Saturday, December 26, 2020
देश के लोकतंत्र का मखौल उड़ाते राहुल गांधी
Thursday, August 27, 2020
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता : भला उसकी कमीज मेरी कमीज़ से सफेद कैसे?
80 के दशक में कपड़े धोने के साबुन का एक विज्ञापन बड़े जोर शोर से चलता था। इसमें एक पात्र दूसरे से कहता है - 'भला उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद कैसे है?' इस विज्ञापन के पीछे ईर्ष्या और द्वेष का भाव है। आज अपने देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर चल रही बहस पर मुझे यह विज्ञापन पूरी तरह लागू होता दिखाई देता है। ऐसा लग रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी खांचों में बांट दिया गया है। मानो कुछ लोग कह रहे हैं - 'मेरी वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तेरी वाली अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बेहतर है।' कुछ तो लिखकर भी साफ़ कह रहे हैं कि क्योंकि उनकी कमीजें बाकी जनता की कमीज़ों से ज़्यादा सफ़ेद हैं इसलिए सिर्फ वे ही अभिव्यक्ति के सही हकदार हैं। किसको बोलने की कितनी आज़ादी दी जाये, यह तय करने का ठेका भी कुछ लोगों ने अपने नाम लिखा लिया है। इसके लिए मीडिया, लेखकों, बुद्धिजीवियों, रचनाधर्मियों एक पूरा पारतंत्र यानि 'ईको सिस्टम बाकायदा काम में अनवरत लगा हुआ है।
दिलचस्प है न!
आप सोच रहे होंगे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे गंभीर विषय के बीच में यह साबुन का विज्ञापन क्या कर रहा है? पर सोचिये क्या आज ऐसा ही नहीं हो रहा? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो अधिकार भारत का संविधान भारत के हर नागरिक को देता है। उसे भी कुछ ठेकेदारों द्वारा आज जैसे बाज़ारू माल बना कर बेचा जा रहा है।
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दो बड़ी घटनाएँ पिछले हफ्ते हुई।
एक तो उच्चतम न्यायालय में वकील प्रशांत भूषण के खिलाफ मानहानि मुकदमें का हुआ। जिसमें उच्चतम न्यायालय ने प्रशांत भूषण को मानहानि का दोषी मानकर उन्हें सजा देना तय किया। मीडिया का एक वर्ग, कथित बुद्धिजीवी, कतिपय कलाकार, वामपंथी एक्टिविस्ट और वकीलों का एक वर्ग इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का विरोध कर रहा है। इन लोगों का कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार एक मूलभूत अधिकार है और न्यायालय की अवमानना के नाम पर इस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को छीना नहीं जा सकता।
प्रशांत भूषण का समर्थन करने वाले यही तक नहीं रुके हैं। जिस दिन प्रशांत भूषण के मामले की सुनवाई उच्चतम न्यायालय में हो रही थी उस दिन न्यायालय के बाहर कुछ लोग इकट्ठे हुए उन्होंने हाथ में तख्तियां ली हुई थी। ये लोग उच्चतम न्यायालय के आने वाले फैसले का विरोध करने के लिए पहले से तैयार थे। इनमें से कई लोगों ने सोशल मीडिया पर ये कहा कि भारतीय लोकतंत्र के लिए यह काला दिन है। ये लोग मानते हैं कि प्रशांत भूषण को उच्चतम न्यायालय के खिलाफ कुछ भी कहने का अधिकार है चाहे वह तथ्यपरक, न्यायपूर्ण या विधि सम्मत हो या नहीं। हालाँकि भारत का कानून इसकी इजाजत नहीं देता।
सवाल है, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट तक की निंदा करने वाले क्या सच में 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं? या फिर ये बुद्धिजीवी का नक़ाब ओढ़े हुए राजनीतिक एक्टिविस्ट हैं? जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस भाव को पिछले हफ्ते ही हुए एक और मामले पर लागू किया जाता है तो कई लोगों की कलाई खुल जाती है। इनमें से अधिकतर बिना पालक झपकाए अपना रुख एकदम बदल लेते हैं। मानो नक़ाब उतर जाते है।
यह मामला है ब्लूम्सबरी प्रकाशन द्वारा दिल्ली के दंगों पर प्रकाशित होने वाली पुस्तक Delhi Riots 2020 : Untold Story को रद्द करना। ये पुस्तक दिल्ली की जानीमानी वकील मोनिका अरोड़ा, सोनाली चितालकर और प्रेरणा मल्होत्रा ने मिलकर लिखी है। इस पुस्तक में इस साल के शुरू में दिल्ली के दंगों की कहानियों को उजागर किया गया है। हम इस बहस में नहीं जाते कि इस पुस्तक के अंदर क्या लिखा गया है। असली बात यह है कि ब्लूम्सबरी ने इस पुस्तक का प्रकाशन करना तय किया था। तयशुदा बात है कि जब ब्लूम्सबरी जैसे जाने-माने प्रकाशक में इस पुस्तक को निकालने का फैसला किया तो उन्होंने पहले से यह जांच पड़ताल की थी कि इस पुस्तक में जो लिखा गया है वह उनके मानकों के अनुसार है या नहीं। जाहिर है कि सम्पादकों ने यह भी देखा होगा कि ये किताब कहीं समाज में वैमनस्य तो नहीं फैलाएगी ? उनके वकीलों ने ठोक बजाकर लेखकों के साथ पुस्तक छापने का करार किया था। अगर ऐसा नहीं होता तो ब्लूम्सबरी जैसा प्रकाशक इस पुस्तक को शुरू में ही इसे छापने के लिए तैयार नहीं होता।
पुस्तक में क्या कहा गया है यह हमारे तर्क के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। उससे सहमत या असहमत होना हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मूल आधार है। हम तो बात कर रहे हैं भारत के संविधान में दिए गए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की। ये अधिकार यदि अपने मनमाफिक फैसला न आने पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को गाली तक देने वाले वकील प्रशांत भूषण को है तो फिर वही अधिकार मोनिका अरोड़ा, सोनाली और प्रेरणा जैसे लेखकों को क्यों नहीं है?
प्रशांत भूषण भी वकील है और मोनिका अरोड़ा भी वकील है। दोनों की राजनीतिक सोच में अंतर हो सकता है। लेकिन क्या किसी के राजनीतिक विचारों में अंतर होने के आधार पर यह तय किया जाएगा कि संविधान में प्रदत्त अधिकार उसे मिलने चाहिए कि नहीं? और, इस मामले में तो प्रशांत भूषण को भारत के उच्चतम न्यायालय ने अवमानना का दोषी माना है। उन्होंने जो कहा वह सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भी नहीं कहा जा सकता। यह अन्य किसी ने बल्कि नहीं, भारत की सबसे बड़ी अदालत ने तय कर दिया। किताब लिखने वालों ने तो ऐसा कुछ भी गैरकानूनी नहीं किया।
हैरत की बात है कि जो लोग दोषी करार दिए जाने के बाद भी न्यायाधीशों को गाली दिए जाने की हद तक जाने वाले प्रशांत भूषण के लिए बोलने की आज़ादी की वकालत कर रहे हैं। वे ही पुस्तक को छपने से रोक रहे हैं। यहाँ 'भला उसकी कमीज मेरी कमीज़ से सफेद कैसे हैं' का भाव आ गया है। प्रश्न है कि क्या दलगत प्रतिबद्धताओं, राजनीतिक विचारों और विचारधारा की कमीज देखकर संविधान के अधिकारों का रंग तय किया जाएगा? क्या अपने को 'लेफ्ट लिबरल' कहने वाले मुट्ठीभर लोग तय करेंगे कि देश में किसे बोलने की कितनी स्वतंत्रता है और किसे नहीं है?
कुतर्क की भी हद होती है। इस पुस्तक को छापने से रोकने के लिए जो दलीलें दी गयी हैं वे बौद्धिक रूप से असंगत तो है ही। भारत जैसे प्रजातान्त्रिक और खुले समाज में तार्किक रूप से ये बातें भी सही नहीं बैठती। लेखक विलियम डेलरिंपल कहते हैं उन्होंने ब्लूम्सबरी के ब्रिटेन स्थित मुख्यालय को इसके बारे में सूचना दी कि दिल्ली दंगों पर पुस्तक को लेकर विवाद चल रहा है। उनसे पूछा जाना चाहिए कि वे लेखक हैं या फिर इस असंगत बौद्धिक घमासान में किसी पक्ष के मुखबिर? मतलब साफ़ है कि विलियम डेलरिंपल पुस्तक न छपे इसके लिए ही काम कर रहे थे।
मीना कंदसामी नाम की कवियत्री कहती हैं कि 'साहित्य को फासीवाद' से बचाने के लिए वे इसे छापने का विरोध कर रहीं हैं। पर ये ठेका उन्हें किसने दिया? सद्भावना देशपांडे नाम की लेखक और डायरेक्टर कहतीं हैं कि इस पुस्तक का ज्ञान से कोई लेना देना नहीं है। बल्कि यह पुस्तक भारत के सेकुलर ढांचे पर प्रहार करती है इसलिए इसे छपना ही नहीं चाहिए। क्या बात है? भई ये तो बता दीजिये कि भारत में लोकतंत्र है या अधिनायक वाद? और ऐसा कहकर किस तरफ खड़े हैं?
अगर इनके तर्कों को सही मान भी लिया जाए तो फिर प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट ने उनकी अवमानना पूर्ण ट्वीट्स के लिए जो सजा दी उसका बचाव और पुस्तक प्रकाशन का विरोध - ये दोनों बातें एकसाथ कैसे हो सकतीं हैं? दरअसल आभिजात्य मानसिकता वाले इस कथित बुद्धिजीवी वर्ग का सोचना है कि वही इस देश में तय करेंगे कि किसको कौन सा अधिकार कब और कितनी मात्रा में मिलना चाहिए। अपनी जन्मजात, कुलीन बौद्धिकता के गर्व में जीने वाले ये कथित बुद्धिजीवी और मीडिया का एक वर्ग असल में बौद्धिक बेईमानी और दोगले पन का शिकार है। देखा जाये तो ये बुद्धिजीवी है ही नहीं। वे तो राजनीतिक एक्टिविस्ट हैं जिन्होंने पिछले कई दशकों से सत्ता प्रतिष्ठान का सहारा लेकर बौद्धिकता का लबादा ओढ़ लिया है। अपने को लेफ्ट लिबरल कहने वाले ये तत्व हर मुद्दे पर अति वामपंथ, अराजकतावादियों और जिहादी इस्लामिक एक्टिविस्ट के बौध्दिक चम्पुओं की तरह व्यवहार करते दिखाई देते हैं।
इसलिए कोई भी बात जब उनके आकाओं के राजनीतिक स्वार्थों या उनकी विचारधारा से भिन्न होती है तो वे ऊलजलूल तर्क देकर दूसरों की आवाज दबाने का प्रयास करते हैं। यह प्रयास बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि प्रशांत भूषण कई बार अपने प्रलाप और उच्चतम न्यायालय में अपनी दलीलों के द्वारा करते आए हैं। आज जब उच्चतम न्यायालय ने उनको दोषी करार दे दिया है तो वे न्यायालय को ही मानने को तैयार नहीं है। अपनी राजनीतिक दलीलों को वे 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, 'अंतरात्मा की आवाज़', 'नैतिक दायित्व' और 'लोकतान्त्रिक मूल्यों की रक्षा' जैसे बड़े बड़े शब्दजाल के पीछे छिपाना चाहते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने शायद इन्हीं के बारे में लिखा था:
'पंडित सोइ जो गाल बजावा।'
समवेत स्वरों में बस जोर से शोर मचाने वाले इन 'विद्वान् पंडितों' के तर्क नितांत बेढव और अटपटे हैं।
Delhi Riots 2020: The Untold Story का प्रकाशन ब्लूम्सबरी द्वारा रद्द लिए जाने का मामला तो बेहद गंभीर है। लेखिका मोनिका अरोड़ा का कहना है कि 'किताब का विरोध करने वाले ज़्यादातर लोगों ने किताब पढ़ी तक नहीं है। तो फिर ये कैसे तय कर दिया गया कि किताब छपनी ही नहीं चाहिए? इनके साझा शोर से ये प्रकाशक भी दर गया और उसने बिना सोचे विचारे प्रकाशन रद्द कर दिया। ब्लूम्सबरी प्रकाशन की व्यावसायिक प्रतिबद्धता पर भी हजार सवाल उठने स्वाभाविक है। मूल बात है कि क्या इस पुस्तक के लिखने वालों को अपनी बात कहने का अधिकार है कि नहीं? लोकतान्त्रिक समाज में कुछ लोग ये कैसे तय कर सकते हैं कि सिर्फ वही जब चाहेंगे और जैसी चाहेँगे वैसे ही पुस्तकें लिखी जाएंगी। उनके मन मुताबिक ही लेख लिखे जाएंगे। वही बात सार्वजनिक जीवन में आएगी जिस रूप में ये तत्त्व चाहते हैं। अगर ये फासीवाद नहीं तो क्या है? असल में फासीवादी इस पुस्तक के लेखक नहीं। असली फासीवादी वे लोग हैं जिन्होंने इस पुस्तक के ब्लूम्सबरी द्वारा प्रकाशन को लेकर हो हल्ला मचाया और इसे रद्द कराया।
हमने अपनी बात 80 के दशक के एक विज्ञापन से शुरू की थी। अपनी बात का अंत हम आजकल चल रहे एक अन्य विज्ञापन से करेंगे। ये विज्ञापन भी कपड़ों की सफाई का ही है। ये कहता है - 'दाग अच्छे हैं।'इन अनुदारवादी पॉलीटिकल एक्टिविस्ट को ये समझ लेना चाहिए कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सफेद कमीज' पहनने का अधिकार भारत के हर नागरिक को है। चाहे वह किसी भी राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन या विचारधारा का प्रतिनिधित्व क्यों न करता हो। मीडिया, अकादमिक संस्थानों, कला क्षेत्र और साहित्यिक जगत पर अब तक राज करते आये ये लोग अक्सर दूसरे की तो सफेद कमीज तक को खराब घोषित करते आए है। इन घटनाओं ने साबित कर दिया है कि बौद्धिक दोगलेपन के जो छीटें इनके दामन पर पड़े हैं वे अब अनुदारवाद और घोर असहिष्णुता के स्याह काले दागों में तब्दील हो गए हैं।
कुछ भी हो भारतीय लोकतंत्र के लिए ये दाग अच्छे नहीं हैं।
Sunday, August 9, 2020
राममंदिर निर्माण का विरोध करने वाले बाबर की मानस संतान हैं
राममंदिर निर्माण का विरोध करने वाले बाबर की मानस संतान हैं
अयोध्या से मेरा संबंध बहुत पुराना है। बचपन से ही माताजी पिताजी साल में क़म से कम दो बार अयोध्या जाते रहे हैं। उनके गुरु स्वामी राम हर्षण दास जी का आश्रम वहीँ है। पिछले कोई 50- 55 साल उनका ये क्रम अनवरत चलता रहा है। उस समय विश्व हिंदू परिषद के राम जन्मभूमि आंदोलन की शुरुआत भी नहीं हुई थी। मेरे माताजी पिताजी दोनों को ही हमेशा ये उत्कट इच्छा रही कि अयोध्या में जन्मस्थान पर राम मंदिर बन जाये। मेरे माता पिता दरससल उन करोड़ों राम भक्तों का प्रतिनिधित्व करते थे हैं जो बिना किसी राजनीतिक उद्देश्य के अयोध्या में जन्मभूमि पर रामलला का भव्य मंदिर बनते देखना चाहते हैं।
कई विदेशी अख़बारों में पिछले दिनों कई लेख छपे हैं जिनमें अयोध्या की घटना को भाजपा के नेतृत्व में 'हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा मंदिर निर्माण' को एक राजनीतिक कदम बताया गया है। ऐसा लिखने वाले बड़ी भारी गलती कर रहे हैं। इसे महज राजनीतिक आंदोलन कहना इसका बड़ा सतही विश्लेषण हैं। रामजन्मभूमि के लिए चला संघर्ष कोई राजनीतिक आंदोलन नहीं है। किसी भी राजनीतिक आंदोलन में इतनी शक्ति नहीं होती कि वह अनवरत कई सौ साल तक चल सके। हिन्दुओं के मन में राम मंदिर निर्माण की आकांक्षा
और उसके लिए संघर्ष तकरीबन 500 साल से तो चल ही रहा है। मंदिर निर्माण के शुरू होने के कार्यक्रम को एक संकुचित राजनीतिक परिपेक्ष्य में देखने वाले ये लोग एक वैचारिक भ्रम के शिकार हैं।
मेरे पिताजी राजनीतिक नहीं थे। वे रेलवे में काम करते थे। उनका राजनीतिक विचारधारा या किसी दल से कोई संबंध नहीं था। पर अनन्य राम भक्त होने के कारण रामजन्मभूमि में उनकी अटूट आस्था थी। उनकी तरह ही करोड़ों रामभक्तों ने शताब्दियों से इस मनोरथ में जीवन गुजारा है कि अयोध्या में राम जन्मभूमि स्थान पर गरिमापूर्ण मंदिर बने। उस समय तक भाजपा के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ और आरएसएस की उत्तर प्रदेश में कोई खास पकड़ नहीं थी। दरअसल 60 -70 के दशक में तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अलावा समाजवादी आंदोलन की पकड़ कहीं अधिक मज़बूत थी। मुझे ध्यान है कि जब मैं छोटा था तो मेरे बड़े भाईसाहब ने आगरा कॉलेज में छात्र संघ का चुनाव समाजवादी युवजन सभा के बैनर पर लड़ा था। पर उनके राम भक्त होने और समाजवादी होने के बीच कोई द्वंद नहीं था। इस बारीकी को राजनीतिक चिंतकों और राजनीतिक लेखकों को समझना आवश्यक है।
जब आप राममंदिर आंदोलन को सिर्फ एक राजनीतिक दल या विचारधारा के नजरिए से देखते हैं तो आप उसके आकलन में गलती करते हैं। जनमानस में क्या चल रहा है इसे समझने में ऐसी गलती खासकर 80-90 के दशक और उसके बाद कॉन्ग्रेस के नेताओं और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने की। वे खासकर उत्तर प्रदेश और भारत के बड़े हिस्से में जमीन पर क्या हो रहा है, इसको समझ ही नहीं पाए। जनभावनाओं के सतही आकलन और अपने 'सेकुलर' पूर्वाग्रह के कारण उन्होंने हर रामभक्त को ‘संघी’ घोषित कर दिया। जब चिंतन पर राजनीतिक स्वार्थ हावी हो जाता है तो आप नीर-क्षीर विवेक खो देते हैं। जमीन से कटे हुए इन कथित चिंतकों, विचारकों, मीडियाकर्मियों और बुद्धिजीवियों को ये पता ही नहीं पड़ा कि उनका ये मतिभ्र्रम कब हिन्दू विरोध की आदत में बदल गया। आज भी जब मोदी के समर्थकों को 'भक्त' कहकर गाली दी जाती है तो अपनी 'श्रेष्ठ बौद्धिकता' के मद में जीने वाले ये लोग वही गलती दोहरा रहे होते हैं।
इसका नतीजा क्या हुआ? मेरे पिताजी जो कि राजनीतिक नहीं, थे 90 के दशक तक आते-आते पूरे तरीके से भाजपा और संघ के समर्थक बन गए। उन्हें लगा कि उनके आराध्य भगवान् राम के न्यायोचित मंदिर का निर्माण सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उनसे अनुप्राणित संगठनों के लोग ही करवा सकते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यकर्ताओं के समर्पण, निष्ठा, त्याग के मेरे पिताजी जैसे लोग कायल हो गए। बाकी तो सब इतिहास की बात है।
राम जन्मभूमि के उद्धार के लिए संघर्ष बहुत लंबा चला है। जब से बाबर के सेनापति मीर बकी ने वहां मंदिर का विध्वंश करके मस्जिद का निर्माण किया राम भक्तों ने चैन की रामभक्तों ने कभी सांस नहीं ली है। कहते हैं कि मंदिर को 1526 में तोडा गया। उसके बाद से ही अयोध्या में अनगिनत संघर्षों की गाथा है। संघर्ष कभी रुके नहीं।
अपने आराध्य के मंदिर के तलवार की नोक पर हुए इस क्रूरतापूर्ण विध्वंश को सामान्य समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया। कोई समाज अपने न्यायोचित अधिकारों के लिए 500 साल तक संघर्ष करता रहे यह एक अद्भुत घटना है। इस दौरान पहले इस्लाम को मानने वाले विदेशी आक्रांताओं का राज रहा। उन्होंने अक्सर पाशविक क्रूरता और असहिष्णुता के साथ हिन्दुओं के समस्त अधिकारों का निर्दयतापूर्वक अतिक्रमण किया। बाद में ईसाइयत को मानने वाले अंग्रेजों का राज रहा। अत्याधिक दमन, भय, जोर-जबरदस्ती और प्रलोभन के इस अंधकारपूर्ण माहौल में में भी पांच सदी तक हमारे समाज ने विधर्मी आक्रांताओं का प्रतिकार किया। दुनिया के इतिहास में कोई अन्य ऐसी घटना नहीं मिलती।
कहते हैं 50 साल के क्रम में कोई चार पीढ़ियां गुजर जाती है। तो इन 500 सालों में कोई 40 पीढ़ियां तो गुजर ही गयी होंगी। इन 40 पीढ़ियों में से हर एक पीढ़ी ने दूसरी पीढ़ी को इस संघर्ष की चेतना उत्तराधिकार के रूप में सौपीं। एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को यह बताते गई कि राम की भूमि अयोध्या ही है। इसलिए बलपूर्वक जिन विधर्मी आक्रमणकारियों ने राम की जन्मभूमि को उनके भक्तों से छीना है उसके लिए संघर्ष करना उनका धार्मिक, नैतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय दायित्व है। इस मायने में राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण का कार्य शुरू होना अपने आप में सिर्फ एक धार्मिक घटना मात्र नहीं है। यह घटना सामूहिक राष्ट्रीय चेतना के निरंतर संग्रहण और सिंचन का प्रतीक है। यह उस अनवरत चलने वाले संघर्ष की ज्योति का प्रतीक है जो करोड़ों दिलों में अनवरत जलती रही है।
5 अगस्त की घटना को सीमित, संकुचित राजनीतिक और धार्मिक नज़रिये से देखने वाले फिर एक मूलभूत गलती कर रहे हैं। वे इस समाज और उसमें व्याप्त चेतना को समझ ही नहीं पा रहे। अयोध्या का समारोह भारतीय समाज की जिजीविषा, समृद्ध विरासत के प्रति उसका समर्पण, उसके शाश्वत संकल्प, साधन हीन होने पर भी संघर्ष करने के मनोबल और घोर विपरीत परिस्थितियों में ना चुकने वाले उसके धैर्य का प्रतीक है।
इस राष्ट्रीय सामाजिक चेतना की लौ को निरंतर जलाये रखने में एक महानायक ने बड़ी भूमिका अदा की। वे थे गोस्वामी तुलसीदास। तुलसीदास जी रामचरितमानस लिखकर ही रुके नहीं बल्कि उन्होंने रामलीला का मंचन भी आरंभ किया। गरीब, अमीर, हर जाति और वर्ग, विद्वान, अनपढ़, स्त्री और पुरुष सब तक तुलसी ने अनुपम रामकथा द्वारा इस चेतना को पहुंचाया। रामलीला और रामचरितमानस इस संघर्ष की अंतः चेतना की रीढ़ की हड्डी है। इस नाते गोस्वामी तुलसीदास राम जन्मभूमि पुनर्निर्माण के वैचारिक प्रणेता ही नहीं बल्कि पहले एक्टिविस्ट भी हैं। आज देश के कण-कण में जो राम बसे हुए हैं वह गोस्वामी तुलसीदास की देन है।
इस संघर्ष के अनेक ज्ञात और अज्ञात नायक रहे हैं। जिन्होंने 500 साल निरंतर अपने रक्त और विचारों से इसे सींचा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्य नाथ, स्वर्गीय अशोक सिंघल, लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेता निस्संदेह इसके तात्कालिक नायक हैं। क्योंकि आज उनके समय में इस यज्ञ की पूर्णाहुति हो रही है। पर क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और अनेकानेक संतों की भूमिका और अनगिनत अनाम रामभक्तों की भूमिका को भुलाया जा सकता ह?
जब इस्लामी जिहाद और क्रूसेड का अंधड़ शुरू हुआ तब मध्य पूर्व से लेकर सुदूर पूर्व तक एक के बाद एक देश, संकृतियाँ और पुरानी सभ्यताएं परास्त होने के बाद समूल परिवर्तित /नष्ट होती गई। मेसोपोटामिया, मिस्र, ईरान, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि इसके अन्यतम उदाहरण हैं । एक के बाद एक पुरानी सभ्यताओं का तकरीबन नामोनिशान मिटा दिया गया। पर विदेशी आक्रांता अपनी भरपूर कोशिशों के बावजूद भारत में ऐसा नहीं कर पाए । भारतीय समाज की अंतर चेतना में जो सांस्कृतिक और विरासत के मूल्य स्थापित हुए थे वह इतनी सघन, शुद्ध और गहरे थे कि तलवार का भय, प्रलोभन और अन्य कोई लालच उसे बदल नहीं सका। ये सही है कि इन प्रचंड आँधियों ने कुछ पेड़ों को झुकाया, कुछ डालियों को तोड़ दिया, कुछ फूल मसल दिये गए और अनगिनत कलियों को कुम्हला दिया, पर भारतीय सभ्यता का समूचा उपवन उजड़ा नहीं। अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर में निर्माण कार्य का शुरू होना हमें यही बताता है।
रामचरितमानस में एक वर्णन है। जब राम और रावण युद्ध के लिए आमने-सामने खड़े हुए तो विभीषण ने देखा कि राम पैदल और नंगे पैर हैं, जबकि महा बलशाली रावण रथ पर सवार था। तुलसीदास जी लिखते हैं :
"रावनु रथी बिरथ रघुवीरा, देखि बिभीषन भयउँ अधीरा।"
विभीषण ने राम से पूछा कि आप नंगे पैर, बिना रथ कैसे दस सिरों और बीस भुजाओं वाले रावण को जीतेंगे? वहां जो राम नीति का वर्णन करते हैं वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। भगवान् राम कहते हैं कि युद्ध सिर्फ शस्त्रों से नहीं जीते जाते। जिसके पास धर्म, नीति, सत्य पर आस्था और विवेकपूर्ण आचरण का रथ होता है वही युद्ध भी जीतता है।
श्रीराम कहते हैं :
महा अजय संसार रिपु, जीति सकइ सो बीर।
जाके अस रथ होइ दृढ, सुनहुं सखा मतिधीर।
भगवान् राम की यह उक्ति राम जन्मभूमि के लिए हिंदुओं द्वारा किए गए संघर्ष पर भी लागू होती है। न तो उन्होंने धर्म छोड़ा, न आशा छोड़ी और ना ही संघर्ष छोड़ा। इसी कारण 500 साल बाद राम जन्मभूमि पर मंदिर बनने की शुरुआत उस राष्ट्रीय स्वप्न की पूर्ति है जो करोड़ों भारतीयों ने कई सदियों तक पीढ़ी दर पीढ़ी लगातार धैर्यपूर्वक संजों कर रखा था। सामाजिक और राष्ट्रीय जागरण का ये आंदोलन समाज की सामूहिक चेतना, उसकी अस्मिता, उसके मान सम्मान, आत्म भान का संकल्प है।
यह राष्ट्रीय अनुष्ठान अभी पूरा नहीं हुआ है। जिस अनुदारवादी और असहिष्णु सोच ने मध्यकाल में मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई थी उसकी अनुकृतियाँ आज भी जिंदा है। वैसे अच्छा तो यह होता कि 1947 के बाद इस्लाम के अनुयायी कहते कि राम आपके इष्ट हैं। मीर बकी और बाबर विदेशी आक्रांता थे तथा इस्लाम में पूज्य भी नहीं है। इसलिए आप अपने इष्ट देव का मंदिर बनाएं। आजादी के बाद ही यदि तुरंत ये ज़मीन राममंदिर बनाने को सौंप दी जाती तो कितना अच्छा होता? पर राजनीतिक स्वार्थों, छद्म सेकुलरवादियों की हरकतों और इतिहासकारों के रूप में प्रचारित वामपंथी बुद्धिजीवी एक्टिविस्टों ने ऐसा नहीं होने दिया।
एक लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद भारत के सुप्रीम कोर्ट ने सर्वानुमति से मंदिर के पक्ष में नवम्बर 2019 फैसला दिया। इसी के तहत मंदिर निर्माण का काम शुरू हुआ है। अब भी जो इसका विरोध कर रहे हैं वे न भारत के संविधान में, न भारत की न्यायिक व्यवस्था में और न ही किसी नैतिकता में आस्था रखते हैं। वे उन ताकतों की मानस संतान हैं जिन्होंने मंदिर ही नहीं बल्कि मध्यकाल में भारत की आत्मा को तोड़ने का भी असफल प्रयास किया था।
Monday, June 1, 2020
आपदा और राजा का धर्म
राजा के धर्म का निरूपण कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में भी किया है। वे लिखते हैं :
मीडिया में छपी खबरों के अनुसार दिल्ली में सत्ताधारी आम आदमी पार्टी के कुछ स्थानीय नेताओं का इसमें हाथ था। पार्टी के विधायक राघव चड्ढा की एक विवादित ट्ववीट भी इस दौरान आई जिसमें कहा गया था कि उतर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ मज़दूरों को पिटवा रहें हैं। जबकि यह बात झूठी निकली। लाखों मजदूर जब आनंद विहार बस अड्डे पर पहुंचे तो अफरा-तफरी तो मचनी ही थी। इस घटना के चित्र, खबरें और वीडियो मीडिया में छाए रहे। दुनिया में ये संदेश गया कि मजदूर बेहद परेशान है। अब यह जिम्मेदारी हर उस राज्य की थी जहां भी यह प्रवासी मजदूर रह रहे हैं। इन राज्यों को सुनिश्चित करना था कि श्रमिकों की ठीक से व्यवस्था हो। उन में आई हुई स्वाभाविक अनिश्चितता और बेचैनी कम हो। उनके खाने पीने का सही इंतजाम हो। साथ ही उन से रहने की जगहों का किराया ना मांगा जाए। इस सबका उद्देश्य कोरोना के फैलाव को आगे बढ़ने से रोकना था। लेकिन ऐसा लगता है कि इसमें कई जगह कोताही हुई।
राज्यों ने मज़दूरों की मनःस्थिति समझने में संवेदनहीनता का परिचय दिया। मजदूर गहरे संकट में थे। अधिकतर मजदूर एक साथ छोटे-छोटे कमरों, झोपड़ियों या अस्थायी निर्माणों में रहते है। वे घर से दूर थे। कामकाज बंद हो चुके थे। बेकार श्रमिक बदहाल थे। छोटे छोटे दड़बों में रहने वाले मजदूरों की मानसिक अवस्था क्या होगी इसे समझा जा सकता है। उन्हें चिंता रही होगी - अपने घरबार की; उन्हें रही चिंता होगी अपने काम की; चिंता रही होगी अपनी जान की; उन्हें दूर बसे अपने परिवार की चिंता रही होगी। यों भी जब पूरी दुनिया में कोरोना के संक्रमण और मौत का मंजर फैला हो तो व्यक्ति अपनों के साथ रहना चाहता है। इसलिए मजदूरों की दिक्कत समझी जा सकती है। उसके साथ सहानुभूति होनी चाहिए थी। जैसा कि हमने ऊपर कहा कि राजा का धर्म होता है अपनी प्रजा की चिंता संतान की तरह करें। पर महाराष्ट्र, दिल्ली और गुजरात में शुरू के दिनों में स्थानीय नेतृत्व ने ऐसा नहीं किया।
प्रवासी श्रमिक भारत के नागरिक हैं। वे किसी भी राज्य के हों तथा आजीविका के लिए कहीं भी रहते हों, देश के संसाधनों पर उनका उतना ही अधिकार है जितना किसी और नागरिक का। इन्हें वह सब मिलने का हक था जो कि किसी अन्य नागरिक को मिलता है। पर ऐसा नहीं हुआ इसके कारण मजदूरों में दूसरेपन का संदेश गया। इसके कारण पहले से ही एकाकी, क्षुब्ध, परेशान और काम न होने के कारण चिंतित मजदूरों में संदेश गया कि उन्हें घर लौटना चाहिए। इससे देश में अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया। देश में प्रवासी मज़दूरों की संख्या करोड़ों मे हैं। इन सब की व्यवस्था करना इतना सरल भी नहीं था। पर न तो इन तक सही संदेश पहुंचाने की व्यवस्था की गई और ना ही समाज के इस अहम हिस्से से संवेदन शील तरीके से संवाद किया गया।