Tuesday, February 28, 2017

अमर्त्य सेन : कुतर्क से उपजी असहिष्णुता


महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस मानस में लिखा हैं:
'जाको प्रभु दारुन दुःख देहीं ताकी मति पहले हर लेहीं।।यानि जिसको दुःख मिलने वाला होता है सबसे पहले उसकी मति मारी जाती है
नोबल पुरुस्कार प्राप्त विद्वान् अमर्त्य  सेन आजकल बेहद उद्विग्न और दुखी लगते है यह दुःख उन्होंने खुद पाला लगता है जो उनके  कुतर्क से जन्मा हैं इस कुतर्क की जड़ में हैं प्रधान मंत्री मोदी और भारत की जमीन में रचे बसे विचार संस्कार से श्री सेन की  वैचारिक घृणा जब भी कोई विद्वान अपनी बुद्धि और तर्क को अपनी घृणा और क्रोध के अधीन कर देता है तो फिर वह बौद्धिक जड़ता का शिकार हो जाता है श्री सेन के बारे भी में आज शायद ऐसा कहा जा सकता है अन्यथा वे वो सब कहते जो उन्होंने पिछले हफ्ते एक टीवी इंटरव्यू में कहा एनडीटीवी के साथ इंटरव्यू में  उन्होंने कहा कि  "अल्प मत की सरकार  द्वारा राष्ट्र विरोधी शब्द का इस्तेमाल अजीब हैइससे लगता है कि सरकार अहंकार का शिकार है  31 फीसदी वोट पाने वाली सरकार को ये हक़ नहीं है कि वह बाकी 69% लोगों को राष्ट्र  विरोधी करार दे" वे इस इंटरव्यू में केंद्र की मोदी सरकार की बात कर रहे थे

बीजेपी को 2014 के आम चुनावों में मिले 31% वोट के आधार पर उसे अल्पमत की सरकार बताकर अमर्त्य सेन ने  देश  की पूरी चुनाव वव्यस्था को ही तकरीबन नकार दिया है  उनसे जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या अब तक देश में जो सरकारें रही हैं  वे सभी लोक सभा मे सीटों के बहुमत के आधार पर बनी थी या फिर मिले हुए वोटों के प्रतिशत के आधार पर? उन्हें सोनिया-मनमोहन की यूपीऐ सरकार पर कोई आपत्ति नहीं थी सच तो ये है कि कांग्रेस को 2004  में 26.5 % और 2009 के आम चुनावों में सिर्फ 28.55% वोट मिले थे क्या उन्होंने उस सरकार को अल्पमत सरकार कहा था?

क्या श्री सेन बता सकते हैं कि संविधान की किस व्यवस्था के तहत मोदी सरकार अल्पमत सरकार है? या फिर वे अपनी सुविधा के अनुसार संविधान की व्याख्या कर रहे हैं?  क्या उनके तर्क आज इसलिए बदल गए क्योंकि यूपीऐ सरकार उनके जैसे विचार रखती थी? या फिर इसलिए क्योंकि वे उनको सर पर उठाकर रखती थी? इसका मतलब क्या यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि श्री सेन स्वयं एक सुविधाजीवी हैं और समय के हिसाब से उनके तर्क बदल गए हैं?

इसका एक और भी अर्थ और भी निकाला जा सकता है वो ये कि सेन साहब का का भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया, व्यवस्था और उनसे पैदा होने वाली संस्थाओं में विश्वास  बहुत सतही और अवसरवादी है सही मायने वे लोकतान्त्रिक नहीं है  यानि जब उन्हें लोकतंत्र  'सूट' करे तो अच्छा नहीं तो वह पूरी प्रक्रिया को सर के बल उल्टा खड़ा कर देंगे? उनका ये बयान सिर्फ बौद्धिक अवसरवादिता ही नहीं बल्कि उनकी सोच में अन्तर्निहित घोर असहिष्णुता भी दिखाता है 

उनकी ये असहिष्णुता उस सोच से पैदा होती है जो अपने अलावा किसी अन्य विचार को मान्यता या Legitimacy नहीं देती श्री सेन और उनके जैसे बुद्धिजीबी मान बैठे हैं  कि उनका विचार ही सबको मानना चाहिए भारतीय या राष्ट्रवादी  विचार जिसे यह बुद्धिजीवी खेमा बड़ी हिकारत भरी भाषा में 'दक्षिणपथी' कहता है, को यह वर्ग मानने से ही इंकार कर देता हैं नरेंद्र मोदी की सरकार और खुद प्रधान मंत्री को ये खेमा बौद्धिक मान्यता यानि Intellectual Legitimacy नहीं देता बताइये, इससे बड़ा बौद्धिक अहंकार क्या हो सकता है? यानि जिस अहंकार का आरोप श्री सेन सरकार पर लगा रहे है उससे सबसे ज्यादा ग्रस्त तो वे खुद दिखाई देते हैं

यही नहीं, वे तथ्यों को भी अपनी सुविधा के हिसाब से तोड़ मरोड़कर पेश कर रहे हैं सोचिये, क्या कोई यह कह सकता है कि बीजेपी को वोट देने वाले 69 % भारत के नागरिक  राष्ट्र विरोधी हैं ? क्या ऐसा  एक भी बयान श्री अमर्त्य सेन दिखा सकते हैं जिसमें बीजेपी या सरकार के किसी नुमायंदे  ने ये कहा हो कि उन्हें वोट देने वाले राष्ट्रविरोधी है ? नहीं, तो फिर क्या ऐसा कह कर श्री सेन ने गलत बयानी नहीं है ? जिस राष्ट्रविरोधी बहस की वे बात कर रहे है उसकी पृष्ठभूमि में जेएनयू में पिछले साल लगे कुछ नारे हैं ये नारे थे - "भारत की बर्बादी तक जंग चलेगी" और "भारत तेरे टुकड़े होंगे" आदि  क्या वे खुद इन नारों का समर्थन करते है और इन्हें ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मानदंड मानते हैं? क्या संविधान इनकी इज़ाज़त देता है? और क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार इस हद तक असीमित है की वह भारत की भौगोलिक अखंडता और सार्वभैमिकता को अमान्य करे?

देश के 69 % मतदाताओं को देश के खिलाफ नारे लगाने वाले कुछ मुट्ठी भर लोगों से जोड़ कर आखिर अमर्त्य सेन कहना क्या चाहते है ? क्या ऐसा करके  वे स्वयं  एक बौद्धिक छल और शरारत नहीं कर रहे ? उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि 'भारत विरोध' और चुनावों  में 'बीजेपी विरोध' को एक पलड़े में रखकर वे  किसे भरमाने और शायद भड़काने की  कोशिश कर रहे हैं ? उनके इस चतुराई भरे बयान को अगर कोई बौद्धिक बेईमानी बताये तो इसमें क्या गलत होगा ? मोदी और  संघपरिवार का वैचारिक विरोध लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है  बहस, तर्क-वितर्क, सहमति-असहमति, वादविवाद और संवाद भारतीय चिंतन परंपरा का अभिन्न हिस्सा है 'बहस बाज भारतीय' होना अच्छा है 'नेति नेति' को भारतीय मनीषा सत्य के संधान का साधन मानती है मगर यह भी सही है कि जब तर्क कुतर्क में बदलता है तो वह चिंतन में जड़ता का प्रतीक बन जाता है अमर्त्यसेन अगर आज इसी जड़ता का  प्रतिनिधि बनना चाहते है तो यह बेहद अफ़सोस जनक है 

उमेश उपाध्याय
1 मार्च 2017


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