंडन किया। पाकिस्तान के इतिहास में ये पहली बार हुआ जबकि आईएसआई के मुखिया ने इस तरह प्रेस कॉन्फ्रेंस की हो। जानकार कहते है कि पाकिस्तान के किसी नेता ने सेना के खिलाफ ऐसी आक्रामकता नहीं दिखाई कि अपने बचाव के लिए इस तरह ख़ुफ़िया एजेंसी को सामने आना पड़ा हो। 

इससे पहले पाकिस्तान के इमरान समर्थक एक टीवी एंकर पत्रकार अशरफ शरीफ की 23 अक्टूबर को कीनिया में हत्या कर दी गई थी। इमरान की पार्टी के लोगों ने  इसका आरोप आईएसआई पर ही लगाया था। इस खूनखराबे और राजनीतिक अस्थिरता के बीच पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है। देश के पास अपना कर्जा चुकाने के लिए पैसे नहीं है। देश में मासिक महंगाई की दर 26 प्रतिशत से ऊपर है। लोगों को रोज़मर्रा की चीजें नहीं मिल पा रहीं। पाकिस्तान की सरकार कभी विश्व बैंक, कभी सऊदी अरब, कभी अमेरिका, कभी संयुक्त अरब अमीरात तो कभी चीन के आगे कटोरा लिए खड़े नज़र आते है। प्रधानमत्री शाहबाज़ शरीफ इन दिनों भी चीन की यात्रा पर हैं। वहां वे मिन्नतें कर रहे हैं कि उन्हें कर्ज़ अदायगी में ढील दी जाए। 

इस बीच दुनिया और भारत के लिए बेहद खतरनाक खबर है कि पाकिस्तान चुपके चुपके यूक्रेन को परमाणु बम तकनीक बेचने की कोशिश में हैं। रूसी सीनेट की रक्षा मामलों के कमेटी के सदस्य इगोर मोरोज़ोव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में खुलासा किया है कि इसके लिए यूक्रेन के विशेषज्ञ पाकिस्तान गए थे। हालाँकि पाकिस्तान ने इसका खंडन किया है। पर पाकिस्तान की माली हालत ऐसी है कि वह पैसे के लिए कुछ भी कर सकता है। पहले भी पाकिस्तानी वैज्ञानिक ऐसा करते हुए पकडे गए हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो पाकिस्तान में कुछ भी हो सकता है। 

अब इमरान खान पर कल के हमले के बाद पाकिस्तान की पहले से ही डगमगाई राजनीति और तेजी से नीचे जा रही अर्थव्यवस्था में एक नया तूफ़ान आ सकता है। वैसे इमरान खान ने अब आरोप लगा दिया है कि इस हमले के पीछे प्रधान मंत्री शाहबाज़ शरीफ, गृहमंत्री राना सनाउल्लाह और सेना के मेजर जरनल फैसल हैं। उन्होंने इन तीनों की फ़ौरन बर्खास्तगी की मांग की है। जरनल बाजवा के लिए ऐसा करना तकरीबन नामुमकिन होगा। सेना के नेतृत्व में दरार की ख़बरों के बीच एक मेजर जरनल को हटाने के गलत संकेत जायेंगे।  
एक बार और ध्यान देने की है कि पाकिस्तान के कई टिप्पड़िकारों की मानें तो पिछले दिनों इमरान के लौंग मार्च में अपेक्षा से कम भीड़ आ रही थी। इस लिहाज से ये हमला उनके लिए राजनीतिक रूप से प्राणदायक हो सकता है।अब उनके प्रति सहानभूति जताने के लिए और भीड़ बाहर निकलेगी। इस हादसे के बाद उनकी पार्टी ने पूरे देश में कड़े विरोध प्रदर्शन का एलान किया है।  पहले से ही खून खराबे से लहूलुहान पाकिस्तान के लिए आने वाले दिन बेहद मुश्किल वाले है। वहां और और अधिक खून खराबे और गृहयुद्ध की आशंका अब और बढ़ गयी है।


Wednesday, October 26, 2022

ऋषि सुनाक के बहाने भारत में हिन्दूविरोध


ऋषि सुनाक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना भारत, भारतवंशियों और विशेषकर हिन्दुओं के लिए ख़ुशी की बात है। वे ब्रिटिश हैं लेकिन अपनी हिन्दू पहचान को लेकर क्षमापार्थी नहीं है। भारत में तो अपनी हिन्दू पहचान को सार्वजनिक रूप से न बताना ही सेकुलरवाद का पर्याय बना दिया गया है। इस कारण कुछ लोगों को पेट में दर्द भी हो रहा है। एक धार्मिक हिन्दू सुनाक के ब्रिटेन सरीखे घोषित ईसाई देश में प्रधानमंत्री बनने को लेकर शशि थरूर और चिदंबरम जैसे कांग्रेस नेताओं ने खुलकर टिप्पड़ी करना भी शुरू कर दिया है कि भारत में ऐसा कब होगा? पंजाबी में एक कहावत है 'कहे बेटी को, सुनावे बहू को।' इन नेताओं की ये टिप्पड़ियाँ कहने को तो भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के लिए हैं लेकिन ये क्षद्म सेकुलरवादी बयान दरअसल देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए सुनाने के लिए दिए गए हैं। 


ऐसा क्यों हो रहा है? इसे समझना जरूरी है। एक व्यक्तिगत अनुभव इसके मूल में जाने के लिए बताना ठीक रहेगा। हमारे पिताजी दिल्ली में उत्तर रेलवे के मुख्यालय में  काम करते थे। पिताजी अपनी धार्मिकता के कारण माथे पर वैष्णवी तिलक लगाते थे और शिखा रखते थे। उन दिनों माहौल ऐसा था कि सार्वजनिक रूप वो भी सरकारी कार्यालय में हमारे पिताजी जैसा कोई इक्का दुक्का ही ऐसा 'साहस' कर पाता था। इसलिए पिताजी का तिलक लगाकर और शिखा बांधकर रोज़ दफ्तर जाना एक असामान्य सी बात मानी जाती थी। तभी क्यों, आज भी आपको ऐसे अनेक लोग मिल जायेंगे जो किसी पूजा के बाद जब दफ्तर या किसी व्यावसयिक मीटिंग में जा रहे होते हैं तो पहले वो तिलक मिटाना नहीं भूलते। ऐसा वे क्यों करते हैं? 


यहाँ स्पष्ट करना ज़रूरी है कि तिलक या कोई अन्य धार्मिक चिन्ह धारण करके बाहर निकलना या नहीं निकलना,  ये नितांत व्यक्तिगत फैसला है। इसे सही या गलत कहकर हम इसके महत्व को कम या अधिक नहीं करना चाहते। व्यक्तिगत रूप से इस संवेदनशील मामले को यहाँ उद्धृत करने का अभिप्राय सिर्फ इतना भर है कि कैसे कुछ लोगों ने सार्वजनिक स्मृति में इसे सेकुलरवाद का झूठा प्रतीक बनाकर रख दिया है। याद दिलाने की आवश्यकता नहीं कि आज़ादी के फ़ौरन बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने गुजरात में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में लगे अपने मंत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को उनकी 'हिन्दू पुनर्जागरण' की इस कोशिश के लिए केबिनेट मीटिंग में लताड़ा था। उसके बाद जब 11 मई 1951 को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर की पुनर्स्थापना के लिए जाने का फैसला किया था तो प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें रोकने की भरसक कोशिश की थी। तर्क था कि सरकारी पदों पर बैठे लोगों को सार्वजनिक रूप से धार्मिक नहीं दिखना चाहिए। 


सेकुलरवादियों का ये तर्क मान भी लिया जाये कि धार्मिक पहचानों को सार्वजनिक रूप से दिखाना नैतिक या राजनैतिक रूप से ठीक नहीं तो फिर सुनाक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनते ही भारत में 'मुस्लिमपीएम' ये किसने ट्रेंड करवाया? इस ट्रेंड के तले हुई ट्ववीट्स को आप देख लें। सेकुलरवाद के बड़े बड़े झंडाबरदारों के नाम इसमें आपको दिखाई देंगे। क्यों फिर स्कूलों में हिजाब पहनने की पुरजोर वकालत की जाती है? ये दोगलापन नहीं तो और क्या है?  कहने का अर्थ ये कि सेकुलरवाद की मोहर का चुनींदा इस्तेमाल आप मज़हब देखकर नहीं कर सकते। आपने ऐसा करके क्या सेकुलरवाद का ये इकतरफा बोझ सिर्फ बहुसंख्यकों के कन्धों पर नहीं लाद  दिया? आपने ऐसा नेरेटिव बनाया कि हिंदू आस्था के प्रतीक चिन्ह धारण करने से लोगों को अपराधबोध होने लगा। इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुओं में अंदर ही अंदर एक रोष पनपता रहा। जब भी उन्होंने इसे प्रकट करने का यत्न किया तो आपने उन्हें साम्प्रदायिक बताकर गाली देना शुरू कर दिया। कुछ लोग आज भी इसीमें लगे हुए हैं। 


ऋषि सुनाक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री निर्वाचित होने की घोषणा के तुरंत बाद भारत में इस तरह के बयान इसी झूठे नेरेटिव को आगे बढ़ाते हैं। इस नाते ही ऋषि सुनाक की हिन्दू अस्मिता और उसकी सार्वजनिक पहचान महत्वपूर्ण है। बहुत अच्छा हुआ है कि ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी ने भारतीय मूल के हिन्दू सुनाक को प्रधानमंत्री चुना है। इसके लिए पार्टी और ब्रिटेन की व्यवस्था को बधाई। परन्तु इसकी भारत से तुलना क्यों? इसे लेकर भारतीय व्यवस्था और हिंदू समाज को उलाहना देना हमारे इतिहास, हमारी बहुलतावादी सोच, सर्व समाहक हिन्दू विचार और उसकी सहिष्णुता के साथ घोर अन्याय है। ऐसा कहने वाले पढ़े लिखे तो हैं, पर उनमें समझदारी और इतिहास बोध कम है। या फिर वे मूलतः हीन भावना से ग्रसित हैं। ये अनावश्यक अपराध बोध उनमें आत्मबोध और आत्मविश्वास की कमी को ही दर्शाता है।  भारतीय दृष्टि को वे जरा भी समझते तो वे ऐसा नहीं कहते। 


भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभाध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के जज, सेना प्रमुख, मुख्य सचिव, अनेक राज्यों के राज्यपाल व् मुख्यमंत्री, सेनाध्यक्ष, देश की बड़ी पार्टियों के सर्वेसर्वा तथा चुनाव आयोग के प्रमुख आदि कौनसे पद हैं जो अल्पसंख्यकों में से नहीं बने? क्या हिन्दू समाज को अपना सेकुलरवाद दिखाने के लिए बार बार इनकी सूची बनाकर अपने गले में लटकाकर घूमना होगा ताकि इन कतिपय नेताओं को बताया जा सके कि वे संकीर्ण नहीं हैं? ठीक ही है, सोये आदमी को तो जगाया जा सकता है, परन्तु सोने का अभिनय करने वाले इन आत्ममुग्ध बुद्धिजीवियों को कौन जगा सकता है?


वैसे सुनाक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने हैं तो इससे एक हद तक ही हम खुश हो सकते हैं। उनसे भारत के प्रति किसी विशेष बर्ताव की अपेक्षा रखना खामख्याली ही होगी। बल्कि  इससे उल्टा ही होने की संभावना अधिक है। हो सकता है कि वे थोड़े और सजग होकर भारत के प्रति व्यवहार करें ताकि ब्रिटेन जैसे औपचारिक रूप से ईसाई देश में उनकी साख पर कोई बट्टा न लगे। याद रहे कि ब्रिटेन का राजा वहाँ के चर्च का भी प्रमुख है। ब्रिटेन के राजा रानियों का राज्यारोहण एक चर्च यानि वेस्टमिनिस्टर एब्बे में होता है। उन्हें दफनाया भी वहीँ जाता है। 


एक भारतवंशी और हिन्दू होने के नाते हमारी प्रधानमंत्री सुनाक से इतनी ही अपेक्षा हो सकती है वे अपने देश ब्रिटेन को उस गहरे आर्थिक संकट से निकालें जिसमें वो फंसा हुआ है। भारत और भारतीयों के प्रति सदाशयता बनायें रखें।  


इस पद पर पहुँचने के लिए उन्हें पुनः बधाई !


Friday, September 23, 2022

आर्थिक बदहाली और फौज से तनातनी के बीच गृहयुद्ध की ओर बढता पाकिस्तान





पड़ोसी #पाकिस्तान में एक ओर बाढ़ की जानलेवा विभीषिका है तो दूसरी ओर भयंकर महंगाई ने आग लगाई हुई है। अतिवृष्टि के कारण बलोचिस्तान और सिंध प्रांतो का एक बड़ा हिस्सा पानी में डूबा हुआ है। उधर महंगाई की मार ने पाकिस्तानियों का जीवन दूभर किया हुआ है। पाकिस्तान में पेट्रोल 237 रूपये (पाकिस्तान रुपयों में ) लीटर है। चीनी 155 रूपये किलो है। कई इलाकों में टमाटर 500 रूपये और प्याज़ 300 रूपये किलो तक बिका है।
अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 1.1 अरब डॉलर मिलने के बाद भी पाकिस्तानी रुपया लगातार नीचे गिरता ही जा रहा है। इन दिनों एक अमरीकी डॉलर लेने के लिए 240 पाकिस्तानी रुपयों की ज़रुरत पड़ रही है। 2014 में एक भारतीय रुपए में कोई डेढ़ पाकिस्तानी रुपया मिल सकता था। आज एक भारतीय रुपए में औसतन पौने तीन पाकिस्तानी रुपए मिल जायेंगे। इस देश की आर्थिक हालत इतनी पतली है कि बाढ़ से परेशान जनता को कम्बल और ओढ़ने बिछाने के कपड़ों तक के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहवाज शरीफ दूसरे देशों से मदद की गुहार लगा रहे हैं।
मगर आप पाकिस्तानी अख़बारों और टीवी चैनलों को देखें तो इन ख़बरों की जगह वहाँ दूसरी ही खबर सुर्ख़ियों में हैं। ये खबर है पूर्व क्रिकेटर और अपदस्थ प्रधान मंत्री इमरान खान और पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा की आपसी खुन्नस और ज़बरदस्त लड़ाई की। इमरान खुले आम कह रहे हैं कि जरनल बाजवा ने षड्यंत्र करके उन्हें अविश्वास प्रस्ताव के जरिए सत्ता से हटा दिया। लेकिन जिस भाषा का प्रयोग वे उनके लिए कर रहे हैं , वैसा आजतक किसी राजनेता ने पाकिस्तानी सेना की कमान के लिए नहीं किया। जलसों में इमरान ने सेना की कमान को जानवर, गीदड़ और मीर जाफर तक कह डाला है।
पाकिस्तान में कहने को तो चुनाव होते हैं। पर असल में वहाँ सेना ही सब कुछ तय करती है। लोगों का मानना है कि चार साल पहले सेनाध्यक्ष जरनल बाजवा ने ही नवाज़ शरीफ को चुनाव में हरवा कर इमरान को प्रधान मंत्री बनवाया था। तीन साल तक तो दोनों के बीच सब ठीकठाक रहा परन्तु पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख की तैनाती के सवाल पर दोनों में ठन गयी। जिसे जरनल बाजवा आईएसआई का प्रमुख बनाना चाहते थे शुरू में तो इमरान ने उनकी तैनाती नहीं की, पर बाद में उन्हें इसके लिए विवश होना पड़ा। लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकी।
जिस नवाज़ शरीफ की पार्टी को सेना ने हटवाया था और अदालतों के ज़रिये उन्हें कोई भी राजनीतिक पद लेने के अयोग्य घोषित करके जेल में डलवा दिया था, उन्हीं के छोटे भाई शहवाज शरीफ को इसी अप्रेल में प्रधान मंत्री बनवा दिया गया। पाकिस्तानी मीडिया में उस समय खबर गर्म थी कि जब संसद में हारने के बावजूद इमरान गद्दी नहीं छोड़ रहे थे तो सेनाध्यक्ष बाजवा ने रात में उनके घर जाकर इमरान को इस्तीफे के लिए मजबूर किया था। कहा तो यहाँ तक गया कि आपस में गर्मागर्मी होने के बाद सेनाध्यक्ष ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान को थप्पड़ मार दिया था। उसी के बाद इमरान से इस्तीफ़ा लिया गया।
लेकिन ये भी सच है कि इमरान खान पाकिस्तान के लोकप्रिय नेता हैं। उन्होंने 'हकीकी आज़ादी' यानि असली आज़ादी की एक मुहीम छेड़ दी है। ये आज़ादी वे पाकिस्तानियों को अपनी सेना से दिलाना चाहते है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो वे पाकिस्तान में सेना की राजनीतिक ताकत को कमज़ोर करना चाहते हैं। पर जिस देश में प्रधानमत्रीं को तकरीबन हर बड़े फैसले के लिए सेना की मंजूरी लेनी पड़ती हो वहाँ ऐसा करना तकरीबन असंभव ही है। पर इमरान सोचते हैं कि वे अपनी लोकप्रियता से ऐसा कर सकते हैं। यों भी जरनल बाजवा से तो आप उनकी निजी खुन्नस हो गयी है।
इसीलिये गद्दी छोड़ने के बाद इमरान खान ताबड़तोड़ रैलियाँ कर रहे हैं। इसमें बड़ी तादाद में लोग आ रहे हैं। देश के कोने कोने में हो रही इन रैलियों में युवा लोग ज्यादा आ रहे हैं। अब इमरान ने इन्हें इस्लामाबाद कुछ करने को तैयार होने को कहा हैं। सार्वजनिक सभाओं में वे अब सेना को सीधे ललकार रहे हैं। उनकी पार्टी के नेता सेना के अफसरों को अपनी कमान के आदेश न मानने के लिए तक उकसा रहे हैं। सेना की कमान को सोशल मीडिया पर गालियाँ तक दी जा रही है। माना जाता है कि इमरान की पार्टी की सोशल मीडिया फौज ऐसा कर रही है।
उधर सेना के लिए भी ये सब न तो निगलते बन रहा है न ही उगलते। #इमरान की रैलियों में उमड़ती भीड़ को देखते हुए सेना सीधे उनपर हाथ डालने से कतरा रही है। इमरान खान और उनकी पार्टी सेना द्वारा बोई हुई एक ऐसी फसल हो गई है जो स्वयं सेना और उसकी कमान के लिए अब ज़हर बन गयी है। लेकिन इतिहास बताता है कि लोकप्रिय राजनेताओं का आखिरकार पाकिस्तान में बुरा हश्र होता है। लोकप्रिय नेताओं की एक बड़ी कतार पाकिस्तान में रही है। जिस राजनीतिक नेता ने वहाँ भी एक हद से बढ़ने की कोशिश की है उसका अंजाम दुनिया देख चुकी है। भुट्टो को वहाँ फाँसी दे दी गयी थी। शेख मुजीब को अलग देश यानि बांग्लादेश बनाना पड़ा था। बेनज़ीर भुट्टो एक हमले में मारी गयीं थी। मौजूदा लोकप्रिय नेता नवाज शरीफ चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित होने के बाद एक तरह से लन्दन के निर्वासन में हैं।
बाढ़ की मार और गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा पाकिस्तान तकरीबन #श्रीलंका की राह पर है। सऊदी अरब और चीन जैसे दोस्त देश भी अब पाकिस्तान को आर्थिक मदद देने को तैयार नहीं हैं। वे जानते हैं कि उनका पैसा डूबने ही वाला है। चीन-पाकिस्तान कॉरिडोर पर भी काम बंद पड़ा है। इसमें चीन अभी तक कोई 40 अरब डॉलर लगा चुका है। समस्याओं के इस अम्बार के बीच इमरान खान और जरनल बाजवा की ये लड़ाई पाकिस्तान को गृह युद्ध की तरफ ले जाती हुई दिखाई दे रही है। इससे केवल दक्षिण एशिया ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया प्रभावित होगी। पाकिस्तान के परमाणु हथियार सबके लिए चिंता का विषय हैं।
भारत भी इससे आँखें मूंदकर नहीं रह सकता क्योंकि पड़ोस में लगी इस आग की तपिश हम पर भी असर डालेगी।