Saturday, January 22, 2022

'कौन कहता है कि मुसलमान योगी को वोट नहीं देंगे?"




'कौन कहता है कि मुसलमान योगी को वोट नहीं देंगे?"


30 साल के एक मुस्लिम युवक ने जब ये बात मुझसे कही तो मैं थोड़ा चौंक गया।  

इसी मंगलवार को मुंबई में परेल से छत्रपति शिवाजी महाराज हवाई अड्डा जाने के लिए मैंने टैक्सी मँगाई थी। चूँकि उबर की ये टैक्सी मेरे बेटे ने बुक की थी इसलिए मुझे चालक का नाम नहीं पता था। मुझे टैक्सी चालकों से गपशप करना अच्छा लगता है। इस दौरान अक्सर ज़िन्दगी की अक्सर ऐसी तसवीरें देखने को मिल जाती हैं जिनसे हम अन्यथा वंचित रहते हैं। 




इसीलिए बातचीत शुरू करने के लिए आदतन मैंने चालक से नाम पूछा था। उसने बड़े नम्र और मीठे लहजे में कहा था "समीर सर।" 

मुंबई में बेहद सधी और साफ़ हिंदी बोलते देख मुझे लगा कि वो उत्तर प्रदेश से है। दो यूपी वाले मिलें और राजनीति की बातें न हो ऐसा कैसे हो सकता है? बात आगे बढ़ी तो सहज ही उत्तर प्रदेश के चुनाव का ज़िक्र भी होना ही था । 

मैंने उससे कहा कि "इस बार अखिलेश और योगी में मुकाबला कड़ा दिखाई देता है।" समीर ने सहजता से कहा कि "आपको मुकाबला कितना भी कड़ा दिखाई देता हो, योगी ही जीतेंगे।" 

मैंने पूँछा "क्यों?" 

समीर ने जबाव दिया कि "अयोध्या का टंटा जिस आसानी के साथ उन्होंने निपटाया है, और किसी मुख्यमंत्री के बूते की बात नहीं थी। नहीं तो ये यूँ ही लटकता रहता।"


उसकी बातों से मुझे लगा कि वह कोई  योगी 'भक्त' या पुश्तैनी #भाजपा समर्थक हैं। मैं उसकी राजनैतिक प्रतिबद्धता को लेकर मन ही मन में अनुमान लगा ही रहा था कि समीर ने खुद ही एलान किया कि वह मुसलमान होते हुए भी वे ये बात कह रहा है। इस बात पर मेरी उत्सुकता थोड़ी और बढ़ गई। उसने कहा कि उसका पूरा नाम है समीर मोहम्मद। 


उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले की रानीगंज तहसील के सिंदौड़ा गाँव के रहने वाले समीर मोहम्मद मुंबई में टैक्सी चलाते हैं। अभी भी गाँव में भी उनका वोट है और ग्राम प्रधान के पिछले चुनाव में वे वहां वोट डालकर आये थे। गाँव आते जाते रहते हैं। उनका पूरा परिवार अभी भी वहीं हैं। उन्होंने बताया कि परिवार में उनके माता पिता, दो बहनें, तीन भाई, पत्नी और चार साल की प्यारी बेटी शमा है। 


उनके परिवार के पास गाँव में भी टैक्सी है, जिसे वे जब वहां होते हैँ तो खुद चलाते हैं। नहीं तो उनके भाईबंद उस टैक्सी को चलाते हैं। प्रतापगढ़ से सुल्तानपुर होकर अयोध्या कोई 110 किलोमीटर की दूरी पर है। कोई डेढ़ दो घंटे में आप वहाँ पहुँच सकते है। उन्होंने बताया कि सवारियों को लेकर उनका अयोध्या आना जाना लगा ही रहता है। 


मेरे मन में स्वाभाविक सवाल उठा कि राममंदिर मसला हल होने से आखिर #अयोध्या के आसपास रहने वाले एक मुसलमान युवक को भला क्या फायदा हो सकता है? इसलिए सीधे ही मैंने ये सवाल पूँछ लिया। समीर ने मुझे समझाया कि जब वे पहले प्रतापगढ़ से अयोध्या टैक्सी लेकर जाते थे तो हिन्दू #मुसलमानों के बीच में एक अनकहा मगर स्पष्ट खिचाव और तनाव रहता था। मुसलमान डरते थे कि कल ना जाने क्या हो? और हिन्दू खीजते थे कि उनका मंदिर नहीं बन रहा। दशकों से बस इसके बहाने राजनीति का खेल हो रहा था।  


उन्होंने कहा कि " क्योंकि अब इस मुश्किल मसले का समाधान निकल गया है तो लम्बे समय से दोनों के बीच जड़ जमाये बैठा का वो खिंचाव भी दूर हो गया है। मामला सही तरीके से सुलट गया है और दोनों (समुदाय) ही आगे बढ़ गये हैँ।"


मैं सोचने लगा कि जाने अनजाने में समीर मोहम्मद एक बड़ी बात कह गए हैं। #उत्तरप्रदेश की राजनीति को सिर्फ खांचों में बांटकर रात दिन उसके विश्लेषण में लगे विशेषज्ञ इसे नहीं समझ पाते। असल बात है कि आम आदमी का मन हमेशा के लिए किसी  संघर्ष, विवाद या झगड़े में नहीं पड़ा रहना चाहता। वह तो पैदा हुए तनावों को निपटा कर अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी में आगे बढ़ना चाहता है। इसलिए चाहे निजी जिंदगी हो या फिर सामाजिक जीवन, उलझी डोरों को सुलझाने वालों को हमेशा समाज में आदर और सम्मान की नज़रों से देखा जाता हैँ। हमारे साहित्य के वांग्मय में ही नहीं, ग्रामीण बोलचाल में भी पंच के ओहदे को इसीलिये मान दिया जाता है।  


समीर के मुताबिक मोदी/योगी की जोड़ी ने देश के इस जटिलतम विवाद को गति, सहजता और सुगमता से समाधान की और बढ़ाया है। जिस सरलता से समीर मोहम्मद ने इसका विश्लेषण किया उसे इस तरह से मैंने कभी देख ही नहीं पाया था। #राममंदिर के मुद्दे पर शायद इसी नाते हमारा मीडिया, राजनेता, बुद्धिजीवी वर्ग और विश्लेषक एकांगी होकर सोचते रहे हैं। एक साधारण से दिखने वाले एक टैक्सी चालक ने मुझे एक नया नज़रिया देकर उस दिन एक गहरा सबक सिखा दिया। 


समीर मोहम्मद ने एक पते की बात और कही। उन्होंने बताया कि उनका गाँव एक #हिन्दू बहुल गाँव है। उसमें हर जात बिरादरी के लोग रहते हैँ। लेकिन कई साल से गाँव की प्रधानी एक #मुसलमान के हाथ में है। उसने कहा कि जिस तरह गाँव में बाकी सारे लोग सगीर अहमद को वोट देकर ग्राम प्रधान बनाते हैँ इसी तरह प्रदेश में मुसलमान भी योगी को वोट देंगे, इसमें हैरानी की बात क्यों होनी चाहिए? 


समीर के तर्क में वाकई दम था। फिर भी मैंने उसे आगे कुरेदते हुए पूछा कि "योगी और भाजपा को तुम अकेले ही समर्थन की बात कर रहे हो या फिर उनके बाकी कोई साथी भी ऐसी बात कहते हैँ?" समीर का जवाब था कि उनका पूरा कुनबा एक साथ ही चलता है। उनके कुनबे और बिरादरी के लोगों को भाजपा और योगी से कोई मलाल नहीं है। असल बात तो ये है कि 2014 के बाद से प्रदेश के मतदाताओं का व्यवहार इस ओर साफ़ इशारा करता आ रहा है। जिसमें खासकर युवा वर्ग का मतदाता सिर्फ जात, बिरादरी और मजहब के आधार पर वोट नहीं डाल रहा। जरूरत उसके इस रुझान को साफ़ चश्मे से देखने भर की ही है।  


एक बात और, इसी कालावधि में डिजिटल और सोशल मीडिया का असर भी अत्यंत प्रभावकारी हो गया है। जिसने संवाद में बिचौलियों की भूमिका को काफी सीमित कर दिया है। नए माध्यमों से जानकारी लेने वाले अब सीधे बात पहुंचा भी रहे हैं और ग्रहण भी कर रहे हैं। ये लोग अब पुराने वैचारिक जंजालों, पूर्वाग्रहों और राजनैतिक विचारों के बंदी नहीं हैं। उनका राजनीतिक व्यवहार एक बड़ी हद तक 'उन्हें आज क्या मिला' और 'किसी ने उनके लिए अभी क्या किया' इससे संचालित हो रहा हैं न कि पुरानी वैचारिक गठरियों से। समीर की बातों में इसी सोच की झलक मुझे मिली। 


मैंने समीर से कहा कि लोग तो #अखिलेशयादव और योगी के बीच कड़ी टक्कर बता रहे हैँ।  उसका कहना था कि कोई कैसी भी टक्कर बताये, योगी जैसा मुख्यमंत्री मिलना मुश्किल है। मैंने जब उससे इसका मतलब पूछा तो उसने कहा कि "देखिये साहब हमारे राज्य में तो शासन धमक से ही चलता है। अगर अफसरों पर कड़ाई न करो तो राज चल ही नहीं सकता। योगी कि धमक ही अलग है। वो लगते हैँ कि वाकई धाकड़ मुख्यमंत्री हैँ।" उसने कहा कि उसे अच्छा लगता है कि योगी मुँह देखे का टीका नहीं करते। वो हरेक के मुँह पर उसके जैसी बात नहीं करते बल्कि अपने तरह से जो बात सही लगती है उसे करते हैं। वे  ऐसा करते ही नहीं उसपर कड़ाई से अमल भी करवा लेते हैँ। 


समीर कि बातें दरअसल बहुत दिलचस्प होने के साथ साथ उन बहुत सी प्रचलित धारणाओं को भी तोड़ रहीं थीं जो अक्सर टीवी, अखबार और सोशल मीडिया पर चल रहीं अनर्गल बहसों ने हमारे मन में बिठा दीं हैँ। ये कथित विशेषज्ञ राजनीति की चादर को बस सफ़ेद या काले रंग में पोतना चाहते हैँ। जबकि राजनीति और जीवन तो अनेक रंगों से भरा एक इंद्रधनुष है। उसके पटल में अनेक रंगों और भावों की अनगिनत छटायें बिखरी हुईं हैँ। यही नए रंग उस दिन मुझे समीर ने दिखाए। 


चलते चलते समीर ने अपनी मीठी सी बेबाकी के अंदाज़ में दो भविष्यवाणियाँ भी की। पहली ये कि अगर #योगी को पांच साल मिल गए तो "हमारे #यूपी में भी गुजरात की तरह तरक्की हो जायगी।" और दूसरी, कि अगर ऐसा हुआ तो फिर योगी के लिए दिल्ली बहुत दूर नहीं रहेगी। अब समीर मोहम्मद की भविष्यवाणी सही होगी कि नहीं ये तो वक्त ही बताएगा मगर उनकी बातें मुझे बेहद तर्कसंगत, समझदारी वाली और दिलचस्प लगीं। मैंने बाकायदा उनकी इजाजत से उनकी फोटो भी ली। उन्हीं की मर्ज़ी से ये बाते भीं साझा कर रहा हूँ।



Saturday, January 15, 2022

उत्तर प्रदेश : #योगी ही सबसे बड़ा मुद्दा


#उत्तरप्रदेश के चुनावी दंगल में राजनीतिक पहलवानों और उनकी टोलियों ने ताल ठोकना शुरू कर दिया है। अचानक कुछ पहलवानों को उन अखाड़ों को बदलने की सूझ रही है जिनमें वे पांच साल से दंड पेल रहे थे। प्रेस कॉन्फ्रेंस, सोशल मीडिया पर ट्रेंड, अदलाबदली और शाब्दिक जूतमपैजार का हल्ला जोरों पर है। ये सब हो रहा है प्रदेश के वोटरों को ललचाने, रिझाने या फिर अपने पाले में समेटने के लिए। इस मारामारी से अलग हमने इस लेख में जनता की नब्ज़ जानने और उसका आकलन करने की कोशिश की है।


#योगीआदित्यनाथ जब पाँच साल पहले अप्रत्याशित रूप से उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे तो सबके मन में एक ही सवाल था। 'ये सन्यासी क्या पॉंच साल चल पायेगा?' सवाल लाजिमी था क्योंकि प्रदेश पर शासन करना हमेशा ही टेढ़ी खीर रहा है। पाकिस्तान से भी अधिक जनसँख्या वाले यू पी को हम उत्तर प्रदेश वाले कई बार मज़ाक में उल्टा प्रदेश भी कह जाते हैं। खाँटी राजनेताओं तक को इस प्रदेश की जनता पानी पिलाती रही है। योगी आदित्यनाथ को तो कोई प्रशासनिक अनुभव भी नहीं था। लोगों का कहना था कि प्रदेश की घुटी हुई नौकरशाही से पार पाना इस नए मुख्यमंत्री के लिए इतना आसान नहीं होगा। 


उत्तर प्रदेश में शिक्षा का स्तर भले ही देश के औसत से कम हो, पर यहाँ राजनीति की घुट्टी हर नागरिक को जन्मते ही मिल जाती है। एक अनपढ़, निर्धन और गँवार सा दिखने वाला एक सामान्य देहाती भी आपको यहाँ वो राजनीतिक ज्ञान दे जाएगा जो दिल्ली के वातानुकूलित कमरों में अपने लेपटॉप पर बैठे 'राजनीतिक विश्लेषक' समझ ही नहीं पाते। इसलिए इन दिनों टीवी पर और सोशल मीडिया पर जो राजनीतिक शोर चल रहा है उस पर मत जाइये, वह बंद कमरों में बैठे ज्ञानियों द्वारा मचाया जा रहा कोलाहल मात्र है। ये शोर कई बार प्रायोजित और बहुधा पूर्व निर्धारित होता है जो दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं के समक्ष तर्क की चाशनी में डुबोकर कर पेश किया जाता है। 


यों भी चुनावों से एकदम पहले या उनके दौरान जो गहमागहमी, आवाजाही और बहसा-बहसी होती है उसका मतदाताओं पर आंशिक ही असर पड़ता है। मेरा मानना है कि अगर कोई अप्रत्याशित घटना न हो जाए तो मतदाता कुछेक महीनों पहले ही मोटे तौर पर अपना मन बना लेते हैं कि किसे जिताना है और किसे विदा करना है। चुनाव घोषित हो जाने के बाद टिकट वितरण को देखकर अब जो राजनीतिक चलाचली हो रही है उसका कोई बहुत असर अंतिम परिणामों पर नहीं पड़ने वाला। 


एक और बात, चुनाव में किसको कितनी सीटें मिलेंगी ये या तो कोई ज्योतिषी बता सकता है या फिर ऊपरवाला। सीटों की संख्या का अनुमान लगाना उफान पर आये समुद्र की लहरों को गिनने जैसा ही है। ऐसा करने वाले दस में से साढ़े नौ बार औंधे मुंह ही गिरते हैं। कुल मिलाकर ये घनघोर सट्टेबाज़ी जैसा काम हैं जिसमें पड़ना एकदम फालतू की कवायद है। चुनाव कवर करने के अपने कोई साढ़े  तीन दशक के मेरे अनुभव का एक ही निचोड़ है कि आप पत्रकार होने के नाते बस एक अंदाजा लगा सकते हैं कि चुनाव में मुख्य मुद्दा क्या है? यानि वोटर के मन में क्या चल रहा है ये अगर मोटे तौर पर भी आप सूँघ पाएँ तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हवा किस ओर बहेगी। बाकी सब या तो ख्याली पतंगबाज़ी है या फिर पूर्व नियोजित राजनीतिक पैतरेबाजी। 


लोगों के मन में क्या चल रहा है ये जानने के लिए कुछ दिन पहले मेरा उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में जाना हुआ। मैं गया भी एक सामान्य यात्री के तौर पर न कि पत्रकार के नाते। पत्रकार बताते ही लोगों के कान खड़े हो जाते हैं और आम लोग अपने मन को नहीं खोलते। इस दौरान मैंने सामान्य लोगों की नब्ज़ टटोलने की कोशिश की। इसके बाद मैंने उन कई लोगों से बातचीत भी की जो पत्रकारीय मकसद से उत्तरप्रदेश का दौरा करके आये हैं। मेरे एक पूर्व सहयोगी प्रवीण तिवारी तो एक अखबार के लिए प्रदेश के 271 चुनाव क्षेत्रों का दौरा करके लौटे हैं। उनके मुताबिक उन्होंने पिछले कुछ महीनों में प्रदेश की कोई 6000 किलोमीटर सड़कों की धूल चाटी है। ऐसे ही कई और भी लोगों से बातचीत हुई जो टीवी स्टूडियो या दफ्तरों से बाहर लोगों के बीच लगातार जाकर राजनीतिक मौसम भांपने की कोशिश करते रहे है।


इसके आधार पर एक बात तो साफ़ निकलती है वो है कि इस बार चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा स्वयं मुख्यमंत्री योगी ही हैं। इसका मतलब है कि उन्होंने जिस तरह राज्य में शासन चलाया है वो लोगों के मन में वोट देने का सबसे बड़ा मानक होने जा रहा है। इसका मतलब ये कतई नहीं है कि अन्य कोई मुद्दे राज्य में नहीं हैं। चुनाव एक जटिल और बहुस्तरीय प्रक्रिया है। इसमें कई चीजों का घालमेल होता है। जब भी कोई चुनाव होता है तो बेरोज़गारी और महंगाई तो ऐसे सदाबहार मुद्दे होते है जैसे बंबईया कटिंग मसाला चाय में चायपत्ती। चाय में पत्ती को तो होना ही है। इसलिए जब चैनल, अखबार और विश्लेषक इनकी चर्चा करें तो इन्हें चुनावी तराज़ू के पासंग जैसा ही मानना चाहिए।  


आश्चर्यजनक रूप से इस बार भ्रष्टाचार की चर्चा उस तरह से किसी ने नहीं की जिस तरह पिछली सरकारों के समय उत्तर प्रदेश में होती रही है। बीएसपी की सुश्री मायावती रही हों या फिर सपा के श्री अखिलेश यादव के समय के चुनाव - सरकारी भ्रष्टाचार हमेशा उत्तर प्रदेश में बड़ा मुद्दा रहा है। मौजूदा मुख्यमंत्री पर इस तरह का कोई बड़ा आरोप नहीं लगना और इसकी कोई गंभीर चर्चा न होना एक बड़ा संकेत है। उत्तर प्रदेश का शासन धमक से ही चलता है। योगी आदित्यनाथ ने जिस कड़ाई से नौकरशाही को हाँककर काम करवाया इसकी तारीफ आमतौर से सबने की। इस सिलसिले में लोगों ने घर घर में बने शौचालयों और स्वच्छता अभियान का जिक्र किया।  


योगी का व्यक्तित्व उत्तर प्रदेश में मुख्य  मुद्दा है तो अखिलेश उनके सबसे प्रबल प्रतिद्वंदी है, ये बात भी उत्तर प्रदेश के गली नुक्क्ड़ों की गपशप में साफ़ नज़र आई। प्रियंका गाँधी की तमाम कोशिशों के बावजूद काँग्रेस अब भी खेल से बाहर ही दिखाई देती है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मायावती की बीएसपी अब गंभीर प्रतिद्वंदी नहीं रह गयी है, ये भी लोग सीधे सीधे कहते मिले। महत्वपूर्ण है कि समाजवादी पार्टी से सहानुभूति रखने वाले एक मित्र ने कहा कि "अखिलेश ने प्रदेश में देर से शुरुआत की है। अगर वे कुछ महीनों पहले सक्रिय हो गए होते तो बहुत अच्छा होता।"


जो लोग ब्राह्मण-ठाकुर, पिछड़ा-अगड़ा और जातिवाद के मुद्दों को सबसे प्रमुख रूप में प्रचारित कर रहे है वे भी आंशिक रूप से ही सही हैं। असलियत तो ये है कि देश का कोई चुनाव ऐसा नहीं है जिसमें जाति की भूमिका नहीं होती। जाति को कुछ लोग तलवार के रूप में तो कुछ ढाल के रूप में इस्तेमाल करते है। जो अपने देश में हमेशा होगा ही। मगर ये प्रदेश के आगामी चुनावों का सबसे बड़ा कारक नहीं होने जा रहा। अगर जातिगत गणित ही मुख्य होता तो मूलतः जातपाँत के खम्बो पर ही टिकी बीएसपी को आज प्रमुख प्रतिद्वंदी के तौर पर होना चाहिए था। पर ऐसा अभी तक तो लगता नहीं है।  


चुनाव किस मुद्दे पर लड़ा जा रहा है इसकी बानगी मुझे लखनऊ और अयोध्या में मिली। जब मैं तीन हफ्ते पहले राजधानी लखनऊ शहर की पर्यटन यात्रा पर था तो मेरे चालक और गाइड नूर मोहम्मद ने जो बात कही थी वो प्रदेश के आने वाले चुनावों के प्रमुख मुद्दे को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है। हुसैनाबाद इलाके में घंटाघर के पास अच्छी साफ-सफाई और व्यवस्था पर नूर ने मुझसे कहा था "ये सब अखिलेश ने करवाया था, उनके जाते ही रुक गया।" 


मगर अयोध्या में ये तस्वीर बिल्कुल पलट जाती है। अयोध्या में मेरे साथ चल रहे देवेश वहाँ योगी- मोदी की जोड़ी द्वारा कराये गए कामों के बारे में बताते हुए थकते ही नहीं थे।  चाहे फैज़ाबाद में गुप्तार घाट का विस्तार हो; अयोध्या में सरयू की पैड़ी पर जल के लगातार प्रवाह की व्यवस्था हो या दीपदान का कार्यक्रम - उनके मुताबिक जो काम योगी सरकार ने करवाया, वैसा कभी नहीं हुआ। वाराणसी में काशी कॉरिडोर के उद्घाटन और रामजन्मभूमि मंदिर के निर्माण कार्य की भी उन्होंने खूब चर्चा की।


#अयोध्या और #काशी के कामों की बात #उत्तरप्रदेश चुनाव की हर चर्चा में प्रखरता से उठी। कुल मिलाकर मेरा आकलन है कि अयोध्या/काशी के काम और उससे उत्पन्न ध्रुवीकरण इस चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा रहने वाला है। प्रदेश की महिलाएँ, युवा और नए मतदाता भी खूब इस मुद्दे की बात करते मिले। अगर ऐसा है तो फिर तमाम किन्तु परंतुओं के बीच गोरक्ष पीठ के इस औघड़ बाबा के सितारों को बुलंद ही समझना चाहिए।

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