Tuesday, March 14, 2023

अब इस वादे को कौन निभाएगा वैदिक जी !!!






अब इस वादे को कौन निभाएगा वैदिक जी !!!


1985 की बात है। मुझे पीटीआई भाषा में प्रशिक्षु पत्रकार की नौकरी मिले हुए कुछ ही दिन हुए थे। सुबह की पारी आठ बजे शुरू होती थी। सरोजिनी नगर से 50 नंबर की बस पकड़ कर आपाधापी में संसद मार्ग स्थित पीटीआई की पहली मंजिल के समाचार डेस्क पर पहुंचा ही था कि सामने से संपादक पास आकर खड़े हो गए। संयोग था कि उस समय डेस्क पर मैं अकेला ही पहुँच पाया था। अब एक प्रशिक्षु की हालत अपने सबसे शीर्षतम अधिकारी को अपने सामने पाकर क्या होगी अंदाज़ा लगा सकते हैं। उनके पास हाथ से लिखे कुछ पन्ने थे। मुझे पकड़ाते हुए बोले, 'जरा देखो इसमें कोई गलती तो नहीं।' वे तो ऐसा कहकर अपने कक्ष में चले गए। लेकिन मैं हतप्रभ था। भला मैं संपादक के लेख में कोई गलती कैसे निकालता? 


थोड़ी देर बाद उन्होंने बुलवाकर पूछा, 'तुमने पढ़ा, कोई गलती तो नहीं हैं लेख में?' मैं अभी भी सकपकाया हुआ था। धीमे से बोला 'सर मैं क्या देखता इसमें ?' मेरा कहने का अर्थ था कि मेरी क्या औकात कि आप जैसे बड़े पत्रकार के लेख को देखूँ। मेरी स्वाभाविक झिझक को भाँपकर थोड़े स्नेहवत आधिकारिक स्वर बोले, 'यहाँ मैं संपादक नहीं और तुम प्रशिक्षु नहीं। हम दो पत्रकार हैं। और पत्रकारिता का मूल नियम है कि कोई कॉपी बिना दो नज़रों से गुजरे छपने के लिए नहीं दी जाती। इसलिए जाओ और इसे ठीक से पढ़कर वापस लाओ।'  


ऐसे मेरे पहले संपादक थे डॉ वेद प्रताप वैदिक। पत्रकारिता का मेरा यह पहला सबक था जो जीवन भर याद रहा। वैदिक जी इतने ख्यातिप्राप्त और बड़े संपादक होते हुए भी सुबह की शिफ्ट में अक्सर आठ बजे से पहले दफ्तर पहुँच जाया करते थे। मेरी दफ्तर समय से पहुँचने की आदत उन्हीं से पड़ी। उसके थोड़े दिनों बाद की ही बात है।  मेरी एक कॉपी कई सारे लाल निशानों के साथ मुझे वापस मिली। मुझे लगा कि मेरी अनुवाद की हुई कॉपी तो ठीक ही थी। वैदिक जी ने मुझे बुलवाकर कहा, 'तुमने अपनी कॉपी पढ़ी? जरा पहला वाक्य देखो। 15 शब्दों का है। इतना बड़ा वाक्य कौन पढ़ पायेगा ?' फिर बड़े प्रेम से कहा कि एक वाक्य में 5/7 से अधिक शब्द न हों। छोटे वाक्य लिखने की ये सीख डॉ वैदिक से ही मिली। 


उसके बाद से डॉ वैदिक से एक अंतरंगता का नाता जुड़ गया जो जीवन भर चलता रहा। संबंध बनाने और उन्हें जीवन भर निभाने की विलक्षण सामाजिकता वैदिक जी की खासियत थी। काश सब लोग ऐसा कर पाते! उनके ये सम्बन्ध बिना किसी आडम्बर, लोभ, दिखाबे या स्वार्थ के थे। उनके संबंध विचारधारात्मक या राजनैतिक संबद्धता से भी परे होते थे। सभी दलों और उनके  नेताओं से उनका आत्मीयता का नाता रहा।  वे पुरानी बातें भी खूब याद रखते थे। तीन साल पहले जब वे बिटिया दीक्षा के विवाह में आशीर्वाद देने पहुंचे तो सीमा से बोले थे।'बहू, तुम्हारे विवाह में भी में सरोजिनी नगर आया था, तुम्हें याद हैं न?' वे मेरे विवाह का जिक्र कर रहे थे। सीमा को वे बहू कहकर ही बुलाते थे। 







हर महीने दो महीने में उनसे बात होती ही थी। अक्सर उन्हीं का फोन आता था। कोई महीने भर पहले वैदिक जी का फोन आया था। तब उन्होंने दक्षिण एशिया, पश्चिम एशिया, मध्य एशिया और अफ्रीका के विकासशील देशों का एक साझा गैर सरकारी मंच बनाने की बात कही थी। वे चाहते थे कि भारत के नेतृत्व में बनने वाले इस प्रयास में मैं भी रहूँ। भारत के दूरगामी हितों की चिंता और उन्हें आगे ले जाने के प्रयास-ये वैदिक जी के वजूद का अभिन्न अंग था। उनके लेखों और व्याख्यानों में भी यही मूल विषय रहता था। इस नए संगठन के बारे में उनसे मिलकर बात करने का वादा हुआ था।

आप तो चले गए। 

अब इस वादे को कौन निभाएगा वैदिक जी !!!


Friday, January 27, 2023

26 जनवरी 2023 - राजपथ से कर्तव्य पथ की यात्रा का सफर



राज शब्द से सिर्फ राजकाज का बोध होता है। राजकाज अर्थात राजा, दण्ड, नियम, विधान और हुक्मरानों के अधिकार। जब इसे राजकाज के इस भाव को भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था पर लागू करते हैं तो यह बहुत एकतरफा लगता है। लोकतंत्र यानि जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिए रची गयी व्यवस्था। राज में सिर्फ शासन की धमक सुनाई पड़ती है, इसके उल्टा कर्तव्य में राजा और प्रजा दोनों की ही समग्र कार्यप्रणाली की ध्वनि आती है। किसी भी राष्ट्र की लोकतांत्रिक व्यवस्था वहाँ रहने वालों की आकांक्षाओं, उसकी विरासत, उसका इतिहास, उसकी संस्कृति और उसकी परम्पराओं के बिना अधूरी ही होती है। वह सिर्फ राज तक कैसे सीमित होकर रह सकती है ?

1950 से ही दिल्ली में 26 जनवरी को #गणत्रंत्रदिवस परेड का आयोजन होता रहा है।1950 से 1954 तक यह परेड अलग अलग स्थानों पर आयोजित की गई। लेकिन 1955 से यह परेड रायसीना की पहाड़ी पर स्थित राष्ट्रपति भवन, जो पहले वायसराय का घर होता था, से शुरू होकर लालकिले पर संपन्न होती रही है। अंग्रेज़ों द्वारा भारत के वायसराय यानि लाटसाहब के लिए बनाये भवन से मुगलों के किले तक की ये परेड एक तरह से हमारे उस इतिहास की और संकेत करती रहीं हैं जब ये देश विदेशियों का गुलाम था। कोई भी अधीनता सिर्फ सैन्य, राजनीतिक और प्रशासनिक ही नहीं होती। उसमें विचार, संस्कृति, मान्यताओं, परम्पराओं, से जुड़े भावों की कई परतें होती है। 

हमारे जैसे देश में जब समाज को कई सौ साल विदेशी आक्रांताओं के अत्याचार सहने पड़े हों, ये बात और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। दासता के ये भाव हमारे समाज जीवन के कई क्षेत्रों जैसे शिक्षा, भाषा, प्रशासनिक तंत्र, न्याय प्रणाली, कला संस्कृति आदि में गहरे तक पैठ कर गया। एक तरफ इसने कुंठा, निराशा, आत्मदैन्य और हीनता को जन्म दिया।  वहीँ यह भी निर्विवाद है कि इससे बाहर निकलने की छटपटाहट, तड़प और बेचैनी समाज के हर हिस्से में लगातार बनी रही। इसके लिए साहित्यिक, सामाजिक, वैचारिक, सैन्य और राजनीतिक हर स्तर पर आंदोलनों और संघर्षों की एक अनवरत और अनंत लौ को समाज की चिति ने सदा जलाये रखा। 

किसी भी राष्ट्र के लिए राजनैतिक आज़ादी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है लेकिन यही किसी राष्ट्र का एकमात्र और अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। पैरों में पड़ी राजनैतिक गुलामी की जंजीरें तोड़ने के बाद ही समग्र स्वतंत्रता का समर शुरू होता है। यह संग्राम होता है अधीनता की उन सभी उलझी परतों को एक एक करके बंधनमुक्त करना जो लम्बी दासता के बाद किसी भी समाज की भावभूमि में घर बना बैठी हों। इस मायने में राजनैतिक और प्रशासनिक स्वतंत्रता तो आने वाली एक लम्बी यात्रा की एक महत्वपूर्ण सीढ़ी ही कही जा सकती है। #भारत की ये यात्रा 1947 में शुरू हुई। #आज़ादी के #अमृतकाल में अब इसके अमृत की बूंदों का असर राष्ट्रजीवन के हर पहलू पर दिखाई दे रहा है। 

इसमें संदेह नहीं कि 2014 के बाद से इसने एक नयी छलांग लगाईं है। राजपथ से कर्तव्यपथ की इस अनूठी लोकतान्त्रिक यात्रा में देश ने 75 वर्ष ले लिए हैं। इस साल गणत्रंत्र दिवस की परेड में अलग अलग राज्यों से आई झांकियों में इस यात्रा  की पूरी तस्वीर सामने आई। परेड में आत्मनिर्भरता की ओर तेज़ी से कदम रखते हमारे सैन्य बलों के विश्वास और होंसलों का प्रदर्शन तो था ही। अलग अलग राज्यों और विभागों की झांकियों में मंदिरों, नृत्य परम्पराओं, उपासना पद्धतियों, आस्थाओं, आत्मविश्वास ले लबरेज उपलब्धियों, नारी सशक्तीकरण के प्रयासों का चित्रण एक नए भारत के उदय का संकेत है। अयोध्या की देव दीपावली से लेकर कश्मीर के अमरनाथ तक भारत के जनमानस की आस्था के केंद्रों का ऐसा विशद चित्रण अब से पहले 26 जनवरी की परेड में कभी नहीं हुआ। 

आप बहस कर सकते हैं कि आत्मबोध की इस यात्रा में लिया गया ये समय कम है या ज़्यादा। आप चाहे तो इसका विश्लेषण पार्टीगत राजनीति और विचारधारात्मक आधार पर भी कर सकते हैं। मगर इसे सिर्फ इन संकीर्ण नज़रिये से देखना एक गंभीर भूल होगी। ऐसा करते हुए याद रखने की बात है कि झारखण्ड, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु राज्यों में बीजेपी की सरकारें नहीं हैं। झारखण्ड की झांकी में बाबा बैजनाथ, पश्चिम बंगाल की झांकी में दुर्गा पूजा और तमिलनाडु की झांकी में अव्वैयाऱ की प्रतिमा के साथ तंजौर का बृहदेश्वर मंदिर दर्शाया जाना यों ही नहीं है। भारत निश्चय ही बदल रहा है। 

ये बात सही है की इस बार छब्बीस जनवरी की परेड में धुंध के कारण वायुसेना का फ्लाईपास्ट उस तरीके से नहीं हो सका जैसा हर साल होता आया है। पर यकीन मानिये तमाम आशंकाओं, घात प्रतिघातों, कुचेष्टाओं और षड्यंत्रों के बादलों के पीछे से एक आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर, साहसी और समृद्ध भारत का सूर्य अपनी दिव्य आभा के साथ विश्व के फलक पर चमकना शुरू हो गया है।  


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Thursday, January 12, 2023

2023 : भारत के लिए विकट सुरक्षा चुनौतियों का साल





अधिकांश विश्लेषक इस साल को भारत के लिए सम्भावनाओं का साल बता रहे हैँ। जो ठीक भी है। आर्थिक स्थिति देखी जाए तो ये साल देश के लिए अच्छा रहने की सम्भावना है।  पर देश की सुरक्षा के लिए ये गंभीर चुनौतियों का साल अधिक लगता है। अपने पड़ोस पर एक नज़र डालें तो तस्वीर थोड़ा साफ हो जाएगी। हमारे दोनों बड़े पड़ोसी देश यानि चीन और पाकिस्तान बड़े बड़े संकटो से घिरे हुए हैँ। जब पड़ोस के घर में आग लगी हो तो उसकी तपिश से आप कैसी बच सकते हैँ? और जब पड़ोसी आपके घोषित दुश्मन और चिर प्रतिद्वंदी हो आपकी मुश्किलें निश्चय ही बहुत बढ़ जाती हैँ।  


अंतराष्ट्रीय राजनीति में घर के अंदर आई परेशानियों से निपटने का आजमाया हुआ फार्मूला है कि अपने लोगों का ध्यान हटाओ। इतिहास साक्षी है कि जब भी इन दोनों पड़ोसी देशों में अंदरूनी हालात बिगड़े हैं तो इन्होने अपनी जनता का ध्यान बांटने के लिये भारत के खिलाफ साजिशें बढ़ा दीं हैं। सब जानते हैं कि कोरोना के विषाणु चीन से निकल कर दुनिया में फैले। जब दुनिया में कोरोना की पहली लहर चल रही थी तो चीन से भी लाखों लोगों के प्रभावित होने की खबरें थीं। तब चीन के कम्युनिस्ट तंत्र ने इससे ध्यान हटाने को गलवान व अन्य मोर्चों पर घुसपैठ बढाकर अपने देश में भावनाएँ भड़काई थीं। 


इन दिनों चीन उससे कहीं गहरे संकट में फँसा है। वहां हर रोज़ दस लाख से ज़्यादा कोरोना के नए मामले आ रहे हैं। जाहिर है कि कोरोना से मरने वालों की तादाद काफी अधिक होगी। चीन में सबका और खासकर सभी बुजुर्गों का टीकाकरण नहीं हुआ है। पर चीन कोविद से होने वाली विभीषिका को अपनी जनता और दुनिया से छिपा रहा है। इसकी तस्दीक अलग अलग स्रोतों से हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन, जो कोरोना महामारी के दौरान चीन का पिछलग्गू बन गया था, ने भी अब चीन के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की आपत्कालीन सेवाओं के निदेशक माइकेल रायन ने कहा है कि "डब्लू एच ओ मानता है कि चीन कोविद से बड़ी संख्या में हुई मौतों को छिपा रहा है।" 


कुल मिलाकर चीन में पिछले कोई छह हफ़्तों से  कोरोना की स्थिति विस्फोटक बनी हुई है। ये हालात इतनी जल्दी सुधरते नहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं। चीन मुश्किल में फँसा है। राष्ट्रपति शीजिंगपिंग कम्युनिस्ट प्रचार तंत्र के द्वारा नैरेटिव का खेल खेलने के एक माहिर खिलाड़ी हैं। मुमकिन है कि सर्दियाँ उतरते उतरते जैसे ही भारत-चीन सीमा पर बर्फ पिघलनी शुरू हो, वहाँ पीएलए उकसाने वाली कार्यवाही शुरू कर दे। दिसंबर के महीने में अरुणाचल प्रदेश के तवांग में चीनी फ़ौज की घुसपैठ की नाकाम कोशिश को इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए। उत्तर पूर्वी राज्यों में देश विरोधी ताकतों को चीन बढ़ावा देने की कोशिश भी कर सकता है। वहां और चीन की सीमा पर अगले कई महीने भारत को बेहद सतर्क और मुस्तैद रहना होगा। 


उधर पाकिस्तान के अंदरूनी हालात तो दिनबदिन बद से बदतर होते जा रहे हैं। पाकिस्तान के स्टेट बैंक के खजाने में बस 5 बिलियन डॉलर बाकी बचे हैं। इससे पाकिस्तान सिर्फ तीन हफ्ते का ज़रूरी सामान ही विदेशों से खरीद सकता है। पाकिस्तान में आटे जैसी बुनियादी ज़रुरत की चीज़ की भी बेहद किल्लत हो गई हैं। देश के कई प्रांतो जैसे सिंध, खैबर पख्तूनवा, पंजाब और बलोचिस्तान  में आटा लेने के लिए लगी कतारों में भगदड़ मचने से कई नागरिकों के मरने की ख़बरें हैं। तेल और गैस की कमी के कारण बिजली का संकट इतना गंभीर है कि बाज़ारों में रेस्टोरेंट व अन्य दुकानों को शाम आठ बजे बंद करने के आदेश दे दिए गए हैं। सरकार ने अब इस्लामाबाद में शादी की पार्टियाँ को भी भी दस बजे तक ख़त्म करने का एलान कर दिया है। इतनी किल्लत के बीच पाकिस्तान को दुनिया में कोई भी क़र्ज़ देने को तैयार नहीं है। 


उधर अफगानिस्तान और पाकिस्तान में सीमा पर कई टकराव हो चुके है। अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार अब खुले आम पाकिस्तान को बुरा भला कह रही है। पाकिस्तान तो तालिबान को अपना दोस्त समझता था उन्हीके समर्थन से बनी तहरीके तालिबान पाकिस्तान यानि टीटीपी ने पाकिस्तान में जिहादी हमलों की बौछार कर दी है।  दिसंबर के महीने में ही कई अफसरों समेत 40 पाकिस्तानी फौजी इन हमलों में मारे गए है। टीटीपी ने बाकायदा एक वैकल्पिक सरकार की घोषणा कर कई इलाकों में शरिया लागू कर दिया है। पाकिस्तान की फौज ने ही तालिबान के इस जिन को पालापोसा और बड़ा किया था। वही उसके गले की हड्डी बन गया है। 


इस बीच पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति में पूर्व प्रधान मंत्री इमरान खान रोज़ नाम ले ले कर सेना के अफसरों को ललकार रहे हैं। इमरान भी पाक फ़ौज की मदद से सत्ता में आये थे लेकिन सत्ता से हटाए जाने के बाद वे फ़ौज के नेतृत्व को अपना दुश्मन नंबर एक मानते है। इमरान खान की लोकप्रियता इन दिनों शिखर पर है, सो चाहकर भी पाकिस्तानी जरनल उनके खिलाफ कुछ नहीं कर पा रहे। ये पाकिस्तानी इतिहास में पहली बार हो रहा है जब राजनीतिक सभाओं में और सोशल मीडिया में इस तरह फ़ौज के नेतृत्व को खुलेआम गालियाँ दी जा रही हैं। इस समय पाकिस्तान की सेना के प्रति गहरा असंतोष देखा जा रहा है। 


ये जगजाहिर है कि पाकिस्तान को वहां की सेना ही चलाती है। आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा के तीनों मोर्चों पर घिरी हुई पाकिस्तानी सेना और आईएसआई अपनी जनता का ध्यान बटाने के लिए जम्मू कश्मीर और पंजाब में कुछ बड़े षड्यंत्र रच सकते हैं। पंजाब में पिछले दिनों ड्रोन के द्वारा हथियार और ड्रग्स भेजने के मामलों में अभूतपूर्व वृद्धि होना इसकी तरफ साफ़ संकेत है। जम्मू कश्मीर की मौजूदा शांति को हर तरह से भंग करने की कोशिश आईएसआई करेगी ही। उधर पंजाब में भी भारत विरोधी खालिस्तानियों को हवा दी जाएगी। 


खतरे सिर्फ सीमा पर नहीं बल्कि भारत के भीतर भी सिमी जैसे प्रतिबंधित संगठनों के स्लीपिंग सेल मौजूद हैं। इन्हें सक्रिय कर साम्प्रदायिक उन्माद भड़काने की पूरी कोशिश इस साल होगी। कर्नाटक, मध्यप्रदेश, राजस्थान, नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय के साथ साथ माओवाद से प्रभावित रहे छत्तीसगढ और तेलंगाना में इस साल चुनाव भी होने है। माओवादी भी पूरी तरह से परास्त नहीं हुए है। उनके शहरी समर्थक चोला बदल कर कई मुख्य पार्टियों में जा छुपे है। जिन आठ राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें से तकरीबन सभी सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील है। राजस्थान सीमा से लगा प्रान्त है तो कर्नाटक में सांप्रदायिक तनाव के कई मामले हो चुके हैं। पूर्वोत्तर के राज्य तो वैसे भी सुरक्षा के नजरिये से संवेदनशील रहे है। चीन और पाकिस्तान दोनों ही हमारे समाज की दरारों को चौड़ा करने की कोशिश करेंगे। 


इस नाते ये साल भारत के लिए बेहद चुनौतियों का साल रहने वाला है। हमें पटरी से उतारने की कोशिश होगी। सामाजिक द्वेष, साम्प्रदयिक उन्माद और असंतोष फैलाया जायेगा। विघटनकारी शक्तियाँ राजनीतिक प्रतिद्वंदिता का उपयोग कर जनमानस में अपनी पैठ बनाने की कोशिश करेंगी। इसलिए  भारत को 2023 में बहुत चौकन्ना, सतर्क और सावधान रहने की ज़रुरत है।