Tuesday, July 26, 2022

महज राजनीतिक संकेतवाद नहीं है द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति होना

राजनीति और समाज जीवन में संकेतों की अपनी जगह होती है। बड़े लक्ष्य के लिए यदि संकेत के तौर पर किसी को कोई पद दिया जाये तो इसमें कोई बुराई भी नहीं हैं। पंजाब में आतंकवाद की पृष्ठभूमि में जब ज्ञानी जैलसिंह 1982 में देश के सातवें #राष्ट्रपति बने थे तो यह भी राजनीतिक संकेत ही था। उस समय ज्ञानी जी सर्वानुमति से राष्ट्रपति चुने गए थे। तब का विपक्ष इंदिरा जी का धुर विरोधी था। पक्ष और विपक्ष एक दूसरे को फूटी आँखों नहीं सुहाते थे लेकिन आज के विपक्ष की तरह एक 'छद्म वैचारिक संघर्ष' के नाम पर ज्ञानी जी के नाम का विरोध  तब के विपक्ष ने नहीं किया था। 


अच्छा होता कि वनवासी समाज की पहली बेटी जब देश के प्रथम नागरिक के तौर पर देश के सर्वोच्च पद पर बैठी तो ये बिना चुनाव के होता। पर संभवतः विपक्ष के नेताओं का व्यर्थ का अहंकार और हर कीमत पर मोदी के विरोध ने उनकी आँखों पर एक पट्टी बांध दी है। अन्यथा वे एक बनावटी वैचारिक संघर्ष के तर्क के आधार पर यशवंत सिन्हा को इस चुनाव में खड़ा नहीं करते। 


श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के चुनाव को लेकिन सिर्फ एक राजनीतिक संकेतवाद मानना उन भागीरथ प्रयासों की अनदेखी करना होगा जो पिछले कई दशकों से देश के अनुसूचित जनजातीय इलाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषंगी संगठन चला रहे हैं। ये देखना हो तो वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा सुदूर क्षेत्रों में बालकों और बालिकाओं के लिए चलाये जा रहे सैंकड़ों छात्रावासों में से किसी में जाइये। नहीं तो किसी एकल विद्यालय में हो होकर आइये। मैं स्वयं मणिपुर में वनवासी कल्याण आश्रम के एक हॉस्टल में कुछ दिन सपरिवार रहा। भाषा की दिक्कत होने के बावजूद उन बच्चियों के साथ मेरी बेटी दीक्षा और पत्नी सीमा का अपनेपन का एक सहज और निर्मल नाता जुड़ गया। कुछ साल बाद उनमें से भी कोई बच्ची किसी जिम्मेदारी को संभालेगी तो वह राजनीतिक संकेत मात्र नहीं होगा।  


इस परिवर्तन को एक तरह अपनों का लम्बे समय बाद मिलना या सम्मिलन कहा जा सकता है। हम ही अपने वनवासी भाई बहनों से अलग हो गए थे अथवा हमें दूर कर दिया गया था। परिवर्तन की एक व्यापक लेकिन निश्चित लहर ऊपर के अराजनीतिक उद्वेलन के बरक्स समाज रुपी नदी के गंभीर आँचल में बह रही है। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जमीनी स्तर पर चल रही इस व्यापक क्रांति की प्रतीक हैं। वे भारत की उस लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से निकली हैं जिसकी जड़ें देश की सांस्कृतिक विरासत में हैं। दिखने में विविध होते हुए भी यह धारा एकात्म ही है। एक अध्यापिका से पार्षद, उड़ीसा में मंत्री, झारखण्ड में राज्यपाल और अब देश की राष्ट्रपति - परत दर परत और कदम दर कदम उन्होंने एक लम्बी और संघर्षपूर्ण यात्रा तय की है। जो पद और सम्मान उन्हें मिला है वे उसकी बराबरी की हकदार हैं। 


देश का वनवासी समाज इस देश के बृहत् समाज का ही अभिन्न अंग है। वह भी देश की शताब्दियों से चली आ रही विरासत की अविरल धारा का उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जितना कि मुंबई अथवा दिल्ली जैसे बड़े और आधुनिक शहरों में रहने वाला कोई नागरिक। यह सोच आदिवासी नाम देकर समाज के किसी हिस्से को पिछड़ा अथवा असंस्कृत नहीं घोषित करती। उन्हें कथित मुख्यधारा में जोड़ने के नाम पर उन्हें अपनी जड़ों से अलग करने का गोरखधंधा नहीं करती। इस सोच के अनुसार भारतीय समाज का एक हिस्सा वनों में रहता रहा है और एक हिस्सा शहरों और गांवों में। लेकिन समाज मूल रूप से एक ही है। 


अंग्रेज़ों के आने के बाद इन वनवासियों को असंस्कृत घोषित कर उनका धर्म और रहन सहन बदलने का सुनियोजित षड्यंत्र किया गया जो आज भी बदस्तूर जारी है। उनको भारत और अन्य भारतीयों से अलग दिखाने के लिए कभी उन्हें मूल निवासी और कभी आदिवासी कहा गया। इसी आधार पर बड़े पैमाने पर उनका धर्म परिवर्तन किया गया। 


सैमुअल पी हंटिंगटन 'सभ्यताओं के संघर्ष' नाम की अपनी पुस्तक मे पिछड़े समाजों को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ऐसा समाज वो है - 1) जो पढ़ा लिखा नहीं है, 2) जिसका शहरीकरण नहीं हुआ है और जो,  3) एक जगह पर स्थापित नहीं है। ऐसा हर समाज इस पाश्चात्य अवधारणा के अनुसार 'आदिम' और 'असभ्य' है। इस आदिम और असभ्य समाज को सभ्यता सिखाने के नाम पर उसका नरसंहार, उत्पीड़न और मतांतरण बड़े पैमाने पर दुनिया में किया गया। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे कई देशों में तो लाखों 'इंडियन' और वहाँ रहने वाले 'एबोरीजन्स, यानि मूलवासियों  को मार ही डाला गया। वनवासियों को इस निगाह से देखने का ये नजरिया पाश्चात्य दर्शन की देन है। हैरत की बात है कि इस तरह की सोच रखने वाले आज हमें मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रताओं पर भाषण देते हैं। अफ़सोस, अपने ही देश के बुद्धिजीवी वर्ग का एक हिस्सा ऐसे लोगों की  इन भेदभावपूर्ण और सिरे से नस्लगत बातों पर तालियाँ पीटता है। 


भारत की सोच यह नहीं है। पौराणिक काल से लेकर गांधीजी तक और गुरु गोलवलकर से लेकर प्रधानमंत्री मोदी तक वनवासी समाज को अपना ही अभिन्न हिस्सा मानते हैं।  रहने का स्थान जंगल में होने के कारण कोई भिन्न कैसे हो सकता है? कहने का ये अर्थ कदापि नहीं कि वनवासी समाज की अनदेखी नहीं हुई। इस समाज के साथ कतिपय कारणों से भेदभाव हुआ। ये सही है कि दूरस्थ इलाकों में रहने के काऱण समाज का ये हिस्सा आज की शिक्षा और अन्य विकासमूलक गतिविधियों में पिछड़ गया। इसके लिए संविधान में अनुसूचित जनजातियों के लिए अलग प्रावधान किये गए। जो बिलकुल उचित ही हैं। 


ये देखते हुए राष्ट्रपति मुर्मू का पहला भाषण बहुत ही प्रेरणादायक और उत्साहित करने वाला था। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायकों के साथ रानी चेन्नमा और रानी गाइडिल्यू तथा संथाल, भील और कोल क्रांति को भी स्मरण किया। वे लगातार राष्ट्रपति पद के दायित्व बोध की बात करतीं रहीं। वे संयम, शालीनता, स्वाभिमान और स्वचेष्टा से परिपूर्ण रहीं। लगातार उन्होंने भारत की अविछिन्न लोकतान्त्रिक परम्परा और अविरल बहती सांस्कृतिक धारा का उल्लेख अपने भाषण में किया। उन्हें देखकर लगा कि वे राष्ट्रपति भवन का मान और मर्यादा दोनों ही बढ़ायेंगी। 


उनके राष्ट्रपति बनने पर समूचे भारत को बधाई!

पुरातन काल से अविछिन्न उसकी लोकतान्त्रिक विरासत को बधाई। 

उसके जनजातीय समाज को बधाई। 

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी भारत की प्राचीनतम समय से चली आ रही अविरल सांस्कृतिक धारा की प्रतीक हैं। 

हम सबको बधाई क्योंकि हम भी उसी महान विरासत की एक कड़ी हैं।


Sunday, July 24, 2022

200 करोड़ टीकों के मायने


#200 करोड़ टीकों के मायने 
बचपन में पिताजी की कही एक बात आज याद आयी। उन्होंने कहा था कि आवश्यक बातों के फेर में अक्सर हम महत्वपूर्ण बातें भूल जाते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि हम बार बार ये याद करते रहें कि हमारे लिए महत्वपूर्ण क्या है। इसी बात को यदि ख़बरों के सन्दर्भ में देखा जाए तो हमारे आसपास जो तुरंत की घटनाएं हो रहीं होती हैं वे हमें इतनी घेर लेतीं हैं कि हम उन समाचारों की अनदेखी कर देते हैं जो हमारे लिए उनसे कहीं अधिक महत्व की होतीं हैं। 

इन दिनों ख़बरों की सुर्ख़ियों में राष्ट्रपति/उपराष्ट्रपति के चुनाव, महाराष्ट्र का घटनाक्रम, मानसून की बारिश, देश के कई राज्यों में बाढ़, संसद का मानसून सत्र तथा रूस-उक्रेन युद्ध आदि प्रमुखता से छाए हुए हैं। इस बीच ये खबर कहीं दब कर रह गई कि देश ने 17 जुलाई को 200 करोड़ कोरोना टीके लगाने का आंकड़ा छू लिया। शायद सबने इसे ये कहकर सामान्य सी घटना मान लिया कि 'ये तो होना ही था।' देश की इस बड़ी उपलब्धि की चर्चा महत्वपूर्ण होने के साथ साथ आवश्यक भी है। 

याद कीजिये कोरोना की पहली और दूसरी लहर को। जब लाखों लोग खौफजदा होकर पैदल अपने गावों के लिए निकल पड़े थे। जब अस्पताल में बिस्तर कम पड़ गए थे। बिस्तर मिल गया तो लोग ऑक्सीजन की जद्दोजहद से जूझ रहे थे। देश का कोई ही परिवार शायद ऐसा होगा जिस पर किसी न किसी तरह कोरोना की महामारी का असर न पड़ा हो। असलियत तो ये है कि उन दिनों जब किसी के भी फोन की घंटी बजती थी तो बस मन अनिष्ट की आशंका से भर जाता था। ये कोई दूर की बात नहीं बस 18 से 20 महीनों के भीतर ही हम सबके साथ गुजरा है। 

मौजूदा ख़बरों के शोर में यदि ये सब आप भूल गए हैं तो कुछ तथ्यों पर गौर करने की ज़रुरत है। कोरोना की महामारी अभी गयी नहीं हैं।  पिछले एक हफ्ते में दुनिया भर में कोरोना के 64 लाख से ज़्यादा नए मामले दर्ज हुए है।  फ़्रांस में 9 लाख 14 हज़ार,  अमेरिका में 8 लाख 17 हजार, जर्मनी में 6 लाख 30 हजार, इटली में 6 लाख 71 हजार, जापान में 2 लाख 69 हजार और ऑस्ट्रलिया में 2 लाख 63 हजार से ज्यादा नए मरीज एक हफ्ते में निकले हैं। भारत में इनके मुकाबले हफ्ते भर में कोई 1 लाख 20 हजार मामले ही आये। ये सभी देश भारत से कहीं अधिक विकसित हैं और इनकी जनसँख्या तो अपने देश से बहुत ही कम है।  

उधर चीन में पिछले दो महीने से अधिक समय से कोरोना को लेकर त्राहि त्राहि मची हुई है। शंघाई और बीजिंग जैसे शहरों को बार बार बंद करना पड़ा है। दुखी लोग कई बार सड़कों पर भी निकले हैं। चीन से सही खबरें और आंकड़े आना तो असम्भव ही है। लेकिन कुल मिलाकर कहा जा सकता है वहां से जो भी छन छन कर खबरें मिल रहीं हैं उनके अनुसार 'ज़ीरो कोविड' की नीति पर चलने वाला चीन कोरोना के नियंत्रण में बुरी तरह असफल रहा है। वहां लोगों की स्थिति ठीक नहीं हैं। 

एक और आँकड़ा देश की कोरोना के खिलाफ अभूतपूर्व लड़ाई को और अच्छी तरह रेखांकित करता हैं। कोरोना से हुई मौतों की दर भारत में दुनिया के औसत से कोई एक तिहाई के आसपास ही है। विश्व में प्रति 10 लाख जनसँख्या पर 819 लोगों ने कोरोना से जान गवाई है। भारत में प्रति दस लाख पर ये संख्या 373 है। अगर अन्य देशों को देखा जाये तो फ़्रांस में 10 लाख लोगों पर 2296, जर्मनी में 1690, ब्रिटेन में 2646, रूस में 2615, इटली में 2819 और स्पेन में 2373 लोगों की मौत कोरोना से हुई है। ये सब अमीर देश हैं और इनकी स्वास्थ्य व्यवस्था हमेशा अच्छी बताई जाती रही है। 

और तो और जैसे देश में भी कोरोना से मरने वालों की कुल संख्या अमेरिका में 10 लाख 48 हजार से ज्यादा रही है। अमेरिका की जनसँख्या 33 करोड़ के आसपास है। इसके बनिस्बत भारत में 140 करोड़ की जनसँख्या पर कोरोना से हुई मौतों की संख्या अब तक 5 लाख 25 हजार दर्ज की गई है। यों तो एक भी मौत दुखद है परन्तु आप अगर तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो कोरोना से संघर्ष में हम लोगों ने दुनिया के मुकाबले कहीं बेहतर काम किया है। 

200 करोड़ टीके लगने का आँकड़ा अभी भी जारी कोरोना के साथ लड़ाई में मील का एक बड़ा पत्थर है। इसके लिए हम सबको अपनी पीठ थपथपाने की ज़रुरत है। देश के वैज्ञानिक, टीका विकसित करने और बनाने वाली प्राइवेट कम्पनियाँ, डॉकटर, अन्य चिकित्साकर्मी, आरोग्य सेतु/अन्य ऐप बनाने और चलाने वाले आई टी कर्मी, राज्यों और केंद्र सरकार इसके लिए बधाई की पात्र है। बधाई का पात्र है नरेंद्र मोदी की अगुआई में देश का नेतृत्व जिसने तमाम विवादों और आशंकाओं के बीच अपने निश्चय को डिगने नहीं दिया।  

कुल मिलाकर ये सफलता है भारत के सजग समाज की, जिसने बिना हिचक दिखाए 18 महीने के भीतर इतनी तत्परता से कोरोना के देशनिर्मित टीके लगवाए। जिन पढ़े लिखे और अमीर देशों का उल्लेख हमने ऊपर किया है उनमें से कई अभी तक 'वैक्सीन हैजिटेन्सी' यानि टीका लगवाने में संकोच की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। और कुल मिलाकर कर इसका खामियाजा भी भुगत रहे है। 

शाबाश भारत !