Friday, November 29, 2019

महाराष्ट्र में अप्राकृतिक गठजोड़ : ज़िम्मेदार भाजपा और शिवसेना




आत्मविश्वासी होने और आत्ममुग्ध होने के बीच एक बड़ी महीन लकीर है। ये लकीर महीन ज़रूर है पर ये दोनों में जमीन-आसमान और जीवन-मृत्यु का अतंर कर देती है। आत्मविश्वास के पीछे होता है अपने गुणदोष, शक्ति और दुर्बलता का विवेकपूर्ण आकलन। आत्ममुग्धताके पीछे होता है दम्भ, मिथ्याभिमान और अपनी अनुमानित शक्ति पर मूर्खतापूर्ण अहंकार। महाराष्ट्र की राजनीति में जो हास्य नाटिका पिछले कुछ दिनों में खेली गयी उसकी पूरी जिम्मेदारी भाजपा और शिवसेना दोनों की  ही हैं । कोंग्रेस और एनसीपी ने तो इन दोनों हिंदुत्ववादी पार्टियों की मूर्खतापरक आत्ममुग्घता का फायदा उठाया है।

शुरूआत करते हैं भाजपा से। चुनाव से पहले ही भाजपा अपने आप को जीता हुआ मानकर चल रही थी। टिकट बटने से पहले ही पार्टी के नेताओं ने मान लिया था कि मानो मतदान तो बस औपचारिकता भर है। इन्हें लग रहा था कि वे अपने बलबूते ही सरकार बना लेंगे। इसी कारण पार्टी ने अपने कई जमीनी और कद्दावर नेताओं के टिकट काट दिए। पार्टी में अंधाधुँध भर्ती कर नए आने वालों को टिकट दे दिए गए। आत्मविभोर नेतृत्व ने स्थापित लोगों के पर काटने के चक्कर में पार्टी के जमे जमाए, जीवन पर्यन्त काम करने वाले और वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध लोगों को बाहर बैठा दिया। नतीजा जो होना था वो हुआ। पार्टी ने सूद के लालच में मूल भी गंवा दिया।

आत्ममुग्ध व्यक्ति का एक गुण होता है उसकी अधीरता। आत्ममुग्धता असल में,  पैदा ही अपने गलत मूल्यांकन से होती है। इसलिए वांछित परिणाम मिलना संभव नहीं होता। ऐसे में धैर्य समाप्त हो जाता है और व्यक्ति अपने को सही सिद्ध करने के लिए हवा में उलटे तीर चलाते लगता है। भाजपा ने तकरीबन ऐसा ही किया। अजित पवार के वायदे पर भरोसा करके अपनी राजनीतिक प्रतिष्ठा पर अनावश्यक दाग लगवा लिया। उम्मीद है कि भाजपा के लोगों को इस झटके बाद समझ आ गया होगा कि अच्छी सरकार चलाने और नयी सरकार बनाने में काफी फर्क है। ये सही है कि देवेन्द्र फणनवीस से अच्छी सरकार चलायी थी लेकिन बाद में वे गच्चा खा गए।

उधर शिवसेना में आत्ममुग्धता का दौर जारी ही नहीं बल्कि अजब से उफान पर हैं। भारत में राजनीति का ककहरा समझने वाला भी जानता है कि उद्धव ठाकरे जो कर रहे हैं वह दीर्घकाल में उन्हें व उनकी पार्टी को स्थायी नुकसान पहुंचाएगा। शिवसेना तो शायद भाजपा से भी अधिक आत्ममुग्धता के दौर में हैं। पहले तो खबरें आई कि पार्टी आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाना चाहती है। कल्पना कीजिए, बगैर किसी राजनीतिक, प्रसाशनिक अनुभव के वो भी 56 विधायकों की हैसियत पर वे देश का आर्थिक हृदय कहलाने वाले महाराष्ट्र को चलाना चाहते थे?  #भाजपा की सीटें शिवसेना से तकरीबन दोगुनी हैं। ऐसे में मुख्यमंत्री के पद पर अधिकार मांगना कहां उचित था? चलिए आपने मांग भी लिया तो भी इसी आधार पर दशकों से चल रहे अपने गठजोड़ को तोड़ देना दरअसल राजनीतिक आत्महत्या से कुछ कम नहीं।

#उद्धवठाकरे की सरकार कितनी चलेगी या नहीं ये मुख्य प्रश्र नहीं है। #कांग्रेस और #एनसीपी ने उन्हें पांच साल राज करने भी दिया तो भी वह कितनी ख़ुद्दारी से शासन कर पाएंगे, इस पर तो बड़े सवाल है ही। #शिवसेना का राजनीतिक चरित्र अपने जन्म के समय से ही खुद्दारी, हिन्दुत्व पर समझौता न करने वाली तथा ज़मीनी संघर्ष करने वाली जूझारू पार्टी का है। हर सांस में हिन्दुत्व की दुहाई देने वाली शिवसेना अवसरवादी एनसीपी और सेकुलर कांग्रेस की सवारी कैसे कर पायेगी? सेना के प्रतीक बाघ को जब कांग्रेस और एनसीपी रोज बिल्ली बनाने की कवायद करेंगे तो उद्धव ठाकरे ये कैसे सहन करेंगे? हो सकता है सत्ता की चाशनी उनकी दहाड़ को मुलायम बना दे पर क्या सभी शिवसैनिक ऐसा कर पाएंगे?

 सत्ता की आपाधापी में शिवसेना ने अपने मूल चरित्र से उल्टा काम किया है। आनेवाले दिनों में इससे कई सवाल खड़े होंगे। देश और राज्य के कई मुद्दों पर पार्टी को वैचारिक असमंजस का सामना करना पड़ेगा। ये वैचारिक द्वंद और भ्रम उसके मूल समर्थकों को लगातार आंदोलित करेगा। ऐसे में हो सकता है कि उसका एक बड़ा समर्थक समूह भाजपा से जुड़ जाए। ये देखकर लगता है कि शिवसेना ने अपनी ने आत्ममुग्धता में एक घाटे का सौदा किया है।  परंतु कुल मिलाकर शिवसेना और भाजपा दोनों ही ने अपेक्षित परिपक्वता का परिचय नहीं दिया है। इसी कारण कांग्रेस और एनसीपी को मौके पर चौका लगाने का अवसर मिला है।