Wednesday, January 30, 2019

जार्ज फर्नाडीज: एक सच्चे भारतवादी



 सच्चे भारतवादी
 जार्ज फर्नाडीज को लोग समाजवादी, लोहियावादी, समतावादी आदि विशेषण देते  हैं। ये सभी उपमाएं उनके लिए सही हो सकती है। परंतु इन सबसे बढ़कर वे थे एक सच्चे भारतवादी थे । देश और उसके आमजन की चिन्ता उनके कतरे-कतरे में बसती थी। वे एक सच्चे भारतवादी और राष्ट्रवादी थे। उनके जैसे  नेता बिरले ही होते हैं। उनका जाना एक अपूरणीय क्षति है।

संघर्ष, जुझारूपन, निर्भीकता और क्या करना है इसकी स्पष्टता जार्ज साहब को अपने समय के अन्य नेताओं से अलग करते थे 1974 की रेल हड़ताल और या फिर आपातकाल के दौरान उनका संघर्ष दिखाते है कि जार्ज किस मिट्टी के बने थे। मेरे पिता रेलवे  में काम करते थे। मैंने स्वंय देखा है कि किस तरह से जार्ज रेल कर्मियों के हितों के लिए लड़े। इन्दिरा गांधी जैसी शक्तिशाली प्रधानमंत्री से सीधे टक्कर लेना किसी आम व्यक्ति के बस की बात नहीं थी।
जार्ज  में आम लोगों के लिए सिर्फ हमदर्दी अन्य नेताओं की तरह दिखावे के लिए नहीं थी। वे अन्दर तक उसे महसूस करते और जीते थे। इसीलिए जब वे देश के रक्षामंत्री बने तो स्वंय सियाचिन पंहुचकर उन्होंने देखा के किस कठिन परिस्थिति में वहां तैनात सैनिक भारत माँ की रक्षा कर रहे हैं।

वे कितने कार्यशील और प्रभावी मंत्री थे  वो एक उदाहरण से पता चल जाएगा। देश के रक्षामंत्री के तौर पर जार्ज को पता चला कि सियाचिन में  तैनात सैनिकों के लिए 'स्नोबाइक' आयात करने कि फाइल सालों से रक्षा मंत्रालय के बाबुओं ने दबा रखी हैं। जार्ज ने तुरंत उस फाइल को मंगवाकर उन सब बाबुओं को सियाचिन में कुछ दिन गुजारने का आदेश दिया। परिणाम हुआ कि कुछ समय के भीतर ही स्नोबाइक खरीद  लिए गए। आमलोगों की  परिस्थिति और उनके मनोभावों को वे समझते ही नहीं थे बल्कि उसे शिद्दत से महसूस करते थे। मुझे इसका व्यक्तिगत अनुभव भी हुआ।

1995-96 की बात है।  मैं एक टॉक शॉ ''सेन्ट्रल हॉल" प्रस्तुत करता था।  उसका एक शूट नोएडा के स्टूडियों में में तय था। जार्ज साहब भी उसमें आमंत्रित थे। किसी कारण से शूट अंतिम समय में रद्द हो गया। उन दिनों मोबाईल फोन नहीं होते थे। हुआ ये कि जार्ज को वह सुचना नहीं पहुंच पाई। वे अपनी सरकारी गाड़ी में नियत समय पर दिल्ली से नोएडा स्टूडिया पंहुच गए। अपने समय के व्यस्ततम  नेताओं में शरीक जार्जफर्नाडीज को अकेले स्टूडियो पंहुचे देख मैं पानी-पानी हो रहा था। सोच रहा था कि कैसे उन्हें समझााऊँ? क्या कहुँ? जार्ज ने मुझे परेशान देखा-प्रोड्यूसर से पूछा तो सारा माजरा समझ गए। कोई छुटभैया नेता एक ऐसी स्थिति कों कुछ ने कुछ तो सुना ही देता। जार्ज ने कुछ नहीं कहा, बस मेरे कंधे पर हाथ रखा और बोले ''अरे शूट नहीं हुआ तो क्या, चाय तो पिलाओंगे ना? वहीं मेकरूम में बैठकर उन्होंने चाय पी और मुझे सहज करने के लिए ये कह कर निकले ''अगली बार शूट पर मुझे ज़रूर बुलाना।
असाधारण व्यक्तित्व होते हुए भी ये साधारणता उन्हें अपने समय के नेताओं से एकदम अलग बनाती थी। टीवी में काम करने वाले पत्रकार जानते हैं कि एक बड़े नेता को शो में बुलाने के लिए कितनी चिरौरी करनी पड़ती है। पर जार्ज विलक्षण इंसान थे। सहज, सरल बालसुलभ और चपल स्वभाव। बहुत कम लोग जानते हैं कि देश का रक्षामंत्री बनने के बाद उन्होंने अपने कृष्ण मेनन स्थित आवास का मुख्य दरवाजा ही हटवा दिया था। ताकि उनसे आकर मिलने वालों को ही बाधा का सामना करना पड़े। जार्ज जैसे व्यक्तित्व यदाकदा ही जन्म लेते हैं।
भारत माता के इस अगर सपूत को विनम्र श्रद्धांजलि। 

Sunday, January 20, 2019

सीबीआई के बहाने छिछोरी राजनीति



कभी चुनाव आयोग,
कभी देश के मुख्य न्यायाधीश,
कभी सी.बी.आई.
कभी सी.वी.सी
और अब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस सीकरी।

देश में अब छिछोरी राजनीति की इन्तिहा हो गयी है। आलम ये है कि अब कई दल और नेता किसी सांवैधानिक संस्था पर कीचड़ उछालने और उनकी छीछालेदार करने में एक पल नहीं लगाते। ये असहिष्णुता, गैर लोकतांत्रिक आचरण, संस्थाओं की अवमानना और राजनैतिक असहनशीलता की पराकाष्ठा है।

याद कीजिए किस तरह से चुनाव हारने पर कई नेताओं ने #ईवीएम में हेराफेरी के आरोप लगाए थे? किस तरह उन्होंने चुनाव आयुक्तों पर छींटाकसी की थी? #चुनावआयोग जैसी संस्था की मंशा पर बेतरह उँगलियाँ उठाई गईं थीं। पर अब ये सब चुप हैं क्योंकि तीन राज्यों में उनकी अपनी जीत हो गयी है।

आप भूले नहीं होंगे कि इसी तरह देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा को निशाना बनाया गया था। उनके कई निर्णय जब मनमाफिक नहीं हुए थे उनके खिलाफ महाभियोग की याचिका तक डाल दी गयी थी। लेकिन यही . #उच्चतमन्यायालय उनके लिए उस समय अच्छा बन गया था जब उसने कर्नाटक में उनके पक्ष में फैसला सुनाया था।

अब फिर वही कहानी दोहराई जा रही है। #सीवीआई के डायरेक्टर को लेकर जस्टिस सीकरी ने एक खास रूख अपनाया। उन्होंने सीवीआई डायरेक्टर को बहाल करने के खिलाफ मत दिया तो किस तरह कई राजनीतिक दल, नेता, वुद्धजीवी और मीडिया का एक वर्ग तलवारें लेकर उनके पीछे पड़ गया है। किस भोंडे और शर्मनाक तरीके से  उनके आचरण, उनकी निष्पक्षता और उनकी न्यायिक क्षमता को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है?

यानि जो भी संस्था या सांवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति आपके अनुसार चले वह सबसे अच्छा और जो आपके मुताबिक न चले उसपर बेतुके सवाल उठा दिए जांए। आपके मुफीद न चलने वाला हर अधिकारी गड़बड़ हो जाता है। समझ में नहीं आता कि यह कैसी परम्परा को जन्म दिया जा रहा है? इससे किसका भला होगा? सोशल मीडिया  वाली जूतम पजार को मुख्य धारा के विमर्श का आधार बनाने की यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है।

ऐसा करने वालों को समझना चाहिए कि राजनीति एक हद तक ही सही होती है। कुछ परम्पराओं, संस्थाओं, सांवैधानिक पदों की गरिमा को कायम रखना सभी दलों, मीडिया और वुद्धजीवियों की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र इन्ही संस्थाओं की ताकत और मजबूती से चलता और कायम रहता है। इन पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। उन्हें रोज़  बहस में बस पॉइंट बनाने के लिए इस्तेमाल करने से मीडिया को टीआरपी मिल सकती है। कुछ स्वनामधन्य लिक्खाड़ पत्रकारों की सुपारी पत्रकारिता का भी इससे तात्कालिक भला हो सकता है। पर भारत की सामूहिक चेतना इसे नापसंद करती है यह समझने के लिए किसी आइंस्टीन की ज़रुरत नहीं। आम भारतीय इन्हें राजनीति के दलदल में घसीटना अच्छा नहीं समझता।

कई बार छोटे दल और क्षेत्रिय नेता ऐसी बात करते हैं तो देश का जनमानस उसे रोक देता हैं। परंतु अफसोस कि अब देश की सबसे पुरानी पार्टी और उसके शीर्ष नेता लगातार ऐसे बयान दे रहे हैं, जिन्हें सुन और पढ़कर सोशल मीडिया के ट्रोल भी अपना सर शर्म से झुका लेंगे। कांग्रेस, जो कि देश में सबसे ज्यादा सत्ता में रही है, उससे ये अपेक्षा नहीं है। इसे उसकी असहिष्णुता और सामन्तवादी मानसिकता नहीं माना जाए तो और क्या कहा जाए ?

राजनीतिक दलों का सत्ता में आना जाना लगा रहता है। यही तो लोकतंत्र का मज़ा है। जज, सांवैधानिक अधिकारी और संस्थाएं  कभी किसी के पक्ष में और कभी किसी के पक्ष में निर्णय देंगे। उनके फैसलों पर कभी आपको जायज़ आपत्ति भी हो सकती है। परन्तु अपनी आपत्ति दर्ज़ कराने का भी एक सभ्य तरीका होता है। फैसला आने के एकदम बाद ही निर्णय करने वालों की विश्वसनीयता और उनके व्यावसायिक चरित्र पर संदेह और शक करना सिर्फ छिछोरी राजनीति है। ज़िम्मेदार नेताओं और देश की चिंता करने वालों को  इससे बचना चाहिए नहीं तो यह सबके लिए विनाशकारी होगा।

#NarendraModi #RahulGandhi #CBI #SpremeCourtofIndia #SC #AICC #BJP 
उमेश उपाध्याय

Saturday, January 5, 2019

मोदी की राजनीतिक रणभेरी




नये साल के पहले ही दिन एक इन्टरव्यू के साथ #प्रधानमंत्रीमोदी ने आम चुनावों के लिए खुली लड़ाई का एलान कर दिया है। अपने इस लम्बे इंटरव्यू में मोदी ने सिलसिलेवार ढ़ंग से उन सब मुद्दों को गिनाया जिन्हें लेकर वे चुनावी दंगल में उतरेंगे। नए साल में एक तरह से मोदी ने चुनावों का एजेंडा तय कर दिया है और अब वे मानो विरोधियों को चुनौती दे रहे हैं कि वे सबसे दो-दो हाथ करने को तैयार हैं।

इस इन्टरव्यू की टाईमिंग को समझना जरूरी है। ये इंटरव्यू उन्होंने उस समय दिया जब कांग्रेस पार्टी तीन राज्यों में सरकार बनाने के बाद आत्मविश्वास से भरपूर है। महागठबंधन के लिए कांग्रेस की कवायद जारी है और उसे लगता है कि वह मोदी को चुनौती दे सकती है। गठबंधन से पहले बात कांग्रेस के आत्मविश्वास की। 

पंजाब को अगर छोड़ दिया जाय तो पिछले चार साल में कांग्रेस ने एक भी राज्य जीता नहीं है। महाराष्ट्र, असम, केरल, जम्मू कश्मीर, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड आदि राज्य एक के बाद उसके हाथ से निकलते गए हैं। तीन राज्यों में भी सिर्फ छत्तीसगढ़ में उसकी जीत को निर्णायक कहा जा सकता है। म.प्र. में मुकाबला बराबरी पर छूटा जबकि राजस्थान में भी कांग्रेस की जीत कोई बड़ी जीत नहीं थी। बड़े राज्यों में कुल दो राज्य यानि पंजाब और छत्तीसगढ़ ऐसे है जहां कांग्रेस अपने बलबूते पर सरकार बना पाई है। इसलिए कांग्रेस के आत्मविश्वास में राजनीतिक हवा ज्यादा है जमीनी सच्चाई बहुत कम। 

यह भी ध्यान रखने की बात है कि इन राज्यों में मुकाबला मुख्यमंत्री बनाम कांग्रेस था। जब चुनाव लोकसभा के लिए होगा तो मैदान में #नरेंद्रमोदी का नाम होगा जिसके सामने होंगे #राहुलगांधी। दोनों की जमीनी पकड़, लोकप्रियता, वाकपटुता, कार्यशैली, अनुभव, अबतक के कामकाज और उपलब्धियों की तुलना करेंगे तो आपको जमीन आसमान का अंतर नजर आयेगा। गुजरात के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी का कामकाज जनता के सामने है जबकि लम्बे समय से सांसद रहने के वाबजूद राहुल गांधी अबतक ''अभी सीख ही रहे हैं '' की श्रेणी में ही आते हैं।  

कांग्रेस के रणनीतिकार इसे बख़ूबी जानते हैं इसलिए मोदी के इंटरव्यू के बाद कांग्रेस ने प्रधानमंत्री की कार्यशैली और व्यवहार को निशाना बनाया न कि उनके कामकाज को। कांग्रेस प्रवक्ता ने तंज करते हुए कहा कि मोदी ''मैं '' की राजनीति करते हैं जबकि कांग्रेस ''हम'' की राजनीति करती है। वैसे उन्होंने ये नहीं बताया कि उनके इस ''हममें 'गांधी परिवारके बाहर का भी कोई नेता शामिल है या नहीं
यूँ प्रधानमंत्री मोदी ने अपने इंटरव्यू में इस मुद्दे को उठाया था। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि जिस परिवार के लोग कैबिनेट के फैसले के फरमान को प्रेस कान्फ्रेंस में फाड़कर फेक देते हैं उन्हें उदारता, अंहकारहीनता और संस्थाओं की गरिमा की बात नहीं करनी चाहिए। उनका इशारा राहुल गांधी द्वारा यूपीए सरकार के एक फैसले को पत्रकारों के सामने फाड़कर फेंकने और रद्द करने की ओर था। 

#कांग्रेस अपने आप से मोदी का सामना नहीं कर सकती इसलिए अब वह किसी भी शर्त पर उन दलों से हाथ मिला रही है जो शुरू से उसके विरोधी रहे हैं। #मोदी ने #महागठबंधन का भी एक चतुर राजनीतिक जवाब दिया। उन्होंने कहा के अगला चुनाव महागठबंधन और जनता के बीच होगा। उसमें उन्होंने तेलंगाना में कांग्रेस और चन्द्रबाबू नायडू की टीडीपी के महागठजोड़ का उदाहरण भी दिया। पांच राज्यों के चुनावों के दौरान तेलंगाना में कांग्रेस ने चिर प्रतिद्वंदी चन्द्रबाबू नायडू से हाथ मिलाया था। परंतु टीआरएस नेता चन्द्रशेखर राव  की लोकप्रियता के हाथों ये गठजोड़ चारों खाने चित हो गया। मोदी ने इस उदाहरण के जरिये ये बताने की कोशिश की कि जनता उनके साथ है इसलिए इतने दलों के साथ आने से उन्हें कोई खास फर्क नहीं पडऩे वाला। 

कुछ हद तक ये बात सही भी है। सिर्फ चुनावों से पहले सत्ता हासिल करने के लिए किए जाने वाले अवसरवादी गठजोड़ों को जनता अकसर नकार देती है। उत्तर प्रदेश के पिछले चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी साथ लड़े थे। अगले लोकसभा चुनावों में बस उत्तर प्रदेश में #बीएसपी और #एसपी का गठबंधन ही बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल ला सकता है। बाकी गठजोड़ तो महज अवसरवादी राजनीतिक संबंध ही माने जा सकते हैं। 

कुल मिलाकर मोदी ने उन सब मुद्दों को गिना दिया जिन्हें लेकर वे चुनाव में उतरेंगे। देखा जाए तो #मोदी के खिलाफ कोई ठोस मुद्दा है भी नहीं। कांग्रेस ने #राफेल सौदे को उछाला जरूर है परंतु उसपर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उस मुद्दे की भी हवा निकल गई हैं। यो भी मोदी की विश्वस्नीयता और ईमानदारी आम जनता के बीच चर्चा का विषय नहीं है। वह संदेह से परे हैं। कुल मिलाकर उसके बाद उनकी कार्यशैली और नीतियों का सवाल रह जाता है। उनकी नीतियों पर भी कई चुनावों में जनता मुहर लगा चुकी है। रही बात कार्यशैली की तो क्या यह जनता के बीच विमर्श और असंतोष का बड़ा कारण हो सकती है, इसमें ख़ासा संदेह है। 

जो भी हो मोदी ने अपना ऐंजेडा घोषित करके #चुनाव की रणभेरी बजा दी है। विरोधी अब उन्ही की पिच पर खेलने को मजबूर होंगे। अब से मई 2019 तक के पांच महीने खासे दिलचस्प होनेवाले हैं। बस अपनी साँसें थामे रखिए  और तमाशा देखिये।