Saturday, December 26, 2020

देश के लोकतंत्र का मखौल उड़ाते राहुल गांधी




कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यह कहकर देश की जनता का ही मजाक उड़ाया है कि भारत का लोकतंत्र फर्जी है। अपनी तमाम कमियों और कमज़ोरियों के बावजूद भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था पूरे विश्व में सम्मान की पात्र है। देशवासियों को इस पर गर्व है। पर शायद राहुल गांधी के लिए भारत के लोकतंत्र का मतलब उनके और उनके परिवार के विशेषाधिकार सुरक्षित रखने तक ही सीमित है। अन्यथा वे ऐसा हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण बयान देकर देश और देशवासियों का अपमान नहीं करते। 

यह बयान उन्होंने उस समय दिया जब कृषि कानूनों के खिलाफ वे अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा और कांग्रेस के कई सारे नेताओं के साथ राष्ट्रपति भवन की तरफ कूच करना चाहते थे। कांग्रेस पार्टी से पूछा जाना चाहिए कि इतने सारे लोग ले जाकर क्या उनका मकसद राष्ट्रपति भवन का घेराव करना था ? क्या बे उसी तरीके से राष्ट्रपति भवन की घेराबंदी करना चाहते थे जैसे कि कुछ किसान नेताओं ने दिल्ली की है ? राहुल गाँधी और कांग्रेस का प्रतिनिधिमंडल तो राष्ट्रपति से मिला। मगर बिना इजाजत के पुलिस ने बाकी नेताओं को पैदल मार्च करने से मना कर दिया और उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा सहित अन्य को आगे जाने से रोक दिया , तो क्या यही प्रमाण है कि देश से लोकतंत्र खत्म हो गया ? शायद राहुल गाँधी का लोकतंत्र अपने परिवार से शुरू होकर वहीँ खत्म हो जाता है। 

वैसे भी राहुल गांधी को लोकतंत्र का ककहरा शुरू से पढ़ने की ज़रुरत है। लोकतंतंत्रिक व्यवस्था और मर्यादाओं की अगर उन्हें रत्तीभर भी समझ होती तो वे भारतीय लोकतंत्र पर ऐसा मजाकिया बयान देने से पहले अपने अंदर झांक लेते। अगर ऐसा होता तो वह उस दिन अपने आप से ये सवाल पूछते जब उन्होंने सितम्बर 2013 में अपनी ही सरकार के एक अध्यादेश को एक प्रेस कांफ्रेंस में फाड़ फेंका था। उस समय उन्हें यह याद नहीं रहा कि वह देश के प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद और लोकतांत्रिक व्यवस्था का कितना गंभीर उल्लंघन कर रहे हैं। 

कुछ नहीं तो वे अपनी दादी श्रीमती इंदिरा गांधी से ही पूछ लेते कि उन्होंने जब जून 1975 में देश में इमरजेंसी लगाई थी तो क्या वह लोकतंत्र के भले के लिए लगाई थी। वैसे  इतना दूर भी जाने की जरूरत नहीं है। अगर लोकतांत्रिक मर्यादाओं और मूल्यों को वे किंचित भी मान देते हैं  तो वे कहीं बाहर नहीं बल्कि अपनी पार्टी में इसे लागू कर सकते हैं। कांग्रेस तो अब उनके परिवार की जेबी पार्टी ही है। और कुछ नहीं तो वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात मानकर कांग्रेस शासित पुदुचेरी में पंचायतों के चुनाव क्यों नहीं करवा लेते ? 

असल में राहुल गांधी की चिंता भारत के लोकतंत्र को लेकर नहीं है। उन्हें चिंता सिर्फ अपनी बहन और अपने परिवार के विशेष अधिकारों को लेकर है। उनका गुस्सा सिर्फ अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा को हिरासत में लिए जाने से है अन्यथा दुनिया के सबसे बड़े भारतीय लोकतंत्र को फर्जी नहीं बताते।

राहुल गांधी अपनी पार्टी के नेताओं के साथ राष्ट्रपति को एक ज्ञापन देने के लिए जाना चाहते थे।  यह ज्ञापन था कृषि कानूनों को लेकर। कृषि कानूनों की ही बात की जाये तो इनके बहाने उनकी सरकार उनके मुख्यमंत्री पंजाब में जो कर रहे हैं वह क्या किसी भी तरीके से लोकतांत्रिक है? यह सही है कि लोकतंत्र में विरोध करने का अधिकार सब रखते हैं। लेकिन विरोध का ये अधिकार जब गुंडागर्दी और अराजकता में बदल जाए तो इसे लोकतंत्र नहीं भीड़तंत्र कहते हैं। 


इस बहस में जाए बिना की कृषि कानूनों के साथ क्या होना चाहिए, क्या उनकी पार्टी की सरकार पंजाब में लोगों के जानमाल की रक्षा कर पा रही है? कोरोना के इस नाज़ुक समय में पंजाब की सरकार आम जनता की ऑनलाइन दिनचर्या, कामकाज और संपत्ति को सुरक्षित नहीं रख पा रही।   

पंजाब के कुछ इलाकों में तोड़फोड़, गुंडागर्दी, उद्योगों, दूरसंचार उपकरणों और निजी संपत्तियों को क्षति करने का जो तमाशा चल रहा है  क्या वह लोकतांत्रिक है? राहुल गाँधी और उनकी पार्टी हिंसा की इस आग में रोज़ घी डालने का काम कर रहे हैं। क्या ऐसा करके वे किसानों, पंजाब और देश का भला कर रहे हैं?  यह सवाल राहुल गांधी और पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह से पूछा जाना निहायत ही जरूरी है। 

पंजाब के लोग और खासकर सिख हमेशा तरक्की पसंद रहें हैं। उन्होंने दुनिया में अपनी इस प्रगतिशील सोच से हमेशा नाम कमाया है। राहुल गांधी के उलजुलूल बयानों के बाद पंजाब में हिंसा का दौर चल रहा है। आम जनजीवन ठप्प करके  उद्योगों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। ये लोकतान्त्रिक तो कतई नहीं है। जिस सरकार को सम्पत्तियों की रक्षा करनी चाहिए वह तो हाथ पर हाथ धरकर बैठी है। गुंडागर्दी करने वाले जानते हैं कि जब 'सैयां भये कोतवाल तो फिर डर काहे का।'  कृषि, उद्योग और शिक्षा के क्षेत्र में हमेशा तरक्की का परचम लहराने वाले पंजाब को ये सब दूसरी दिशा में ले जाने का काम कर  रहे हैं। 

ये तो तय है कि आम पंजाबी कुछ लोगों की अपनी राजनीतिक रोटियां सेकने की इन हरकतों को आखिरकार नकार ही देंगे।  लेकिन डर  है कि तब तक बहुत देर न हो चुकी हो। ऐसा न हो कि राजनीतिक रोटियों के चक्कर में राहुल गांधी और कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब को हिंसा और विद्वेष की ऐसी डगर पर डाल दें जहां से पीछे लौटना मुश्किल हो। किसानों सहित पंजाब के तरक्कीख्याल लोग तो आखिरकार अवसरवाद की इस भँवर में से अपनी किश्ती निकाल ही लेंगे। लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व की हरकतें अगर ऐसी ही रही तो वे अपने हाथ से पंजाब जैसा प्रदेश हमेशा के लिए खो देंगे। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि राहुल गांधी देश गौरवपूर्ण प्रजातांत्रिक व्यवस्था को कोसने के स्थान पर खुद अंदर झांकने की कोशिश करें। इसी से पंजाब के किसानों,  उनकी पार्टी का और खुद उनका भला होगा।





Thursday, August 27, 2020

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता : भला उसकी कमीज मेरी कमीज़ से सफेद कैसे?



 

80 के दशक में कपड़े धोने के साबुन का एक विज्ञापन बड़े जोर शोर से चलता था। इसमें एक पात्र दूसरे से कहता है - 'भला उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद कैसे है?' इस विज्ञापन के पीछे ईर्ष्या और द्वेष का भाव है। आज अपने देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चल रही बहस पर मुझे यह विज्ञापन पूरी तरह लागू होता दिखाई देता है। ऐसा लग रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी खांचों में बांट दिया गया है। मानो कुछ लोग कह रहे हैं  - 'मेरी वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तेरी वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बेहतर है।' कुछ तो लिखकर भी साफ़ कह रहे हैं कि क्योंकि उनकी कमीजें बाकी जनता की  कमीज़ों से ज़्यादा सफ़ेद हैं  इसलिए सिर्फ वे ही अभिव्यक्ति के  सही हकदार हैं। किसको बोलने की कितनी आज़ादी दी जाये, यह तय करने का ठेका भी कुछ लोगों ने अपने नाम लिखा लिया है। इसके लिए  मीडिया, लेखकों, बुद्धिजीवियों, रचनाधर्मियों एक पूरा पारतंत्र यानि 'ईको सिस्टम बाकायदा काम में अनवरत लगा हुआ है।

दिलचस्प है न!

आप सोच रहे होंगे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे गंभीर विषय के बीच में यह साबुन का विज्ञापन क्या कर रहा है? पर सोचिये क्या आज ऐसा ही नहीं हो रहा? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का  जो अधिकार भारत का संविधान भारत के हर नागरिक को देता है। उसे भी कुछ ठेकेदारों द्वारा आज जैसे बाज़ारू माल बना कर बेचा जा रहा है।

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दो बड़ी घटनाएँ  पिछले हफ्ते हुई।

एक तो उच्चतम न्यायालय में वकील प्रशांत भूषण के खिलाफ मानहानि मुकदमें का हुआ। जिसमें उच्चतम न्यायालय ने प्रशांत भूषण को मानहानि का दोषी मानकर उन्हें सजा देना तय किया। मीडिया का एक वर्ग, कथित बुद्धिजीवी, कतिपय कलाकार, वामपंथी एक्टिविस्ट और वकीलों का एक वर्ग इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का विरोध कर रहा है। इन लोगों का कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है और न्यायालय की अवमानना के नाम पर इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को छीना नहीं जा सकता।




प्रशांत भूषण का समर्थन करने वाले यही तक नहीं रुके हैं। जिस दिन प्रशांत भूषण के मामले की सुनवाई उच्चतम न्यायालय में हो रही थी उस दिन न्यायालय के बाहर कुछ लोग इकट्ठे हुए उन्होंने हाथ में तख्तियां ली हुई थी। ये लोग उच्चतम न्यायालय के आने वाले फैसले का विरोध करने के लिए पहले से तैयार थे। इनमें से कई लोगों ने सोशल मीडिया पर ये कहा कि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह काला दिन है। ये लोग मानते हैं कि प्रशांत भूषण को उच्चतम न्यायालय के खिलाफ कुछ भी कहने का अधिकार है चाहे वह तथ्यपरक, न्यायपूर्ण या विधि सम्मत हो या नहीं। हालाँकि भारत का कानून इसकी इजाजत नहीं देता।

सवाल है, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट तक की निंदा करने वाले क्या सच में 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं? या फिर ये बुद्धिजीवी का नक़ाब ओढ़े हुए राजनीतिक एक्टिविस्ट हैं? जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस भाव को पिछले हफ्ते ही हुए एक और मामले पर लागू किया जाता है तो कई लोगों की कलाई खुल जाती है। इनमें से अधिकतर बिना पालक झपकाए अपना रुख एकदम बदल लेते हैं। मानो नक़ाब उतर जाते है।

यह मामला है ब्लूम्सबरी प्रकाशन द्वारा दिल्ली के दंगों पर प्रकाशित होने वाली पुस्तक Delhi Riots 2020 : Untold Story को रद्द करना। ये पुस्तक दिल्ली की जानीमानी वकील मोनिका अरोड़ा, सोनाली चितालकर और प्रेरणा मल्होत्रा ने मिलकर लिखी है। इस पुस्तक में इस साल के शुरू में दिल्ली के दंगों की कहानियों को उजागर किया गया है। हम इस बहस में नहीं जाते कि इस पुस्तक के अंदर क्या लिखा गया है। असली बात यह है कि ब्लूम्सबरी ने इस पुस्तक का प्रकाशन करना तय किया था। तयशुदा बात है कि जब ब्लूम्सबरी जैसे जाने-माने प्रकाशक में इस पुस्तक को निकालने का फैसला किया तो उन्होंने पहले से यह जांच पड़ताल की थी कि इस पुस्तक में जो लिखा गया है वह उनके मानकों के अनुसार है या नहीं। जाहिर है कि सम्पादकों ने यह भी देखा होगा कि ये किताब कहीं समाज में वैमनस्य तो नहीं फैलाएगी ? उनके वकीलों ने ठोक बजाकर लेखकों के साथ पुस्तक छापने का करार किया था। अगर ऐसा नहीं होता तो ब्लूम्सबरी जैसा प्रकाशक इस पुस्तक को शुरू में ही इसे छापने के लिए तैयार नहीं होता।

पुस्तक में क्या कहा गया है यह हमारे तर्क के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। उससे सहमत या असहमत होना हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मूल आधार है। हम तो बात कर रहे हैं भारत के संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की। ये अधिकार यदि अपने मनमाफिक फैसला न आने पर  उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को गाली तक देने वाले वकील प्रशांत भूषण को है तो फिर वही अधिकार मोनिका अरोड़ा, सोनाली और प्रेरणा जैसे लेखकों को क्यों नहीं है?

प्रशांत भूषण भी वकील है और मोनिका अरोड़ा भी वकील है।  दोनों की राजनीतिक सोच में अंतर हो सकता है।  लेकिन क्या किसी के राजनीतिक विचारों में अंतर होने के आधार पर यह तय किया जाएगा कि संविधान में प्रदत्त अधिकार उसे मिलने चाहिए कि नहीं? और, इस मामले में तो प्रशांत भूषण को भारत के उच्चतम न्यायालय ने अवमानना का दोषी माना है।  उन्होंने जो कहा वह सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भी नहीं कहा जा सकता। यह अन्य किसी ने बल्कि नहीं, भारत की सबसे बड़ी अदालत ने तय कर दिया। किताब लिखने वालों ने तो ऐसा कुछ भी गैरकानूनी नहीं किया।

हैरत की बात है कि जो लोग दोषी करार दिए जाने के बाद भी न्यायाधीशों को गाली दिए जाने की हद तक जाने वाले प्रशांत भूषण के लिए बोलने की आज़ादी की वकालत कर रहे हैं। वे ही पुस्तक को छपने से रोक रहे हैं। यहाँ 'भला उसकी कमीज मेरी कमीज़ से सफेद कैसे हैं' का भाव आ गया है। प्रश्न है कि क्या दलगत प्रतिबद्धताओं, राजनीतिक  विचारों और विचारधारा की कमीज देखकर संविधान के अधिकारों का रंग तय किया जाएगा? क्या अपने को 'लेफ्ट लिबरल' कहने वाले मुट्ठीभर लोग तय करेंगे कि देश में किसे बोलने की कितनी स्वतंत्रता है और किसे नहीं है?

कुतर्क की भी हद होती है। इस पुस्तक को छापने से रोकने के लिए जो दलीलें दी गयी हैं वे बौद्धिक रूप से असंगत तो है ही। भारत जैसे प्रजातान्त्रिक और खुले समाज में  तार्किक रूप से ये बातें भी सही नहीं बैठती। लेखक विलियम डेलरिंपल कहते हैं उन्होंने ब्लूम्सबरी के ब्रिटेन स्थित मुख्यालय को इसके बारे में सूचना दी कि दिल्ली दंगों पर  पुस्तक को लेकर विवाद चल रहा है। उनसे पूछा जाना चाहिए कि वे लेखक हैं या फिर इस असंगत बौद्धिक घमासान में किसी पक्ष के मुखबिर? मतलब साफ़ है कि विलियम डेलरिंपल पुस्तक न छपे इसके लिए ही काम कर रहे थे।

मीना कंदसामी नाम की कवियत्री कहती हैं कि 'साहित्य को फासीवाद' से बचाने के लिए वे इसे छापने का विरोध कर रहीं हैं। पर ये ठेका उन्हें किसने दिया? सद्भावना देशपांडे नाम की लेखक और डायरेक्टर कहतीं हैं कि इस पुस्तक का ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। बल्कि यह पुस्तक भारत के सेकुलर ढांचे पर प्रहार करती है इसलिए इसे छपना ही नहीं चाहिए। क्या बात है? भई ये तो बता दीजिये कि भारत में लोकतंत्र है या अधिनायक वाद? और ऐसा कहकर किस तरफ खड़े हैं?

अगर इनके तर्कों को सही मान भी लिया जाए तो फिर प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अवमानना पूर्ण ट्वीट्स के लिए जो सजा दी उसका बचाव और पुस्तक प्रकाशन का विरोध - ये दोनों बातें एकसाथ कैसे हो सकतीं हैं? दरअसल आभिजात्य मानसिकता वाले इस कथित  बुद्धिजीवी वर्ग का सोचना है कि वही इस देश में तय करेंगे कि किसको कौन सा अधिकार कब और कितनी मात्रा में मिलना चाहिए। अपनी जन्मजात, कुलीन  बौद्धिकता के गर्व में जीने वाले ये कथित बुद्धिजीवी और मीडिया का एक वर्ग असल में बौद्धिक बेईमानी और दोगले पन का शिकार है। देखा जाये तो ये बुद्धिजीवी है ही नहीं। वे तो राजनीतिक एक्टिविस्ट हैं जिन्होंने  पिछले कई दशकों से सत्ता प्रतिष्ठान का सहारा लेकर बौद्धिकता का लबादा ओढ़ लिया है। अपने को लेफ्ट लिबरल कहने वाले ये तत्व हर मुद्दे पर अति वामपंथ, अराजकतावादियों और जिहादी इस्लामिक एक्टिविस्ट के बौध्दिक चम्पुओं की तरह व्यवहार करते दिखाई देते हैं। 

 

इसलिए कोई भी बात जब उनके आकाओं के राजनीतिक स्वार्थों या उनकी विचारधारा से भिन्न होती है तो वे ऊलजलूल तर्क देकर दूसरों की आवाज दबाने का प्रयास करते हैं। यह प्रयास बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि प्रशांत भूषण कई बार अपने प्रलाप और  उच्चतम न्यायालय में अपनी दलीलों के द्वारा करते आए हैं। आज जब उच्चतम न्यायालय ने उनको दोषी करार दे दिया है तो वे न्यायालय को ही मानने को तैयार नहीं है। अपनी राजनीतिक दलीलों को वे 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, 'अंतरात्मा की आवाज़', 'नैतिक दायित्व' और 'लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा' जैसे बड़े बड़े शब्दजाल के पीछे छिपाना चाहते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने शायद इन्हीं के बारे में लिखा था:

'पंडित सोइ जो गाल बजावा।'

समवेत स्वरों में बस जोर से शोर मचाने वाले  इन 'विद्वान् पंडितों' के तर्क नितांत बेढव और अटपटे हैं।

Delhi Riots 2020: The Untold Story  का प्रकाशन ब्लूम्सबरी द्वारा रद्द लिए जाने का मामला तो बेहद गंभीर है। लेखिका  मोनिका अरोड़ा का कहना है कि 'किताब का विरोध करने वाले ज़्यादातर लोगों ने किताब पढ़ी तक नहीं है। तो फिर ये कैसे तय कर दिया गया कि किताब छपनी ही नहीं चाहिए? इनके साझा शोर से ये प्रकाशक भी दर गया और उसने बिना सोचे विचारे प्रकाशन रद्द कर दिया। ब्लूम्सबरी प्रकाशन की व्यावसायिक प्रतिबद्धता पर भी हजार सवाल उठने स्वाभाविक है। मूल बात है कि क्या इस पुस्तक के लिखने वालों को अपनी बात कहने का अधिकार है कि नहीं? लोकतान्त्रिक समाज में कुछ लोग ये कैसे तय कर सकते हैं कि सिर्फ वही जब चाहेंगे और जैसी चाहेँगे  वैसे ही पुस्तकें लिखी जाएंगी। उनके मन मुताबिक ही लेख लिखे जाएंगे। वही बात सार्वजनिक जीवन में आएगी जिस रूप में ये तत्त्व चाहते हैं। अगर ये फासीवाद नहीं तो क्या है? असल में फासीवादी इस पुस्तक के लेखक नहीं। असली फासीवादी वे लोग हैं जिन्होंने इस पुस्तक के ब्लूम्सबरी द्वारा प्रकाशन को लेकर हो हल्ला मचाया और इसे रद्द कराया।

हमने अपनी बात 80 के दशक के एक विज्ञापन से शुरू की थी। अपनी बात का अंत हम आजकल चल रहे एक अन्य विज्ञापन से करेंगे। ये विज्ञापन भी कपड़ों की सफाई का ही है। ये कहता है - 'दाग अच्छे हैं।'इन अनुदारवादी  पॉलीटिकल एक्टिविस्ट को ये समझ लेना चाहिए कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सफेद कमीज' पहनने का अधिकार भारत के हर नागरिक को है। चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन या विचारधारा का प्रतिनिधित्व क्यों न करता हो। मीडिया, अकादमिक संस्थानों, कला क्षेत्र और साहित्यिक जगत पर अब तक राज करते आये ये लोग अक्सर दूसरे की तो सफेद कमीज तक को खराब घोषित करते आए है। इन घटनाओं ने साबित कर दिया है कि बौद्धिक दोगलेपन के जो छीटें इनके दामन पर पड़े हैं वे अब अनुदारवाद और घोर असहिष्णुता के स्याह काले दागों में तब्दील हो गए हैं।

कुछ भी हो भारतीय लोकतंत्र के लिए ये दाग अच्छे नहीं हैं। 

Sunday, August 9, 2020

राममंदिर निर्माण का विरोध करने वाले बाबर की मानस संतान हैं

राममंदिर निर्माण का विरोध करने वाले बाबर की मानस संतान हैं

अयोध्या से मेरा संबंध बहुत पुराना है। बचपन से ही माताजी पिताजी साल में क़म से कम दो बार अयोध्या जाते रहे हैं। उनके गुरु स्वामी राम हर्षण दास जी का आश्रम वहीँ है। पिछले कोई  50- 55 साल उनका ये क्रम अनवरत चलता रहा है। उस समय विश्व हिंदू परिषद के राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत भी नहीं हुई थी। मेरे माताजी पिताजी दोनों को ही हमेशा ये उत्कट इच्छा रही कि अयोध्या में जन्मस्थान पर राम मंदिर बन जाये। मेरे माता पिता दरससल उन  करोड़ों राम भक्तों का प्रतिनिधित्व करते थे हैं जो बिना किसी राजनीतिक उद्देश्य के अयोध्या में जन्मभूमि पर रामलला का भव्य मंदिर बनते देखना चाहते हैं।

 

कई विदेशी अख़बारों में पिछले दिनों कई लेख छपे हैं जिनमें अयोध्या की घटना को भाजपा के नेतृत्व में 'हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा मंदिर निर्माण' को एक राजनीतिक कदम बताया गया है। ऐसा लिखने वाले बड़ी भारी गलती कर रहे हैं। इसे महज राजनीतिक आंदोलन कहना इसका बड़ा सतही विश्लेषण हैं। रामजन्मभूमि के लिए चला संघर्ष कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं है। किसी भी राजनीतिक आंदोलन में इतनी शक्ति नहीं होती कि वह अनवरत कई सौ साल तक चल सके। हिन्दुओं के मन में  राम मंदिर निर्माण की  आकांक्षा  

और उसके लिए संघर्ष तकरीबन 500 साल से तो चल ही रहा है। मंदिर निर्माण के शुरू होने के कार्यक्रम को एक संकुचित राजनीतिक परिपेक्ष्य में देखने वाले ये लोग एक वैचारिक भ्रम के शिकार हैं।

 

मेरे पिताजी राजनीतिक नहीं थे। वे रेलवे में काम करते थे। उनका राजनीतिक विचारधारा या किसी दल से कोई संबंध नहीं था। पर अनन्य राम भक्त होने के कारण रामजन्मभूमि में उनकी अटूट आस्था थी। उनकी तरह ही  करोड़ों रामभक्तों ने शताब्दियों से इस मनोरथ में जीवन गुजारा है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि स्थान पर गरिमापूर्ण मंदिर बने। उस समय तक भाजपा के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ और आरएसएस की उत्तर प्रदेश में कोई खास पकड़ नहीं थी। दरअसल 60 -70  के दशक में तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अलावा समाजवादी आंदोलन की पकड़ कहीं अधिक  मज़बूत थी। मुझे ध्यान है कि जब मैं छोटा था तो मेरे बड़े भाईसाहब ने आगरा कॉलेज में छात्र संघ का चुनाव समाजवादी युवजन सभा के बैनर पर लड़ा था। पर उनके राम भक्त होने और समाजवादी होने के बीच कोई द्वंद नहीं था। इस बारीकी को राजनीतिक चिंतकों और राजनीतिक लेखकों को समझना आवश्यक है।

 

जब आप राममंदिर आंदोलन को सिर्फ एक राजनीतिक दल या विचारधारा के नजरिए से देखते हैं तो आप उसके आकलन में गलती करते हैं। जनमानस में क्या चल रहा है इसे समझने में ऐसी गलती खासकर 80-90 के दशक और उसके बाद कॉन्ग्रेस के नेताओं और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने की। वे खासकर उत्तर प्रदेश और भारत के बड़े हिस्से में जमीन पर क्या हो रहा है, इसको समझ ही नहीं पाए। जनभावनाओं के सतही आकलन और अपने 'सेकुलर' पूर्वाग्रह के कारण उन्होंने हर रामभक्त को संघी घोषित कर दिया। जब चिंतन पर राजनीतिक स्वार्थ हावी हो जाता है तो आप नीर-क्षीर विवेक खो देते हैं। जमीन से कटे हुए इन कथित चिंतकों, विचारकों, मीडियाकर्मियों और बुद्धिजीवियों को ये पता ही नहीं पड़ा कि उनका ये मतिभ्र्रम कब हिन्दू विरोध की आदत में बदल गया। आज भी जब मोदी के समर्थकों को 'भक्त' कहकर गाली दी जाती है तो अपनी 'श्रेष्ठ बौद्धिकता' के मद में जीने वाले ये लोग वही गलती दोहरा रहे होते हैं। 

 

इसका नतीजा क्या हुआ? मेरे पिताजी जो कि राजनीतिक नहीं, थे 90 के दशक तक आते-आते पूरे तरीके से भाजपा और संघ के समर्थक बन गए। उन्हें लगा कि उनके आराध्य भगवान् राम के न्यायोचित मंदिर का निर्माण सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनसे अनुप्राणित संगठनों के लोग ही करवा सकते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यकर्ताओं के समर्पण, निष्ठा, त्याग के मेरे पिताजी जैसे लोग कायल हो गए। बाकी तो सब इतिहास की बात है।

 

राम जन्मभूमि के उद्धार के लिए संघर्ष बहुत लंबा चला है। जब से बाबर के सेनापति मीर बकी ने वहां मंदिर का विध्वंश करके मस्जिद का निर्माण किया राम भक्तों ने चैन की रामभक्तों ने कभी सांस नहीं ली है। कहते हैं कि मंदिर को 1526 में तोडा गया। उसके बाद से ही अयोध्या में अनगिनत संघर्षों की गाथा है। संघर्ष कभी रुके नहीं।

 

अपने आराध्य के मंदिर के तलवार की नोक पर हुए इस क्रूरतापूर्ण विध्वंश को सामान्य समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया। कोई समाज अपने न्यायोचित अधिकारों के लिए  500 साल तक संघर्ष करता रहे यह एक अद्भुत घटना है। इस दौरान पहले इस्लाम को मानने वाले विदेशी आक्रांताओं का राज रहा। उन्होंने अक्सर पाशविक क्रूरता और असहिष्णुता के साथ हिन्दुओं के समस्त अधिकारों का निर्दयतापूर्वक अतिक्रमण किया। बाद में ईसाइयत को मानने वाले अंग्रेजों का राज रहा। अत्याधिक दमन, भय, जोर-जबरदस्ती और प्रलोभन के इस अंधकारपूर्ण माहौल में में भी पांच सदी तक हमारे समाज ने विधर्मी आक्रांताओं का प्रतिकार किया। दुनिया के इतिहास में कोई अन्य ऐसी घटना नहीं मिलती। 

 

कहते हैं 50 साल के क्रम में कोई चार पीढ़ियां गुजर जाती है।  तो इन 500 सालों में कोई 40 पीढ़ियां तो गुजर ही गयी होंगी। इन 40 पीढ़ियों में से हर एक पीढ़ी ने दूसरी पीढ़ी को इस संघर्ष की चेतना उत्तराधिकार के रूप में सौपीं।  एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को यह बताते गई कि राम की भूमि अयोध्या ही है। इसलिए बलपूर्वक जिन विधर्मी आक्रमणकारियों ने राम की जन्मभूमि को उनके भक्तों से छीना है उसके लिए संघर्ष करना उनका धार्मिक, नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व है। इस मायने में राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण का कार्य शुरू होना अपने आप में सिर्फ एक धार्मिक घटना मात्र नहीं है। यह घटना सामूहिक राष्ट्रीय चेतना के निरंतर संग्रहण और सिंचन का प्रतीक है। यह उस अनवरत चलने वाले संघर्ष की ज्योति का प्रतीक है जो करोड़ों दिलों में अनवरत जलती रही है।

 

5 अगस्त की घटना को सीमित, संकुचित राजनीतिक और धार्मिक नज़रिये से देखने वाले फिर एक मूलभूत गलती कर रहे हैं। वे इस समाज और उसमें व्याप्त चेतना को समझ ही नहीं पा रहे। अयोध्या का समारोह भारतीय समाज की जिजीविषा,  समृद्ध  विरासत के प्रति उसका समर्पण, उसके शाश्वत संकल्प, साधन हीन होने पर भी संघर्ष करने के मनोबल और घोर विपरीत परिस्थितियों में ना चुकने वाले उसके धैर्य का प्रतीक है।

 

इस राष्ट्रीय सामाजिक चेतना की लौ को निरंतर जलाये रखने में एक महानायक ने बड़ी भूमिका अदा की। वे थे गोस्वामी तुलसीदास। तुलसीदास जी रामचरितमानस लिखकर ही रुके नहीं बल्कि  उन्होंने रामलीला का मंचन भी आरंभ किया। गरीब, अमीर, हर जाति और वर्ग, विद्वान, अनपढ़, स्त्री और  पुरुष सब तक तुलसी ने अनुपम रामकथा द्वारा इस चेतना को पहुंचाया। रामलीला और रामचरितमानस इस संघर्ष की अंतः चेतना की रीढ़ की हड्डी है। इस नाते गोस्वामी तुलसीदास राम जन्मभूमि पुनर्निर्माण के वैचारिक प्रणेता ही नहीं बल्कि पहले एक्टिविस्ट भी हैं। आज देश के कण-कण में जो राम बसे हुए हैं वह गोस्वामी तुलसीदास की देन है। 

 

इस संघर्ष के अनेक ज्ञात और अज्ञात नायक रहे हैं। जिन्होंने 500 साल निरंतर अपने रक्त और विचारों से इसे सींचा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्य नाथ, स्वर्गीय अशोक सिंघल, लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता निस्संदेह इसके तात्कालिक नायक हैं। क्योंकि आज उनके समय में इस यज्ञ की पूर्णाहुति हो रही है।  पर क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और अनेकानेक संतों की भूमिका और अनगिनत अनाम रामभक्तों की भूमिका को भुलाया जा सकता ह?

 

जब इस्लामी जिहाद और क्रूसेड का अंधड़ शुरू हुआ तब मध्य पूर्व से लेकर सुदूर पूर्व तक एक के बाद एक देश, संकृतियाँ और पुरानी सभ्यताएं परास्त होने के बाद समूल परिवर्तित /नष्ट होती गई।  मेसोपोटामिया, मिस्र, ईरान, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि इसके अन्यतम उदाहरण हैं । एक के बाद एक पुरानी सभ्यताओं का तकरीबन नामोनिशान मिटा दिया गया। पर विदेशी आक्रांता अपनी भरपूर कोशिशों के बावजूद भारत में ऐसा नहीं कर पाए । भारतीय समाज की अंतर चेतना में जो सांस्कृतिक और विरासत के मूल्य स्थापित हुए थे वह इतनी सघन, शुद्ध और गहरे थे कि तलवार का भय, प्रलोभन और अन्य कोई लालच उसे बदल नहीं सका। ये सही है कि इन प्रचंड आँधियों ने कुछ पेड़ों को झुकाया, कुछ डालियों को तोड़ दिया, कुछ फूल मसल दिये गए और अनगिनत कलियों को कुम्हला दिया, पर भारतीय सभ्यता का समूचा उपवन उजड़ा नहीं। अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर में निर्माण कार्य का शुरू होना हमें यही बताता है।

 

रामचरितमानस में एक वर्णन है। जब राम और रावण युद्ध के लिए आमने-सामने खड़े हुए तो विभीषण ने देखा कि राम  पैदल और नंगे पैर हैं, जबकि महा बलशाली रावण रथ पर सवार था।  तुलसीदास जी लिखते हैं :

"रावनु रथी बिरथ रघुवीरा, देखि बिभीषन भयउँ अधीरा।"

विभीषण ने राम से पूछा कि आप नंगे पैर, बिना रथ कैसे दस सिरों और बीस भुजाओं वाले रावण को जीतेंगे? वहां जो राम नीति का वर्णन करते हैं वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। भगवान् राम कहते हैं कि युद्ध सिर्फ शस्त्रों से नहीं जीते जाते। जिसके पास धर्म, नीति, सत्य पर आस्था और विवेकपूर्ण आचरण का रथ होता है वही युद्ध भी जीतता है।

श्रीराम कहते हैं :

महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।

जाके अस रथ होइ दृढ, सुनहुं सखा मतिधीर।

 

भगवान् राम की यह उक्ति राम जन्मभूमि के लिए हिंदुओं द्वारा किए गए संघर्ष पर भी लागू होती है।  न तो उन्होंने धर्म छोड़ा, न आशा छोड़ी और ना ही संघर्ष छोड़ा।  इसी कारण 500 साल बाद राम जन्मभूमि पर मंदिर बनने की शुरुआत उस राष्ट्रीय स्वप्न की पूर्ति है जो करोड़ों भारतीयों ने कई सदियों तक पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार  धैर्यपूर्वक संजों कर रखा था। सामाजिक और राष्ट्रीय जागरण का ये आंदोलन समाज की सामूहिक चेतनाउसकी अस्मिताउसके मान सम्मानआत्म भान का संकल्प है।  




 

यह राष्ट्रीय अनुष्ठान अभी पूरा नहीं हुआ है। जिस अनुदारवादी और असहिष्णु सोच ने मध्यकाल में मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई थी उसकी अनुकृतियाँ आज भी जिंदा है।  वैसे अच्छा तो यह होता कि 1947 के बाद इस्लाम के अनुयायी कहते कि राम आपके इष्ट हैं। मीर बकी और बाबर विदेशी आक्रांता थे तथा इस्लाम में पूज्य भी नहीं है। इसलिए आप अपने इष्ट देव का मंदिर बनाएं। आजादी के बाद ही यदि तुरंत ये ज़मीन राममंदिर बनाने को सौंप दी जाती तो कितना अच्छा होता? पर राजनीतिक स्वार्थों, छद्म सेकुलरवादियों की हरकतों और इतिहासकारों के रूप में प्रचारित वामपंथी बुद्धिजीवी एक्टिविस्टों ने ऐसा नहीं होने दिया।

 

एक लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद  भारत के सुप्रीम कोर्ट ने सर्वानुमति से मंदिर के पक्ष में नवम्बर 2019  फैसला दिया। इसी के तहत मंदिर निर्माण का काम शुरू हुआ है।   अब भी जो इसका विरोध कर रहे हैं वे न भारत के संविधान में, न भारत की न्यायिक व्यवस्था में और न ही किसी नैतिकता में आस्था रखते हैं। वे उन ताकतों की मानस संतान हैं जिन्होंने मंदिर ही नहीं बल्कि मध्यकाल में भारत की आत्मा को तोड़ने का भी असफल प्रयास किया था।

Monday, June 1, 2020

आपदा और राजा का धर्म





जब किसी देश पर कोई विपत्ति आती है तो राजा का और आज के संदर्भ में सत्तासीन नेताओं का जनता के प्रति क्या कर्तव्य है? इस  राजधर्म की बड़ी सुंदर व्याख्या भारतीय वांग्मय में की गयी है।
रामचरितमानस में तुलसीदास जी लिखते हैं :
"जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।"
अर्थात जिस राजा के राज्य में प्रजा दुखी होती है उसे नरक मिलता है।
इसी बात को एक और तरह से उन्होंने लिखा है। 
"सोचिअ नृपति जो नीति न जाना, जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।
यानि जो शासक अपनी जनता को अपने प्राण के समान प्यारा नहीं मानता वह सोच करने के लायक है।

राजा के धर्म का निरूपण कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में भी किया है। वे लिखते हैं :
प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं प्रियं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं प्रियम्॥ (अर्थशास्त्र 1/19)
अर्थात्-प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में उसका हित है। राजा का अपना प्रिय कुछ नहीं है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है।
एक अन्य ग्रन्थ में प्रजा को संतान के बराबर बताया गया है।
"पुत्र इव पितृगृहे विषये यस्य मानवाः। निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तम॥"

इन सभी ग्रंथों की उक्तियों का एक ही निचोड़ है कि राजा को जनता का उसी तरह ध्यान रखना चाहिए जिस तरह एक पिता अपने पुत्र की देखभाल करता है। आज के लोकतान्त्रिक सन्दर्भ में इस बात का सीधा अर्थ है - जो शीर्ष पर बैठा हुआ नेता अपनी संतान की तरह लोगों के प्राण, उनकी आजीविका तथा सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता, वह राज्य करने लायक नहीं है।

इसी सिद्धांत को कोरोना संकट और उससे उत्पन्न स्थितियों पर भी लागू किया जाना चाहिए। यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि कोरोना एक ऐसी बीमारी है जिसका पूर्वानुमान लगाना किसी के लिए संभव नहीं था। जिसकी तैयारी कर पाना किसी के वश में नहीं था। इस छूत की बीमारी से बचने के कोई स्थापित मानक नहीं थे। लेकिन इस विपत्ति के समय एक ही अपेक्षा थी कि सत्तासीन नेता इस पर राजनीति न करें और लोगों को बीमारी से बचाने के लिए और उनकी तकलीफें दूर करने के लिए जो भी मुनासिब हो वो करें।

कोरोना के साथ भारत के अबतक के अपेक्षाकृत सफल युद्ध में दो बड़ी दुर्घटनाएं हुईं हैं। इन घटनाओं ने इस बीमारी के फैलाव और उससे पैदा हुई तकलीफों को और बढ़ा दिया। पहली गंभीर घटना थी  तबलीगी जमात के कारण कोरोना के संक्रमण का जबरदस्त फैलाव। पहले तो ऐसा लगा कि यह इतना बड़ा झटका है जिससे  उबर पाना मुश्किल होगा। पर देश ने बड़े धैर्य, संयम, जहाँ आवश्यक हुआ वहां ज़रूरी सख्ती के साथ इसका सामना किया। मोटे तौर पर तब्लीगी जमात की पोंगापंथी, मूर्खता, जाहिली और दकियानूसी सोच से उत्पन्न इस संकट को ठीक तरीके से हल किया गया।

यह संकट अभी ख़त्म नहीं हुआ था कि दूसरी बड़ी विपदा देश के सामने आ गयी। वह थी देशभर से मजदूरों के पलायन की समस्या।  इस संकट का सामना मेरे विचार से उतनी अच्छी तरह नहीं हुआ जिस तरीके से किया जा सकता था। मजदूरों की एक विकट समस्या सबसे ज्यादा विकराल हुई देश की वित्तीय राजधानी मुंबई तथा देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली में। देश में ज्यादातर मजदूर दो राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार से आते हैं। आज देश में कोरोना संक्रमण के जितने मामले हैं उनमें से आधे से अधिक इन चार राज्यों - महाराष्ट्र (70013), दिल्ली (20834), उत्तर प्रदेश (8361) और बिहार (3945) में ही हैं। कुछ हद तक यह समस्या गुजरात में भी देखी गई।

सबसे पहले इस समस्या के संकेत दिखाई दिए दिल्ली में। देश में लोकडाउन 25 मार्च को शुरू हुआ था। उसके तीन दिन बाद  28 मार्च को राजधानी दिल्ली में अचानक मजदूरों को संदेश मिला कि उनके जाने के लिए दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे पर व्यवस्था की गई है। ये बस अड्डा दिल्ली - उत्तरप्रदेश सीमा पर है। कई मोहल्लों में व्हाट्सएप के जरिए व अन्य संचार माध्यमों के जरिए मजदूरों तक यह अफवाह पहुंचाई गई। यह गंभीर जांच का विषय कि किसने राजनीतिक स्वार्थों के कारण यह अफवाह फैलाई। 

मीडिया में छपी खबरों के अनुसार दिल्ली में सत्ताधारी आम आदमी पार्टी के कुछ स्थानीय नेताओं का इसमें हाथ था। पार्टी के विधायक राघव चड्ढा की एक विवादित ट्ववीट भी इस दौरान आई जिसमें कहा गया था कि उतर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मज़दूरों को पिटवा रहें हैं। जबकि यह बात झूठी निकली। लाखों मजदूर जब आनंद विहार बस अड्डे पर पहुंचे तो अफरा-तफरी तो मचनी ही थी। इस घटना के चित्र, खबरें और वीडियो  मीडिया में  छाए रहे। दुनिया में ये संदेश गया कि मजदूर बेहद परेशान है। अब यह जिम्मेदारी हर उस राज्य की थी जहां भी यह प्रवासी मजदूर रह रहे हैं। इन राज्यों को सुनिश्चित करना था कि श्रमिकों की ठीक से व्यवस्था हो। उन में आई हुई स्वाभाविक अनिश्चितता और बेचैनी कम हो। उनके खाने पीने का सही इंतजाम हो। साथ ही उन से रहने की जगहों का किराया ना मांगा जाए। इस सबका उद्देश्य कोरोना के फैलाव को आगे बढ़ने से रोकना था। लेकिन ऐसा लगता है कि इसमें कई जगह कोताही हुई।

उधर 15 अप्रेल को मुंबई में बांद्रा के पास एकाएक कई हजार मजदूर जमा हो गए। उन्हें भी यह बताया गया था कि उनके लिए जाने की व्यवस्था की जा रही है। विनय दुबे नाम के एक कथित सामजिक कार्यकर्त्ता ने सोशल मीडिया पर बाकायदा लोकडाउन के खिलाफ राजनीतिक अभियान चलाया जिसे मुंबई की पुलिस और प्रशासन ने अनदेखा किया। जबकि दिल्ली की घटना के बाद मुंबई को मुस्तैद होना चाहिए था। असल में इस व्यक्ति के साथ नरमी बरती गयी क्योंकि इसके सत्ताधारी नेताओं के साथ नज़दीकी रिश्ते थे। उधर कुछ मीडिया खबरों के मुताबिक महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने तो यहां तक कहा कि मजदूरों को अपने राज्यों में चला जाना चाहिए।  इस सारे घटनाक्रम से  प्रवासी मजदूरों में खासी बेचैनी फैली। फिर तो हर जगह ऐसी घटनाओं का सिलसिला आरंभ हुआ। गुजरात में भी कई जगह ऐसा हुआ। 

राज्यों ने मज़दूरों की मनःस्थिति समझने में संवेदनहीनता का परिचय दिया। मजदूर गहरे संकट में थे। अधिकतर मजदूर एक साथ छोटे-छोटे कमरों, झोपड़ियों या अस्थायी निर्माणों में रहते है। वे घर से दूर थे। कामकाज बंद हो चुके थे। बेकार श्रमिक बदहाल थे। छोटे छोटे दड़बों में रहने  वाले मजदूरों की मानसिक अवस्था क्या होगी इसे समझा जा सकता है।  उन्हें चिंता रही होगी - अपने घरबार की; उन्हें  रही चिंता होगी अपने काम की; चिंता रही होगी अपनी जान की; उन्हें दूर बसे अपने परिवार की चिंता रही होगी।  यों भी जब पूरी दुनिया में कोरोना के संक्रमण और मौत का मंजर फैला हो तो व्यक्ति अपनों के साथ रहना चाहता है।  इसलिए मजदूरों की दिक्कत समझी जा सकती है।  उसके साथ सहानुभूति होनी चाहिए थी।  जैसा कि हमने ऊपर कहा कि राजा का धर्म होता है अपनी प्रजा की  चिंता संतान की तरह करें। पर महाराष्ट्र, दिल्ली और गुजरात में शुरू के दिनों में स्थानीय नेतृत्व ने ऐसा नहीं किया। 

ऐसा लगा कि महाराष्ट्र और दिल्ली में वहां का स्थानीय नेतृत्व चाहता था कि जितना जल्दी से जल्दी हो ये मजदूर अपने घरों को लौटे। यह एक गैर ज़िम्मेदार सोच थी जो प्रवासी मज़दूरों को अपना नहीं बल्कि दूसरा समझती थी। इसमें अपनत्व नहीं बल्कि फौरी राजनीतिक स्वार्थ का भाव था।  दिल्ली और मुंबई की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने में इन प्रवासी लोगों का महत्वपूर्ण योगदान है। 

प्रवासी श्रमिक भारत के नागरिक हैं।  वे किसी भी राज्य के हों तथा आजीविका के लिए कहीं भी रहते हों, देश के संसाधनों पर उनका उतना ही अधिकार है जितना किसी और नागरिक का। इन्हें वह सब मिलने का हक था जो कि किसी अन्य नागरिक को मिलता है। पर ऐसा नहीं हुआ इसके कारण मजदूरों में दूसरेपन का संदेश गया। इसके कारण पहले से ही एकाकी, क्षुब्ध, परेशान और काम न होने के कारण चिंतित मजदूरों में संदेश गया कि उन्हें घर लौटना चाहिए। इससे  देश में अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया। देश में प्रवासी मज़दूरों की संख्या करोड़ों मे हैं। इन सब की व्यवस्था करना इतना सरल भी नहीं था।  पर न तो इन तक सही संदेश पहुंचाने की व्यवस्था की गई और ना ही समाज के इस अहम हिस्से से संवेदन शील तरीके से संवाद किया गया।

इसके बाद भागमभाग का जो मंजर फैला उसे हमने देखा।  उससे एक अंतर्राष्ट्रीय नेरेटिव बना कि सरकारे तकलीफ में पड़े हुए अपने मजदूरों के प्रति संवेदनशील नहीं है। दुनिया भर के मीडिया में असंख्य सही और गलत स्टोरी इस पर चली हैं। हर स्तर पर अपने देश की व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है। अभी भी इस पर राजनीतिक बयानबाजी हो रही है जो अत्यंत अफसोसजनक है। इससे नेताओं को बचने की आवश्यकता है। 

इनमें से ज्यादातर प्रवासी मजदूर दो राज्यों  उत्तर प्रदेश और बिहार के हैं। जहां उत्तर प्रदेश में एक बड़ी हद तक संवेदनशीलता दिखाई,  वही बिहार के नेताओं का आचरण उचित नहीं था।  शुरू में बिहार के मुख्यमंत्री ने कहा कि इतनी बड़ी संख्या में जब बिहार के लोग लौटेंगे तो उसके लिए राज्य तैयार नहीं है। संकट के समय ऐसा बयान उचित नहीं था।  देश के हर नागरिक को अपने घर जाने का अधिकार है।  और बिहार की सरकार को इस तरह का संवेदन हीन बयान नहीं देना चाहिए था।  उधर महाराष्ट्र सरकार का पूरा रिस्पांस भ्रम से भरा हुआ था। ऐसा लगा कि उन्हें पता ही नहीं था कि क्या करना है। पहले तो लोकडाउन को बड़े लचर तरीके से लागू किया गया। मुंबई देश की वित्तीय धड़कन है। वहाँ कोरोना रोकने के लिए जो प्रशासनिक मुस्तैदी चाहिए थी वह नदारद थी। इस प्रशसनिक लचरपन को राजनीतिक बयानबाजी की आड़ में छिपाया नहीं जा सकता। 

शायद राज्य सरकार चाहती थी कि प्रवासी जल्द से जल्द  दूर चले जाएं  और राज्य की समस्या कम हो जाए। पर हुआ उसका उल्टा ही। शुरू के दिनों में महाराष्ट्र में लॉक डाउन को लेकर जो अनिश्चितता बनी उसके कारण वहां परिस्थिति विषम से विषमतर होती गई l आज स्थिति है कि महाराष्ट्र में 70,000 से ज्यादा कोरोना पीड़ित हैं।  महाराष्ट्र और खासकर मुंबई में इसकी तैयारी नहीं है। राजनीतिक रस्साकशी और नेतृत्व की अनुभव हीनता के कारण महाराष्ट्र जैसी सक्षम प्रशासनिक व्यवस्था ऐसे लगता है कि लाचार हो गई है। इससे उलट उत्तर प्रदेश का उदाहरण देखें तो मुख्यमंत्री योगी ने शुरू के दिनों में लोकडाउन में बेहद सख्ती दिखाई और बाद में मजदूरों के प्रति संवेदनशील व्यवहार रखा।  इसी  के कारण शायद वे अपने यहां कोरोना के संक्रमण को काफी सीमित रख पाए है।  उधर गुजरात और तमिलनाडु में भी शुरू में इस समस्या की अनदेखी की गई। वहां भी मजदूरों के संकट को कम करके आंका गया। दिल्ली का हाल भी बुरा है। तीनों राज्यों में कोरोना संक्रमण की स्थिति नाज़ुक हैं।

कहा जा सकता है कि इस विपदा की घड़ी में कुछ राज्यों का नेतृत्व कसौटी पर सही नहीं उतरा।  उसने मजदूरों को तकलीफ में फंसे अपने देशवासियों के रूप में न देखकर एक समस्या के रूप में देखा। उस समस्या को अपने से दूर रखने की कोशिश की। नेतृत्व में ज़रूरी संवेदनशीलता के अभाव से ये समस्या और भी गंभीर हो गयी। नहीं तो हमें देश में ऐसे दृश्य नहीं देखने को मिलते जो आज मीडिया में दिखाई दे रहे हैं।
फिर भी यह कहना पड़ेगा कि भारतीय समाज ने  हर स्थान पर प्रवासी परिवारों से अपनत्व का  व्यवहार किया। हर स्थान पर जिससे जितना संभव हुआ लोगों ने इनके दिक्कते दूर करने के लिए प्रयास किये।  सामाजिक-धार्मिक संस्थानों जैसे गुरुद्वारों, मंदिरों, स्थानीय संस्थाओं, सेवा भारती, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा सैकड़ों अन्य छोटे बड़े  संगठनों और व्यक्तिगत तरीके से लोगों ने जितना भी बन पड़ा अपने इन प्रवासी मजदूर भाइयों के लिए किया। खाना, पानी, वाहन, राशन, चिकित्सा  आदि की व्यवस्था की। अगर यह सामाजिक शक्ति भारत में नहीं होती तो यह संकट कितना बड़ा हो सकता था इसकी कल्पना करना भी तकलीफ देह है।

Tuesday, May 5, 2020

भारत में कोरोना, इस्लामोफोबिया और पश्चिमी मीडिया

सारे कुचक्रों के बावजूद कोरोना हारेगाभारत जीतेगा।

रामचरितमानस का एक वृतांत है। राम और रावण का युद्ध चल रहा है। मेघनाथ, कुंभकरण, अहिरावण सहित  रावण के सभी प्रमुख योद्धा मारे जा चुके हैं। राक्षस सेना काफी कम हो चुकी है। दशानन तकरीबन अकेला है। तुलसीदास जी लिखते हैं कि रावण उस समय सोचता है कि मैं अब अकेला पड़ गया हूँ तो मुझे कुछ कोई और खेल खेलना पड़ेगा:

रावण हृदय बिचारा, भा निसिचर संहार। मैं अकेल कपि भाल बहु माया करों अपार।

यानि हार नज़दीक जानकर रावण, युद्ध में उस समय माया यानि भ्रम की स्थिति पैदा करता है। अपनी सिद्धियों के ज़रिये वह झूठमूठ के अनेक रावण युद्ध के मैदान में पैदा कर देता है। इससे वानर-भालू सेना में दृष्टिभ्रम पैदा हो जाता है। अनेक रावण मैदान में देखकर राम की सेना ही नहीं, आकाश स्थित देवता भी परेशान हो जाते हैं। राम को सबसे पहले इस माया को खत्म करना पड़ता है। और तभी रावण का अंत हो पाता है।

यह पौराणिक गाथा एक सांकेतिक स्थिति का वर्णन करती है। जीवन के तकरीबन हर मोर्चे की यही स्थिति है। युद्ध में भ्रम की स्थिति पैदा करना शत्रु की रणनीति का हिस्सा होता है। इसका उद्देश्य होता है विपक्षियों के मन में संदेह पैदा करके बच निकलने का रास्ता ढूंढ़ना। आज के सन्दर्भ में देखें तो इस समय दुनिया में दो युद्ध चल रहे हैं। एक महायुद्ध है मानवता और कोरोना के बीच का। इस भयानक युद्ध में अब तक दो लाख 52  हजार से ज्यादा इंसान मारे जा चुके हैं। 36 लाख से ज्यादा मनुष्य इससे संक्रमित हो चुके  हैं। ये संक्रमण देश की सीमाएं नहीं जानता और न ही ये मजहब की दीवारों को पहचानता है। मगर इस मौके का फायदा उठाकर कुछ लोग एक और युद्ध में विजय पाना चाहते हैं और वह है भारत में चल रहा नेरेटिव का युद्ध।  नेरेटिव यानि  कथ्य की इस लड़ाई में अब एक भ्रम पैदा करने की कोशिश हो रही है। वह है इस्लामोफोबिया का भूत। 

एक तरफ देश कोरोना  के साथ युद्ध में प्राणप्रण  के साथ लगा हुआ है। वही दूसरी तरफ कुछ लोग, जिसमें मीडिया का एक वर्ग भी शामिल है, इसे बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की लड़ाई में परिवर्तित करना चाहता है। ऐसा भ्रम फैलाने के पीछे उसका उद्देश्य है कि कोरोना के साथ जो युद्ध चल रहा है उससे देश का ध्यान भटक जाये। अब तक जो आंशिक सफलता देश ने कोरोना महामारी के विरुद्ध हासिल की है वह तिरोहित हो जाए।

ये विश्व व्यापी महामारी है जो तथाकथित विकसित देशों में अधिक विकराल रूप में फैली है। इससे मरने वाले की तादाद अब (5 मई) तक अमेरिका में 69921, इटली में 29079, फ्रांस में 25201, ब्रिटेन में 28734 और स्पेन में 25428 हो चुकी है। भारत में अभी तक इस बीमारी से अपेक्षाकृत कम नुकसान हुआ  है। इसका श्रेय भारत की आम जनता के त्याग एवं निश्चय, सरकार की तत्परता, प्रधानमंत्री मोदी का लोगों से सीधा संवाद और हमारी गहरी सामाजिक विरासत को जाता है। संभवत यही बात कुछ तत्वों  को पच नहीं रही। खासकर पश्चिमी मीडिया के एक बड़े वर्ग और उनके यहाँ के प्रतिनिधियों को ये शायद असहज लग रहा है। संभवतः उन्हें अपेक्षित था कि यहाँ पश्चिमी देशों से ज़्यादा कहर मचे।  इस वर्ग की नीयत पर संदेह की बात अगर हम छोड़ भी दें, तो ये वर्ग एक खास रंग के  चश्मे से भारत को देखता  आया है। ये भारत को एक अशिक्षित, गरीब, अविकसित, पिछडे, गंदगी से भरे, अस्वस्थ, गैर-अनुशासित और विभाजित मानसिकता वाले देश के रूप देखते आये हैं। शताब्दियों से भारत का चित्रण इसी नज़रिये से होता रहा है। भारतीय समाज की आंतरिक आध्यात्मिक शक्ति, जिजीविषा और उसकी विरासत की मजबूती आज तक ये लोग देख ही नहीं पाए हैं। इसीलिए पश्चिमी मीडिया और उस जैसी सोच रखने वाले अन्य लोग ये समझ नहीं पा रहे कि  इस देश में कोरोना ने अभी तक मौत का तांडव क्यों नहीं मचाया?

इसी नासमझी के कारण शायद #तबलीगीजमात के मामले को लेकर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया में  एक के बाद एक समाचार आए हैं कि भारत में मुसलमानों को प्रताड़ित किया जा रहा है। कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि भारत में मुसलमान होना पाप हो गया है। वे इक्का-दुक्का घटना को लेकर यह प्रचारित कर रहे है कि भारत में मजहब के आधार पर इलाज किया जा रहा है। अक्सर लिखने वाले अपने लेखों में ना तो कोई ठोस सबूत देते हैं न ही कोई सटीक उदाहरण ही प्रस्तुत करते हैं। बल्कि कुछ एकाकी घटनाओं को बेतरतीब तरीके से आपस में  जोड़कर यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं की भारत में अब #इस्लामोफोबिया है। इन असंगत घटनाओं का उपयोग वे सिर्फ अपने पूर्व  निर्धारित वैचारिक आग्रहों को सिद्ध करने के लिए ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

कुछ  रिपोर्ट्स का उल्लेख करना यहाँ ठीक रहेगा:
"भारत में मुसलमान होना तो अपराध था ही, उसपर ये कोरोना आ गया"  ("It Was Already Dangerous to Be Muslim in India. Then Came the Coronavirus") यह प्रतिष्ठित टाइम मैगज़ीन में 3 अप्रेल को छपे लेख का शीर्षक है। इस शीर्षक को पढ़ने के बाद इसकी निष्पक्षता के बारे में क्या कहा जा सकता है?

13 अप्रेल के 'द गार्डियन' में लिखा गया कि "कोरोना वायरस के पीछे मुसलमानो के षड्यंत्र की कहानियां उन्हें निशाना बनाकर देश भर में फैलाई जा रही हैं"    ("Coronavirus conspiracy theories targeting Muslims spread in India")

पत्रिका 'फॉरेन पॉलिसी' के 22 अप्रेल के अंक की एक रिपोर्ट कहती है - "भारत कोरोना फ़ैलाने के लिए मुसलमानों को बलि का बकरा बना रहा हैं।"  ("India Is Scapegoating Muslims for the Spread of the Coronavirus")

'टेलीग्राफ नेपाल' के 22 अप्रेल के ई-अंक में  "भारत में मुसलमानो का नरसंहार" शीर्षक से एक लेख छपा है । 

'अल जजीरा' की 25 अप्रेल की खबर में तो भारत के पूरे लॉक डाउन को ही इस्लामोफोबिया का प्रतीक बता दिया गया। इस खबर का शीर्षक था "भारत का लॉकडाउन: असमानता और इस्लामोफोबिया की एक गाथा"   ("India's lockdown: Narratives of inequality and Islamophobia")

इस तरह के अनेकानेक समाचार, लेख, सम्पादकीय और टिप्पणियां दुनिया के कई बड़े प्रकाशनों में पिछले कोई एक महीने में लगातार आये हैं। इन्हें गढ़ने वाले कई ऐसे पत्रकार और लेखक हैं जिन्हें ख़बरों की दुनिया में बड़ामाना जाता है। इनमें से अधिसंख्य अपनी ये रिपोर्ट लिखने से पहले ज़मीन पर नहीं उतरे। किंवदंतियों, अर्धसत्योंव्हाट्सएप्प संदेशों (जिनमें कई फेक भी निकले}, पूर्वाग्रह से ग्रसित आलेखों, एकतरफा विचारों और मान्यताओं के आधार पर इन्होने खबरों की आड़ में बस एक नजरिया दुनिया को परोस दिया। निष्पक्षता का तकाज़ा था  कि ये अपने विचारों और अभिमतों को इतना एकतरफा नहीं बनाते।

ये सही है कि मार्च और अप्रेल के महीनों में तबलीगी मरकज के कारण देश में कोरोना के मामलों में वृद्धि हुई। तबलीगी जमात के रहनुमाओं ने अपनी मूर्खताज़िद तथा अंधविश्वास के कारण सबसे पहले तो अपने अनुयायियों की जिंदगी को खतरे में डाला। आगे कई प्रदेशों में कोरोना का संक्रमण उनके कारण गया। इस कारण तब्लीगी जमात लोगों के निशाने पर आ गई। ऐसा अस्वाभविक भी नहीं था। कई लोगों ने तब्लीग़ियों और आम मुसलमानों में भी घालमेल किया। पर पत्रकारीय दायित्व का तकाज़ा था कि ये प्रतिष्ठित प्रकाशन बताते कि तब्लीग़ जमात सारे मुसलमानो का प्रतिनिधित्व नहीं करती। कटटरता और पुरातनपंथ से ग्रसित तब्लीग जमात, इस्लाम का एक पंथ मात्र है। तब्लीग़ियों ने सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया तथा अन्य कई देशों में भी कोरोना को फैलाने में भूमिका निभाई। ऐसा करने वाले तबलीगी अकेले मजहबी  या पंथिक लोग नहीं थे। अमेरिका में यह काम बाइबल बेल्ट के अंदर रूढ़िवादी चर्च के लोगों ने किया। दक्षिण कोरिया में यह काम चिनशियोजी चर्च के लोगों ने किया। तो फिर तबलीगी मुसलमानों के एक प्रकरण को लेकर पूरे भारत में इस्लामोफोबिया का भूत खड़ा करना कितना सही है?

ऐसा ही नहीं हुआ, बल्कि इस्लामोफोबिया का भूत खड़ा करने के लिए भारत विरोधी निहित स्वार्थी तत्वों ने झूठ और फरेब का एक जाल भी खड़ा किया। खाड़ी के देशों से कई फेक और जाली एकाउंट से सोशल मीडिया पर एक अभियान  चलाया गया। ओमान और सऊदी अरब के राजघरानों से सम्बंधित प्रतिष्ठित लोगों के नाम से भी जाली एकाउंट बनाकर भड़काऊ ट्वीट किये गए। इनमें से कई ट्विटर एकाउंट भारत के चिर विरोधी पाकिस्तान से निकले। भारत में मजहबी फसाद फैलाना तो पाकिस्तान की नीति का अभिन्न हिस्सा है ही।

पत्रकारिता के मानदंड तो कहते हैं कि इस एकतरफा प्रचार की पड़ताल की जाती। पर ऐसा नहीं हुआ।  बिना जांच के मीडिया के इस वर्ग ने इस प्रचार को तथ्य बतलाकर दुनिया को परोस दिया। असल में दिक्कत तब होती है जब आप घटनाओं को देखने के लिए एक खास चश्मा तय कर लेते हैं। फिर आपको सत्य नजर नहीं आता।  इसीलिए कोरोना से संबंधित उद्धृत इन खबरों  में एक खास बनाबट आप देख सकते है। तकरीबन इन सबमें पहले तबलीगी जमात का उल्लेख होता है। फिर लेखक दिल्ली के दंगों को इनसे जोड़ता है। इस तार्किक उछलकूद में मोदी सरकार का जिक्र होना तो स्वाभाविक है ही। जब मोदी का नाम आया तो फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कैसे छूट सकता है? #आरएसएस यानि हिन्दू। और हिन्दू का तात्पर्य सीधे मुस्लिम विरोधी होना। इसे तर्क़ कहें या कुतर्क - पर यही तानाबाना हर घटनाक्रम पर फिट कर दिया जाता है।   घटनाओं के तथ्यपरक, निरपेक्ष और और समग्र विश्लेषण की बजाय वे अपने पूर्वाग्रह को साबित करने के लिए बस घटनाओं का इस्तेमाल करते हैं। वे अपने नजरिए को, जो कि भारत को हिंदू - मुसलमान की दृष्टि से देखता है कोरोना के घटनाक्रम पर भी लागू करना चाहते हैं।

बहुत सुविधा के साथ  वे कई तथ्यों को पूरी तरह अनदेखा करते हैं। #राष्ट्रीयस्वयंसेवकसंघ के सरसंघचालक डॉक्टर मोहन भागवत ने 26 अप्रेल के अपने भाषण में कहा कि देश के 130 भारतीय बिना किसी भेद के अपने ही है। एक घटना का इस्तेमाल करके सभी मुसलमानों को दोष देना सही नहीं है। यही बात कमोवेश पिछले अक्टूबर में सार्वजनिक भाषणों में भी उन्होंने कही थी। पर शायद यह बात इन तथाकथित निष्पक्ष पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के कथ्य में फिट नहीं बैठती इसलिए इनकी यह अनदेखी करते हैं।

#कोरोना  के खिलाफ लड़ाई एक लम्बी लड़ाई है। ये तय है कि मानवता के साथ-साथ भारत भी इस लड़ाई को जीत ही लेगा। पर नेरेटिव और कथ्य की लड़ाई में, भारत को एक खास नजरिए से देखने वाले लोग, अपने को ठगा हुआ और परास्त महसूस कर रहे हैं। अपनीं ही सोच के जाल में फंसा हुआ यह वर्ग इसे अपने हाथ से जाने नहीं देना चाहता। दलदल में फँसा हुआ व्यक्ति जिस तरह ज़्यादा हाथ पाँव मारकर अपने को और गहरा डूबा लेता है। ये लोग भी अपने वैचारिक आग्रह में उसी तरह डूबे हुए हैं। जिस तरीके से राम - रावण युद्ध में माया फैलाई गई थी, ये भी संदेह पैदा करके लोगों को दिग्भ्रमित करना चाहते हैं। मगर कोरोना के साथ लड़ाई से हम लोगों का ध्यान हटना नहीं चाहिए।  जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा था 'सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी'   इसलिए सभी भारत प्रेमी लोगों को इस बात का ध्यान रखना है कि  कोरोना के साथ इस लड़ाई को मजहब आधारित भेदभाव में तब्दील ना होने दें। इस लड़ाई में मजहब और पंथों से परे हटकर हर भारतवासी का महत्वपूर्ण योगदान है। ज़रूरी है कि किसी को भी इस आपदा की घडी में दूसरेपन का एहसास ना होने दिया जाए। यह लड़ाई हिंदू - मुसलमान की लड़ाई नहीं बल्कि भारत और भारत विरोधियों की लड़ाई है। और ये निश्चित है कि सारे कुचक्रों के बावजूद कोरोना हारेगा, भारत जीतेगा।

Tuesday, April 14, 2020

कोरोनावायरस का फैलाव : तबलीग और आम मुसलमान


ये एक निर्विवाद तथ्य है कि भारत में कोरोना के जो मामले हैं उनमें से तकरीबन एक तिहाई निजामुद्दीन के तबलीगी मरकज़ के इस्तिमा से जुडे  हैं। यही नहीं, दुनिया के कई अन्य देशों में भी  तबलीगी जमात के लोगों ने कोरोना संक्रमण को आगे फ़ैलाने में बड़ी भूमिका निभाई है। लेकिन ये भी सही है कि तबलीग़ जमात ऐसा करने बाला दुनिया का एकमात्र मजहबी संगठन नहीं है। दक्षिण कोरिया में शिन्चियोजी चर्च और इस्राइल में कट्टरवादी यहूदी पंथों ने भी ऐसा ही किया। कुछ और देशों में भी कई पुरातनपंथी मजहबी संगठन जाने अनजाने कोरोना फ़ैलाने में आगे रहे हैं।  मगर हैरानी की बात है कई लोग भारत में इसके बहाने इस्लामोफोबिया का काल्पनिक भूत खड़ा कर रहे हैं।

कोरोना वायरस को लेकर दिल्ली स्थित निज़ामुद्दीन मरकज की हरकतों पर पूरे देश की निगाहें है। देश में कोरोना संक्रमण का आंकड़ा 10000 को पार कर चुका है। देखने की बात है कि पिछले कुछ दिनों में जो नए मामले आये हैं उनमें ज़्यादातर तबलीगी जमात से जुड़े हुए मामले ही है। उदाहरण के लिए सोमवार 13 अप्रेल को दिल्ली में संक्रमण के 356 नए केस मिले। इनमें से 325 तबलीगी जमात से जुड़े पाए गए। इस दिन तक राजधानी में कुल मामलों की संख्या 1510 थी। इनमें से 1071 यानि कोई 71 प्रतिशत को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ये बीमारी तबलीगी जमावड़े के कारण लगी। महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और हरियाणा आदि राज्यों में भी कोरोना के अधिसंख्य मरीज़ तब्लीगी मरकज़ से जुड़े पाए गए है। ये तथ्य कोई कपोलकल्पना बल्कि सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध आंकड़ों से निकलते हैं।

बार-बार यह कहा जा रहा है कि मरकज का मतलब सभी मुसलमान नहीं है। यह बात सही भी है। पर अहम् सवाल है कि सारे मुसलमानों को तब्लीगी जमात से जोड़ कौन रहा है? इसी सोमवार को जमीयते उलेमाए हिन्द ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर आग्रह किया कि मीडिया द्वारा इस तरह से तबलीगी मरकज़ की रिपोर्टिंग पर रोक लगायी जाये। न्यायाधीशों ने ये कहकर इस पर रोक लगाने से इंकार किया कि रोक लगाने का मतलब होगा मीडिया की आज़ादी को खत्म करना। इस मामले में सुनवाई अब आगे होगी। दिलचस्प बात है कि  तबलीगी जमात से फैले संक्रमण की पहचान के लिए पहले कोरोना के ऐसे मामलों के आगे 'टीजे' लिखा जाता था। इससे  ऐसे मामले 'ट्रेस  करने' यानि ढूंढने में आसानी होती थी। मगर राजनीतिक दबाव के कारण कई राज्यों ने कोरोना मरीज़ों की सूची से ये कॉलम ही हटा दिया। दिल्ली के अल्पसंख्यक आयोग के कहने पर दिल्ली की सरकार ने कोरोना वायरस के संक्रमित लोगों की सूची से मरकज का नाम हटाकर उसे स्पेशल ऑपरेशन कहना शुरू किया। तमिलनाडु तथा कई अन्य सरकारों ने तो ये कॉलम हटा ही दिया।

इसमें एक तार्किक विसंगति लगती है। यह तार्किक विसंगति क्या है ? अगर तबलीग सारे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करती और वो मुसलमानों के अंदर की सिर्फ एक जमात ही है तो फिर उसके कारनामों को छुपाने की आवश्यकता क्या है? तबलीगी जमात  लिखने से सभी मुसलमानों की प्रतिध्वनि क्यों मानी जा रही है? ये सही है कि कोई भी संप्रदाय या पंथ पूरे मजहब के लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता। अगर एक कोई संप्रदाय या पंथ कुछ गलती करता है तो उसी तक सीमित रखना चाहिए। इसके बहुत से उदाहरण मौजूद है। 2017 में जब हरियाणा में डेरा सच्चा सौदा के मुखिया की गिरफ्तारी को लेकर हिंसा हुई तो किसी ने उसे पूरे हिन्दू समाज से नहीं जोड़ा। इसी तरह पिछले हफ्ते पटियाला में कुछ सिरफिरे निहंगों ने पुलिस वालों पर हमला लिया तो किसी ने उसे पूरे सिख समाज से नहीं जोड़ा। तो फिर तबलीगी जमात का नाम लेने पर उसे सारे मुसलमानों को निशाना बनाना कैसे और क्यों माना जा रहा हैये तर्क कि मरकज के नाम पर मुसलमानों को टारगेट किया जा रहा है, सही कैसे हो सकता है?

होना तो ये चाहिए कि मुस्लिम समाज का नेतृत्व सामने आकर कहे की तब्लीग़ियों ने जो किया वह गलत था। अल्पसंख्यक समाज के हितो के लिए जरा सी बात पर आवाज़ उठाने वाले राजनीतिक नेताओं, बुद्धिजीवियों और सामाजिक नेताओं को सामने आकर कड़े शब्दों में इसकी निंदा करनी चाहिए थी। इससे ये सवाल ही खड़ा नहीं होता। असल बात तो ये है कि तबलीगी मरकज के जमावड़े ने सबसे ज़्यादा परेशानी अपने अनुयाइयों के लिए ही खड़ीं की हैं। दिल्ली सरकार की रोक के बावजूद मार्च के महीने में हज़ारों लोगों को निजामुद्दीन स्थित अपने मुख्यालय में इकट्ठा करके आपने उनकी ज़िन्दगियों को सबसे ज़्यादा खतरे में डाला है। जो लोग मुसलमानों के हितैषी होने का दावा करते हैं वही तार्किक रूप से तब्लीग़ियों और आम मुसलमानों में फर्क नहीं कर रहे। जबकि आवश्यक है के इन लोगों और आम मुसलमानों में फर्क किया जाए।

इसलिए जब कोई यह कहता है कि मरकज के रहनुमाओं की मूर्खतापूर्ण गतिविधियों के कारण देश के कई हिस्सों में कोरोना बड़ी बुरी तरह से फैल गया तो इसमें गलत क्या  है? सरकारें जब कोरोना वायरस के मामलों में 'टीजे' का कॉलम लिखते हैं तो  वो यह बताने के लिए है कि यह संक्रमण कहां से आया है। संक्रमण का स्रोत जानने से उसके निराकरण की तथा उससे जो लोग प्रभावित हुए हैं उनकी खोजबीन करने में मदद मिलती है। ये लड़ाई अल्पसंख्यक बहुसंख्यक की लड़ाई नहीं है। ये पूरे भारत का कोरोना वायरस से युद्ध है जो दुनिया में एक लाख से ज़्यादा लोगों की मौत का जिम्मेदार है। 

आज दुनिया के अंदर 20 लाख से ज्यादा लोग इससे पीड़ित हैं।  इसलिए उसके स्रोत को छुपाने से या उसके स्रोत को या उसके स्रोत के बारे में भ्रम पैदा करने से इस बीमारी के साथ लड़ाई कमजोर पड़ती है। यहाँ दक्षिण कोरिया का उदाहरण देना भी ठीक होगा। दक्षिण कोरिया में  जो कोरोना के के शुरू के मामले आये उन्हें फैलाया एक ईसाई पंथ चिनशियोजी ने। फ्रांस में भी कुछ ऐसा ही हुआ। वहां की सरकारों ने यह छुपाने की कोशिश नहीं की कि बीमारी के फैलाव का स्रोत कहां है। बल्कि दक्षिण कोरिया ने चिनशियोजी कल्ट के मुखिया ली मैन ही को इसका जिम्मेदार ठहराया। ली मैन ही ने सार्वजनिक रूप से अपने अपराध की क्षमा मांगी। जिस तरीके से  चिनशियोजी दक्षिण कोरिया में सारे ईसाइयों का प्रतिनिधित्व नहीं करता बल्कि एक कल्ट का  प्रतिनिधित्व करता है। उसी तरीके से तबलीगी जमात पूरे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इसलिए ये बताना कि संक्रमण का स्रोत निजामुद्दीन में हुए तबलीगी मरकज से है किसी भी तरीके से मुसलमानों को टारगेट करना नहीं माना जा सकता।

ऐसा करके जो लोग मुसलमानों को और तबलीगी मरकज को मिला रहे हैं। वे भारत के आम मुसलमानों के साथ अन्याय कर रहे है। असल में मुद्दा मुसलमानों का है ही नहीं।    तबलीगी जमात के मलेशिया, इंडोनेशिया और पाकिस्तान में हुए विभिन्न इस्तिमा से इन देशों भी कोरोना तेज़ी से फैला। वहां पर किसी ने इसे पूरे इस्लाम का का सवाल नहीं बताया। सुन्नी मुसलमानों में तबलीगियों को  में काफी दकियानूसी, पुरातनपंथी और मजहबी कटटरपंथी माना जाता है। इस्लाम की जो व्याख्या तबलीगी करते हैं उससे सभी सुन्नी मुसलमान भी एकमत नहीं है। इनके कट्टरवाद को   लेकर भी अक्सर सवाल उठते रहे है। असल में तो कई देशों में आतंकवादी हिंसा में भी तबलीग़ी पाए गए है। पर ये एक अलग लेख का विषय है। 

दरअसल अपने यहाँ दिक्कत अल्पसंख्यक हितों के नाम पर अपनी रोटी सेंकने वालों की है। ये तत्व किसी भी तरीके से अल्पसंख्यकों को अलग करके दिखाना चाहते हैं। वे जानते हैं कि तबलीगी जमात का एक बड़े वर्ग में प्रभाव है। इसलिए तबलीग और मुसलमानों का घालमेल उन्हें राजनीतिक रूप से फायदेमंद दिखाई देता है। ऐसा करके वे अपने वोट बैंक को पक्का करना चाहते हैं। इस समय जबकि पूरा देश एक आपदा की स्थिति में है, ऐसा करके वे जघन्य अपराध कर रहे हैं। ये अपराध पूरे देश के साथ साथ देश के आम मुसलमानों के साथ भी हैं। उन लोगों के साथ ये घोर अन्याय है जिनका  तबलीगी जमात की पुरातनपंथी, दकियानूसी और अवैज्ञानिक सोच से कोई लेना देना नहीं है। मुस्लिम समाज के नेतृत्व को स्पष्टता और दृढ़ता के साथ यह कहना चाहिए तबलीगी जमात मुसलमानों का एक संप्रदाय भर है। तबलीग ने गलती की है और उस गलती के लिए संप्रदाय के रहनुमाओं को सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगनी चाहिए। साथ ही सरकारों को तबलीगी जमात के नेतृत्व के साथ कड़ाई से पेश आना चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह की हरकतें करके कोई भी नासमझ लोगों को अंधविश्वास की बेड़ियों में डालकर मौत के मुंह में न डाल पाए।