Friday, April 28, 2017

आप को मिली लक्ष्मण रेखाओं के उल्लंघन की सजा



दिल्ली एम सी डी के चुनावों के नतीजों का राजनीतिक विश्लेषण तो नेता और राजनीतिक समीक्षक अपनी अपनी समझ से कर ही रहे हैं कोई जाति के आधार पर, कोई ईवीएम मशीनों में गड़बड़ी की हास्यास्पद दलील के आधार पर तो कोई मोदी लहर के आधार पर इन्हें देख रहा है परन्तु इसमें से कोई भी तर्क आम आदमी पार्टी के चुनावों में हुए इतनी तीव्रता  से हुए पतन को नहीं समझा सकता सोचिए, फरवरी 2015 में जिस पार्टी को विधानसभा की 70 में से  67 सीटें मिली हो वह तकरीबन दो साल के भीतर ही एमसीडी की  272 सीटों में से सिर्फ 48 सीटें ही जीत पाई? उसे मिलने वाले वोटों की संख्या 54 प्रतिशत से घटकर 26 प्रतिशत के आसपास हो गयी ? ऐसा क्या हुआ कि ये पार्टी लोगों के मन से उतर गयी? इसे एक ही वाक्य में अगर कहा जाए तो आम आदमी पार्टी  को दिल्ली के मतदाताओं ने लक्ष्मण रेखाओं  के लगातार उल्लंघन की सजा दी है

भारतीय समाज मर्यादाओं में चलने वाला समाज है यह समाज लगातार नए प्रयोग भी करता रहता है  इसके साथ ही वह चाहता है कि समाज का हर अंग कुछ लक्ष्मण रेखाओं को माने ये लक्ष्मण रेखाएं नैतिकता, सभ्य आचरण, दूसरों के साथ तीव्र असहमति में भी विनम्रता और अपने धर्म के लिए प्रतिबद्ध होना आदि मूल्यों से निकलती हैं यहाँ स्पष्ट करना उचित होगा कि धर्मानुकूल आचरण का अर्थ रिलीजन, पूजा पद्यति या संकीर्ण मजहबी दायरा नहीं है धर्म का अर्थ है अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करना यानि जो काम आपको दिया गया है उसे पूरा करना यदि समाज ने आपको कोई जिम्मेदारी दी है तो उसका पालन करना आापका धर्म है यदि जनता ने आपको मुख्यमंत्री चुना है तो आपका धर्म है उसकी जिम्मेदारी को पूरी शिद्दत के साथ निभाना

आम आादमी पार्टी ने दिल्ली में प्रचंड बहुमत मिलने के बाद दिल्ली के शासक होने का धर्म नहीं निभाया सही मायने में फरवरी 2015 के जनादेश का सन्देश था दिल्ली  के लोगों को एक साफ सुथरा शासन देना परन्तु पहले दिन से ही अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली की विधानसभा में बहुमत को अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को पूरी करने  की सीढ़ी भर मान लिया राजनीति में महत्वकांक्षा रखना कोई गलत नहीं केजरीवाल अगर देश के प्रधानमंत्री बनने का अरमान रखते हैं तो इसमें बुरा क्या है? मगर इसके लिए जो र्धर्य, एकाग्रता, अनुशासन और मेहनत चाहिए- वह करके उन्होंने  हर रोज सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी को रोज ललकारने की नीति पर काम किया यहाँ भी पद की गरिमा और शब्द प्रयोग की मर्यादायों का भी उन्होंने ध्यान नहीं रखा

रोज नये विवाद खड़ा करना, उसपर हंगामा करना और जो उनकी बात को सही माने उसे लानत भेजना- इसी को उन्होने सरकार के काम का पर्याय मान लिया आप पिछले दो साल के अखबार, सोशल मीडिया या टीवी में उनके बयान देख ले उन्होंने बुरा भला कहने में किसी को भी नहीं छोड़ा राजनीतिक दलों की बात तो छोड़ दे - वे मीडिया, संविधानिक संस्थाओं और चुनाव आयोग को भी अपने कड़वी जुबान से कोसते रहे यानि जिसने भी उनसे असहमति दिखाई उसकी मंशा पर उन्होंने तीखे शब्दवाण चलाये और उनकी सोशल मीडिया बटालियन ने उनपर अपशब्दों की बौछार कर दी 

भारतीय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में स्वीकृत व्यवहार की हर लक्ष्मण रेखा का उन्होंने और उनके साथियों ने लगातार उल्लंघन किया और तो और उन्होंने अपने साथियों तक को नही छोड़ा याद कीजिए, उन्होंने अपने पुराने साथियों योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण के साथ कैसा बर्ताव किया? कुल मिलाकर लोगों को लगा कि सिर्फ निन्दा करने वालों को सत्ता देने से दिल्ली की भलाई नहीं होगी कुप्रचार और निंदा राजनीतिक रणनीति के तौर पर कभी-कभी तो आपको फायदा पहुंचा सकती है मगर जब यही आपकी शैली और आचरण का हिस्सा बन जाए तो बृहत् समाज इसे पसंद नहीं करता यही आम आदमी पार्टी के साथ हुआ

 तुलसीदास ने राम चरित मानस में लिखा है
              ''सत्ता मद केहि नहिं बौराया?
अर्थात ऐसा कौन है जो सत्ता या ताकत पाने पर बौरा नहीं जाता यह चौपाई केजरीवाल की स्थिती पर सटीक बैठती है वे दिल्ली विधानसभा के प्रचण्ड बहुमत से मिली सत्ता और ताकत को संभाल पाने में अभीतक नाकाम दिखाई देते हैं वे और उनकी पार्टी भूल गए कि दिल्ली की जनता ने उन्हें एक वैकल्पिक व्यवस्था के प्रयोग के लिए सत्ता दी थी की अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जब सेवा की भावना पर राजनीतिक अहंकार हावी हो जाता है तो राजनेताओं और दलों को  जनता मर्यादित रहने का सबक सिखाती है मगर एमसीडी चुनाव में हार के बाद जिस तरह आम आादमी पार्टी ईवीएम मशीनों का रोना रो रही है- उससे नहीं लगता कि उसने ये सबक सीखा है ईवीएम को दोष देने से बेहतर होगा कि ये पार्टी गंभीर आत्मचिंतन करे अन्यथा इतिहास का कूड़ेदान कितना निर्मम होता है सब जानते हैं 


उमेश उपाध्याय
27 अप्रेल 2017