Friday, September 19, 2014

Birthday - एक पन्ने का पलटना

Birthday - एक पन्ने का पलटना

आज जीवन की किताब का एक पन्ना और पलट गया। वैसे पन्ने के पलटने का क्या मोल? किताबों के  पन्ने तो हवा से भी पलट जाया करते हैं। काम की बात तो यह है कि पन्ने पर आपने क्या लिखा? काली स्याही पोती या फिर कुछ ऐसा जिससे समाज जीवन में किसी के लिए कुछ उपयोगी हुए। कहीं कोई “Value Create” की।

वैसे कबीर की भाषा में कहें तो ये भी कम उपलब्धि नहीं कि आप पन्ने को कोरा ही रहने दें। “ज्यों की त्यों रखदीनी रे चदरिया” मगर शायद ऐसा तो बड़ा मुश्किल हैं। काजल की कोठरी में कागज कोरा कैसे रहे?

खैर, बीता साल काफी उथलपुथल और परिवर्तनों का रहा। कुछ घाव भी लगे जो जीवन भर नहीं भर पांएगें। ईश्वर शायद कुछ और सिखाना चाहता है। नहीं तो इतना शूल और दर्द क्यों देता। चलिए ये तो ईश्वर की लीला.....इसमें हम क्या कर सकते हैं? लेकिन धन्यवाद गुरूजी इसे सहने की सार्मथ्य देने के लिए।

धन्यवाद मिंटी, परिवर्तनों के इस अध्याय में चट्टान की तरह मेरा साथ दे के लिए । काश कभी तुम से यह पूछा होता कि “तुम इतना जो मुस्करा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो”। ....... तुम तो उस मजबूत धागे की तरह हो जो पन्नों को किताब की शक्ल में बांधे रखता हैं। तुम्हारें बिना जीवन की किताब- किताब ना हो कर बस कुछ बिखरे पन्ने भर रह जाती।

इसी दौरान जाना कि शलभ अब बड़ा हो गया है और दीक्षा गम्भीर Love You Both and the way you are shaping……

लेकिन वो जिंदगी ही क्या जो बस खरामा खरामा चलती रहे। राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा था

“लक्ष्मण रेखा के दास, तटों तक होकर ही फिर आते हैं।
वर्जित समुद्र में नाव लिए, स्वाधीन वीर ही जाते हैं”।।

तो इस पलटते पन्ने के  साथ फिर एक नया दौर नयी चेतना, नए उत्साह और कुछ नया करने का निश्चय। अन्यथा पन्ना तो पन्ना है पलटना उसका धर्म हैं। कुछ करो या न करो पलटेगा ही.. सो आज  पलट गया।

सुख के साथी मिले हज़ारों ही लेकिन, दुःख में साथ निभाने वाला नहीं मिला

Just remembered these lines that my school teacher Siyaram sir used to sing. I think Pradeep wrote these lines

सुख के साथी मिले हज़ारों ही लेकिन, दुःख में साथ निभाने वाला नहीं मिला .

जब तक रही बहार उमर की बगिया में, जो भी आया द्वार चाँद लेकर आया.
पर जब ये उड़ गयी गुलाबों की खुशबू, मेरा आंसू मुझ तक आते शरमाया.

जिसने देखी बस भरी डोली देखी, नहीं किसीने पर दुल्हन भोली देखी.
मेला साथ दिखाने वाले सभी, सूनापन बहलाने वाला नहीं मिला.

सुख के साथी मिले हज़ारों ही लेकिन, दुःख में साथ निभाने वाला नहीं मिला.....
Photo: Just remembered these lines that my school teacher Siyaram sir used to sing. I think Pradeep wrote these lines

सुख के साथी मिले हज़ारों ही लेकिन, दुःख में साथ निभाने वाला नहीं मिला . 

जब तक रही बहार उमर की बगिया में, जो भी आया द्वार चाँद लेकर आया. 
पर जब ये उड़ गयी गुलाबों की खुशबू, मेरा आंसू मुझ तक आते शरमाया. 

जिसने देखी बस भरी डोली देखी, नहीं किसीने पर दुल्हन भोली देखी. 
मेला साथ दिखाने वाले सभी, सूनापन बहलाने वाला नहीं मिला. 

सुख के साथी मिले हज़ारों ही लेकिन, दुःख में साथ निभाने वाला नहीं मिला.....

#KashmirFloods कश्मीर: संकट में सेवा

अब्दुर्रहीम खानखाना दान देने के लिए बड़े मशहूर थे। दान देते हुए वे दान लेने वाले की तरफ देखते तक नहीं थे। इसलिए किसीने उनसे पूंछा कि वे दान देते हुए नज़रें झुका क्यों लेते हैं? इस पर उन्होंने लिखा:-

देनहार कोउ और है, जो भजत दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें, ताते नीचे नैन।

रहीम का ये दोहा भारतीय संस्कृति के मूल तत्व को रेखांकित करता है कि दान, सेवा और त्याग का बखान नहीं किया जाना चािहए। ऐसा करने से उनका महत्व और प्रभाव दोनों ही समाप्त हो जाते है। इसमें एक बात और जोड़ी जा सकती है कि किसी की दुःख तकलीफ में की गयी सेवा अगर गा कर सुनायी जाए तो वह सेवा बिलकुल निरर्थक हो जाती है।यह बात कश्मीर में आयी आपदा के दौरान सोशल मीडिया पर शब्दों से मलखम्ब कर रहे शब्दवीरों पर सीधी लागू होती है। ज़रा बानगी देखिये कि ये शब्दवीर क्या लिख रहे हैं।

एक सोशल मीडिया लिक्खाड़ ने लिखा कि “भारतीय सेना को सलाम कि वो उन्हें बाढ़ से बचा रही है जो कल तक उसपर पत्थर फेंक रहे थे”

एक अन्य प्रसिद्द सोशल मीडिया एक्टीविष्ट ने लिखा है समय-समय की बात है- "पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने वाले कश्मीरी, राष्ट्रगीत पर प्रतिबंध लगाने वाले कश्मीरी, भारतीय सैनिको की हत्या करने वाले उग्रवादियों को पनाह देने वाले कश्मीरीयों की दहलीज पर आज जब मौत पांव पसार कर खड़ी है तो गजवा ए हिन्द की रट लगाने वाला हाफिज सईद उन्हें बचाने का कोई प्रबंध नहीं कर रहा। अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर आज कोई मसीहा बाढ़ में फंसे लोगो को बचा रहे है तो वो केवल भारतीय सैनिक है।
जय हिन्द..."

क्या संकट की इस घड़ी में इस तरह की बातें उचित हैं? क्या किसीको बचाते हुए पहले उसका राष्ट्रीयता प्रमाणपत्र मांगा जाना चाहिए? एक तरफ तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तान को कह रहे हैं कि भारत सीमापार पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर में भी मदद करने को तैयार है दूसरी तरफ इस तरह के भाव? यह किसी भी तरह से उचित नहीं है।

पहली बात तो ये की हमारी संस्कृति सेवा को किसी शर्त से जोड़ने की नहीं है। सेवा और वह भी इस तरह की आपदा के समय - उसे इस बात से नहीं जोड़ा जा सकता कि कश्मीरियों का बर्ताव पहले कैसा था। सेवा और परोपकार निस्वार्थ करने की हमारी परम्परा है। भारतीय सेना उसे बखूबी निभा रही है। सोशल मीडिया में उपरोक्त भाव लिखने वाले इस या तो भारतीय परम्परा से परिचित नहीं हैं या फिर जोश में होश खो चुके हैं।

इसी तरह भारतीयता की एक पहचान यह भी है कि आपदा या संकट के समय मोल भाव ना करे क्योंकि किसी की दुःख की घड़ी में किय गया इस तरह का बर्ताव अमानवीय है।इस समय अगर कोई आपकी बात मान भी लेगा तो वह बाद में भूल जाएगा।

तीसरी बात अगर बात कश्मीर में उन लोगों का दिल जीतना है जो पाकिस्तान का गाना गाते हैं या फिर उन्हें अप्रासंगिक करना है तो फिर ये बातें उठाना बेहद गैरज़रूरी है। हर कश्मीरी जब भारतीय है ही तो उसका हक़ है कि विपदा की इस घड़ी में पूरा देश उसके साथ खड़ा हो।

ये उलाहनेबाज़ी न तो देश और ना ही कश्मीर के लिए ठीक है।

कश्मीर में विपरीत और बेहद कठिन हालात में सेवा करने के लिए भारतीय सेना का साधुवाद!

उमेश उपाध्याय

Photo: कश्मीर: संकट में सेवा

अब्दुर्रहीम खानखाना दान देने के लिए बड़े मशहूर थे। दान देते हुए वे दान लेने वाले की तरफ देखते तक नहीं थे। इसलिए किसीने उनसे पूंछा कि वे दान देते हुए नज़रें झुका क्यों लेते हैं? इस पर उन्होंने लिखा:-
 
देनहार कोउ और है, जो भजत दिन रैन।
लोग भरम हम पर करें,  ताते  नीचे  नैन। 
 
रहीम का ये दोहा भारतीय संस्कृति के मूल तत्व को रेखांकित करता है कि दान, सेवा और त्याग का बखान नहीं किया जाना चािहए। ऐसा करने से उनका महत्व और प्रभाव दोनों ही समाप्त हो जाते है। इसमें एक बात और जोड़ी जा सकती है कि किसी की दुःख तकलीफ में की गयी सेवा अगर गा कर सुनायी जाए तो वह सेवा बिलकुल निरर्थक हो जाती है।यह बात कश्मीर में आयी आपदा के दौरान सोशल मीडिया पर शब्दों से मलखम्ब कर रहे शब्दवीरों पर सीधी लागू होती है। ज़रा बानगी देखिये कि ये शब्दवीर क्या लिख रहे हैं।
 
एक  सोशल मीडिया लिक्खाड़ ने लिखा कि “भारतीय सेना को सलाम कि वो उन्हें बाढ़ से बचा रही है जो कल तक उसपर पत्थर फेंक रहे थे”
 
एक अन्य प्रसिद्द सोशल मीडिया एक्टीविष्ट ने लिखा है समय-समय की बात है- "पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने वाले कश्मीरी, राष्ट्रगीत पर प्रतिबंध लगाने वाले कश्मीरी, भारतीय सैनिको की हत्या करने वाले उग्रवादियों को पनाह देने वाले कश्मीरीयों की दहलीज पर आज जब मौत पांव पसार कर खड़ी है तो गजवा ए हिन्द की रट लगाने वाला हाफिज सईद उन्हें बचाने का कोई प्रबंध नहीं कर रहा। अपनी जिंदगी को दांव पर लगाकर आज कोई मसीहा बाढ़ में फंसे लोगो को बचा रहे है तो वो केवल भारतीय सैनिक है।
जय हिन्द..."
 
क्या संकट की इस घड़ी में इस तरह की बातें उचित हैं? क्या किसीको बचाते हुए पहले उसका राष्ट्रीयता प्रमाणपत्र मांगा जाना चाहिए? एक तरफ तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पाकिस्तान को कह रहे हैं कि भारत सीमापार पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर में भी मदद करने को तैयार है दूसरी तरफ इस तरह के भाव? यह किसी भी तरह से उचित नहीं है।
 
पहली बात तो ये की हमारी संस्कृति सेवा को किसी शर्त से जोड़ने की नहीं है। सेवा और वह भी इस तरह की आपदा के समय - उसे इस बात से नहीं जोड़ा जा सकता कि कश्मीरियों का बर्ताव पहले कैसा था। सेवा और परोपकार निस्वार्थ करने की हमारी परम्परा है। भारतीय सेना उसे बखूबी निभा रही है। सोशल मीडिया में उपरोक्त भाव लिखने वाले इस या तो भारतीय परम्परा से परिचित नहीं हैं या फिर जोश में होश खो चुके हैं।
 
इसी तरह भारतीयता की एक पहचान यह भी है कि आपदा या संकट के समय मोल भाव ना करे क्योंकि किसी की दुःख की घड़ी में किय गया इस तरह का बर्ताव अमानवीय है।इस समय अगर कोई आपकी बात मान भी लेगा तो वह बाद में भूल जाएगा।
 
तीसरी बात अगर बात कश्मीर में उन लोगों का दिल जीतना है जो पाकिस्तान का गाना गाते हैं या फिर उन्हें अप्रासंगिक करना है तो फिर ये बातें उठाना बेहद गैरज़रूरी है। हर कश्मीरी जब भारतीय है ही तो उसका हक़ है कि विपदा की इस घड़ी में पूरा देश उसके साथ खड़ा हो।
 
ये उलाहनेबाज़ी न तो देश और ना ही कश्मीर के लिए ठीक है।
 
कश्मीर में विपरीत और बेहद कठिन हालात में सेवा करने के लिए भारतीय सेना का साधुवाद!

उमेश उपाध्याय

Wednesday, July 2, 2014

#Secularism खोखली धर्म निरपेक्षता बनाम सर्वधर्म समभाव

“धर्म निरपेक्षता” शब्द ही सही नहीं है। पश्चिमी देशों में चर्च को राज्य और शासन से अलग करने के संदर्भ में “सेकुलरवाद” की सोच आई। मगर उसे “धर्मनिरपेक्ष” कहकर पश्चिम प्रेरित भारतीय बुद्धिजीवियों ने उसका अनर्थ ही कर डाला। जिसकी व्याख्या राजनेताओं ने सिर्फ  अल्पसंख्यकों को भरमाने के लिए की है


कॉंग्रेस के वरिष्ठ नेता ए के एंटोनी की हिम्मत की दाद देनी चाहिए कि उन्होने माना कि सेकुलरवाद को लेकर कॉंग्रेस को अपना रास्ता ठीक करने की ज़रूरत है। उन्होने कहा कि लोग समझते हैं कि कॉंग्रेस एक तरफ बहुत झुक गई है। बात सही और खरी है। वैसे ये तो उसी दिन साफ हो गया था जिस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह ने कहा था कि “देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है।“ मगर देर आयद दुरुस्त आयद। अब भी अगर कॉंग्रेस बेबाकी से इसकी परख करेगी तो ये पार्टी के साथ साथ देश के लिए भी अच्छा होगा। कॉंग्रेस देश की बड़ी पार्टी है। उसकी सोच और चिंतन में विकृति देश के लिए घातक है। इसलिए एंटोनी का ये बयान महत्वपूर्ण है।

दरससल “धर्म निरपेक्षता” शब्द ही सही नहीं है। पश्चिमी देशों में चर्च को राज्य और शासन से अलग करने के संदर्भ में “सेकुलरवाद” की सोच आई। मगर उसे “धर्मनिरपेक्ष” कहकर पश्चिम प्रेरित भारतीय बुद्धिजीवियों ने उसका अनर्थ ही कर डाला। जिसकी व्याख्या राजनेताओं ने अवसर के अनुसार अल्पसंख्यकों को भरमाने के लिए की। और यह वोट की राजनीति का एक बड़ा औज़ार बन गया। जिसने इस शब्द या सोच पर बहस की बात की उसे “सांप्रदायिक” लेबल चिपकाकर एक तरह से बहिष्कृत कर दिया गया। नेहरुवादियों और वामपंथी बुद्धिजीवियों ने ऐसी सोच रखने वालों को देश के अकादमिक, सांस्कृतिक और चिंतन-मनन के सभी उपक्रमों से बाहर रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। जीवित व्यक्तियों की बात तो अलग इन लोगों ने देश के संत कवियों और साहित्यकारों का भी वर्गीकरण कर दिया। और इनके अनुसार कबीर सेकुलरवादी और तुलसी सांप्रदायिक हो गए! भारतीय मनीषा में ऐसी सोच कभी नहीं रही। राजनीतिक और अकादमिक अश्पृश्यता का ये खेल खूब चला। लेकिन इसकी परिणति हुई 2014 के चुनाव में जबकि देश ने इन सबको नकार दिया।

जिस देश की परम्पराएँ, शिक्षा-संस्कार, नैतिक मूल्य, समाज व्यवहार, सांस्कृतिक कार्यक्रम और यहाँ तक कि लोगों की दिनचर्या धर्म से प्रेरित होती हो; जो देश दुनिया के ज़्यादातर धर्मों का जनक हो; जहां अन्तरिक्ष में रॉकेट छोड़ने से पहले नारियल तोड़ा जाता हो यानि तकरीबन सब कुछ धर्म आधारित हो वहाँ राजनीति और राजकाज क्या धर्म से निरपेक्ष हो सकता है? इस सोच और शब्द ने हमारे जीवन और व्यवहार में एक तरह का दोहरापन पैदा कर दिया है। एक तरफ धर्म में गहरी आस्था और दूसरी तरफ उन सब संस्कारों और रिवाजों को आडंबर मानने का उपक्रम जो धार्मिक अस्थाओं से पैदा होते हैं। 

आप माने या न माने भारत में खुली सोच, बहुलवादी विचारों को मान्यता, लोकतान्त्रिकता - ये सब बहुसंख्यक हिन्दू विचार, जीवन शैली और तत्व दर्शन से ही निकलते है। ये देखना ज़रूरी है कि क्या हिन्दू सोच में धर्म पूजा पद्यति का प्रतीक है? नहीं, यह जीवन दर्शन और मूल्यों का प्रतीक हैं। गीता में कृष्ण अर्जुन को एक योद्धा का धर्म समझाते हैं न कि पूजापाठ का तरीका। गांधी ने इसे सही पहचाना था। सोचने की बात है कि जब वे रामराज्य की बात करते थे क्या वह बहुसंख्यकों का शासन चाहते थे?  इसलिए भारत में धर्म से अलग न तो कुछ है, न हो सकता है। क्योंकि धर्म का मतलब है जीवन शैली। इसलिए यहाँ सबकुछ धार्मिक है। पूजा पद्यतियों को धर्म से अलग कर के देखने की ज़रूरत है।

और अगर आप सहूलियत के लिए मौटे मौटे तौर पर धर्म को भी हिन्दू, इस्लाम और ईसाईयत के नज़रिये से देखना ही चाहते है तो भी धर्म निरपेक्षता एक सही विचार नहीं। इसकी जगह होना चाहिए “सर्व धर्म सम भाव” यानि राजा का कर्तव्य या धर्म है कि वे अलग अलग मजहबों में यकीन करने वाले नागरिकों को एक समान भाव से देखे। इसके आधार पर किसी की साथ कोई भेदभाव न हो। सबको समान अवसर मिलें। कोई ईश्वर को किस रूप में देखता है और पूजता है, इसके आधार पर सरकार उससे अलग व्यवहार न करें।

सोचिए, अल्पसंख्यकों को सिर्फ और सिर्फ एक इकठ्ठा वोट समूह मानकर सबसे बड़ा छल और धोखा तो उनके साथ ही किया गया। सिर्फ कॉंग्रेस ही नहीं, सेकुलरवादी तमगा लगाए अनेक दलों ने ऐसा ही किया। अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को एक तरफ तो एक झुनझुना दिखाया जाता रहा और दूसरी तरफ उन्हें डराया जाता रहा। “हमें वोट दो नहीं तो... (मोदी) आ जाएगा।“ इसका ताज़ा उदाहरण हैं महाराष्ट्र सरकार द्वारा मुसलमानों को आरक्षण का झुनझुना। सब जानते हैं कि देश के कानून और संविधान के अनुसार ये नहीं हो सकता। मगर हर दल दूसरे से ज़्यादा धरम निरपेक्ष दिखने के लिए एक और ज़्यादा से ज़्यादा झुका दिखना चाहता है। एंटोनी की राय इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है।

ज़रूरत है कि इस पर देश में एक खुली और बेबाक बहस हो। हमें पश्चिम से ली गई बनावटी धर्म निरपेक्षता चाहिए या सहज और स्वाभाविक तौर पर हमारी सोच में बसा विचार- सर्व धर्म समभाव - यानि सबके साथ समान व्यवहार। सबको आगे बढ्ने के समान अवसर। तरक्की सबके साथ और इसमें सबका साथ और सहभागिता। संसाधनों पर किसी का पहला हक़ नहीं बल्कि साझा हक़। चूंकि कॉंग्रेस के एक अल्पसंख्यक नेता ने ये बात कही है तो इस पर बहस हो भी सकती है। नहीं तो अबतक ना जाने कितना हो हल्ला हो गया होता। कॉंग्रेस से इसकी शुरुआत होगी यह भी उचित है क्योंकि देश भर में 44 सीटें मिलने के बाद उसे आत्मविश्लेषण की बेहद ज़रूरत है।

#Secularism

Twitter: @upadhyayumesh

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उमेश उपाध्याय
2 जुलाई 14

Thursday, June 26, 2014

मोदी और अमरीकी वीज़ा #Modi




अमरीका ने कहा है कि उनके देश में “ओटोमेटिक वीज़ा” की कोई व्यवस्था नहीं है। कोई भी व्यक्ति ओटोमेटिक वीज़ा पाने का हकदार नहीं होता ।” बुधवार को अमरीकी विदेश विभाग की प्रवक्ता जेन पास्की ने वाशिंगटन में ये बात कही। उन्होने श्री नरेंद्र मोदी को वीज़ा के सवाल पर कोई सीधा उत्तर नहीं दिया लेकिन ये ज़रूर कहा कि “ राज्याध्यक्ष और राष्ट्राध्यक्ष ए 1 श्रेणी में आप्रवास और राष्ट्रियता कानून के तहत  वीज़ा के पात्र  होते है ।” मगर कोई भी व्यक्ति अपने आप वीज़ा का हकदार नहीं होता। मोदी के सवाल पर उन्होने यह भी कह दिया कि “अभी चुनाव के नतीजे घोषित नहीं हुए है।“


इससे एक बार फिर मोदी को वीज़ा देने का विवाद सामने आ गया है। याद रखने की बात है कि मार्च 2005 में श्री मोदी ने अमरीका जाने के लिए “राजनयिक वीज़ा” माँगा था। अमरीका ने न सिर्फ उन्हें वीज़ा देने से इंकार कर दिया था बल्कि उनके पास पहले से जो पर्यटक वीज़ा था उसे भी रद्द कर दिया था। देश के सेकुलरवादी तबके ने इस पर खुशी जताई थी। लेकिन सवाल ये है कि उनके प्रधान मंत्री बन जाने की स्थिति में अमरीका क्या करेगा? जिस तरह अमरीका के प्रवक्ता ने अब भी सीधा जवाब ने देकर बात को तोड़ मरोड़ कर रखा है उससे लगता है कि ये मामला तूल पकड़ सकता है। 


2005 में भी ये देश के सम्मान और अस्मिता का सवाल था और आज भी वही सवाल सामने खड़ा है। क्या किसी दूसरे देश को ये हक़ है कि वह हमारे चुने हुए नेता के बारे में कोई असम्मानजनक फैसला करे? श्री मोदी की तत्कालीन प्रस्तावित यात्रा को अमेरिका ने गुजरात के दंगों से जोड़ा था। उसे ये हक़ किसने दिया? उस समय भी श्री मोदी एक लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के मुख्यमंत्री थे और आज वे देश के करोड़ों लोगों की उम्मीद हैं । देश की किसी अदालत या संस्था ने उनको दोषी करार नहीं दिया है तो किस आधार पर अमरीका ने उन्हें वीज़ा देने से मना किया।
ये सीधे सीधे देश की सार्वभौमिकता पर हमला था। दुख की बात तो ये है कि तत्कालीन यू पी ए सरकार और अन्य दलों ने इस पर  विरोध जाहिर न करके इसका स्वागत किया था। इससे एक गलत परंपरा स्थापित हुई। अब सोचिए कि कॉंग्रेस के नेताओं को अगर अमेरिका ये कह कर वीज़ा न दे कि उनके शासन के दौरान सिख विरोधी दंगे हुए थे? या फिर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव को इसलिए अमेरिका जाने से रोक दिया जाये कि वो मुजजफरनगर में दंगों को रोक नहीं पाये। क्या ये उचित होगा? देश की इस अंदरूनी राजनीति की वजह से ही अमरीका जैसी ताकतों को अपनी रोटियाँ सेकने का मौका मिलता है। 


श्री मोदी ने इस मसले पर चुप्पी साध कर अच्छा ही किया। वे इसे तूल नहीं देना चाहते थे। पिछले दिनों जब अमरीकी राजदूत उनसे मिलने गईं तो वे उनसे मिले भी। तब भी उन्होने बड़प्पन दिखते हुए सिर्फ भारतीय राजनयिक देवयानी खोबरागड़े के साथ अमरीका में हुए दुर्व्यवहार की चर्चा की। ये ठीक ही था। अमरीका हमारा दोस्त है मगर ये बात भी सोचने की है कि ये दोस्ती एकतरफा नहीं हो सकती।


समय है कि अमरीका को बताया जाये कि भारत उसके साथ वही व्यवहार करेगा जो वह भारत और उसके नेताओं के साथ करता है। वह हमारे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की तलाशी ले और हम उनके राजनयिकों को हवाई अड्डों पर पूरी छूट दें। उनके कलाकार जब यहाँ आयें तो हम पलक पावड़ें बिछाएँ और वे शाहरुख खान को घंटों रोक लें। ये नहीं चल सकता। अशिष्टता का जवाब अशिष्टता तो नहीं होना चाहिए मगर कोई आपकी शिष्टता को कमजोरी समझता हो तो फिर आपका भी ये कर्तव्य है कि आप उसे सही सबक सिखाएँ। 


हम ये नहीं कहते कि श्री मोदी को अमरीका का वहिष्कार कर देना चाहिए। मगर ऐसा ज़रूर होना चाहिए कि वो फिर किसी भारतीय नेता का अपमान करने से पहले दो बार सोचे। अमरीका तक ये संदेश पहुँचना ज़रूरी है कि 2005 में जो उसने किया था वह नितांत अशिष्ट, अराजनयिक, लोकतंत्रीय मर्यादाओं और अंतर्राष्ट्रीय परम्पराओं के विरुद्ध था। और अब भी जो बयान वाशिंगटन से आया है वह सही नहीं है। हमें अपने राजनयिक सूत्रों के जरिये ये बात बिना किसी लाग लपेट के अमरीका से कहनी चाहिए। और अगर फिर भी अमरीका अपनी हेकड़ी मैं रहता है तो “शठे शाठ्यम समाचरेत” यानि उसे जो भाषा समझ में आती है उसी में बात करनी चाहिए। फेस बुक पर आज एक पाठक ने लिखा है कि “ मोदी जी जानते हैं कि कैसे अमरीका को ठीक करना है। वे कर लेंगे।“ हम समझते हैं कि इसकी नौबत नहीं आएगी और अपने दूरगामी हितों को देखते हुए अमरीका स्वयं ही अपने व्यवहार को ठीक कर लेगा।


उमेश उपाध्याय
15 मई 14

खबरदार ! दिल्ली की खबरें भी बदल रहीं हैं ? #Modi


दिल्ली की हवा इन दिनों काफी बदली बदली नज़र आती है। लुटियन की दिल्ली में नौकरशाह, नेता, पत्रकार और काम करवाने वाले “असरदार” लोग  काफी असमंजस की स्थिति में हैं। सत्ता के गलियारों में अब माहौल काम का हो गया है। भारतीय जनता पार्टी के एक कार्यकर्ता ने दो दिन पहले मुझे कहा कि “बड़ा अलग सा माहौल है। अभी तक मंत्रियों को फूल देकर शुभकामनाएँ देने तक का मौका तक नहीं मिला।“ उनका कई शीर्ष भाजपा नेताओं के यहाँ चुनाव तक खूब आना जाना था। मैंने कहा कि इसमें क्या परेशानी है। आप इन लोगों की कोठियों पर चले जाते। वे बोले “यही तो मुश्किल है, हर मंत्री नौ बजे दफ्तर पहुँच जाता है और फिर देर रात के बाद लौटता है।“ मिलना मुश्किल हो गया है। नौकेरशाह भी नए माहौल से अचकचाए हुए हैं, गोल्फ तो बंद हो ही गई है। काम भी करना पड़ रहा है। काम करवाने वालों की मुश्किल भी ख़ासी है, पहले नए मंत्री बनते ही दो चार दिन में “जुगाड़ फिट” हो ही जाती थी मगर नई सरकार में अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है।


सबसे बड़ी दिक्कत पत्रकारों की है। उनकी समस्या वाकई “रीयल” और गंभीर है। 1989 में जबसे दिल्ली में गठबंधन की सरकारों का चलन शुरू हुआ, खबरों का मतलब ही बादल गया था। इस दौरान किसी भी घटक दल के नेता का बयान राजनीतिक तौर से महत्वपूर्ण हो गया था। क्योंकि राजनीतिक पावर कई दलों में बट रही थी इसलिए पावर संतुलन बनाने का काम भी नाज़ुक था। हर दल और नेता के पास इस बैलेन्स को हिला देने की ताकत सी आ गई थी। इसलिए किसी दल के पास अगर चार-पाँच सांसद भी होते थे वह भी इस संतुलन को गड़बड़ाने की ताकत रखता था। इसलिए नेताओं के बयान ही नहीं बल्कि उनके हावभाव, उनकी “बॉडी लैंगवैज” तक खबर बन जाती थी। याद कीजिये जयललिता की “टी पार्टी”, ममता के नखरे, सीताराम येचुरी का “हम भोंकते ही नहीं काटते भी हैं” वाला बयान, रामदास का मेडिकल इंस्टीट्यूट न जाना आदि आदि। यानि छोटे मोटे दल के नेता का बयान भी राजनीति और दिल्ली के सत्ता संतुलन को गड़बड़ा सकता था। 


इसका असर ये हुआ कि यही बयानबाज़ी बड़ी खबर बन जाती थी। सारे अखबारों की हेडलाइन और टीवी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज़। शाम के दौरान हर टीवी स्टुडियो में उसी पर घंटों और कई बार तो पूरे हफ्ते इसी पर चर्चा होती थी। कुछ लोग थोड़ा आगे गए, और बयान निकलवाये जाने लगे। यूपीए 2 के दौरान बेनी प्रसाद वर्मा के “प्रलाप” इसके उदाहरण हैं। पिछले पच्चीस साल में दिल्ली की पत्रकारिता सत्ता संतुलन के इस खेल के इर्दगिर्द ही सिमट कर रह गई। कई पत्रकार इसी खेल के निष्णात या “एक्सपर्ट” हो गए। इनकी पत्रकारिता में जो खोज, अध्ययन, फील्ड रिपोर्ट आदि के तत्व तकरीबन गायब हो गए। 


अब दिल्ली में सत्ता संतुलन का खेल बादल गया है। इसका उदाहरण है शिवसेना के अनंत गीते। खबर आई कि वे अपने मंत्रालय से खुश नहीं हैं। गठबंधन के दौर में ये बड़ी खबर थी। आदतन इसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनाया गया। मगर मजबूत और “असरदार प्रधान मंत्री के दौर की राजनीति में ये खबर कब आई कब गई मालूम ही नहीं पड़ा। नाराज़  गीते और शिवसेना कब उसी मंत्रालय से अति प्रसन्न हो गए पता ही नही चला। याद कीजिये, कभी शिवसेना प्रमुख जैसे क्षेत्रीय राजनेताओं को छींक आने वाली है इस आशंका मात्र से दिल्ली के सत्ता गलियारों में कइयों को जुकाम हो जाया करता था। 


सत्ता के अनेक केंद्र से अब सत्ता की एक धुरी और एक केंद्र हो जाने के काल की पत्रकारिता भी अलग होगी, यह जानना बहुत ज़रूरी है। मगर  मुश्किल यह है कि पत्रकारों की एक पीढ़ी ने सिर्फ बहुकेंद्रीय सत्ता संतुलन ही देखा है और उनके लिए ख़ासी मुश्किल का वक़्त होने वाला है। ये बात टीवी पत्रकारिता पर और ज़्यादा सटीक बैठती है। आप देखें तो देश के अंदर टीवी न्यूज़ का फैलाव इसी दौर में हुआ है। अधिकांश चैनल और टीवी पत्रकार चैट शो से बाहर की दुनिया से वाकिफ ही नहीं लगते। एक बयान पर कुछ और बयान लेकर बहुत से एक्सपर्ट के साथ स्टुडियो में बैठकर राष्ट्र के नाम संदेश देने वाले पत्रकार अब क्या करेंगे ये बहुतों को समझ नहीं आ रहा होगा। 


देश की पत्रकारिता भी अब “चिकचिक खिचखिच” के दौर से बाहर आएगी ये बिलकुल साफ है। उसने कहा था का दौर अब  खत्म हो गया है। पत्रकारों को अब स्टोरी लेने के लिए वातानुकूलित स्टुडियो, गूगल सर्च और न्यूज़ रूम से बाहर जाकर देश की गली कूँचों और गावों की खाक छाननी पड़ेगी। यह पूरे देश के लिए एक अच्छी खबर है क्योंकि लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ एक सकारात्मक परिवर्तन की तरफ जाये इससे सबका भला ही होगा।