Thursday, December 15, 2022

मोदी के भारत से क्यों भयभीत है शीजिंगपिंग?




इन दिनों एक वीडियो सोशल मीडिया पर चल रहा है। इसमें चीनी सैनिकों को भारतीय जवान पीटकर खदेड़ रहे हैं। ये वीडियों भारत चीन सीमा के किस हिस्से का है और कब का है ये तो स्पष्ट नहीं है, पर ये साफ़ है भारतीय जवानों ने पी एल के फौजियों की खूब गत बनाई है। ये वीडियो भारतीय फौज की दमदारी और रंगत को दिखाता है। मगर चीन के भारत से आशंकित होने की सिर्फ यही एक वजह नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में चीन भारत को अपना कड़ा प्रतिद्वंदी मानता है। उसे लगता है कि दुनिया का सिरमौर बनने से उसे सिर्फ भारत ही रोक सकता है इसलिए लगातार भारत के लिए सिरदर्दी बढ़ाना उसकी दूरगामी नीति का हिस्सा है। सीमा को अस्थिर बना कर रखना उसी नीति का एक हिस्सा है। 


चीनी राष्ट्रपति शीजिंगपिंग को इस समय महान बनने का भूत सवार है। वे इतिहास के पन्नों में एक शक्तिशाली चीनी सम्राट के बतौर नाम दर्ज़ कराना चाहते हैं इसलिए वे अपने पडोसी देशों पर लगातार दनदना रहे हैं। उनकी महानता के इस सपने में सबसे बड़ी बाधा भारत और उसका मौजूदा नेतृत्व है। इसके कई कारण हैं। पहला, जो इज़्ज़त  और सम्मान भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को दुनिया में मिला हुआ है वैसा चीन की अधिनायकवादी, तानाशाही और निरंकुश कम्युनिस्ट व्यवस्था को नहीं मिलता। इसलिए चीन लगातार अपने प्रचार तंत्र और भारत में मौजूद अपने वैचारिक दत्तक पुत्रों के ज़रिये हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मखौल बनाता रहता है। हमारी व्यवस्था पर ये प्रहार कभी माओवादियों के आतंक के जरिये होता है तो कभी वामपंथी बुद्धिजीवी वर्ग के जरिये। 


याद कीजिये कि किस तरह जब भारत में कोविद महामारी की पहली और दूसरी घातक लहर आई थी तो इन कतिपय लोगों ने बड़े बड़े अख़बारों में लेख लिखकर 'चीन से सीखने' की वकालत की थी। कई भाई लोगों ने तो बीबीसी से लेकर न्यूयोर्क टाइम्स तक में भारत के भीतर ही मार्क्सवादी सरकार के 'केरल मॉडल' की तारीफ में दर्जनों ख़बरें और लेख छपवाए थे। ये बात अलग है कि उनमें दिए अधपके तर्क और तथ्य बाद में गलत साबित हुए। ऐसा ही चीन की कोविद नीति के बारे में भी साबित हुआ। आज भारत की कोविद को हराने की रणनीति को सारा विश्व सही मानता है। 


दुनिया को त्रस्त करने वाली कोरोना महामारी के बारे में कहा जाता है कि ये चीन की प्रयोगशाला से ही पैदा हुईं। कई पश्चिमी विशेषज्ञ तो यहाँ तक कहते हैँ कि इसे जैविक हथियार के तौर पर चीन ने दुनिया को परास्त करने के लिए जानबूझकर कर प्रायोगिक तौर पर  पैदा किया।  पर वही कोरोना अब खुद चीन के लिए भस्मासुर बन गया लगता है। इन दिनों चीन में कोरोना को लेकर कोहराम मचा हुआ है। शी जिनपिंग की 'जीरो कोविद' नीति नाकाम हो चुकी है। त्रस्त चीनी जनता ने खुले आम इसका विरोध किया है और चीन के दर्जनों शहरों और विश्व विद्यालयों में सरकार की कोरोना नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं। वैसे तो चीन के निरंकुश और तानाशाही कम्युनिस्ट तंत्र से ख़बरें बाहर आना मुश्किल है। लेकिन इन प्रदर्शनों को लेकर छन छन कर जो थोड़ी मोड़ी जानकारी बाहर आ पायी है उससे लगता है कि कोरोना को लेकर आम चीनी नागरिक बेहद हताश, निराश और गुस्से में हैं। 


ये प्रदर्शन शुरू तो कोरोना को लेकर हुए थे लेकिन बाद में इनमें शी जिंगपिंग के खिलाफ नारे भी सुनाई दिए है। चीन की कठोर नियन्त्रण वाली व्यवस्था में ये प्रदर्शन किसी विद्रोह से कम नहीं है। 1989 के थ्याननमान प्रदर्शनों के बाद चीन में ये ऐसे पहले व्यापक प्रदर्शन है। 1989 के इन प्रदर्शनों को कुचलने के लिए चीनी सरकार ने अपने निहत्थे नागरिकों पर टैंक चढ़ा दिए थे। मौजूदा प्रदर्शनों के दौरान सैकड़ों लोगों की गिरफ्तारी हुई लेकिन फिर भी चीनियों का आक्रोश नहीं थमा है। हारकर कम्युनिस्ट सरकार को अपनी तीन साल से चल रही 'ज़ीरो कोविद' नीति में कई बड़े परिवर्तन करने पड़े है। इससे स्थितियाँ  ठीक होने की बजाय और भी विषम हो गयीं हैं। चीन में अभी भी सभी बुजुर्गों को टीके नहीं लगे हैं। इसलिए वहां कई इलाकों में कोरोना संक्रमण के तेज़ी से फैलने की खबरें आ रहीं हैं। सघन आबादी को देखते हुए कोरोना से भारी संख्या में मौतों की आशंका की जा रही है। 


लेकिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग आंतरिक स्थितियों से चीन की जनता का ध्यान हटाने में माहिर खिलाड़ी हैं। इसका बेहतर इस्तेमाल उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के पिछले अधिवेशन में किया और तीसरी बार चीन के सर्वेसर्वा बन बैठे। ऐसा माओ के बाद पहली बार चीन में हुआ। अरुणाचल में नियंत्रण रेखा का स्वरुप बदलने की नाकाम कोशिश को भी इस सन्दर्भ भी देखा जाना चाहिए। 


उधर बुनियादी तौर पर भारतीय सभ्यता और विरासत के चिर पुरातन और नित्यनूतन स्वरुप को भी चीनी नेतृत्व एक चुनौती के रूप में देखता है। चीनी कम्युनिस्ट नेतृत्व जानता है कि पुराने समय से भारत आध्यात्मिक और नैतिक नेतृत्व प्रदान करता रहा है। तिब्बत और एशिया के बाकी देशों में बौद्ध धर्म का अमिट प्रभाव इसका अन्यतम उदाहरण है। चीन के लिए यह एक बुनियादी वैचारिक और आध्यात्मिक चुनौती है। 


भारत को आर्थिक और सामरिक रूप से रोकने के लिए चीन 50 दशक से ही पाकिस्तान का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करता आया है। कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद की फंडिंग उसी प्रोजेक्ट का हिस्सा रही है। पर असफल पाकिस्तान अब चीन का सरदर्द बन गया है। इस्लामी आतंकवाद अब खुद पाकिस्तान का नासूर बन गया है। पाकिस्तान में चीन ने अरबों डॉलर लगाए हैं लेकिन वे सब अब बट्टेखाते में जाते दिखाई दे रहे हैं। ये पैसा पाकिस्तान कभी लौटा नहीं पायेगा। दिवालिया होता पाकिस्तान अब और पैसे चाहता है जो चीन अब देने को तैयार नहीं है। उलटे उसे पकिस्तान के पाले पोसे इस्लामी अत्तंकवादियों के जरिये अपने यहाँ कट्टरता फैलने का डर सत्ता रहा है।  लेकिन डर ये है कि पाकिस्तान को दिए कर्ज़े की एवज में चीन उसकी की सेना और आईएसआई से भारत में आतंक फ़ैलाने को कहेगा। कश्मीर और पंजाब दोनों में ही भारत की सुरक्षा एजेंसियों की चिंताएँ आगे और बढ़ने वाली है। 


भारत को उलझाए रखने के अपने इसी मिशन के तहत चीन भारत में माओवादियों और वामपंथी गुटों को बढ़ावा देता रहा है। यही कारण है कि भारत में हर छोटी सी बात पर शोर मचाने वाले वामपंथी बुद्धिजीवियों को उइगर मुसलमानों के निर्दयतापूर्ण दमन पर साँप सूंघ जाता है। हिजाब से लेकर नागरिकता कानून पर मजहबी आज़ादी का झंडा लेकर चलने वाले चीन में हो रहे दमन पर एक बयान तक नहीं देते।  वैसे इन चीनी पिछलग्गुओं से  पूछा जा सकता है कि इन्होने रोहिंग्या मुसलमानों को कभी चीन भेजने की वकालत क्यों नहीं की? भारत में असहिष्णुता का राग अलापने वाले हांगकांग में लोकतंत्र, प्रेस की आज़ादी और मानवाधिकारों को खुले आम कुचले जाने पर चुप क्यों बैठ जाते है ? इसका कारण ये है कि ये चीन को अपना वैचारिक आदर्श और आर्थिक माईबाप मानते हैँ।  दरअसल इनमें से अधिकतर लोग बुद्धिजीवियों की आड़ में भारत को परेशान रखने के लिए चीन के पाले हुए तोते जैसे हैँ। चिंता की बात तो ये है अपने देश के मीडिया और अकादमिक जगत में इनकी अच्छी घुसपैठ है।  


असल बात तो ये है कि इन सारी रूकावटों और अडचनों के बावजूद भारत अपनी अस्मिता के साथ आगे बढ़ता ही गया है। प्रधानमंत्री मोदी कि स्पष्ट नीतियों और ठोस सोच ने भारत को एक नई आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक धार दी है। भारत चीन सीमा पर बन रहे सड़कों और पुलों के नए जाल ने चीन के विस्तारवादी इरादों में खलल डाल दी है। मोदी ने तो चीन के साथ भी मिलकर चलना चाहा भी था। इसलिए कई बार उन्होने शीजिंगपिंग के साथ दोस्ती का हाथ भी बढ़ाया। लेकिन चीनी राष्ट्रपति अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मोदी को अपने प्रतिद्वंदी के रूप में देखते हैँ। 


अरुणाचल के मुख्यमंत्री प्रेमा खंण्डू ने ठीक ही कहा है कि ये 1962 का भारत नहीं है। आज का भारत सिर्फ आत्मविश्वास के साथ दुनिया की आँख से आंख मिलाकर बात करने वाला भारत ही नहीं है । उसकी सेना में किसी टेढ़ी आँख को फोड़ने का दमखम, कूबत और हौसला है।  डोकलाम, गलवान और अब तावांग में ये दुनिया ने देख ही लिया है।  ये इस नए भारत की नई इच्छाशक्ति के प्रतीक हैँ। पर देश को लगातार चौकन्ना रहने की ज़रुरत है। देश सिर्फ फ़ौज के हाथों जिम्मेदारी देकर हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ सकता। चीन को आर्थिक मोर्चे पर भी भयभीत करना आवश्यक है। एक बार फिर से लोगों को चीन से आने वाले साजोसामान पर रोक लगाने की ज़रूरत है। अनावश्यक चीनी माल को प्रतिबंधित कर आम भारतीय ही उसकी आर्थिक हेकड़ी को ढीला कर सकते है। यही विस्तारवादी चीन का पक्का इलाज़ होगा।