Saturday, March 30, 2019

पाकिस्तान के हिंदुओं की जिम्मेदारी भारत की ही है



रीना, रवीना, सोनिया, लक्ष्मी, अनुष्का, कोमल - ये नाम हैं पाकिस्तान में रहने वाली उन कुछ हिंदू लड़कियों के जिन्हें अगवा करके उन्हें जबरन कलमा पढ़वाया गया और उनका निकाह कर दिया गया। खबरों के मुताबिक पाकिस्तान में हर साल हजारों गैर मुस्लिम लड़कियों को जबरन मुसलमान बनाया जाता है। इनमें से ज्यादातर नाबालिग होती हैं। उनके मां बाप स्थानीय गुंडो, इस्लामी गिरोहों और जबरिया धर्म-परिवर्तन कराने वाली तंज़ीमों के सामने बेबस होते हैं। इस्लामी मुल्क होने के नाते वहां का प्रशासन और व्यवस्था भी चुप रहती है।

इसी सप्ताह सिंध की दो हिंदू लड़कियों रवीना और रीना के वीडियों ने लोगों का दिल दहला दिया है। जिस तरह इन नावालिग बच्चियों के पिता अपनी बेवसी का इजहार करते हुए खुद को मारने के लिए कहते हैं उससे सभी का दिल काँप जाता है। इस मामले पर जब भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज में भारत के उच्चायोग से रिपोर्ट मांगी तो पाकिस्तान ने कहा कि यह उसका अन्दरूनी मामला है और वहां अल्पसंख्यक भारत से ज्यादा सुरक्षित हैं। कैसा मज़ाक है? वहां अल्पसंख्यक अगर सुरक्षित होते तो आज़ादी के समय पाकिस्तान में हिन्दुओं की तादाद जोकि 15 से 20 फ़ीसदी के बीच थी आज 1.5 प्रतिशत न रह जाती। अल्पसंख्यक समुदायों को पाकिस्तान में कितनी आज़ादी हासिल है ये ईसाई महिला आसिया बीबी के मामले से दुनिया को पता पड़ ही चुका है।



हम जानते हैं कि पाकिस्तान गैर पढ़े लिखों, जिहादियों, कटट्ऱपंथियों और कठमुल्ले तत्वों से भरा देश है पर उनके मंत्री भी ऐसी नासमझी भरी बातें कहते तो हंसी आती है। इमरान खान की जो सरकार ''नया पाकिस्तान '' बनाने का दावा कर रही है उसने मंत्रियों को तो मालूम होना चाहिए कि नेहरू - लियाकत समझोते के तहत भारत को हक है कि वह वहां के हिंदुओं की सलामती की खोजखबर ले। यों भी अविभाजित भारत में रहने वाला हर बाशिंदा भारतीय था। पाकिस्तान ने मजहब के आधार पर बंटवारा करवाया। जो हिंदू पाकिस्तान में रह गए उनका इस बंटवारे में कोई हाथ नहीं था। अगर उनकी संतानों पर सिर्फ इस नाते जुल्म ढाये जाते हैं कि वे हिन्दू हैं, तो उनकी रक्षा की जिम्मेदारी अगर भारत नहीं लेगा तो कौन लेगा? अगर उनकी बहन बेटियों की इज्जत लूटकर उन्हें जबरदस्ती कलमा पढ़वाया जाता है तो वे भारत की ओर नहीं देखेंगे तो कहां देखेंगे?



ये सिर्फ मानवीय या धार्मिक आधार की बात नहीं है। सिर्फ #पाकिस्तान के ही नहीं बल्कि दुनिया में रहने वाले किसी भी #हिंदू पर अगर उसके मजहब के कारण अत्याचार होता है तो उसकी रक्षा का उत्तरदायित्व भारत का ही है। भारत की धर्मनिरपेक्षता का अर्थ ये नहीं लगाया जा सकता कि वह अपनी विरासत से मुंह मोड़कर मतांध भेड़ियों के झुंडों के बीच हिंदुओं को अकेला और असहाय छोड़ दे। हिंदुओं की रक्षा भारत का कानूनी, मानवीय, एतिहासिक, पारंपरिक और विरासत जनित कर्तव्य भी है तथा उत्तरदायित्व भी।

माना जा सकता है कि भारत पहले इतना ताकतवर नहीं था कि वह भारतवशिंयों खासकर #हिंदुओं पर दूसरे देशों में होनेवाले अत्याचारों के बारे में आवाज़ उठा सके । परंतु आज देश पहले से ज्यादा सक्षम और शक्तिशाली है। इसलिए उसे भारतीयों पर होने वाले जुल्म के खिलाफ आवाज ही नहीं बल्कि कदम भी उठाने चाहिए। यों भी दुनिया में बाकी मज़हबों को मानने वालों के सामने कई देशों के विकल्प मौजूद है। दुनिया भर के सताये हिंदुओं का एकमात्र आश्रय और सहारा तो भारत ही है। भारत अपनी इस ज़िम्मेदारी से भाग नहीं सकता। इसलिए पकिस्तान में रहने वाले हिन्दुओं को ये भरोसा दिलाना चाहिए कि वे अकेले नहीं हैं। वे जब चाहे भारत आ सकते हैं। नहीं तो भारत उनके पक्ष में आवाज़ ही नहीं कदम भी उठा सकता है।


Saturday, March 16, 2019

2019: पहला डिजिटल यानि बिना बिचौलियों का चुनाव



ये देश का पहला आम चुनाव है जो बड़ी हद तक डिजिटल चुनाव होगा। इससे पहले किसी भी चुनाव में मतदाता के हाथ में सीधे खुद जानकारी हासिल करने की ताकत नहीं थी। देश में डिजिटल क्रांति के बाद ये पहला आम चुनाव है। जियो के आने बाद देश में डेटा की सुनामी सी आ गई है। आज तकरीबन  60 करोड़ हिंदुस्तानी इंटरनेट से जुड़े हैं। 2014 के चुनावों के वक्त ये संख्या 25 करोड़ से कम थी। 2014 में फेसबुक पर 10 करोड़ भारतीय थे अब कोई 31 करोड़ हिंदुस्तानी फेसबुक पर हैं। इसी तरह ट्विटर काइस्तेमाल करने वालों की तादाद भी बेतहाशा बढ़ी है। डिजिटल दुनिया से जुड़ने का का मतलब वोटर को सीधे सूचनापंहुचना। इस मायने में ये पहला चुनाव है जब ''जानकारी के बिचौलियों" के बिना मतदाता के पास खुद जानकारी हासिल रखने की सुविधा है।

डिजिटल सूनामी से पहले वोटर को जो जानकारी मिलती थी वह किसी दुसरे के द्वारा दी गई होतीथी। जाहिर है कि इस जानकारी में कई बार नमक मिर्च भी लगा होता था। आज अगर आप चाहे तो आपको किसी भी जानकारी के लिए बिचौलियों की जरूरत नहीं है। आप 
इंटरनेट के जरिये सीधे मूल जानकारी के स्त्रोत पर पंहुच सकते  हैं । हम पत्रकार एक तरह सेसूचना/ जानकारी और खबरों के बिचौलिए ही होते हैं। इंटरनेट ने जिस तरीके से वाकी क्षेत्रों में बिचौलियों की भूमिका खत्म की है इसी तरह खबर की दुनिया के बिचौलियों
का व्यापार भी कम हुआ है। सोचिए पहले ज्यादातर बड़ी खबरें प्रेस क्रान्फ्रेस के जरिये दी जाती  थीं। अब सरकारें सीधे ट्विटर में या फेसबुक के माध्यम से अपनी बात पहुंचा देते हैं। ट्रम्प और मोदी को ज्यादातर घोषणाएं सोशल मीडिया के माध्यम से ही जनता तक पंहुची हैं।

कुल मिलाकर खबरों के बिचौलियों का व्यापार अब मंदा पड़ गया है। इसका असर ये है कि उनका प्रभाव भी कम हो गया है। कई बड़े पत्रकारों की  सार्वजनिक खीझ और बौखलाहट से साफ़ दिखाई पड़ता है कि उन्हें समझ नहीं आ रहा कि बदलते वक्त के साथ वे अपने आप को कैसे बदलें। इसी कारण अक्सर मुद्दों के आकलन और उनकी जनता में हो रही क्रिया-प्रतिक्रिया को वे समझ नहीं पा रहे। जो भी इन कथित सर्वज्ञानियों की सोच से अलग सोच रहा है उसे कुछ असम्मानजनक नाम दे देते हैं। पर असलियत है कि जानकारी पर नियंत्रण का उनका वर्चस्व खत्म हो गया है। इसका चुनाव से गहरा संबंध हैं। अगर 2014 के बाद के कुछ चुनाव देखें जांए, तो आपको समझ  आएगा कि मैं क्या कह रहा हूं। 2017 का यूपी चुनाव ही लेते हैं। कृपया फरवरी मार्च 2017 के अखवार, मीडिया का विश्लेषण और आकलन उठाकर देखें। तकरीवन हर विश्लेषण कह रहा था कि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ आने से हवा बदल गई है। किसी का चुनावी गणित नहीं कहता था कि मायावती की पार्टी राज्य में 19  सीटों पर सिमट जाएगी और बीजेपी को इतना प्रचंड बहुमत मिलेगा।

मुझे नहीं मालूम कि आम चुनाव में यूपी में सपा-बसपा का गठबंधन क्या करेगा। मगर मैं ये भी कहना चाहता हूं कि ये किसी को भी नहीं मालूम। जो लेाग भी ये कह रहे हैं कि यूपी में इन दो दलों के साथ होने से सबकुछ बदल जाएगा वे भी सही नहीं हैं। वे खबर के वही बिचौलिए हैं जिनकी जमीन खिसक चुकी है। इसे उनका राजनीतिक विश्लेषण नहीं बल्कि उनकी राजनीतिक तमन्ना माना जाना चाहिए। ऐसा ही पूरे देश में होने जा रहा है।
एक चीज बिलकुल साफ है कि किसी को जनता के मन का कुछ भी पता नहीं है। मेरा कहना है कि इस वार का चुनाव आश्चर्य जनक नतीजे देगा । यह चुनाव जातिगत जोड़तोड़साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, अवसरवादी गठजोड़ और बेमेल चुनावी शादियों को बेमानी सिद्ध करेगा क्योंकि लोग इस वार खुद से जानते है कि कौन कितने पानी में हैं। झूठे आरोपों, हवाई मुद्दों और सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी इन चुनावों में धरी की धरी रह जाएगी। गरीब से अमीर तक हर हिन्दुस्तानी अपने हिसाब से तय करेगा कि कौन नेता या पार्टी उसे सुरक्षा, विकास और गौरव प्रदान करेगा।

Friday, March 1, 2019

युद्ध रोकने के लिए युद्ध हो तो हो !



युद्ध रोकने के लिए युद्ध हो तो हो !
1993- मुम्बई
1998- कोयम्बटूर
2001- संसद हमला
2002- अक्षरधाम
2003/2006- मुम्बई ट्रेन
2005- दिल्ली
2006- वाराणसी
2007- समझौता एक्सप्रेस, हैदराबाद
2008- मुम्बई 26/11
2016- उरी
2019- पुलवामा ......  सैकड़ों और हमले।

ये क्या युद्ध नहीं है ??
आज 'युद्ध को न कहें'  #SayNoToWar का हैशटैग चलाने वालों से पूछना चाहिए कि वे किस #युद्ध को न करने की अपील कर रहे है? दशकों से जारी इस युद्ध पर उनकी संवेदनाएं क्यों नहीं जागी थी? इन हमलों में मरने वाले भारतीय क्या कमतर इंसान थे?  शांति के ये कथित मसीहा अचानक आज ही क्यों जाग उठे हैं?

इस सवाल का उत्तर ईमानदारी से खोजने की जरूरत है। आज की परिस्थिति को समझने के लिए भी यह बहुत जरूरी है नहीं तो हम भी सोशल मीडिया पर अक्सर चलने वाली बेतुकी और निरर्थक बहस के हिस्से बनकर रह जाएंगे।

हम सबको जानना चाहिए कि #पाकिस्तान के पास दो तरह की सेना है। एक उनकी रेगुलर सेना और दुसरी उनकी जिहादी सेना। वह अपनी जरूरत के मुताबिक इन दोनों सेनाओं का इस्तेमाल भारत के खिलाफ करता रहा है। 1948, 1965, 1999 के युद्धों में पहले उसकी जिहादी आर्मी आई और फिर उसकी सेना। जम्मू-कश्मीर में तो लगातार वो #इस्लामी #जिहादी #आर्मी का इस्तेमाल कर ही रहा है। अत: #पाकिस्तानी रणनीति में इन्हें अलग माना ही नहीं जाता। उनकी फंडिग, ट्रेनिंग और नियंत्रण सेना की आईएसआई के हाथ में रहता है।

इस जिहादी आर्मी के जनरल बदलते रहते हैं। कभी दाउद इब्राहिम, कभी हमीद गुल, कभी मसूद अजहर तो कभी हाफ़िज़ सईद।  लेकिन इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि उनकी कमान पाकिस्ताना की सेना के हाथ में ही रहती है। जब कभी पाकिस्तान पर दवाब पड़ता है तो वह सार्वजनिक रूप से इनसे पल्ला झाड़ लेता है लेकिन तब भी अंदरखाने ये उसकी गोद में ही बैठे रहते हैं। ये सारे आतंकवादी #पाकिस्तानी सेना के जिहादी विंग यानि 'इर्रेगुलर आर्मी'  का ही हिस्सा हैं। #भारत के खिलाफ इन लोगों ने खुल्लम-खुल्ला युद्ध छेड़ा हुआ है। इस युद्ध को न जाने क्यों हम छदम या परोक्ष युद्ध करते आए हैं? दरअसल पाकिस्तानी प्रोपेगंडा इतना जबरदस्त रहा है कि पिछले दो तीन दशकों से हम उसी में फंस कर रह गए हैं। जब ये जिहादी आर्मी कमज़ोर होती है तो 'अमन की आशा' की मोमबत्तियां जलतीं है। पाकिस्तान की कूटनीतिक ज़रुरत के मुताबिक ये आतंकवादी  भारत के कोने कोने में बारूद के धमाके करके खून बहाते हैं।

अब जब इतने सालों से हमारे खिलाफ युद्ध चल ही रहा है तो फिर आज नया क्या हो गया जो लोग #SayNoToWar की छाती पीटने निकल आए हैं। एक तरह से आज युद्ध का विरोध करने वाले या तो पाकिस्तान के इन प्रोपेगंडा के शिकार हैं या फिर वे इस प्रोपेगंडा के हिस्से हैं।

#पुलवामा के हमले के बाद भारत ने जैश-ए-मोहम्मद के #बालाकोट अड्डे पर हमला किया तो अचानक लोगों को शांति की चिंता क्यों सताने लगी है? अगर जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तान की आर्मी और उसकी रणनीति के हिस्से नहीं हैं तो उसके लिए पाकिस्तान ने क्यों भारत पर हमला किया? कुछ और भी भ्रम फैलाए जा रहे है। जैसे कि बालाकोट में जैश के ठिकाने पर कोई नुकसान हुआ ही नहीं तो भाई इमरान खान से लेकर पाक आर्मी के लोग इतना बिलबिला क्यों रहे है?

असल में भारत की दृष्टि से ये तो ज्यादा मायने रखता ही नहीं कि बालाकोट में कितने लोग मारे गए या कितना नुकसान हुआ। मूल बात है कि भारत ने पहली बार पाकिस्तान की सेना के जिहादी विंग पर उनकी जमीन पर घुसकर वार किया। यह भारत के इस नए संकल्प का हिस्सा है जिसके तहत वह अपने दुश्मनों को कहीं भी जाकर मारने की कूवत, काबिलियत और हिम्मत रखता है।

पाकिस्तान की घबराहट और बौखलाहट साफ बताती है कि उसकी धोखेबाजी को खत्म करने का फैसला उसकी सारी रणनीति को बेकार कर देगा। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने भी इस जिहादी सेना पर भारत के हमले का स्वागत किया है। इस हमले से जो नयी परिस्थिति पैदा हुई है इससे पाकिस्तानी सेना की बरसों से बनाई हुई धूर्ततापूर्ण रणनीति बेकार होती दिखाई देती है।

ये कहना कि भारत की  बालाकोट हवाई कारवाई से युद्ध का खतरा पैदा हो गया है। ये बात तथ्य और सत्य दोनों से परे है। असल में तो युद्ध लगातार चल ही रहा है। भारत ने तो सिर्फ इस युद्ध की दिशा बदलने का काम किया है। ये कारवाई तो बहुत पहले हो जानी चाहिए थी। पहले के नेतृत्व ने ऐसा नहीं किया, तो इसके लिए आज की सरकार दोषी कैसे है?

परमाणु युद्ध का खतरा दिखाकर भारत को चुप कराने का ये खेल अर्से से चलता आया है। ये कूटनीतिक और सामरिक ब्लैकमेल रोकना ज़रूरी था। ये कैसा मज़ाक है ?  अगर आप मुम्बई हमले, संसद पर हमला, पुलवामा के आतंक को चुपचाप बर्दाश्त कर लें तो आप शांति के मसीहा हैं। यदि आप इसका प्रतिकार करने के लिए कारवाई करें तो आप 'युद्धपिपासु राष्ट्रवादी' हैं। यह तो वैसे ही हुआ जैसे कि पड़ोस के गुंडे से पिटने का आदी हो चुका आदमी जब आवाज उठाये और गुंडा उसपर ही शांति भंग करने का आरोप लगाए।

भारत ने अब जो हिम्मत दिखाई है वह सोशल मीडिया के कातर क्रंदन और प्रलाप से रूकनी नहीं चाहिए। युद्ध कई बार स्थाई शांति की अनिवार्य शर्त बन जाता है। हमें स्पष्ट करना चाहिए कि भारत ने युद्ध नहीं चाहा पर उस पर थोपे गए खून-खराबे को रोकने के लिए युद्ध उसकी मजबूरी है। ये युद्ध भारत ने चालू नहीं किया लेकिन इसे खत्म करने के लिए उसे युद्ध करना पड़ा तो वह उससे भागेगा नहीं।
इस नए  भारत का अभिनन्दन।