Monday, July 27, 2015

ऋषि कलाम को नमन ! #KalamSir

डा. कलाम - ज्यों की त्यों धर दीनी रे चदरिया.......

दुनिया से जाते समय कुछ लोग सिर्फ भाव छोड़कर जाते हैं, कुछ लोग सिर्फ सिर्फ शब्द छोड़कर जाते हैं और कुछ सिर्फ कर्म छोड़कर. डा अबुल पाकिर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम जो कि उनका पूरा नाम है - भाव , शब्द और कर्म तीनों ही छोड़कर गए. शब्द-भाव-कर्म तीनों में से अगर एक भी उच्च श्रेणी का हो तो दुनिया उसे महानता का दर्ज़ा देती है. डा. कलाम के व्यक्तित्व में इन सब का ही अद्भुत तालमेल था. इस नाते वे महानता की उच्च श्रेणी को भी पार कर चुके थे.

मैं उनको नज़दीकी से जानने का दावा तो नहीं कर सकता परन्तु मुझे उनसे दो बार व्यक्तिगत रूप से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. दोनों ही बार उन्होंने अपनी सादगी, लगन और गहनता की एक अमिट छाप मन पर छोड़ दी. पहली बार मैं उनसे 2003 में मिला था. मेरे साथ एम्स के पूर्व डाइरेक्टर डॉ पी के दवे और मेरे मित्र राजेश भी थे. हम उन्हें एक अस्पताल के उद्घाटन के लिए आमंत्रित करने गए थे. कोई 15 मिनट का समय राष्ट्रपति सचिवालय ने हमें दिया था. मैं उस समय आश्चर्यचकित हो गया था जब मिलते ही उन्होंने हमारे भेजे गए आमंत्रण की कई बातों का ज़िक्र किया. वे अपना होमवर्क करके बैठे थे. पूरे पंद्रह मिनट उन्होंने तल्लीनता के साथ सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे विषय पर बात की. हमारे प्रोजेक्ट के लिए बारीक सुझाव दिए. हम पूरी संतुष्टि का भाव लेकर लौटे. दूसरी बार उनसे मिलना कोई तीन साल पहले उनके आवास पर हुआ. और फिर वही शालीनता और सादगी. मुझे याद है कि वे स्वयं पोर्टिको तक छोड़ने आये थे.

ऐसे कई लोग आपको मिलेंगे जिनके जीवन पर डा कलाम ने एक छोटी सी ही भेंट में गहरी छाप छोड़ी है. मगर देश की मानसिकता में कलाम साहब ने जो परिवर्तन किया उसकी तुलना किसी से नहीं हो सकती. भारत आजादी के बाद से ही अपने को एक विकासशील देश कहने में गौरव पाता था. कलाम साहब को ये मंज़ूर नहीं था क्योंकि वे मानते थे कि विकासशील होने में पिछड़ेपन का भाव है. देश के सुदूर कोने रामेश्वरम् में जन्मे कलाम साहब  राष्ट्रपति बनते ही वे पूरी लगन से इस देश को एक ध्येय देने में लग गए. वो था 2020 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का सपना देना. सिर्फ विचार देकर वे रुके नहीं. उन्होंने इसे देश के मानस में स्थापित करने का लक्ष्य रखा और इसके लिए उन्होंने देश के बच्चों को चुना. राष्ट्रपति भवन में स्कूलों से आये आमंत्रण के बारे में खास हिदायत थी. देश के कोने कोने में स्कूली बच्चों से मिलकर उन्होंने अपने इस विचार को अगली पीढ़ी के मन में स्थापित किया. उनके इस विलक्षण योगदान के लिए ये देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा.

वे बहुत कुछ थे – वैज्ञानिक, लेखक, उच्च कोटि के शिक्षक, चिन्तक आदि आदि. परन्तु सबसे बढ़कर थे वे एक कर्मयोगी. और वे दुनिया से गए भी तो कैसे! काम करते हुए. धन्य हैं, ऐसा जीना और ऐसा मरना कितनों को नसीब होता है?  कलाम साहब मनसा – वाचा – कर्मणा ऋषि थे. हर चीज़ में समन्वय बिठाने वाले. चाहे वह फिर गीता और कुरान हो या फिर वेधशाला और वीणा के सुर. वे हमेशा देश और समाज को कुछ देने वाले रहे , लेने वाले नहीं बने.

संभवतः संत कबीर ने उनके लिए ही लिखा था - “ज्यों की त्यों धर दीनी रे चदरिया”.

ऋषि कलाम को नमन !

उमेश उपाध्याय
28 जुलाई 2015





याकूब मेमन की फांसी के बहाने... #YakubHanging

याकूब मेमन की फांसी रुकवाने के लिए देश की कई संस्थाएं और लोग लगे हुए हैं। एक्टर सलमान खान के इस विवाद में कूदने के बाद ये मामला और भी पेचीदा हो गया है। फांसी एक ऐसा दंड है जिसे दिए जाने के बाद और कोई गुंजाइश बचती ही नहीं है इसलिए देश की स्थापित न्यायिक प्रक्रिया के तहत जो भी प्रावधान हैं उनके अन्दर याकूब को बचाने की कोशिश लाजिमी ही है इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
याकूब की फांसी को लेकर बहस कई स्तर पर चल रही है। एक तरफ उसका परिवार है जो इस बहस के मानवीय पक्ष को रेखांकित करता है मगर परिवार तो उन लोगों के भी थे जिनकी मौत मुंबई बम धमाकों में हुई थी। उस मानवीय पक्ष का क्या? एक और पक्ष फांसी की सज़ा के विरोधियों का है जो कहते हैं कि हमें जान लेने का हक नहीं क्योंकि हम जान दे नहीं सकते। फांसी की सज़ा हो या नहीं इसके पक्ष और विपक्ष में कई तर्क हैं। ये एक बड़ी बहस है को दुनिया के कई मुल्कों में चल रही है। मगर सच तो ये है कि आज के दिन फांसी का प्रावधान देश के क़ानून का हिस्सा है जिसके तहत याकूब को फांसी दी गई।
एक तर्क ये दिया जा रहा है कि जब याकूब के भाई टाइगर और उनके रहनुमा दाऊद इब्राहिम को पकड़ा तक नहीं जा सका है तो सिर्फ याकूब को ही फांसी क्यों? एक्टर सलमान खान ने अपनी ट्वीट (जिसे बाद में उन्होंने वापस ले लिया) में यही बात कही है। लेकिन सोचने की बात है कि क्या टाइगर और दाउद के दोषी होने से याकूब निर्दोष साबित हो जाता है? क्या कोई कह सकता है कि याकूब मेमन मुंबई बम धमाकों में शामिल नहीं था? उसे मालूम था कि वो क्या कर रहा है और उसका क्या नतीज़ा होगा। उसे फांसी एक बहुत लम्बी न्यायिक प्रक्रिया के बाद सुनाई गई है जहां हर बार उसे अपनी बात कहने और निर्दोष साबित करने का मौका मिला है। बल्कि उल्टे लोगों की शिकायत तो ये है कि इतने संगीन जुर्म का फैसला आने में इतना वक़्त लगना देश के लिए ठीक नहीं है? इससे अपराधियों के हौंसले बुलंद होते हैं और इसी कारण भारत को एक ‘सॉफ्ट स्टेट’ माना जाता है।
देश की कई प्रसिद्ध हस्तियों ने भी राष्ट्रपति को ख़त लिखकर याकूब के लिए नरमी बरतने की प्रार्थना की है। इन लोगों का तर्क है कि याकूब की मानसिक हालत ठीक नहीं है इसलिए उसे सूली पर चढ़ाना ठीक नहीं होगा। साथ ही ये भी कहा जा रहा है कि याकूब ने आत्म समर्पण किया इसलिए भी उसे फांसी देना ठीक नहीं होगा। वैसे अदालतें इस बात पर गौर कर चुकी होंगी और इस नई अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट फैसला लेगा इसलिए इसपर अभी कोई राय देना ठीक नहीं होगा।
जैसा हमने कहा, याकूब और उसके परिवार को पूरा हक है कि वे उसे फांसी से बचाने की कोशिश करें। देश का संविधान और न्याय व्यवस्था उन्हें इसकी इजाज़त देती है। मगर याकूब को बचाने के नाम पर एक खतरनाक तर्क दिया जा रहा है वो ये कि याकूब को फांसी की सज़ा इसलिए सुनाई गई क्योंकि वो एक ख़ास मज़हब से ताल्लुक रखता है। आमतौर पर विवाद भरे बयान देने वाले आज़म खान और अब खुद को मुसलमानों का एकमात्र नेता साबित करने पर तुले ओवैसी ही ये तर्क देते तो समझा जा सकता था। मगर समाज को रास्ता दिखाने वाले बुद्धिजीवी जब ऐसी बात करें, तो बड़ी चिन्ता की बात है। यह तर्क खतरनाक ही नहीं अनुचित भी है। एक तरफ आप कहें कि देश की न्यायप्रक्रिया में आपको पूरी आस्था है और दूसरी तरफ याकूब की फांसी को मज़हबी और सांप्रदायिक आधार पर तोलें तो इसे क्या कहा जाए? यह तो सुविधाजनित अवसरवादिता हुई ना! हो सकता है कि आपकी जायज़ हमदर्दी याकूब और उसके परिवार के साथ हो, मगर इसके लिए इस तर्क का सहारा कितना उचित है? सोचिये इसके ज़रिये आप पूरे समाज को क्या बड़ा संदेश दे रहे हैं?
इसी कड़ी में ये भी कहा जा रहा है कि 1993 के मुंबई बम धमाकों की पृष्ठभूमि को भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। क्योंकि ये विस्फोट अयोध्या में बाबरी ढांचा गिराए जाने के बाद हुए थे। इस बात की गहराई में जाने की ज़रुरत है। क्या ऐसा कहकर आप दुनिया में शहरी आतंकवाद की इस बर्बर और संभवतः पहली घटना को सही ठहराना चाहते हैं? एक तरफ आप कहें कि आतंकवाद का कोई धर्म या रंग नहीं होता और दूसरी तरफ आप सांप्रदायिक चश्मे से मज़हबी तराजू पर आतंकी घटनाओं को तोलें तो इसे क्या कहा जाए?
क्या किसी भी आधार पर मुंबई बम धमाकों को सही ठहराया जा सकता है? और फिर क्रिया-प्रतिक्रिया के इस सिद्धांत को आप कहां-कहां पर लागू करेंगे? इसका तो फिर कोई अंत ही नहीं होगा। फिर तो देश का हर दंगा, हर आतंकी और आपराधिक गतिविधि इस आधार पर सही बताई जा सकती है। ये तो स्पष्ट है कि याकूब मेमन की फांसी के बहाने कुछ नेता ज़रूर अपनी रोटियां सेकेंगे और वोट की राजनीति के फेर में नफरत की फसल बोने की कोशिश करेंगे। लेकिन ये बहुत ज़रूरी है कि देश का पढने लिखने वाला वर्ग आवेश में नहीं बल्कि धर्म और मज़हब से ऊपर उठकर सोचे।

Thursday, July 16, 2015

व्यापमं: एक नैतिक, सामाजिक और प्रशासनिक त्रासदी #VyapamScam

व्यापम मामले पर राजनैतिक तलवारें खिंची हुई हैं। इसका आपराधिक पक्ष एक दिल दहलाने वाली तस्वीर पेश करता है। मौतों की संख्या और उसकी ज़िम्मेदारी लोग राजनीतिक हिसाब से तय कर रहे हैं। सीबीआई के पास मामला जाने के बाद इसकी तहकीकात और ज़िम्मेदारी का मामला उसी के ऊपर छोड़ देना ठीक होगा। बस ये सुनिश्चित होना चाहिए कि ये जांच जल्दी और निष्पक्ष हो ताकि कोई अपराधी बच न पाए। मगर व्यापमं को महज एक राजनीतिक या फिर भ्रष्टाचार से जुड़ा एक आपराधिक मामला मात्र समझना बड़ी भूल होगी।

व्यापमं अपने आप में एक ‘नैतिक, सामाजिक और प्रशासनिक त्रासदी’ है। इसका राजनैतिक नफा नुकसान तो एकाध चुनाव तक सीमित रहेगा और इसकी चिंता बीजेपी और कांग्रेस कर लेगी। मगर समाज के तानेबाने, उसके नैतिक मूल्यों को जो चोट इस मामले से पहुंची है उसका असर आने वाले कई दशकों तक मध्य प्रदेश पर रहेगा। अगर आंकड़े देखे जाएं तो मध्य प्रदेश में कोई 6 लाख सरकारी कर्मचारी हैं। इनमें से अगर ऊंचे अधिकारियों और चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों को निकाल दिया जाए (जिनकी नियुक्ति में व्यापमं शामिल नहीं है), तो करीब 5 लाख की संख्या बचती है। मोटे मोटे तौर पर देखा जाए तो जब से यह घोटाला सामने आया कोई पौने दो लाख नियुक्तियां व्यापमं ने की हैं। यानि कुल कर्मचारियों की संख्या का एक तिहाई!

और ये कौन से कर्मचारी हैं? इनमें शामिल हैं अध्यापक, पुलिस कांस्टेबल से लेकर असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर, वन रक्षक, आरटीओ कर्मचारी, क्लर्क, एकाउंटेंट, इंजीनियर, डॉक्टर अदि आदि। इन सब की जिम्मेदारियां देखिए– शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्माण, कानून व्यवस्था, पर्यावरण वगैरह। यानि आम जीवन से जुड़े तकरीवन हर पहलू से इन लोगों का वास्ता है। अब किस तरह से ये घोटाला मध्य प्रदेश को पीढ़ियों तक सताता रहेगा यह विचार करने की आज ज़रूरत है।

कोई भी समाज या उसकी व्यवस्था कुछ मूलभूत मूल्यों पर आधारित होते है। ये नैतिक मूल्य ही उसकी प्रगति का आधार होते हैं। उसमें एक मूलभूत बात है सही प्रतिभा का सम्मान और उसका यथोचित आदर। इसी कारण प्रतियोगिता परीक्षाएं होती हैं, ताकि योग्य लोग आगे आ सकें और उनके पास अपनी योग्यता के अनुसार पद और सम्पन्नता हो।

व्यापमं में ये तो मालूम नहीं कि किसने कितना घोटाला किया और कितना पैसा किसकी जेब में गया। लेकिन एक बात साफ़ है कि राज्य में होने वाली विभिन्न प्रतियोगिताओं में ढेर सारे मुन्ना भाई ऐसी जगहों पर बिठा दिया गए जिनके वो काबिल नहीं थे। इन्होंने जगह ली ऐसे प्रतियोगियों की जो काबिल और योग्य थे। लोग तो कहते हैं कि 90 फीसदी तक भर्तियां ऐसे ही हुईं। अगर इस आंकड़े को अतिरेक भी मान लिया जाए तो भी ये तो सही है कि पिछले कई सालों से बहुतायत भर्तियां ऐसे लोगों की हुईं जिनके पास रसूख, पैसा, ताकत या पैरवी थी।

सोचिए क्या असर होगा मध्य प्रदेश के भविष्य पर इसका? आगे आने वाले कई सालों तक तरक्की पा कर ये मुन्ना भाई राज्य के बड़े बड़े ओहदों पर होंगे। बड़े फैसले लेंगे। ऐसे अयोग्य लोग कैसे फैसले लेंगे ये अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। यानि राज्य की व्यवस्था का चौपट होना तय है। जहां मक्कारी और कपट से स्थान और ओहदा प्राप्त होता हो उस राज्य के भविष्य का तो भगवान ही मालिक है!

इसका एक और असर होगा। जो काबिल बच्चे अपना स्थान पाने से रह गए हैं क्योंकि वो किसी की जेब गरम नहीं कर पाए, उनकी मानसिकता क्या होगी? या तो वे पूरी तरह विक्षुब्ध होकर बेईमानी और अन्याय का रास्ता पकड़ेंगे और जब सामान्य जन बेईमान होता है तो फिर उसकी कोई सीमा नहीं रह जाती। इससे राज्य अन्याय और भ्रष्टाचार के एक गहरे चक्र में फंस सकता है जिसकी आज कल्पना करना मुश्किल है। जब युवा पीढ़ी सिर्फ ये देखे कि सिर्फ पैसे या रसूख से ही आगे बढ़ा जा सकता है तो कोई मेहनत क्यों करेगा? क्यों कोई पीएमटी के लिए सालों पढ़कर अपना वक्त बर्बाद करेगा? सोचिये कैसा ठगा महसूस कर रही होगी वहां की युवा पीढ़ी?

ये भी तो हो सकता है कि इनमें कई संवेदनशील और बुद्धिमान लोग इस अन्याय से त्रस्त होकर जंगल का रास्ता अख्तियार कर लें। वैसे भी राज्य के कई इलाकों में माओवाद अपनी जड़ें जमा चुका है। इसके बाद तो स्थिति और भयावह हो सकती है। पहले से ही नक्सली हिंसा से त्रस्त ये देश इसे कैसे झेलेगा?

यानि व्यापमं का घनचक्कर अगर ऐसा गंभीर है जैसा कि मीडिया में आज कहा जा रहा है तो फिर ये एक ऐसा दर्द पूरे समाज को दे चुका है जिसका इलाज आसान नहीं है। इसके घाव इतने गहरे हो सकते हैं जिनका अंदाजा लगाना भी शायद आज संभव नहीं है। इसलिए ये त्रासदी सिर्फ राजनीतिक या सामान्य भ्रष्टाचार की नहीं बल्कि सामाजिक, नैतिक और मानसिक है जिसके इलाज में बरसों बरस लगेंगे।



उमेश उपाध्याय
15 जुलाई ‘15

Friday, July 3, 2015

सांसदों की तनख्वाह और हमारा दोगलापन

http://khabar.ibnlive.com/blogs/umesh-upadhyay/mp-indian-parliament-387651.html


तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है दुई न होंहि इक समय भुआला, हंसबि ठठाव फुलावहूँ गाला. यानि आप गाल फुलाना और हँसना दोनों काम एक साथ नहीं कर सकते. मगर सांसदों की तनख्वाह के मामले में हम ऐसा ही कर रहे हैं. एक तरफ हम चाहते हैं कि हमारे एमपी ईमानदार रहें और दूसरी तरफ जब संसद की समिति ने उनकी तनख्वाह बढ़ाने की सिफारिश की है तो एक साथ सब उन पर टूट पड़े हैं. मानों कोई ऐसा करके उन्होंने कोई जघन्य अपराध कर दिया हो.

सांसदों की तनख्वाह आज है 50000 रुपये महीने. ज़रा सोचिये कि क्या एक जन प्रतिनिधि इतनी तनख्वाह में काम चला सकता है? एक सांसद की ज़िम्मेदारी है अपने क्षेत्र की जनता का दिल्ली में प्रतिनिधित्व करना. इसके लिए लोगों से मिलना, उनके सुख दुःख में शरीक होना, जनता की समस्यायों में उनके साथ खड़ा होना तथा लोगों की बातों को ऊपर तक पहुंचाना, उसके रोज़ के काम का हिस्सा है. हर एमपी से मिलने रोजाना सैकड़ों लोग आते है. ये सब लोग अक्सर दूर दूर से आते है. कल्पना कीजिये कि सिर्फ इन लोगों के चाय पानी और नाश्ते की व्यवस्था में ही कई सांसदों की ये पूरे तनख्वाह खर्च हो जाती होगी !

यही नहीं हर सांसद को दो घर रखने पड़ते हैं, एक अपने लोक सभा क्षेत्र में और दूसरा दिल्ली में. क्या ये घर हवा पानी से चलते होंगे? साथ ही अपने क्षेत्र में उसे कई जगह कार्यालय चलाने होते हैं क्योंकि हमारे संसदीय क्षेत्र काफी बड़े बड़े हैं. उनके खर्चे का सोचा है कभी आपने? हर एमपी के पास शादी-विवाह, मुंडन, यज्ञोपवीत, जन्मदिन, त्यौहार आदि के अनेकों निमंत्रण रोज़ आते हैं. जो एमपी इनमें नहीं गया वह अगली बार चुना ही नहीं जा सकता. अपनी परम्परा के मुताबिक़ जब भी आप ऐसे आयोजनों में जाते है तो कुछ गिफ्ट, भेंट या शगुन भी देना ही होता है. अनुमान लगाइए क्या इसीका खर्चा हज़ारों में नहीं होता होता होगा ?

इसी तरह में जानता हूँ कि दिल्ली में एमपी के सरकारी आवास में उसके क्षेत्र के लोग आते जाते और ठहरते हैं. कोई इलाज़ के लिए आता है, तो किसी का बच्चा नौकरी के इंटरव्यू के लिए. ये ज़्यादातर गरीब तबके के लोग होते हैं. इनके आने जाने, खाने पीने, अक्सर दवाई और ठहरने की व्यवस्था एमपी से अपेक्षित होती है. यकीन नहीं आता तो दिल्ली के नार्थ और साउथ ब्लॉक में एमपी बंगलों में जाकर देख लीजिये. क्या लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कोई भी संवेदनशील सांसद इससे मना कर सकता है? नहीं, बल्कि मैं मानता हूँ कि यह उसके काम का हिस्सा है और भारतीय लोकतंत्र के ज़िंदा होने का नमूना है. क्या हमारी व्यवस्था इसके खर्च का आकलन नहीं करेगी?
ईमानदारी कोई हवा में पैदा नहीं होती, उसकी व्यवस्था सिस्टम तथा समाज को करनी पड़ती है. अगर ये खर्च सही और कानूनी तरीके से नहीं होगा तो कोई न कोई तो ये बोझ उठाएगा ही. एमपी के ये खर्चे  अगर कोई व्यापारी या अन्य उठाएगा तो वह एमपी से अपने काम भी करवाएगा.  जब ये सांसद, खर्च उठाने वाले के लिये काम करेगा तो फिर वही लोग भ्रष्टाचार भ्रष्टाचार चिल्लायेंगे जो अब टीवी स्टूडियो के अन्दर बैठकर अथवा अपने लेखों में जोर जोर से कह रहें हैं कि सांसदों के भत्ते और वेतन ना बढे.  मैं ये कतई नहीं कह रहा कि सिर्फ वेतन और भत्ते बढ़ा देने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा या फिर सभी एमपी राजा हरिश्चन्द्र के अवतार बन जायेंगे. लेकिन ये ज़रूर कह रहा हूँ कि जो ईमानदार बने रहना चाहते हैं उनके लिए ऐसी व्यवस्था करना कि वे बेईमान न बने, समाज की ज़िम्मेदारी है.

सिर्फ लोक लुभावन बात करके हम तालियां तो पिटवा सकते हैं मगर क्या ये लोकतंत्र और देश के दूरगामी हित की बात है?  हम शुतुरमुर्ग की तरह इस सच्चाई और यथार्थ से मुहं नहीं मोड़ सकते कि लोकतंत्र एक महंगी व्यवस्था है. उसका इंतज़ाम करना हमारी ज़िम्मेदारी है. दरअसल सांसदों का वेतन और पेंशन इतना होना चाहिए कि वे अपने सारे खर्च बिना किसीका का अहसान लिए उठा सकें. इसके लिए उनका वेतन केंद्र सरकार के सचिव पद के बराबर भी कर दिया जाए तो गलत नहीं होगा. इससे बारबार सांसदों को इस बात से रूबरू नहीं होना पड़ेगा कि खुद वो अपने लिए तनख्वाह बढ़ाने की सिफारिश करें और जैसे ही ऐसा हो, लोग उनपर लाठी डंडा लेकर पिल पड़ें. बेहतर तो ये होगा कि एक ऐसी व्यवस्था कर दी जाए कि समय समय पर सांसदों के वेतन भत्ते अपने आप बढ़ते रहे.   

पिछले कई वर्षों से देश में भ्रष्टाचार को लेकर बहस चल रही है. इसमें नेताओं के घोटालों का ज़िक्र होता है. सांसदों  के वेतन और भत्तों के बहाने अपने सिस्टम को साफ़ करने की एक ईमानदार पहल हम आज कर सकते है. हम सांसदों से कह सकते है कि तुम अपनी तनख्वाह दोगुनी नहीं चार गुनी करलो लेकिन उसके बाद ईमानदारी से रहो. ये बात भी सही है कि जिसकी नीयत में ही खोट हो उसे आप कितना भी वेतन देकर ईमानदार नहीं बना सकते. मगर जो सांसद ईमानदार बने रहना चाहतें हैं वह मजबूरी में व्यापारियों, दलालों, ठेकदारों और भ्रष्ट अफसरों के चंगुल में न फंसे इसका इंतज़ाम देश ज़रूर कर सकता है. नहीं तो भ्रष्टाचार पर की जाने वाली बहस और चिन्ता सिर्फ समाज का दोगलापन ही मानी जायेगी.

उमेश उपाध्याय

2 जुलाई 2015

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