Tuesday, November 7, 2017

#नोटबंदी का एक साल : टैक्स चोरों के खिलाफ और सख्ती की ज़रुरत


गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों के कारण नोटबंदी पर एक बार फिर से राजनीतिक बहस शुरू हो गई है। 8 नवम्बर 2016  की शाम को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का टेलिविज़न पर लाइव आकर दिया गया वो बयान जिसमें उन्होंने 500 और 1000 रूपये बंद करने की अभूतपूर्व घोषणा की थी, आज भी रोंगटे खड़े कर देता है। ऐसा बड़ा कदम दुनियाभर में उससे पहले कभी नहीं लिया गया था इसलिए सारी दुनिया इसे सुनकर स्तब्ध रह गई थी।

यह एक ऐसा कदम था जिससे देश का हर एक नागरिक किसी न किसी तरह प्रभवित जरूरत हुआ था। आज भी जब इस विषय को आप शुरू करें तो तीखी बहस शुरू हो जाती है। ये बहस अक्सर दलगत आधार पर होती है या फिर व्यक्तिगत नफा-नुकसान के अनुसार लोग इसे अच्छा या बुरा बताते हैं। अर्थशास्त्री इसकी विवेचना अर्थशास्त्र के  मान्य सिद्धांतों या मानकों के अनुसार करते हैं। यह विश्लेषण एकांगी और अधूरा होता है क्योंकि जब दुनिया में ऐसा कदम पहले लिया ही नहीं गया तो उसके मानकों का कोई तयशुदा आधार कैसे हो सकता है? सबसे दिलचस्प विश्लेषण पूर्व प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह का है। यह पूरा राजनीतिक विश्लेषण हैं। उन्होंने इसे सबसे बड़ी लूट बताया है। कमाल की बात है न, जो प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए तमाम साफ़ घोटालों - कोयला, 2 जी , कॉमनवेल्थ आदि पर मौनी बाबा बने रहे वे गुजरात चुनावों के वक्त नोटबंदी को लूट बता रहें हैं? इसे राजनीतिक न कहा जाये तो क्या कहें?

यह भी याद रखना ज़रूरी है कि नोटबंदी महज एक आर्थिक कदम नहीं था। यह तो एक आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक व्यवहार और आदतों को बदलने के लिए लाया गया तकरीबन एक भूचाल था। इसलिए इसका आंकलन यदि इन मानकों पर किया जाए तो ज्यादा सही होगा। ये समाजशास्त्रियों के अध्ययन का विषय है कि क्या सचमुच बाजारों में होने वाले आपसी व्यवहार पर इसने कोई असर डाला कि नहीं डाला?  एक ही बात भरोसे के साथ कही जा सकती है कि नोटबंदी के बाद अब भारत में नोट संभाल कर तिजोरी में भरके रखने की आदत में जबरदस्त कमी आई है। लोग अब पहले की तरह बोरियों में भकर नोट नहीं रखते।

इसका अर्थ ये भी लगाया जा सकता है कि जो धन तिजोरी, बोरियों या घर की अलमारियों में बंद होकर अनुपयोगी हो जाता था वह आज हमारे बैंकिंग सिस्टम में आने लगा है, यानि इस एक कदम में बंद पड़े अनुपयोगी धन को उपयोगी बना दिया है। नोटबंदी के विरोधी कहते हैं कि नोटबंदी असफल हो गई क्योंकि बाजार में फैले तकरीबन सारे नोट लोगों ने जमा करा दिये। पर क्या सचमुच में इसे असफलता माना जाए?  दरअसल नोटबंदी से लम्बे समय के लिए अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ा ये तो कुछ समय बाद ही मालूम पड़ेगा। आज जो भी बात कही जा रही है उसे सही या ग़लत मानना एकदम सही नहीं होगा। 

परन्तु कुछ आंकड़े बताते हैं कि नोटबंदी कालेधन के खिलाफ असर दिखाने में कुछ हद तक कामयाब रही है। टैक्स देने वालों की संख्या में 100 फीसदी की वृद्धि और बाज़ार के चलन में मुद्रा में छोटे नोटों का प्रचलन बढ़ गया है। यह 2014 में सिर्फ 14 प्रतिशत था जो अब बढ़कर 28 प्रतिशत हो गया है। इसी तरह बाजार में उपलब्ध नकदी जो बढ़कर जीडीपी का 12.8 प्रतिशत हो गई थी अब थोड़ी संतुलित होकर 8 प्रतिशत हो गई है। इसी तरह डिजिटल लेने-देन में भी खासी बढ़ोत्तरी हुई है। ये सभी भविष्य के लिए शुभ संकेत हैं।

असली बात हैकि सरकार चाहे तो आज उन सभी लोगों के खिलाफ कार्रवाईकर सकती है जिन्होंने टैक्स चोरी करने, अकूत धन कमाया है। जिन भी लोगों ने नोटबंदी के बाद बैंकों में पैसा जमा कराया है उसका सारा हिसाब किताब सरकार के पास अब मौजूद है। नोटबंदी की तमाम असुविधाओं के बावजूद अगर कालाधन रखने वालों के खिलाफ सरकार सख्त कदम उठाए तो फिर इतना बड़ा भूचाल देश को नए निर्माण की तरफ ले जाने वाला कदम साबित होगा। ईमानदार टैक्स देने वाले मध्यम वर्ग और आम लोगों को इस बात की उम्मीद है कि सरकार बैंकों में कालाधन जमा करने वालों की पहचान करेगी ताकि देश भ्रष्टाचार  के कालेभूत से कुछ निजात पा सके। इससे मोटे पेट वालों की छाती तो जलेगी पर आम आदमी इसे हाथों-हाथ लेगा।

#Demonetisation #नोटबंदी #AntiBlackMoneyDay

उमेश उपाध्याय
-->
8 नवम्बर 2017