Monday, June 22, 2015

रंगीला नगर सेठ, रंजिशों के किस्से और दिल्ली दरबार के षड्यंत्र #LalitFire #LalitModi


ललित मोदी की कहानी जैसे टीवी के लिए ही बनी हुई पटकथा है; इसमें एक नगर सेठ का देश निकाला है; अरबों रुपये का खेल है; एक खूबसूरत धनाढ्य एवं राजनेता की पत्नी महिला की मौत और राजनीतिक षड्यंत्रों का जाल है। इस कथा में रोज एक नए रहस्य से पर्दा उठता है और कहानी और उलझती जाती है। ये कहानी मध्यकाल के राजदरबारों में चलने वाले षड्यंत्रों की कथा जैसी लगती है। सोचिए एक राजा के शासन में ललित मोदी को देश निकाला दे दिया जाता है क्योंकि एक ताकतवर मंत्री के अहम को आईपीएल दक्षिण अफ्रीका ले जाने से चोट पहुंच जाती है। अब दिल्ली में सरकार बदल गई है। इस सरकार के एक मंत्री ने 'कानूनी तौर- तरीके से' ललित मोदी की मदद करने की सिफारिश ब्रिटिश सरकार से कर दी है तो पुराने मंत्रियों को ये पच नहीं रहा है।

हालांकि मसला किसी गैरकानूनी मदद का नहीं है पर फिर भी मुद्दा ठंडा होने का नाम नहीं ले रहा क्योंकि कांग्रेस को लगता है कि एक मोदी (यानी ललित मोदी) के बहाने वह दूसरे मोदी (यानी नरेंद्र मोदी) पर निशाना लगा सकती है। ये सही है कि इससे इस सरकार की स्थिति पर कोई असर नहीं पड़ने वाला, पर विपक्ष को लगता है कि इसके जरिये केंद्र की साख पर कुछ बट्टा तो लगाया ही जा सकता है। इसलिए कहानी का सच कुछ भी हो, ये राजनीतिक शोर अभी थमने वाला नहीं है। ललित मोदी के तौर-तरीके और व्यवहार इस सारे प्रकरण में आग में घी का काम कर रहा है।

अब ललित मोदी कितने पाक-साफ हैं, ये तो देश की अदालतें ही तय कर सकती हैं। लेकिन उनका व्यवहार और आचरण बहुत ही बेतुका सा लगता है। समझ नहीं आता कि जब उनके नाम पर इतना बड़ा हंगामा मच रहा हो तो वे इंटरव्यू के लिए जगह चुनते हैं मॉन्टेनेग्रो में एक कैसीनो के साथ समुद्र तट! क्या जगह चुनी भाई आपने? चलिए इंटरव्यू की बैकग्राउंड को एक बार आप नजरअंदाज भी कर दें तो जो कागजात उन्होंने अपने वकील आब्दी के द्वारा प्रेस को उपलब्ध करवाए वे भी कई सवाल खड़े करते हैं। ब्रिटिश अधिकारियों को दिए अपने आवेदन में वे बार-बार एक बात का जिक्र करते हैं कि वे वसुंधरा राजे के करीब थे इसलिए उन्हें कांग्रेस ने प्रताड़ित किया। मगर उन्हीं वसुंधरा राजे के एक तथाकथित लिखित मगर आधे-अधूरे बयान को उनके वकील ने प्रेस को दे दिया।

वसुंधरा के इसी कथित बयान के आधार पर उनका इस्तीफा मांगा जा रहा है। इसी पर हजारों ट्वीट और घंटों की बहस टीवी चैनलों पर हो गई। लेकिन हैरानी की बात है कि जो कागज लोगों को अब तक दिए गए, वे अधूरे हैं। इसमें पेज नंबर 4 से पेज नंबर 10 तक गायब हैं। जो पेज गायब हैं उन्हीं पर कथित रूप से वसुंधरा के दस्तखत वाला पेज भी है। इन पन्नों के अभाव में आप कैसे कह सकते हैं कि पक्के तौर पर ये बयान वसुंधरा राजे ने दिया? अब ऐसा करके ललित मोदी ने वसुंधरा राजे से दोस्ती निभाई है या दुश्मनी, कहना मुश्किल है।

अब तो ललित मोदी ताबड़तोड़ नाम पर नाम लिए जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि वो ये साबित करना चाहते हैं कि 'मैं साफ नहीं तो कोई भी साफ नहीं। अगर मैं नहीं बचा तो कई बड़े-बड़े नाम भी डूबेंगे'। यानी हम तो डूबेंगे सनम, तुम्हें भी ले डूबेंगे। वैसे क्रिकेट की राजनीति को देखकर लगता है कि देश की राजनीति भी शरमा जाएगी। कभी-कभी तो लगता है कि क्रिकेट -खासतौर से आईपीएल- अब खेल नहीं एक सर्कस हो गया है। ये अब खेल नहीं बल्कि 'पैसा फेंको, तमाशा देखो' है।

ललित मोदी की कहानी भी इसी से जुड़ी हुई है। उनकी ये कहानी मध्यकालीन राजदरबार में चलने वाले उन षड्यंत्रों जैसी लगती है जिसमें गद्दी से उतरे मंत्री, नगरवधुओं और विक्षुब्ध नगरसेठों के साथ मिलकर राजा ही नहीं, पूरे राज्य को ही नुकसान पहुंचाने पर आमादा हो जाते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि सोशल मीडिया के इस जमाने में कुछ भी ढका-छिपा नहीं रह सकता। दिख रहा है कि क्रिकेट के खेल के नाम पर सत्ता, प्रभाव, राजनीति, रसूख और पैसे का एक अलग ही खेल चल रहा था। इस 'बड़े खेल' के हमाम में ललित मोदी के साथ-साथ फिलहाल तो सभी नंगे नजर आ रहे हैं।

उमेश उपाध्याय
22 जून 2015





https://www.facebook.com/notes/umesh-upadhyay/%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%B2%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%97%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%A0-%E0%A4%B0%E0%A4%82%E0%A4%9C%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%BF%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A5%80-%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B7%E0%A4%A1%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0/849953348430347

Saturday, June 13, 2015

Shhh...ये यूपी है, सवाल पूछोगे तो जला दिए जाओगे! #LawLessUP

शाहजहांपुर के पत्रकार जगेन्द्र सिंह को इसलिए ज़िंदा जला दिया गया, क्योंकि उसने प्रदेश के मंत्री राममूर्ति वर्मा के कामकाज पर सवाल उठाये थे। कोई ढाई सौ किलोमीटर दूर श्रावस्ती जिले के टीवी पत्रकार संतोष कुमार विश्वकर्मा के खिलाफ वहां के डीएम श्रीमान जुबैर अली हाशमी इसलिए कार्यवाही चाहते हैं क्योंकि उसने प्रदेश के ताकतवर सिंचाई मंत्री शिवपाल यादव से सवाल पूछने की हिमाकत की थी।

जी हां, ये यूपी है। यहां कानून का नहीं बल्कि बाहुबली मंत्रियों का राज चलता है। शाहजहांपुर के पत्रकार जगेन्द्र की गलती क्या थी कि उसे जान से हाथ धोना पड़ा? जगेन्द्र एक ई-अखबार चला रहे थे जो फेसबुक पर ‘शाहजहांपुर समाचार’ के नाम से आज भी मौजूद है। पढ़ने पर आपको पता चलेगा कि वे अपने शहर से जुड़ी तकरीबन सभी छोटी बड़ी खबरें इसपर देते थे। मुश्किल तब हो गयी जब उन्होंने स्थानीय विधायक और सपा सरकार में मंत्री राममूर्ति वर्मा के खिलाफ खबरें लिखी।

श्री वर्मा और उनके आदमियों पर एक आंगनवाडी कार्यकर्ता ने बलात्कार का आरोप लगाया। ये घटना यूपी के सारे अखबारों में प्रमुखता से छपी। इनमें दैनिक जागरण, हिंदुस्तान और अमर उजाला जैसे अखबार शामिल हैं। जगेन्द्र ने अपने ई-अखबार शाहजहांपुर समाचार में भी इसे प्रकाशित किया। इससे पहले भी वे श्री वर्मा की संपत्तियों और उनके कथित भ्रष्टाचार के बारे में लगातार लिखते रहे हैं। जाहिराना तौर पर मंत्री राममूर्ति वर्मा जगेन्द्र से बेहद  खफ़ा थे।

सबसे पहले 28 अप्रैल को जगेन्द्र के साथ मारपीट हुई, जिसमें उनका पैर तोड़ दिया गया। बकौल जगेन्द्र, वे सरकार के आला अफसरों से मिले और अपनी सुरक्षा की गुहार लगाईं। उनके मुताबिक उसके बाद उल्टे पुलिस ने खुद उन्ही के खिलाफ लूट, अपहरण और हत्या की साजिश का मुकदमा ठोक दिया। 22 मई को शाम पांच बजे उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट किया, ‘राममूर्ति वर्मा मेरी हत्या करा सकते हैं। इस समय नेता, गुंडे और पुलिस सब मेरे पीछे पड़े हैं, सच लिखना भारी पड़ रहा है ज़िंदगी पर ...... विश्वस्त सूत्रों से सूचना मिल रही है कि राज्य मंत्री राममूर्ति वर्मा मेरी हत्या का षड़यंत्र रच रहे हैं और जल्द ही कुछ गलत घटने वाला है।‘

31 मई को जगेन्द्र की कई ख़बरों में से दो पोस्ट राममूर्ति वर्मा के खिलाफ हैं। एक में वे सवाल उठाते हैं:-‘राज्यमंत्री राममूर्ति वर्मा के पास कहां से आई अरबों की संपत्ति? दूसरी खबर में वे लिखते हैं:-‘बलात्कारियों को बचाने में जुटे सपा नेता।’ ये सब जगेन्द्र के ई अखबार पर आज भी उपलब्ध है। इसका लिंक है, https://www.facebook.com/spnnewsb  और अगले ही दिन एक जून को पुलिस उनके घर जा धमकती है। वे अन्दर से दरवाज़ा बंद करके कहते हैं कि चले जाओ, वर्ना में आत्महत्या कर लूंगा। उनकी पुकार को अनसुना कर पुलिस वाले दरवाज़ा तोड कर अन्दर घुस जाते हैं। पेट्रोल में सराबोर जगेन्द्र परिवार के सामने ही जल जाते हैं। पुलिस कह रही है कि आग खुद उन्होंने लगाईं जबकि जगेन्द्र के परिवार के मुताबिक आग पुलिस ने लगाईं। असलियत क्या है ये जांच से पता पड़ेगा। मगर क्या वही पुलिस ठीक जांच कर सकती है जिस पर जलाने का आरोप है?

जगेन्द्र को लखनऊ में भर्ती कराया जाता है। जहां आठ जून को वो मौत से हार मान लेते हैं। यहां महत्वपूर्ण ये है कि मौत से पहले मजिस्ट्रेट के सामने अपने बयान में जगेन्द्र ने सीधे-सीधे पुलिस को अपनी हत्या का ज़िम्मेदार ठहराया है। इसमें उन्होंने राममूर्ति वर्मा का नाम भी लिया है।

राममूर्ति वर्मा के खिलाफ मामला तो दर्ज हुआ है। इसके अलावा उनपर कोई कार्यवाई नहीं हुई। वे आज भी मंत्री हैं।  सपा के वरिष्ठ नेता रामगोपाल यादव सफाई दे रहे हैं कि ‘एफ़आईआर लिख देने भर से कोई दोषी नहीं हो जाता।’ उनकी बात अगर सही मान भी ली जाए तो फिर उनसे पूछा जाना चाहिए कि जगेन्द्र के खिलाफ भी तो सिर्फ एफआईआर ही लिखी गई थी। फिर उन्हें पुलिस क्यों अपराधियों की तरह पकड़ने गई थी? क्या मंत्री के लिए कानून कोई और तथा जनता के लिए कोई और है? असली बात तो ये है कि यूपी में ताकत भर लोगों से सवाल पूछना आज एक जुर्म है। ये अघोषित नहीं बल्कि घोषित रूप से एलान कर दिया गया है।

उदाहरण है पत्रकार संतोष कुमार विश्वकर्मा का। 5 जून को प्रदेश के ताकतवर मंत्री और मुलायम सिंह के छोटे भाई शिवपाल यादव श्रावस्ती दौरे पर आये। वहां संतोष ने पत्रकार की हैसियत से उनसे सवाल पूछा। सवाल था कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरकारी विज्ञापनों में मुख्यमंत्री की तस्वीर जा रही है ऐसा उचित है क्या? संतोष आईबीएन के स्ट्रिंगर हैं। सवाल पूछना पत्रकार का काम है और उसका जबाव देना या न देना मंत्री का अख्तियार है। मंत्री जी इस पर नाराज़ हो गए। मगर बात यहीं ख़त्म नहीं हुई। जिले के डीएम ने तुरंत एक चिट्ठी लिखी और ‘सम्बंधित रिपोर्टर के विरुद्ध अपने स्तर से यथोचित कार्यवाही करने का’ आग्रह किया। अब जिलाधिकारी महोदय कानून नहीं जानते हों ऐसा तो नहीं। पर ये पत्र उन्होंने खुद लिखा या किसी दबाव में ये तो खुद वे ही बता सकते है।

इससे पहले भी अलीगढ़ और झांसी में पत्रकारों को प्रताड़ित करने और उनके खिलाफ मुक़दमे कायम करने के मामले हुए हैं। बात साफ़ है कि प्रदेश में साफगोई से पत्रकारिता करना आज बड़ी टेढ़ी खीर है। राज्य के ताकतवर नेताओं के खिलाफ एक शब्द बोलने और लिखने का मतलब है आफत मोल लेना। ये कैसी सरकार है जिसके राज्य में पत्रकारों को ऐसे दिन देखने पड़ रहे हैं?

वैसे हमें हैरानी इन नेताओं पर कम और उन लोगों पर ज्यादा है जिन्होंने जीवन भर ‘आदर्श पत्रकारिता और कलम की आजादी’ के नाम पर चुपड़ी रोटी खाई है। घटना को हुए तकरीबन दो हफ्ते होने को आये मगर दिल्ली के मीडिया संगठनों और बात बात में केंडल मार्च निकालने वाले ‘सभ्य समाज’ को जगेन्द्र की मौत में लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की हत्या क्यों नज़र नहीं आई? क्या संविधान में प्रदत्त अधिकार सिर्फ बड़े शहरों के बड़े पत्रकारों के लिए है? देश के छोटे शहरों में भ्रष्ट तंत्र और गुंडागर्दी के खिलाफ मुहिम छेड़ने वाले भाषाई पत्रकारों की सुनवाई कैसे और कहां होगी?

सोचिये, यह कहते कहते दुनिया से एक मीडियाकर्मी चला गया कि, ‘मंत्री जी को उससे बदला लेना ही था तो वो उसे  पिटवा देते। उन्होंने मुझे जलाया क्यों?’ ये सवाल सिर्फ राममूर्ति वर्मा से नहीं बल्कि लेखक सहित उन सबसे है, जिनपर मीडिया की आजादी को कायम रखने की बड़ी ज़िम्मेदारी है।


उमेश उपाध्याय 
13 जून 2015




Sunday, June 7, 2015

योग के बहाने मोदी का ‘विरोधासन’ #YogaDay #SuryaNamaskar #InternationalYogaDay

योग के बहाने मोदी का ‘विरोधासन’



शीर्षासन करते हुए जब आप सिर के बल खड़े होते हैं तो दुनिया उल्टी नज़र आती है. दुनिया को सीधा देखने के लिए आपको अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ेगा. लेकिन कुछ लोग शीर्षासन को ही सामान्य मुद्रा मानें तो मुश्किल की बात है. कुछ लोगों द्वारा योग का विरोध करना उनका लगातार सिर के बल खड़े होने जैसा ही लगता है. योग कोई पूजा पद्यति नहीं है और इस नाते किसी सम्प्रदाय और धर्म से इसे जोड़ना उचित नहीं है. संक्षेप में कहा जाए तो यह तन और मन में एक संतुलन बैठाकर दोनों को ही निरोग रखने की एक कला या जीवन पद्यति का नाम है. अब भला स्वस्थ और स्थिर मन तथा निरोग और तंदरुस्त शरीर रखने के तरीके का कोई विरोध कैसे कर सकता है? तंदरुस्ती के सवाल को दलगत राजनीती एवं धर्म से जोड़ना समझ में नहीं आता.

योग एक भारतीय परम्परा और जीवन शैली है. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अब इसका सम्मान कर रहा है. हर भारतीय के लिये ये गौरव और प्रतिष्ठा का विषय होना चाहिए. पर ऐसा नहीं होगा. 21 जून को जब संयुक्त राष्ट्र संघ यानि यूएनओ हर साल इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस मनाने का एलान कर रहा होगा तो देश के ही कुछ लोग इसका विरोध कर रहे होंगे.

कौन हैं ये लोग और क्या है इनकी मंशा ? दरअसल ये विरोध योग का नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मोदी का है. विरोध करने वाले लोग ज़्यादातर वही हैं जो मोदी की किसी भी नीति का विरोध करते ही हैं. इस तरह देखा जाए तो  उनका ये ‘विरोधासन’ योग का नीतिगत नहीं बल्कि राजनीतिगत ज्यादा लगता है. सबसे आश्चर्य की बात कोंग्रेस के प्रवक्ता का बयान है. उन्होंने स्कूली बच्चों द्वारा एक साथ योग करने का विरोध किया. बात समझ से परे है. क्या उन्हें लगा कि एम्आईएम के नेता ओवैसी के साथ खड़े होने से वे अल्पसंख्यकों के साथ नज़र आयेंगे? क्या योग को ऐसे साम्प्रदायिक नज़रिए से देखना उचित है? क्या ये देश के अल्पसंख्यकों का भी ये अपमान नहीं है?

कोंग्रेस के प्रवक्ता ये भी भूल गए कि योग को जो आज ये जो ख्याति मिल रही है उसमें उनकी प्रिय नेता और देश की पूर्व प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का अतुलनीय योगदान है. ये श्रीमती गांधी ही थीं जिन्होंने योग की शिक्षा को एक औपचारिक रूप दिया और स्कूलों में इसकी पढ़ाई शुरू हुई. उन्हीने सबसे पहले योग की क्रियाओं और आसनों को दूरदर्शन पर दिखाने का काम शुरू किया था.. योग के शिक्षकों की व्यवस्था भी श्रीमती गांधी ने पहली बार की थी. श्रीमती गांधी ने ऐसा करते हुए बच्चों और स्कूलों के बीच मज़हब के आधार पर भेद नहीं किया था.  क्या ये माना जाए कि आज की कोंग्रेस श्रीमती गांधी के उन कदमों को सही नहीं मानती?

दरअसल यहाँ ओवैसी यहाँ कोंग्रेस से ज्यादा ईमानदार नज़र आते हैं. उन्होंने कहा कि उनका मज़हब सूर्य नमस्कार की इजाज़त नहीं देता. तो इसमें क्या दिक्कत है सूर्य नमस्कार योग के सैकड़ों आसनों में से एक है. तो भाई छोड़ दीजिये एक आसन को. क्या फर्क पड़ता है. यों भी 21 जून को सूर्य नमस्कार नहीं होना है.

ये कहना तो बहुत ही बचकाना है कि रविवार के दिन बच्चों को अनिवार्य रूप से स्कूल में बुलाकर सामूहिक योग कराना ठीक नहीं. क्या ऐसा करके हम अपने बच्चों को अनुशासन और मेहनत का सही पाठ पढ़ा रहे हैं ? ये सोचने की बात है. योग को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करने के गौरव का बोध अपने बच्चों को दिलाना क्या हमारा सबका दायित्व नहीं है? होना तो ये चाहिए था कि अगर कोई सूर्य नमस्कार नहीं करना चाहता था तो उसका रास्ता निकाला जाता. मगर इसके बहाने इस पूरे आयोजन का विरोध कर उन्होंने योग को को नहीं बल्कि मोदी को निशाना बनाया है. ये योग का नहीं बल्कि मोदी का राजनीतिक ‘विरोधासन’ है. इससे इसका विरोध करने वालों की प्रतिष्ठा निश्चित ही बढ़ी नहीं है.

उमेश उपाध्याय

7 जून 2015