Friday, June 21, 2019

एक देश: एक चुनाव व्यावहारिक दिक्कतें और सैद्धान्तिक सवाल



भारत के सशक्त, जीवन्तमान और फलते-फुलते लोकतंत्र के जीवन में वह समय आ गया है जबकि उसकी कुछ कार्य प्रणालियों की समीक्षा हो। सहमति बनाकर  उनमें बदलाव हो। इनमें से एक महत्वपूर्ण कार्यविधि है चुनावों की। चुनाव भारत के लोकतंत्र रूपी शरीर में बहने वाले रक्त की तरह है। चुनाव हैं तो लोकतंत्र है। उसकी देखभाल, उसमें आई अशुद्धियों को दूर करना और उसका परिष्कार लोकतंत्र और राष्ट्र दोनों को मजबूत बनाएगा। परंतु शरीर के खून के परिष्कार में अन्यतम सावधानियां बरतना भी जरूरी है।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि बारबार होने वाले चुनावों ने देश की पार्टियों, शासनतंत्र और प्रशासनिक व्यवस्या के लिए गहरी चुनौतियां खड़ी की हैं। इन चुनावों का खर्च भी देश को उठाना पड़ता है। आर्थिक भार के साथ साथ  साल दर साल होने वाले चुनावों से देश, खासकर राज्यों की प्रशासनिक व्यवस्था अक्सर पंगु हो जाती है। निर्णय नहीं हो पाते और काम काज ठप्प पड़ जाते हैं। लोकतंत्र रूपी शरीर का रक्त अगर चुनाव है तो राजनितिक दल उस रक्त को लाने ले जाने वाली नाली धमनियों के सामान  हैं। लगातार होने वाले चुनावों के कारण हमारी पार्टियाँ बस चुनाव लडऩे-जीतने का यन्त्र बन गई हैं। इसलिए उनकी दृष्टि सब कुछ छोड़कर बस एक चुनाव से दुसरे चुनाव तक सिमट कर रह गई है। अगली पीढ़ी की चिंता करने के ज़िम्मेदार लोग इस व्यवस्था के कारण  बस अगले चुनाव की चिंता करने तक सीमित हो गए हैं।



राजनितिक दलों की इस ''चुनाव केंद्रित  दृष्टि के कारण अब देश में बस अधिक लोक लुभावन बनने की प्रतियोगिता सी चल पड़ी हैं। इस लोक लुभावन दृष्टि के कारण कई बार ऐसे निर्णय भी होते हैं जो असल में बेहद नुकसानदेह होते हैं। इसलिए इस प्रस्ताव का स्वागत होना चाहिए कि देश के आम चुनाव के साथ ही राज्यों के चुनाव भी हों।

परंतु इस प्रस्ताव को लागू करने में कुछ व्यावहारिक कठिनाईयां हैं तो कुछ सैद्धांतिक सवाल भी हैं। इन दोनों की धैर्यपूर्वक और खुलेमन से लम्बी चर्चा करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। इससे हमारे लोकतंत्र को और मजबूती मिलेगी।

सबसे पहले तो इसे लागू करने के व्यावहारिक पक्ष हैं। उसके लिए हमें कई सांविधानिक व्यवस्थाओं और जन प्रतिनिधित्व कानून में व्यापक बदलाव करने होंने। उसके कानूनी, तकनीकी , विधि सम्बधी और प्रक्रिया गत पक्षों की जांचपरख आवश्यक है। उदाहरण के लिए आपने एक बार एक साथ चुनाव करवा दिए और कुछ समय तक राज्यों की विधानसभाएं अपनी नियत कालावधि के अनुसार चलीं। परंतु एक राज्य/राज्यों में किसी सरकार का बहुमत खत्म हो गया तो क्या होगा? क्या वहां बाकी बचे समय में राष्ट्रपति का शासन होगाा? क्या ऐसा करने से केन्द्र में शासन करनेवाली पार्टी को अवांछनीय ताकत नहीं मिल जाएगी? क्या फिर राज्यों में बार-बार राष्ट्रपति शासन लगाने की प्रवृति को बढ़ावा नहीं मिलेगा?

क्या ये बेहतर नहीं होगा कि जब एक राज्य में कोई भी दल बहुमत के आधार पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं हैं तो फिर वहां दलों के समानुपातिक आधार पर एक साझा सरकार का गठन कर दिया जाए? इस तरह के कई और विकल्प भी हो सकते हैं। इन सभी पर सभी सुझावों पर समग्र दृष्टि खुले विचार करने की आवश्यकता है।

चलिए, राज्यों में तो हमारे पास राष्ट्रपति शासन का विकल्प है परंतु यदि केन्द्र सरकार के स्तर ऐसा हुआ तो फिर क्या विकल्प है। निश्चय ही राष्ट्रपति को तो बचे हुए कालखंड के लिए केंद्र की सरकार चलाने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। तो फिर केंद्र में यदि किसी सरकार का बहुमत/विश्वास नहीं तो क्या होगा? ये एक जटिल समस्या है। यदि हमने माना कि केंद्र में ऐसी स्थिति में दोवारा चुनाव होंगे तो फिर क्या राज्यों में भी जबरन ऐसा करना पड़ेगा? इसका एक वैक्लिपिक तरीका हो सकता है कि कानून में एक व्यवस्था कर दी जाए कि हर चार/पांच चुनावों यानि 20/25 साल के बाद देश कि आम चुनावो के साथ राज्यों के चुनावों को एक साथ कराया जाए। यानि अभी एक बार चुनाव एक साथ हों। आगे आने वाले  चार/पांच चुनावों तक व्यवस्था आज की तरह ही चले। फिर  बीस पच्चीस साल बाद एक बार घड़ी की सुई को  फिर मिलाया जाए और यह व्यवस्था चलती रहे।

इसका एक सैद्धान्तिक पक्ष भी है। कोई भी जन प्रतिनिधि और प्रकारान्तर से सरकार - जनता की कृपा और इच्छा तक अपने पद पर रह सकता है। यानि भारत का जन अपनी मूल सार्वमौमिकता को उसकी 'कृपा' के अनुसार अपने प्रतिनिधि में स्थानान्तरित करता है। जब हम पांच साल के बीच में चुनाव न होने की बात कर रहे हैं तो क्या इसका अर्थ ये नहीं होगा कि पांच साल के लिए सार्वमौमिकता का ये हस्तांतरण  तकरीबन  स्थायी नहीं हो जाएगा। क्या इससे पांच साल तक जन प्रतिनिधि को उत्श्रृंखल, निरंकुश और मनमाना व्यवहार करने का लाइसंस नहीं मिल जाएगा? हमारे बहुसंख्यक जन प्रतिनिधियों का अब तक का रिकार्ड हमें कोई आश्वस्त नहीं करता। जहां जन प्रतिनिधि बनना, खास सुविधाओं, हैसियत, अहंकार, वी आई पी संस्कृति का ही एक पक्ष माना जाता हो वहां पांच साल के लिए उन्हें कानूनी तौर से पक्का करना भयावह भी हो सकता है।

याद दिलाना जरूरी है कि 1974 के लोकनायक जयप्रकाश नारायण के लोकनिर्माण आंदोलन के दौरान जनप्रतिनिधियों की निरंकुशता पर रोक लगाने पर खूब बहस हुई थी। तब मांग की गई थी कि हमें अपने चुने हुए सांसद और विधायक को वापस बुलाने का भी अधिकार होना चाहिए। यानि चुना जाने के बाद यदि चुनाव क्षेत्र की जनता चाहे तो उसे वोट द्वारा  'अनचुना' कर सकती है। इस विकल्प की बात कई बार होती आई है। परंतु इसकी 'अव्यावहारिकता' के कारण इसे लागू नहीं किया जा सका है। आज जब हम चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए पांच साल के कार्यकाल की बात कर रहे है तो क्या यह उस विचार का ही दुसरा छोर नहीं है?

जिस तरह सुशासन के लिए स्थिरता व निरंतरता ज़रूरी है उसी तरह जबावदेही के लिए कुर्सी जाने का होने का भय होना भी जरूरी है। एक मजबूत राष्ट्र और प्राणवान लोकतंत्र के लिए इन दोनों का ही संतुलन होना आवश्यक है। इस मुद्दे पर सभी पक्षों से गहन विचार होना चाहिए। उसके बाद देश में इस पर व्यापक चर्चा हो। फिर सहमति बनाकर कोई फैसला हो।



Thursday, June 13, 2019

बर्फ में लगा पाकिस्तान



बर्फ में लगा पाकिस्तान

पाकिस्तान में 1947 के बाद की शायद सबसे बडी घटना हुई है। वो ये कि पाकिस्तान की सेना पहली बार अपना बजट घटाने पर मजबूर हुई है। देशों के रक्षा बजट में कटौती कोई बड़ी बात नहीं, पर पाकिस्तान के सन्दर्भ में ये तकरीबन भयंकर भूचाल जैसी घटना है। उसका कारण है कि जिन्ना के समय से ही पाकिस्तान ने अपने आप को एक 'सिक्योरिटी स्टेट'  घोषित किया हुआ है। यानी एक ऐसा देश जिसका वजूद ही 'सुरक्षा' यानी उसकी फौज पर टिका हुआ है। इसलिए #पाकिस्तान में सिर्फ सेना ही एक ऐसी संस्था है जो देश की सभी ताकत रखती है। पाकिस्तान में चाहे लोकतंत्र हो, तानाशाही या मार्शल लॉ शासन - सबको फौज के मातहत ही काम करना होता है। इस मायने में फौज के बजट में  कटौती पाकिस्तान की हैसियत और वहाँ होने वाले व्यापक परिवर्तन की ओर इशारा करती है।

पाकिस्तान की ऐसी हालत क्यों हुई कि अपने फौजियों  के राशन पानी में कटौती को मजबूर होना पड़ा? उसके चार मुख्य कारण है। पहला, अमेरिका से मिलने वाली मदद बंद होना। दूसरा,  #इस्लामी देशों का पाकिस्तान से मुँह फेर लेना। तीसरा, पाकिस्तान की एटमी हवाबाजी का पर्दाफाश और चौथा #भारत का अनवरत दबाव। इस सबका ऐसा असर पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर हुआ है कि अब उसे दुनिया भर में कटोरा लेकर घूमने पर भी मदद नहीं मिल रही।

दरअसल 1979 में अफगानिस्तान में तत्कालीन सोवियत संघ के घुसने के बाद पाकिस्तान पहले तो इस्लामी जेहादी बनाने की फैक्ट्री बन गया। उसके बाद एक के बाद एक काम धंधे वहां बंद होते गए और बस यही धंधा सिर्फ पाकिस्तान का मुख्या धंधा बन गया।  बाद में अमेरिका से उसी नाम पर पाकिस्तान को अरबों डॉलर मिलते रहे। धीरे-धीरे पूरे पाकिस्तान का #जिहादीकरण हुआ। इसमें पाकिस्तानी समाज, उसकी शिक्षा और उसकी फौज भी शामिल है। उसके बाद तो पाकिस्तान पूरी दुनिया में कट्टर #इस्लामी #जिहादी #आतंकवादी सोच और आदमी सप्लाई करने वाला देश बन गया।

पहले पहल तो अमेरिका ने अपनी गरज से पाकिस्तान को इस कट्टरवादी #इस्लामीकरण के लिए पैसे दिए। बाद में, खासकर 9/11 के बाद पाकिस्तान ने जिहादियों को खत्म करने के नाम पर अमेरिका से पैसे लिए। फिर तो उसकी आदत में ही ये शुमार हो गया। यही कारण है कि दुनिया में तकरीबन सभी बड़ी आंतकवादी वारदातों की जड़ें कहीं न कहीं पाकिस्तान से आकर जुङती थीं। भारत कश्मीर में इसे अर्से से झेल रहा है। इन्ही आतंकवादियों का इस्तेमाल वह आजतक जम्मू-कश्मीर में कर रहा है। लेकिन जब अमेरिका को उसकी चालबाजी समझ में आई  तो उसने पाकिस्तान का रेंटुआ कसा। इसके बाद पाकिस्तान को ये डॉलर मिलने बंद हो गए।

पाकिस्तान को दूसरी बड़ी मदद मिलती थी अरब देशों से। मगर जब पाकिस्तान पर आतंकवादी निर्यात करने का ठप्पा लगा तो एक-एक करके अरब देशों ने भी पाकिस्तान से कन्नी काटनी  शुरू कर दी। पिछले पांच साल में भारत ने अरब देशों, खासकर सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से, अपने रिश्ते बेहतर बनाए। उन्हें भी ये समझ आया कि पाकिस्तान में पलने वाली आंतकवादी तंज़ीमें अरब देशों के लिए भी ख़तरनाक  हैं। इससे यहां भी पाकिस्तान का खेल खराब हुआ। इसी बीच सऊदी अरब और ईरान के बीच के संघर्ष में पाकिस्तान ने चालाक बिचौलिए का खेल खेलना चाहा। उसकी चालाकी यहां भी नहीं चली और वहां आलम हुआ कि 'दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम'। सऊदी अरब ने भी उसे भीख देना बंद कर दिया।

इस्लामी देशों को पाकिस्तान ने एक गोली पिलाई हुई थी कि वह दुनिया का एकमात्र एटमी #मुस्लिम होने के कारण, जरूरत पडऩे पर उनके काम आ सकता है। ये एटमी हवावाजी का खेल पाकिस्तान ने दुतरफा खेला। एक तो उसने भारत को ब्लैकमेल किया। भारत में आतंक फैलाना और भारत की प्रतिक्रिया पर उसे एटमी युद्ध की धमकी देना। दूसरी तरफ ईस्लामी देशों में अपनी #एटमी हैसियत का रूतवा बनाना। यह भी उसकी कूटनीति का हिस्सा थे ही।  लेकिन पहले सर्जिकल स्ट्राइक और फिर बालाकोट में हमला करके भारत ने पाकिस्तान से उसकी ये एटमी घौंसपट्टी की ताकत छीन ली। इस्लामी देशों को इससे ये संकेत गया कि जो देश एटमी हथियार होते हुए खुद अपनी रक्षा नहीं कर सकता वह उनके क्या काम आएगा। बालाकोट में हवाई हमला करके भारत ने एटमी ब्लैकमेल की गोल रेखा ही बदल दी।

पाकिस्तान की इस हालात का चौथा और निर्णायक कारण है  दुनिया भर में आर्थिक, कूटनीतिक, खेल और व्यापार आदि के मोर्चों पर भारत की अनवरत चौतरफा दवाव की रणनीति। पिछले कोई एक दशक से भारत की कूटनीति दुनिया को ये भरोसा दिलाने में सफल रही है कि पाकिस्तान आतंकवाद को अपनी विदेशनीति के सबसे बड़े हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है। 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद इस नीति में और पैनापन आया।  पहले तो प्रधानमंत्री मोदी ने पाकिस्तान के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया पर इसके बदले में भारत को मिला पठानकोट, उड़ी, पुलवामा आदि हमलों के रूप में धोखा। इसके बाद तो भारत ने ठान लिया कि पाकिस्तान को बातों का नहीं लातों का भूत है। भारत ने पाकिस्तान से सारे रिश्ते खत्म कर दिए। इन कदमों ने उसकी आर्थिक कमर तोड़के रख दी है।

आज आलम ये है कि पाकिस्तान दिवालिया हो चुका है। चीन के अलावा दुनिया में कोई देश वहां पैसा लगाने को  तैयार नहीं हैं। #चीन भी औने पौने दाम में वहां माल बेच रहा है। चीन-पाकिस्तान इकॉनामिक कोरिडोर के नाम पर चीन ने मंहगे सूद पर पाकिस्तान को कर्ज देकर उसे अपने जाल में फांस लिया है। हालत ये है कि वहां सड़क और पुल बनाने के लिए छोटी-मोटी मशीनरी से लेकर मजदूर तक चीन से आ रहे हैं। पाकिस्तानी व्यापारी जाहि-त्राहि कर रहे हैं। लाखों की तादाद में पाकिस्तान में आए चीनी नागरिक अब वहां का कानून तक नहीं मानते।

रही सही कसर भारत ने व्यापार में पाकिस्तान का एमएफएन दर्जा खत्म करके पूरी कर दी है। इस ईद पर पाकिस्तान में  रोजमर्रा की चीजों की कीमत आसमान छू गई थीं। भारत से वहां जाने वाली सब्जियों और अन्य  चीजों की कीमत कई गुणा बढ़ चुकी है।अमरीकी डॉलर की कीमत 150 पाकिस्तानी रूपये तक पंहुच चुकी है। एफ ए टी एफ उसे काली सूची में डालने को तैयार बैठा है। इतनी मुश्किल में पाकिस्तान कभी नहीं फंसा था। जिस देश के पास जरूरी वस्तुओं के आयात के लिए तक पैसे न हों वह मरता क्या न करता? मज़बूरी में उसे अपनी फौज के खर्चों में कटौती करनी पड़ी है।

#इमरानखान ने प्रधानमंत्री #मोदी की फिर से पत्र लिखा है कि दोनों देशों में बातचीत शुरू हो। पर भारत को अब इस झांसे में नहीं आना चाहिए। हमें अगले कुछ वर्षों में इस बात के पुख्ता और ठोस सबूत चाहिए कि पाकिस्तान जम्मू कश्मीर में गड़बड़ी नहीं करेगा। गोली के साथ बोली नहीं चल सकती। खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते। पाकिस्तान पर ये दवाब जारी रहना चाहिए। पाकिस्तान को साफ मालूम होना चाहिए कि फौज के खर्चों में कटौती नहीं बल्कि आतंकवाद के पूरे ताने-वाने को नष्ट करने के बाद ही भारत उससे बातचीत करेगा और संबंध बनांएगा।    
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