Thursday, August 29, 2013

#Politics of Untouchability आज़म खान और वीएचपी : कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना

ये कहना कि अगर मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता हिंदू नेताओं से मिलेंगे तो मुसलमानों को खराब लगेगा, कहाँ तक उचित है ? क्या वीएचपी के नेता देश के नागरिक नहीं? क्या नागरिक का मज़हब देखकर ये तय होना चाहिए कि सत्तासीन लोग उनसे मिलें या नहीं? ऐसी राजनीतिक छुआछूत की बात कहकर क्या उन्होंने नहीं दर्शाया कि उनकी राजनीति की धुरी संकीर्ण और संकरी है? 



उत्तर प्रदेश सरकार के ताकतवर मंत्री और समाजवादी पार्टी के महासचिव मोहम्मद आज़म खान अपने नेता मुलायम सिंह यादव और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से बेहद नाराज़ हैं. इसकी  वजह है कि मुलायम और अखिलेश का  विश्व हिंदू परिषद के नेताओं से मिलना. पिछले हफ्ते अशोक सिंघल के नेतृत्व में परिषद का एक प्रातिनिधि मंडल इन दोनों से मिला था और उन्होंने मुलायम सिंह यादव से अयोध्या विवाद में मध्यस्थता करने का अनुरोध किया था.

आज़म खान ने इसके बाद एक कड़ा पत्र मुलायम सिंह यादव को लिखा. इसमें उन्होंने कहा कि इस बैठक से मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की छवि बिगड़ने का खतरा है “ जो श्री यादव ने बड़ी मेहनत से मुसलमानों  के बीच बनाई है ” और उम्मीद है कि वो ऐसा नहीं होने देंगे. दो पन्ने के पत्र में आज़म खान ने ये भी लिखा कि “ समाजवादी नेताओं के इस कृत्य से मुसलमानों की भावनाओं को चोट पहुँची है और वीएचपी नेताओं और मुलायम सिंह की बातचीत से मुसलमानों में गलत सन्देश गया है.”

आज़म खान अपनी राजनीति करने को स्वतंत्र है. वे वीएचपी का विरोध कर सकते हैं. उसके खिलाफ धरना, प्रदर्शन, बयान और जो कुछ भी राजनीतिक हथियार हैं उनका इस्तेमाल कर सकते हैं परन्तु ये पत्र और इसकी भाषा आपत्तिजनक है. ये कहना कि अगर सूबे के मुख्यमंत्री और पार्टी के नेता हिंदू नेताओं से मिलेंगे तो मुसलमानों को खराब लगेगा, कहाँ तक उचित है ? क्या वीएचपी के नेता देश के नागरिक नहीं और क्या नागरिक का मज़हब देखकर ये तय होना चाहिए कि सत्तासीन लोग उनसे मिलें या नहीं? वीएचपी की नीतियों से आज़म खान इत्तिफाक रखें ये ज़रूरी नहीं मगर वे खुद  भी एक मंत्री हैं और मंत्री वे किसी एक वर्ग या सम्प्रदाय के नहीं पूरे राज्य के हैं. ऐसी राजनीतिक छुआछूत की बात कहकर क्या उन्होंने नहीं दर्शाया कि उनकी राजनीति की धुरी संकीर्ण और संकरी है? सवाल है कि इस तरह की सियासी और मजहबी छुआछूत क्या प्रजातान्त्रिक मूल्यों के अनुरूप है? क्या ये देश और समाज के लिए ये शुभ संकेत है?

बकौल आज़म खान ये बैठक दो घंटे चली. उन्होंने इस बैठक की अवधि पर भी आपत्ति जताई. इसका अर्थ है कि अब प्रदेश के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष किससे कितनी देर मिलेंगे और क्या बात करेंगे ये भी आज़म खान की राजनीतिक ज़रूरतें ही तय करेंगी?

अयोध्या विवाद में मुख्यमंत्री और मुलायम सिंह यादव से मध्यस्थता का अनुरोध करना भी कोई ऐसी बात नहीं जिससे आज़म खान इतने भड़क उठे. अगर ये अनुरोध उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष से नहीं होगा तो किससे होगा? उन्हें बताना चाहिए कि क्या वे अयोध्या विवाद को सुलझाने की कोशिश करने को सही नहीं मानते ? या फिर आज़म खान की राजनीति इस विवाद को लटकाये रखकर मुसलमानों को भडकाए रखने भर की है ताकि उनकी राजनीतिक रोटियां सिकती रहें.

यहाँ उनसे सवाल करना ज़रूरी है कि क्या वे मुसलमानों को सिर्फ़ अयोध्या विवाद जैसे भावनात्मक मुद्दों में ही अटकाए रखना चाहते है. क्यों नहीं वे अपनी क्षमता, ताकत और राजनीतिक कद  का उपयोग उनके विकास में करते? पिछले हफ्ते ही  मुझे आज़म खान के शहर रामपुर से गुजरने का अवसर मिला. पूरे शहर और वहाँ की सड़कों की हालत दयनीय है. मैंने ये तस्वीरें सार्वजनिक भी की थीं. वे चाहें तो फेसबुक पर जाकर खुद अपने शहर की ये तसवीरें देख सकते है उसका लिंक है  https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10151784493318252&set=pcb.10151784494888252&type=1&theater

२०१४ के चुनाव आने वाले हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि रामपुर की कमियों को छुपाने के लिए उन्होंने ये राजनीतिक तीर फैंका है. अगर वे अपने क्षेत्र पर थोड़ा ध्यान दें तो जनता का इससे भला होगा. पिछले लोकसभा चुनावों में उनके तमाम विरोध के बावजूद जया प्रदा वहाँ से चुनाव जीत गयीं थीं और वे हाथ मलते रह गए थे. इसका उन्हें बहुत मलाल है. कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी ये चिट्ठी दरअसल  “कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना” है ? उनकी ये राजनीति शायद उन्हें वोट ज़रूर दिला दे मगर क्या ये देश या राज्य के हित में होगा?

उमेश उपाध्याय
25 अगस्त 2013

#Communal Violence किश्तवाड यानि अच्छी वाली साम्प्रदायिकता ??

किश्तवाड की घटनाओं पर बुद्धिजीवियों की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है.लोग क्यों साम्प्रदायिकता को भी स्वीकार्य और अस्वीकार्य के बीच बांटकर देखते हैं? आप क्यों दोनों को बराबरी से बुरा नही बताते? नागरिकों को मज़हब के पलड़े पर तोलने का ये खेल बंद होना चाहिए.  अगर गुजरात के दंगे गलत थे तो उतने ही जोर से क्यों नहीं कहते कि गोधरा कांड भी अमानवीय और घोर निन्दनीय था....


सोचिये कि किश्तवाड जैसी घटना मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात या पंजाब में होती तो अभी क्या दृश्य होता? साम्प्रदायिकता के खिलाफ तकरीबन हर पार्टी ज़बरदस्त हो हल्ला मचा रही होती. इन राज्यों में राष्ट्रपति शासन की मांग कोंग्रेस से लेकर समाजवादी और साम्यवादी दल कर रहे होते. मगर जब किश्तवाड में वहाँ के अल्पसंख्यकों पर फिरकावाराना दहशतगर्दी का हमला हुआ तो आज भाजपा को छोडकर कोई राजनीतिक दल आवाज़ क्यों नहीं उठा रहा है? क्या वहाँ हिंसा में मारे गए लोग भारतीय नागरिक नहीं थे? आज क्यों नहीं बोलते हैं दिग्विजय सिंह? नाम तो कई हैं पर  उनका नाम इसलिए लिया कि वे अल्पसंख्यक हितों के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं. क्या किश्तवाड में हिंसा के शिकार अल्पसंख्यक उनकी हमदर्दी के काबिल नहीं हैं? या फिर उनका मज़हब इसके आड़े आ रहा है?

चलिये मान लिया जाए कि ये राजनीतिक दल मजबूर हैं. 2014  के आम चुनाव और जम्मू कश्मीर के चुनावों में उन्हें वोट लेने हैं इसलिए वो नहीं बोलेंगे मगर क्या बुध्दिजीवी वर्ग की भी ऐसी कोई मजबूरी है? क्या वे इसलिए चुप हैं कि किश्तवाड में अल्पसंख्यक वो नहीं जिन्हें वे परंपरागत रूप से अल्पसंख्यक मानते रहे हैं. तो क्या वे पहले नागरिकों का मज़हब देखेंगे और उसके बाद तय करेंगे कि उन्हें इस घोर साम्प्रदायिक और अलगाववादी हिंसा की निंदा करनी चाहिए या नहीं. ये कैसा सैधांतिकवाद है जो उन्हें इसकी निंदा करने से रोक रहा है ? और अगर सब जानते हुए भी वे चुप हैं तो क्या माना जाए कि वे कुछ दलों की राजनीतिक हित पूर्ति के साधन मात्र हैं और महज वे इन दलों के मुखौटे भर का काम कर रहें हैं.

किश्तवाड की घटनाओं पर बुद्धिजीवियों की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है. पहला सवाल है कि  धर्मनिरपेक्षता, सांविधानिक सेकुलरवाद और अल्पसंख्यक हितों को जीवन सिद्धांत की तरह पूजने वाले लोग क्यों  साम्प्रदायिकता को भी स्वीकार्य और अस्वीकार्य साम्प्रदायिकता के बीच बांटकर देखते हैं? क्या एक वर्ग के खिलाफ होने वाली हिंसा मान्य है वो इसलिए कि किश्तवाड में अल्पसंखयक हिंदू हैं मुसलमान नहीं?

सेकुलरवादी अक्सर कहते हैं कि एक पक्ष की साम्प्रदायिकता दूसरी साम्प्रदायिकता का पोषण करती है. ये कहना और दूसरी तरफ किश्तवाड जैसी घटनाओं पर चुप्पी क्या दर्शाती है ? ये भेद तो आप ही पैदा कर रहे हैं. आप क्यों दोनों हिंसाओं को बराबरी से बुरा नही बताते. अगर गुजरात के दंगे गलत थे तो उतने ही जोर से क्यों नहीं कहते कि गोधरा कांड भी अमानवीय और घोर निन्दनीय था.

क्या ये उचित है कि आप पूरे देश में विभिन्न मुद्दों पर जनहित का दावा करते हुए लड़ाई करेंगे मगर कश्मीर से विस्थापित हुए पंडितों के अधिकारों के लिए एक शब्द भी नहीं बोलेंगे? बंगलादेश से आये हुए गैरकानूनी घुसपैठियों के मानवीय अधिकारों के लिए आप संघर्ष करेंगे मगर अपने ही देश में अलगाववादियों द्वारा विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं के संविधान प्रदत्त अधिकारों के लिए कोई निर्णायक कदम नहीं उठाएंगे? ये कैसा अजीब विरोधाभास है?

साम्प्रदायिकता पर बहस लंबी और जटिल है. कई तर्क और पक्ष हैं. एक इतिहास भी है. मगर एक बात साफ़ है कि आप अगर पक्षपाती होंगे और सिर्फ़ एक तरफ़ झुकेंगे तो फिर आपके सेकुलरवाद को जब छद्म बताया जाएगा तो फिर आपको आपत्ति क्यों होनी चाहिए ? साम्प्रदायिकता को अच्छी वाली और बुरी वाली साम्प्रदायिकता में बांटना देश को बांटने जैसा है.

नागरिकों को मज़हब के पलड़े पर तोलने का ये खेल बंद होना चाहिए. हर हिन्दुस्तानी को सिर्फ़ हिन्दुस्तानी की नज़र से देखकर उसके साथ न्याय किया जाएगा तो ऐसा नहीं होगा. सांप्रदायिक हिंसा करने वालों से समान व्यवहार कानून के मुताबिक होना ज़रूरी हैं न कि वोट की खातिर अपराधी वर्ग का धर्म देखकर. इस नाते जो भी किश्तवाड की हिंसा के दोषी हैं उन्हें भारतीय विधान के अनुसार कड़ा दंड मिले मगर फिलहाल वहाँ के अल्पसंख्यक नागरिकों के घावों पर मलहम की ज़रूरत है.


उमेश उपाध्याय
11 अगस्त 2013

सवाल सिर्फ़ हिंदी का नहीं

बहस हिंदी और अंग्रेज़ी की कतई नहीं है सवाल सारी गैर अंग्रेज़ी भाषाओँ का हैं. अंग्रेजी अब एक खास तरीके से समाज में असमानता को और ज्यादा गहराने वाली भाषा बन गई है. ज्यों ज्यों इन्टरनेट का फैलाव हो रहा है कार्य व्यापार से भारतीय भाषाएँ सिमटती जा रहीं हैं.आज से पचास साल बाद क्या होगा अत्यंत समृद्ध और संपन्न भारतीय भाषाओँ का? क्या वे पुस्तकालयों तक सीमित नहीं रह जायेंगी?  



सीमा फोन पर जोर जोर से रो रही थी. मैं तुरंत हॉस्टल पहुंचा. उसे चुप कराया. खाना खिलाया. वार्डन से बात करके मैं वापस आकर सोचने लगा कि थोड़े दिन पहले ही  तो उसने इंजीनियरिंग में दाखिला लिया था. कितने उत्साह से अपने माँ बाप के साथ वो मेरे दफ्तर आई थी. छत्तीसगढ़ के सुदूर आदिवासी इलाके से आई सीमा ने बारहवीं कक्षा में 65 प्रतिशत अंक हासिल किये थे. फीस के पैसे के लिए परिवार ने पुश्तेनी ज़मीन का एक टुकड़ा बेचा था. पर इसका उन्हें कोई मलाल नहीं था वे तो बस बेटी का इंजीनियर बनने का सपना पूरा करने के लिए सबसे अच्छे कॉलेज मे एडमिशन चाहते थे. फीस का सारा पैसा नगद लाये थे. गांव के कोई दस बारह लोग उसे दाखिले के बाद रायपुर छोड़ने आये थे. चटक ज़रीदार गुलाबी कुर्ते और हरी पजामी में सीमा बहुत खुश लग रही थी. एक अजीब से स्नेह का नाता बन गया था उसका और मेरा.

मगर धीरे धीरे वह उदास रहने लगी. कक्षाओं से जी चुराने लगी. कभी बीमारी का बहाना तो कभी मन खराब रहने का. एक दिन फुर्सत में उसके साथ बैठा. पता पडा कि उसे क्लास में कुछ समझ नहीं आता. सहपाठियों के सामने उसकी हेठी होती है. उसकी दिक्कत थी कि वो स्कूल में हिंदी मीडियम से पढ़ी थी और इन्जीनियरिंग की पढाई अंग्रेज़ी में होती है. साल पूरा होते होते सीमा पीछे होती गई और फिर उसने कॉलेज छोड़ दिया ....

सीमा अकेली नहीं हैं जो सिर्फ़ भाषाज्ञान के कारण आगे की पढाई छोड़ने पर मजबूर हुई. जांच करने पर मालूम हुआ कि इन्जीनियरिंग जैसे प्रोफेसनल कोर्स बीच में छोड़ने और उनमें पिछड़ने वाले बच्चे विषयज्ञान से ज्यादा अंग्रेजी से घबराते हैं. अंग्रेजी की मार वो झेल नहीं पाते. स्कूली पढाई बीच में छोड़ने के कारण कई हैं पर कॉलेज छोड़ने के पीछे सबसे बड़े कारणों में भाषा की दिक्कत है. जहाँ विद्यालयों में पढाई मातृभाषा में वहीं उच्च शिक्षा ज़्यादातर अंग्रेजी मैं हैं.

देशभर के आंकडे देखे जाएँ तो स्कूलों में दाखिला लेने वाले कोई एक करोड ७० लाख बच्चे पढाई बीच में छोड़ देते हैं. कॉलेज पढाई बीच में छोड़ने वालों की संख्या भी लाखों में है. इसमें भी समाज के वंचित तबकों जैसे पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति  अनुसूचित जनजातियों के विद्यार्थियों की संख्या सबसे ज्यादा है. अंग्रेजी अब एक खास तरीके से समाज में असमानता को और ज्यादा गहराने वाली भाषा बन गई है.

ये बहस हिंदी और अंग्रेज़ी की कतई नहीं है सवाल सारी गैर अंग्रेज़ी भाषाओँ का हैं. भूमंडलीकरण की आंधी में देश में ही नहीं पूरे विश्व में अंग्रेज़ी का वर्चस्व और फैलाव बढ़ता जा रहा है क्योंकि कम्प्युटर की कोडिंग इसी भाषा में हो रही है. अंग्रेजी का वर्चस्व भयावह है. ज्यों ज्यों इन्टरनेट का फैलाव हो रहा है कार्य व्यापार से भारतीय भाषाएँ सिमटती जा रहीं हैं. ई मेल और एस एम एस पर जैसे जैसे लोग निर्भर होते जा रहे हैं अंग्रेजी सीखना ज़रूरी होता जा रहा है. आज मजबूरी है कि हिंदी टाइप करने के लिए भी रोमन स्क्रिप्ट की ज़रूरत पड़ रही है. ये बाज़ार की भाषा है और बाजार और रोज़गार इसी पर केंद्रित हो गया है. पर क्या आदमी की ज़िंदगी  सिर्फ़ पेट भरने तक ही सीमित है? हर भाषा से जुडी होती है संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, संस्कार और जीवन की एक शैली. आज अंग्रेजी का समर्थन करने वालों से पूछना चाहिए कि सब कुछ इस भाषा में होने के उपरांत हमारी इस समृद्ध धरोहर का क्या होगा ?

कल्पना कीजिये आज से पचास साल बाद की. क्या होगा अत्यंत समृद्ध और संपन्न भारतीय भाषाओँ का? जब सारा कार्य व्यापार और शिक्षा अंग्रेज़ी में होगी तो हमारी अपनी भाषाएँ – हिंदी, तमिल, बंगला, गुजराती, असमिया, मराठी, तेलुगु, कन्नड़ आदि का क्या होगा? क्या वे पुस्तकालयों तक सीमित नहीं रह जायेंगी.

हिंदी पर चल रही आज की बहस को इसलिए इसे सिर्फ़ आउटसोर्सिंग और  कालसेंटर से होने वाली आय से ही जोड़कर मत देखिये. इसे इस व्यापक सन्दर्भ में देखना ज़रूरी है अन्यथा ये मुद्दा भी रोज की चकल्लस वाली राजनीति में फंस कर रह जाएगा. इसीलिये इस बहस से राजनेताओं को बहुत दूर रखने की ज़रूरत है. क्योंकि पहले भी नेताओं ने वोट की राजनीति से जोड़कर हिंदी का बड़ा नुक्सान किया है. उनका ध्यान सदा से वोटों पर रहा है लोंगों पर नहीं. और भाषा का सवाल जुड़ा है लोंगों के वजूद से, उनकी भावनाओं से और उनकी अस्मिता से.


उमेश उपाध्याय
२८ जुलाई २०१३ 

Monday, August 5, 2013

#Durga Shakti Nagpal यानि अंधेर नगरी चौपट राजा


एक तरफ तो कोंग्रेस के प्रवक्ता कहते हैं “ मस्जिद की दीवार को गिराना ठीक  नहीं था” और दूसरी तरफ  सोनिया गांधी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखतीं हैं, लगता है कि जनता को इन्होने निरा उल्लू समझ रखा  है. अगर  मस्जिद सरकारी ज़मीन पर बन रही थी तो इसे गिराने के लिए कहना क्या गलत था? क्या अब अफसरों को नागरिक का मज़हब देखकर फैसले करने चाहिए?



दुर्गा शक्ति नागपाल पर एक तरफ तो कोंग्रेस के प्रवक्ता कहते हैं “ मस्जिद की दीवार को गिराना ठीक  नहीं था” और दूसरी तरफ  सोनिया गांधी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखतीं हैं, लगता है कि जनता को इन्होने निरा उल्लू समझ रखा  है. अगर इस मामले में सोनिया वाकई गंभीर होती तो वे कार्मिक मामलों के मंत्री वी नारायण सामी को बुलातीं और इस ईमानदार अफसर के मामले में तुरंत केंद्र से हस्तक्षेप करने को कहतीं. प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उसे मीडिया मे देने का उद्देश्य इस मामले में जनता के आक्रोश को शांत करना भर है.

दुर्गा शक्ति नागपाल को सस्पेंड करने के सरकारी कारण को देखें तो आज तक किसी नेता ने इस बात पर टिप्पड़ी नहीं की जिस मस्जिद की दीवार गिराने के कारण उन्हें हटाया गया वो मस्जिद गैर कानूनी थी कि नहीं. और अगर ये सरकारी ज़मीन पर बन रही थी तो इसे गिराने के लिए कहना क्या गलत था? ऐसा उच्चतम न्यायालय का आदेश है. अगर कोई भी सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमण करता है तो क्या अफसर को चुप रहना चाहिए? ऐसा नहीं कि सिर्फ़ मस्जिद के मामले में ही उन्होंने ऐसा किया. खबर है कि कुछ दिनों पहले एक मंदिर के मामले में भी उन्होंने यही कदम उठाया था. सवाल है कि अखिलेश यादव सरकार ने तब उन्हें क्यों सस्पेंड नहीं किया? क्या अब अफसरों को नागरिक का मज़हब देखकर फैसले करने चाहिए?

अब से कोई 130 साल पहले जब सन 1881 में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपना नाटक “अंधेर नगरी चौपट राजा टेक सेर भाजी टेक सेर खाजा” लिखा था तो वे अंग्रेज़ी कुशासन और अन्यायपूर्ण वयवस्था का मजाक उड़ा रहे थे. मगर किसे मालूम था कि भारत की आज़ादी के 63 साल बाद के हुक्मरानों पर भी वह कितना सही और सटीक बैठेगा ! सोचिये एक ईमानदार आई ए एस अफसर को इसलिए हटाया जाता है क्योंकि वो अवैध रूप से नदी से रेत की खुदाई कर रहे ठेकेदारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करता है. ये ठेकेदार बिना टैक्स दिए चोरी कर रहे थे. और बहाना लगाया जाता है एक धार्मिक स्थल की दीवार गिराने का जो खुद भी गैरकानूनी तौर सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करके बनाई गई थी.

मामला इतना साफ़ है कि इसमें जाँच की भी ज़रूरत नहीं. मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और यू पी ए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी सब जानते हैं कि असलियत क्या है मगर सुनवाई, रिपोर्ट मंगाने, सुलह-सफाई और चिठ्ठी का एक ड्रामा खेला जा रहा है ताकि ईमानदार अफसर लगातार अपमानित हो उसका स्वाभिमान टूटे. जान लीजिए, ये कार्रवाई सिर्फ़ दुर्गा शक्ति नागपाल के खिलाफ नहीं है बल्कि उन सब अफसरों के खिलाफ है जो निष्ठा के साथ अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे है. इसके बहाने उन्हें बताया गया है कि उन्हें देश में “कानून का शासन” नहीं लागू करना बल्कि हुक्मरानों और उनके चंपुओं के हर सही गलत आदेश का पालन करना है. देश की लूट में उन्हें मदद करना है नहीं तो जैसा कि समाजवादी पार्टी के एक स्थानीय नेता ने दावा किया कि कुछ मिनिटों में उन्हें उनकी औकात दिखा दी जायेगी.

कोंग्रेस पार्टी ने 1970 के दशक श्रीमती इंदिरा गांधी के काल में प्रतिबद्ध न्यायपालिका और प्रतिबद्ध नौकरशाही का सिद्धांत दिया था. आज एक बार फिर समय है कि ये स्पष्ट किया जाए कि ये प्रतिबद्धता किसके लिए होनी चाहिए संविधान और कानून के शासन के लिए या फिर राज काज करने वाले नेताओं के लिए. गठबंधन राजनीति और क्षेत्रीय दलों के बढते प्रभुत्व के इस दौर में राष्ट्रीय दलों जैसे कोंग्रेस और बीजेपी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे वोट बैंक की राजनीति से उपर उठकर व्यापक राष्ट्र हित में सोंचें.

दुर्गा शक्ति नागपाल प्रकरण ने देश को मौका दिया है कि अफसरशाही की भूमिका, अधिकार और उत्तरदायित्व एक बार फिर परिभाषित किये जाएँ. देश में अबतक कई प्रशासनिक सुधार आयोग भी गठित किये गए हैं. ज़रूरत है कि  बंद सरकारी बस्तों में पडी उनकी रिपोर्टों को खंगाला जाए और  प्रशासनिक सुधार लागू किये जाएँ ताकि ईमानदार अफसर निर्भीक होकर अपने संविधानिक दायित्वों का पालन कर सके और छुटभय्ये नेता निहित स्वार्थों के लिए अंधेर नगरी के चौपट राजा की तरह व्यवहार न कर सकें.

उमेश उपाध्याय
5 अगस्त 2013