Wednesday, October 9, 2013

#Electoral Reforms चुनाव सुधार : उच्चतम न्यायालय का एतिहासिक फैसला

भारत में अब गलत छवि वाले उम्मीदवारों को रद्द करने का अधिकार यानि “राइट टू रिजेक्ट” लोंगों को मिल गया है. उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग दोनों ही बधाई के पात्र हैं. न्यायालय इस फैसले के लिए और  जिस रफ़्तार के साथ फैसले को लागू किया गया है उसके लिए चुनाव आयोग की जितनी भी सराहना की जाए वो कम है.

  
मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम के अगले महीने होने वाले चुनावों में मतदाताओं को ये अधिकार भी होगा वे हर प्रत्याशी को “रद्द कर” सकें. ईवीएम मशीन में “इनमें से कोई भी नहीं” यानि “नोटा” का विकल्प भी चुनाव आयोग इस बार देने जा रहा है. ये एक बड़ा चुनाव सुधार है जो उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद आया है. इसके तहत भारत में अब गलत छवि वाले उम्मीदवारों को रद्द करने का अधिकार यानि “राइट टू रिजेक्ट” लोंगों को मिल गया है.

यह अधिकार हांलाकि अभी अधूरा ही है. ऐसा नहीं होगा कि अगर किसी क्षेत्र के अधिकांश मतदाताओं ने “रद्द करने” का विकल्प चुना तो भी फिलहाल चुनाव रद्द नहीं होगा और बचे हुए मतों में से जिस प्रत्याशी को ज्यादा वोट मिलेंगे वो जीता हुआ घोषित कर दिया जाएगा. उदहारण के लिए अगर किसी क्षेत्र में 90 प्रतिशत मतदाता अगर “इनमें से कोई नहीं” के विकल्प को अपना मत देते हैं तो बचे हुए 10 प्रतिशत वोटों में से जो प्रत्याशी “बहुमत” पायेगा वो जीत जाएगा. होना तो ये चाहिए था कि ये मतदान ही रद्द हो जाता और दोबारा चुनाव होता. कई देशों में इस तरह की वयवस्था है.

उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में उम्मीद जताई है कि इस विकल्प के बाद राजनीतिक दलों पर दबाव पड़ेगा और वे अपने प्रत्याशी चुनते हुए “जनता की इच्छा” का ध्यान रखेंगे और साफ़ सुधरी छवि वाले लोंगों को ही अपना उम्मीदवार बनायेंगे. न्यायालय का मानना हैं कि ये “नकारात्मक मतदान” धीरे धीरे भारतीय लोकतंत्र में एक व्यवस्थात्मक परिवर्तन लाएगा. हम उम्मीद करते हैं कि न्यायालय की ये आशा पूरी होगी अन्यथा आज की राजनीतिक दलों की जो स्थिति है उसे देखते हुए तो लगता नहीं कि ऐसा जल्द ही होगा.

आज जिस तरह का भाई भतीजावाद, धनबल और बाहुबल का बोलबाला राजनीतिक दलों के बीच है उससे तो एक गहरी निराशा का भाव मन में आता है. सोचिये क्या मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, करूणानिधि की डीएमके, शरद पंवार की एनसीपी, बादल का अकाली दल, चौटाला का लोकदल, और लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल अपने परिवार के प्रत्याशियों से बाहर आ पायेगा ? कई बार कितना हास्यास्पद लगता है. इनके सब रिश्तेदार तो सांसद या विधायक है. बहू, बेटी, बेटा, पत्नी, भतीजा, भतीजी, भाई, चाचा, साला, मामा और ना जाने कौन कौन? जैसे कि इन्हें उम्मीदवार मिलते ही नहीं. इन जैसे दलों को अच्छे बुरे प्रत्याशियों से क्या लेना देना? बस प्रत्याशी होने के लिए रिश्तेदारी ज़रूरी है.

और अगर आप इनके रिश्तेदार नहीं है तो फिर आपके पास मोटा पैसा होने चाहिए. चुनाव लड़ने के लिए और पार्टी को देने के लिए भी.  किसी तरह टिकेट मिल भी गया तो करोंड़ों रुपये लगते हैं एक पार्षद के चुनाव तक में. ऐसे में कोई आम आदमी चुनाव लड़ने की सोच भी कैसे सकता है?

अगर राजनीति के अपराधीकरण की बात लें तो मौजूदा लोकसभा में ही 162 सांसद ऐसे हैं जिन पर अदालतों में आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं. इनमें से आधे से ज्यादा पर हत्या, किडनेपिंग, दंगा भड़काने, डकैती, चोरी, धोखाधड़ी, गबन, फिरौती मांगने और रिश्वत लेने जैसे संगीन जुर्म करने के आरोप हैं. राज्य विधानसभाओं की स्थिति तो और भी बदतर है. सवाल है कि क्या ये दल और ये बाहुबली चुनाव लड़ना छोड़ देंगे? बेहतर होता कि न्यायालय ये वयवस्था भी करता कि यदि “इनमें से कोई भी नहीं” के विकल्प को किसी क्षेत्र में 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले तो वो चुनाव ही रद्द हो जाएगा. इससे स्वतः ही राजनीतिक दल ऐसे नेताओं को टिकट नहीं देने के लिए मजबूर हो जाते.

फिर भी ये फैसला स्वागत योग्य है क्योंकि चुनाव सुधार की दिशा में यह एक बड़ा और सराहनीय कदम है. इसके लिए उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग दोनों ही बधाई के पात्र हैं. न्यायालय इस फैसले के लिए और  जिस रफ़्तार के साथ फैसले को लागू किया गया है उसके लिए चुनाव आयोग की जितनी भी सराहना की जाए वो कम है. उम्मीद है कि अब वो लोग भी वोट करने सामने आएंगे जो मतदान के दिन ये सोच कर कर घर से बाहर नहीं निकलते थे कि किसे वोट दिया जाए. क्योंकि सभी प्रत्याशी उन्हें चोर चोर मौसेरे भाई जैसे लगते थे. अब वे गलत प्रत्याशियों को “रद्द” कर अपना रोष ज़ाहिर कर सकतें हैं.

मगर राजनीति को साफ़ करने के लिए अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है. जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आन्दोलन के समय से वापस बुलाने के अधिकार यानि “राइट टू रीकॉल”, और चुनावों की राज्य द्वारा फंडिंग जैसे कई चुनाव सुधार उपाय लंबित पड़े हुए है. सोशल मीडिया के इस युग में  लोकतंत्र को सार्थक बनाए रखने के लिए इन्हें अविलम्ब लागू करने की ज़रूरत है.  जब जनता के हाथ में इन अधिकारों की झाड़ू आ जायेगी तो देश की राजनीति में जो कूड़ा जमा हो गया है और उससे जो सडांध और बदबू निकल रही है उसे साफ़ करना मुश्किल नहीं होगा.

उमेश उपाध्याय
7 अक्तूबर 2013

मौनी बाबा अब तो बोलो !

प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह अब क्या करेंगे? अपने पद, मंत्रिमंडल और सरकार की प्रतिष्ठा बचाते हुए इस्तीफ़ा देंगे? गांधी परिवार के प्रति उनकी निष्ठा भारतीय संविधान की गरिमा और पद के सम्मान से उपर नहीं हो सकती. सवाल सिर्फ़ उनके व्यक्तिगत सम्मान का ही नहीं. प्रधान मंत्री और मंत्रिमंडल की सार्वजनिक प्रताडना, भर्त्सना और अपमान किसी भी पार्टी का अंदरूनी मामला नहीं हो सकता.



प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह अब क्या करेंगे? अपने पद, मंत्रिमंडल और सरकार की प्रतिष्ठा बचाते हुए इस्तीफ़ा देंगे या फिर ”परिवार” के प्रति अपनी “अटूट आस्था” का निर्वाह करते हुए एक बार फिर खून का घूँट पी कर रह जायेंगे ? कोंग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गाँधी ने सार्वजनिक रूप से सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश की भर्त्सना कर और उसे “बकवास” बता कर एक अजीब सा संकट पैदा कर दिया है . जैसा कि राहुल गाँधी ने कहा कि “उन्हें इस बात से मतलब नहीं कि विपक्षी नेता क्या कह रहे हैं, उन्हें मतलब सिर्फ़ इस बात से है कि कोंग्रेस पार्टी क्या कर रही है.” पर क्या सवाल सिर्फ़ इतना सीधा है ? मंत्रिमंडल द्वारा पारित किया गया अध्यादेश जो कि राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया हो कोंग्रेस पार्टी का अंदरूनी मामला नहीं है. वह एक आधिकारिक और सरकारी दस्तावेज़ है जिस पर पूरे मंत्रिमंडल की मोहर लगी है.

क्या ये संभव है कि पार्टी में बहस हुए बिना ये मंत्रिमंडल ने पारित किया हो? तो फिर जब पार्टी में इस पर बहस हुई तो राहुल और कोंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने इसे क्यों नहीं रोका ? ये कोई ऐसा मुद्दा नहीं था जो गुपचुप कर लिया गया हो. उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद पूरे देश में और  मीडिया में इस पर चर्चा हो रही थी. संसद में भी इस पर बहस हुई थी. तब राहुल चुप क्यों रहे? इसीलिये सवाल इस अध्यादेश के सही और गलत होने का भी नहीं है. साफ़ है कि राहुल गांधी का नाटकीय बयान उनकी बाद की सोच है?

कोंग्रेस पार्टी और राहुल गांधी को पूरा अधिकार है कि वे अपनी नीतियों, सोच और फैसलों में कितने ही बदलाव करें. परन्तु प्रधान मंत्री और मंत्रिमंडल की सार्वजनिक प्रताडना, भर्त्सना और अपमान किसी भी पार्टी का अंदरूनी मामला नहीं हो सकता. राहुल गांधी भूल गए कि डा मनमोहन सिंह कोई कोंग्रेस के नहीं पूरे देश के प्रधानमंत्री हैं. उन्होंने देश के इस सबसे बड़े पद की मर्यादा बनाए रखने की शपथ ली है. गांधी परिवार के प्रति उनकी निष्ठा भारतीय संविधान की गरिमा और पद के सम्मान से उपर नहीं हो सकती. सवाल सिर्फ़ उनके व्यक्तिगत सम्मान का ही नहीं बल्कि उच्च  सांविधानिक पद की मर्यादा, राजनीतिक औचित्य और लोकतान्त्रिक मूल्यों का है.
राहुल गांधी शायद नहीं जानते कि उन्होंने शुक्रवार की दोपहर प्रेस क्लब में हो रही अजय माकन की प्रेस कोंफ्रेंस में तीन मिनट में क्या कर दिया है? अगर वो इसकी गंभीरता समझ पाते तो निश्चित ही ऐसा नहीं करते. उन्होंने न सिर्फ़ देश के केंद्रीय मंत्रिमंडल और प्रधानमन्त्री के पद को असाधारण नुकसान पहुँचाया है बल्कि अपने परिवार की विरासत, अपनी राजनीतिक समझ और लोकतान्त्रिक मर्यादा को दीर्घकालिक क्षति पहुंचाई है.

डा मनमोहन सिंह की राजनीतिक कार्यशैली, नीतिओं, आर्थिक सोच, दूसरे कार्यकाल में उनकी अकर्मण्यता और निर्णयहीनता की आप कितनी ही आलोचना करें उनकी सज्जनता और भलमनसाहत पर उंगली उठाना मुश्किल है. वे राहुल गांधी द्वारा इन शब्दों में सार्वजनिक निंदा के पात्र कदापि नहीं थे. उनके नज़दीकी लोग जानते हैं कि कई मौकों पर वे अपने निजी आग्रहों को छोड़कर पार्टी और परिवार के फैसलों पर अमल करते रहे हैं पर शुक्रवार का “फाड कर फैंक देने के लायक” और “पूरी तरह बकवास” प्रकरण संभवतः उनकी उस अंतरात्मा को भी झिंझोड दे जो उन्होंने “परिवार” के प्रति कृतज्ञता और एक “रहस्यमयी” कर्तव्यनिष्ठा को गिरवी रख छोड़ी है.

सबकी नज़रें अब डा मनमोहन सिंह पर रहेंगी कि वे अभी भी इन निजी निष्ठाओं के गुलाम रहकर कुछ और महीनों के लिए ऐसे प्रधानमंत्री बनकर रहना चाहेंगे जो इस तरह लताड़ा गया हो या फिर अपनी और अपने मंत्रिमंडलीय साथियों के पद और गरिमा की रक्षा करते हुए इस्तीफ़ा देने का साहस दिखायेंगे चाहे फिर नवंबर में चार राज्यों के साथ ही लोकसभा के चुनाव कराने की तोहमत उनके सर क्यों न पड़े. अगर वे ऐसा कर पाए तो वे फिर कुछ मात्रा में ही सही वे उस सम्मान को प्राप्त कर पायेंगे जो अपने इस दूसरे कार्यकाल में उन्होंने खोया है. अन्यथा एक कमज़ोर, शक्तिहीन और बिना रीढ़ के भारतीय प्रधानमंत्री की उनकी छवि इतिहास के पन्नों में सदा के लिए दर्ज हो जायेगी.  इस स्थिति के लिए जब वे राहुल गांधी से ज्यादा ज़िम्मेदार ठहराएं जायें तो फिर उन्हें आपत्ति नहीं होनी चाहिए.


उमेश उपाध्याय
28 सितम्बर 2013  

राजनीतिक दल : सैयाँ भये कोतवाल

पक्ष हो या विपक्ष हमाम में सब नंगे हैं.पार्टियां भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के विरोध में लिए कितनी ही बड़ी बड़ी बातें क्यों न करें असल में कुछ करना नहीं चाहतीं, और जब सुप्रीम कोर्ट कुछ करता हैं तो ये कानून ही बदल देतीं हैं. 


संसद में सारे राजनीतिक दल किसी मुद्दे पर एक हों ऐसा नज़ारा कम ही दिखाई देता है. अक्सर ज़रा सी बात पर ये दल तलवार खींचे रहते हैं. अक्सर कोफ़्त होती है कि राष्ट्रीय हित पर ये एक क्यों नहीं होते? मगर आश्चर्य ! पिछले सत्र में ये एक बार नहीं तीन तीन बार सारी पार्टियां एक हुईं. मगर अफ़सोस, मुद्दे राष्ट्रीय हित के नहीं बल्कि पार्टी हित के थे. इन तीनों ही ख़बरों पर लोगों का उतना ध्यान नहीं गया जितना जाना चाहिए था. वे मुद्दे जिन पर सारे राजनीतिक दल संसद में एक हो गए थे - एक, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके में बदलाव का विधेयक, दूसरा, राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखने का विधेयक और तीसरा जेल गए जनप्रतिनिधियों से चुनाव लड़ने का अधिकार छीनने वाले उच्चतम न्यायालय के फैसले को उलटने वाला विधेयक. ये तीनों ही मुद्दे सार्वजनिक जीवन में शुचिता, नैतिकता और पारदर्शिता से जुड़े हुए हैं. लेकिन राजनीतिक दलों ने इसका उल्टा ही किया.

सबसे पहले बात करते हैं उच्चतम न्यायालय के जुलाई महीने के उस फैसले की जिसके तहत उसने ऐसे नेताओं को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया था जो जेल में बंद हैं. अभी तक ऐसे नेता इस बहाने जेल से भी चुनाव लड़ते रहे हैं कि उनका मामला बड़ी अदालत में लंबित है. और जैसा कि होता रहा है ये मामले निचली अदालत से उच्च न्यायालय और फिर वहाँ से उच्चतम न्यायालय जाते हैं. यानि फैसला होने में बरसों बीत जाते हैं और ऐसे नेता चुनाव लड़ते रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ साफ कहा कि आप जेल से चुनाव नहीं लड़ सकते. ये एक ऐसा फैसला था जिससे राजनीति के अपराधीकरण को समाप्त करने में मदद मिलती.

मगर राजनीतिक दलों की जल्दबाजी तो देखिये 6 सितम्बर को सिर्फ़ 15 मिनट में लोकसभा में बिना किसी बहस के जन प्रातिनिधि कानून में संशोधन कर दिया गया और सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को बदल दिया गया. लोकसभा में ऐसी एकता पहले नहीं देखी गई थी. कहाँ कोयला घोटाले में संसद में जूतमपजार हो रही थी कहाँ सब अपने जेलबंद साथियों को बचाने सब एक हो गए?
दूसरा मसला था सूचना के अधिकार के कानून से राजनीतिक दलों को बाहर रखने का. पिछले महीने संसद में सूचना के अधिकार के दायरे से राजनीतिक दलों को बाहर रखने के लिए कानून मे बदलाव का बिल लोकसभा में सरकार ने रखा. इसका तृणमूल कोंग्रेस को छोडकर सारे दलों ने समर्थन किया. राजनीतिक दलों का कहना है कि अगर वे आरटीआई के दायरे में आये तो बहुत सी “गोपनीय” सूचना उन्हें जनता को देनी पड़ेगी. है न कमाल की बात? जनता के “चंदे” से चलने वाले दल जनता को सूचना देने से डरते हैं?

इसका बड़ा कारण है. राजनीतिक दलों के पास छुपाने को बहुत कुछ है. इसके लिए एक ही उदाहरण काफी होगा. एक अध्ययन के मुताबिक़ 2004-05 से 2010-11 के बीच अगर पार्टियों के आयकर रिटर्न को देखा जाए तो 6 बड़े राजनीतिक दलों को 4895 करोड रुपये का चन्दा मिला. इसमें से 3674 करोड यानि 75 % पैसा अज्ञात स्रोतों से आया. ये दल हैं कोंग्रेस, बीजेपी, सीपीआई, सीपीएम, बीएसपी ओर एनसीपी.  जाहिर है कि अगर आरटीआई के तहत अगर इन पार्टिओं को ये बताना पडा कि ये अग्यात स्रोत क्या हैं तो इन दलों की तो नानी ही मर जायेगी. इसलिए सब दल साथ आये कानून को बदलने के लिए. यानि जनता को ये जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि हमारे दलों को कौन पैसा देता है?

जिस तीसरे मुद्दे पर सारे दल एक हुए हैं वो है सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति.अब तक ये नियुक्ति एक कोलेजिअम सिस्टम के तहत सुप्रीम कोर्ट ही करता रहा है. अब सरकार चाहती है कि जजों की नियुक्ति में उसका भी हाथ हो सो सरकार इसके लिए नया क़ानून लाना चाहती है. इस पर भी सारे दल एक साथ आ गए है.

इन तीनों ही मामलों में एक बात साफ़ हैं कि ये पार्टियां भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के विरोध में लिए कितनी ही बड़ी बड़ी बातें क्यों न करें असल में कुछ करना नहीं चाहतीं, और जब सुप्रीम कोर्ट कुछ करता हैं तो ये कानून ही बदल देतीं हैं.और तो और अब इन्होने ठान लिया हैं कि ये जजों की नियुक्ति भी खुद ही करेंगे ताकि अदालतें ऐसे फैसले ही न दे पायें जिनसे नेताओं के हितों को चोट पहुँचती हो. वाह रे लोकतंत्र ! अब चोर ही कोतवाल हुआ जाता है.

इन तीनों ही मुद्दों से ये बिलकुल स्पष्ट हो गया कि चाहे वो पक्ष हो या विपक्ष सब एक हैं. हमाम में सब नंगे हैं. जनता को एक ही सन्देश नेताओं और दलों ने मिलकर दिया है जब हमारे हितों की बात आयेगी हम एक होंगे. केस भी हमारा होगा और फैसला भी हम करेंगे. सुप्रीम कोर्ट कुछ भी फैसला दे, जनता कुछ भी कहे हमें लोकलाज का कोई डर नहीं. सच ही है जब सैयाँ भये कोतवाल तो डर कहे का ?

उमेश उपाध्याय
25 सितम्बर 2013

Saturday, September 14, 2013

#Modi Vs Rahul मोदी घोषणा और कोंग्रेस की “पारिवारिक” मजबूरी

बीजेपी ने अपना तुरुप का इक्का चल दिया है. मगर कोंग्रेस क्या कहेगी? क्या ये, कि अगर पूर्ण बहुमत हुआ तो राहुल गांधी, नहीं तो फिर कोई राजनीतिक “चरण पादुका” ? कभी पार्टी का संबल होने वाला गांधी परिवार ही अब उसकी सीमा बनता दिखाई दे रहा है.राहुल गांधी की अदृश्यता और सोनिया की रहस्यमयी चुप्पी ये दोनों ही पार्टी को एक अनजाने खोल के अंदर रहने को मजबूर कर रहे हैं. 



बीजेपी ने अपना तुरुप का इक्का चल दिया है. गेंद अब कोंग्रेस के पाले में हैं कि वो क्या करेगी? क्या  राहुल अपने खोल से बाहर आकर इस खुली चुनौती को स्वीकार करेंगे? क्या तीसरी बार मनमोहन ही उसका चेहरा होंगे? या फिर 2014 तक राहुल गाँधी को लेकर “हैं भी और नहीं भी” का मौजूदा  सिलसिला जारी रहेगा? बीजेपी ने प्रधानमंत्री के लिए नरेन्द्र मोदी के नाम की घोषणा करके कोंग्रेस की इन दिक्कतों को खासा बढ़ा दिया है. कोंग्रेस की सबसे बड़ी समस्या ये है कि वो राहुल का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए घोषित कर नहीं पा रही. क्योंकि ऐसा करना आज उसके लिए बेहद राजनीतिक जोखिम से भरा है. राहुल के खाते में ऐसी कोई राजनीतिक, प्रशासनिक अथवा राष्ट्रीय उपलब्धि नहीं है जिसे पार्टी जनता के सामने ले जा कर चुनावो में भुना सके.

और किसी का नाम लेने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि कोंग्रेस में शीर्ष पद सिर्फ़ गाँधी परिवार का सदस्य ही ले सकता है. परिवार का सदस्य किसी भी कारण से यदि पद लेने की स्तिथि में न हो तो परिवार ऐसे व्यक्ति को चुनता है जिसका जनाधार न हो. पद देने के बाद भी ऐसे व्यक्ति को पदनाम तो मिल जाता है पर पद की सत्ता और ताकत नहीं. मौजूदा प्रधान मंत्री डा मनमोहन सिंह इसके उदाहरण हैं. प्रधानमंत्री तो वे तकरीबन नौ साल से हैं पर सब जानते हैं कि असली ताकत और सत्ता  सोनिया और राहुल के हाथ में हैं. तो  आज यूपीए की नाकामियों का ठीकरा  फूट रहा है तो वो प्रधान मंत्री के सर पर और अगर कुछ भी उपलब्धि होती तो वो गाँधी  परिवार के नाम. यानि मीठा मीठा गप्प और कड़वा कड़वा थू.

परिवार की ये स्थिति आज कोंग्रेस की सबसे बड़ी मजबूरी है. ये नहीं कि कोंग्रेस में नेता नहीं हैं. कई मुख्यमंत्री हैं जो कोंग्रेस को एक से ज्यादा बार जिता चुके है. कई केंद्रीय मंत्री भी हैं जिनमे क़ाबलियत है. मगर इनमें से कोई भी कोंग्रेस में प्रधानमंत्री पद की ख्वाहिश तो क्या सपने में भी ऐसा सोच नहीं सकता. यानि नीचे से उठकर कोई कितनी भी क्षमता दिखादे एक समय बाद उसके लिये फुल स्टॉप ही है.

बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के अनुसार 2014 में मोदी के नेतृत्व में उनकी पार्टी की सरकार बनेगी. ये बात सही होती है कि नहीं ये बाद में मालूम पडेगा. मगर ये सही है कि इससे पार्टी के कार्यकर्ता एक निश्चयात्मक स्वर में वोट तो माँग सकेंगे. मगर कोंग्रेस क्या कहेगी? क्या ये, कि अगर पूर्ण बहुमत हुआ तो राहुल गांधी, नहीं तो फिर कोई राजनीतिक “चरण पादुका” ?  दरअसल जो परिवार और विरासत उसकी बड़ी ताकत रही है वही आज उसकी बड़ी राजनीतिक कमजोरी बन गई है. कभी पार्टी का संबल होने वाला गांधी परिवार अब उसकी सीमा बनता दिखाई दे रहा है.

ये सब जानते हैं कि मोदी को लेकर बीजेपी में राजनीतिक उठा पटक, सियासी दांवपेंच, मान मनव्वल और शह मात का खेल गोवा की बैठक के बाद से ही चल रहा है. और ये शायद आगे भी चले. पार्टी के बड़े नेता और पूर्व उपप्रधान मंत्री लाल कृष्ण आडवानी ने तो राजनाथ सिंह को पत्र लिखकर अपनी नाराजगी भी ज़ाहिर कर दी है. मगर एक राजनीतिक दल में खुलकर राजनीति होना ऐसा बुरा भी नहीं और एक तरह से प्रजातान्त्रिकता की निशानी है बशर्ते कि वो सियासी दंगल में न बदल जाए. पर कोंग्रेस में क्या ऐसा हो सकता है? पार्टी कार्यकर्ता तो दूर कोंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से कोई पत्रकार तक नहीं पूँछ सकता कि वे २०१४ के चुनाव में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उमीदवार के बारे में क्या सोचतीं हैं. वे तो किसी को उपलब्ध ही नहीं है.

राहुल गांधी की अदृश्यता और सोनिया की रहस्यमयी चुप्पी ये दोनों ही पार्टी को एक अनजाने खोल के अंदर रहने को मजबूर कर रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए रणभेरी बज चुकी है. एक तरफ का सेनापति कमर कस कर अपनी सेना को हुंकार रहा है मगर दूसरी और मालूम ही नहीं कि सेनापति कौन है और राजा अपने किले के भीतर गहरी खामोशी में है. एक समय ये खामोशी सोनिया गाँधी का एक ताकतवर हथियार था मगर शायद आज नहीं. ट्विटर और फेसबुक के इस युग में जब टेलिविजन भी प्राचीन दिखाई देता है ऐसी चुप्पी राजनीतिक रूप से आत्मघाती हो सकती है.

उमेश उपाध्याय
13 सितम्बर 2013

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Friday, September 13, 2013

भारतीय अर्थव्यवस्था : एक सपने की मौत

सरकार ने अर्थव्यवस्था के मर्ज़ को ठीक करने के लिए लगातार  ऐसी खिचड़ी परोसी है कि मरीज़ और बीमार होता गया है. हालत ये है कि अब भारतीय अर्थव्यवस्था आईसीयू में वेंटिलेटर पर पहुँच गई है. सोचिये आज देश के सोने को बेचने की बात हो रही है? इस सरकार ने उस सपने को पूरी तरह तोड़ दिया है जो ये देश कुछ समय पूर्व देख रहा था.



खबर है कि मुंबई के आस पास के समुद्र तटों पर दशकों बाद एक बार फिर सोने के तस्कर सक्रिय हो गए हैं. वहाँ सोने की तस्करी फिर से शुरू हो गई है. ये नतीजा है सरकार की उन ताज़ा नीतियों का जो उसने सोने का वैध और कानूनी आयात रोकने के लिए लागू की हैं. लोंगों को एक बार हिंदी फिल्मों के “राबर्ट” “बॉस”, “सोना” और “मोना”  के  दृश्य याद आने लगे हैं. सवाल है कि क्या हम फिर से अभावों, मंदी, कंट्रोल और लाइसेंस के युग में जा रहे हैं.

आइये, कुछ ताज़ा आंकड़े देखते हैं. अगस्त के महीने में देश में औद्योगिक गतिविधि में तेज़ी से गिरावट हुई है. मार्च २००९ के बाद पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था में ऐसा हुआ है. अप्रेल से जून के बीच विकास की दर 4.4 फीसदी रही है. रुपया गिर रहा है, महँगाई सुरसा की तरह बढ़ रही है, नौकरियां घट रहीं हैं और काम के बाज़ार में नए आने वाले युवा भारतीयों की संख्या में बेतहाशा बढोत्तरी हो रही है. देश एक विकट और भयावह आर्थिक स्थिति में फंसा है और सबसे कष्टप्रद बात है कि देश को चलाने वालों के पास किसी सवाल का संतोषजनक उत्तर नहीं है.

केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली रात को पेट्रोल पम्प बंद करने का हास्यास्पद सुझाव दे रहे हैं तो प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह विपक्षी दल भाजपा को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. कोई अंतर्राष्ट्रीय हालातों को इसका ज़िम्मेदार बता रहा है तो चालू खाते  का घाटा कम करने के लिए वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने तो देश के सोने के भण्डार को ही तकरीबन बेचने की सलाह दे डाली. हालांकि बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि वे तो सोने के मौद्रिकीकरण (monetising) की बात कह रहे थे ना कि उसे गिरवी रखने की. ये बात अलग है कि उन्होंने ये नहीं समझाया कि मौद्रिकीकरण से उनका आशय क्या था !

आर्थिक विशेषज्ञ और विश्लेषक इसका आकलन कर रहे हैं कि यूपीए सरकार ने ऐसा क्या किया (या क्या नहीं किया) जिससे ऐसे हालत पैदा हुए. बहुत संक्षेप में कहा जाए तो नीतिगत किंकर्तव्यविमूढता (Policy Paralysis), चुनावी मानसिकता और भ्रष्टाचार इसके लिए ज़िम्मेदार हैं. लेकिन इससे भी ज्यादा ज़िम्मेदार है कोंग्रेस में शीर्षतम स्तर पर फ़ैली वैचारिक भ्रम और नीतिगत अस्पष्टता की स्थिति. प्रधान मंत्री और वित्त मंत्री जहाँ विकास के घोड़े का मुहँ विश्व बैंक निर्देशित घोर उदारीकरण की तरफ करना चाहते हैं वहीं सोनिया गाँधी देश को सत्तर के दशक के समाजवादी युग में ले जाना चाहती हैं. इसलिए एक तरफ खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को खुली छूट की वकालत होती है तो दूसरी ओर खाद्य सुरक्षा बिल आता है. ये तो मात्र एक उदाहरण हैं. बुनियादी ढाँचे में निवेश, कृषि, भूमि अधिग्रहण, शिक्षा, निर्यात, मेन्यूफेक्चरिंग, छोटे उद्योग और बैंकिंग - तकरीबन हर क्षेत्र में नीतिगत असमंजसता की ऐसी स्थिति बनी हुई है. नतीजा हैं कि मौजूदा सरकार ने अर्थव्यवस्था के मर्ज़ को ठीक करने के लिए लगातार  ऐसी खिचड़ी परोसी है कि मरीज़ और बीमार होता गया है. हालत ये है कि अब भारतीय अर्थव्यवस्था आईसीयू में वेंटिलेटर पर पहुँच गई है.

याद कीजिये कि किस तरह कुछ ही बरस पहले तकरीबन हर बहस में में ये चर्चा होती थी कि हम चीन के बराबर कब पहुंचेंगे ! 9 प्रतिशत के आसपास की विकास दर का आंकड़ा देखकर हम सोचते थे कि कैसे इसे दो अंकों का बनायें ? जबभी भारत के आर्थिक शक्ति बनने का ज़िक्र होता था दिल में कैसी हर्ष देने वाली हिलोर उठती थी ! हर भारतीय देश को एक विकसित देश बनने का अरमान दिल में संजोये हुए है, ऐसा होने की कल्पना मात्र से वो सिहर उठता था. मगर सोचिये आज देश के सोने को बेचने की बात हो रही है? कहाँ से कहाँ आ पहुंचे हम? इस सरकार ने उस सपने को पूरी तरह तोड़ दिया है जो ये देश कुछ समय पूर्व न सिर्फ़ देख रहा था बल्कि पूरे आत्मविश्वास और यकीन के साथ उसे साकार करने में जुटा था.

विकास दर उपर नीचे होना, रूपये की दर में कमबढ़त, महंगाई, जिंसों के दाम घटना बढ़ना, शेयर बाज़ार में ऊँचनीच – ये सब होता रहता है. मगर देश के समूचे आर्थिक भविष्य को लेकर ही आम लोगों में अनिश्चितता हो जाये ये खतरनाक है. इसलिए अगर सबसे बड़ा पाप हुआ है तो वो है उस सपने का टूट जाना जो हम सब देख रहे थे. इसकी सज़ा जिसे मिलनी है वो तो मिलेगी ही मगर देश को ये भारी पडा है और ना जाने कितनी पीढ़ियों को इसका बोझ उठाना पड़ेगा !

उमेश उपाध्याय
3  सितम्बर  2013

Friday, September 6, 2013

#Politics of Appeasement ये कैसा सेकुलरवाद !

मस्जिद में काम कर रहे इमाम और मुअज्ज़िन गरीब और ज़रूरतमंद हैं तो फिर मुख्यमंत्री होने के नाते उन्होंने मंदिरों के पुजारियों, गिरजाघरों के पादरियों, बौद्ध मठों के भिक्षुओं और गुरुद्वारों के ग्रंथियों आदि के बारे में ऐसा क्यों नहीं सोचा? कोलकता उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने सरकार के निर्णय को गैरकानूनी बताते हुए इसे निरस्त कर दिया. उन्होंने इसे असंवैधानिक और जनहित के विरुद्ध करार दिया.

  
कोलकता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार के उस फैसले को संविधान के विरुद्ध करार दिया है जिसमें सरकार मस्जिदों के इमाम और मुअज्जिनों को हर महीने सरकारी खजाने से भत्ता दे रही थी. ममता सरकार ने अप्रेल 2012 से हर इमाम और मुअज्ज़िन को 2500 और 1500 रूपये भत्ता देना शुरू किया था. उस समय विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया था मगर सरकार ने इसे लागू कर दिया था. फैसले के खिलाफ चार जनहित याचिकाएं कोलकता उच्च न्यायालय में दायर की गयीं थीं, इनमें से एक राज्य भाजपा के महामंत्री असीम सरकार की याचिका भी थी.

एक सितम्बर के अपने फैसले में न्यायमूर्ति पी के चट्टोपाध्याय और न्यायमूर्ति एम पी श्रीवास्तव की खंडपीठ ने सरकार के निर्णय को गैरकानूनी बताते हुए इसे निरस्त कर दिया. उन्होंने इसे असंवैधानिक और जनहित के विरुद्ध करार दिया. न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि ये भत्ता भारतीय संविधान की धारा 14 और 15/1 का उल्लंघन करता है. इन धाराओं के मुताबिक राज्य नागरिक के धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर उनमें भेदभाव नहीं कर सकता. इस भत्ते पर राज्य सरकार सालाना तकरीबन 126 करोड रुपये खर्च कर रही थी.

उच्च न्यायालय का फैसला कानून के अनुसार ही है क्योंकि मस्जिद या मंदिर चलाने की जिम्मेदारी उनकी है जो उसमें इबादत या पूजा करते हैं. सरकार किसी एक मज़हब के धर्मस्थान चलाने के लिए जनता का पैसा नहीं खर्च कर सकती. मगर सवाल ये है कि क्या ममता बनर्जी, उनके सलाहकारों और अधिकारिओं  को क्या ये मालूम नहीं था? उन्हें ये ज़रूर मालूम रहा होगा कि ये फैसला न्यायालय में नहीं टिकेगा फिर भी उन्होंने ऐसा किया. इसके पीछे की मानसिकता क्या है? और ऐसा सभी अल्पसंख्यकों के लिए नहीं बल्कि मुसलमानों के लिए ही क्यों किया गया? क्योंकि पश्चिम बंगाल में  तृणमूल पार्टी को उनके वोट चाहिए?

ये सही है कि लोकतंत्र में हर पार्टी वोट की तलाश में रहती है मगर लोकतंत्र की मर्यादाएं भी तो हैं. ये मर्यादाएं खींची है भारतीय संविधान ने. और इसके अनुसार मज़हब के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता. तो फिर किस चिंता के तहत ममता बनर्जी ने ऐसा किया ? अगर उन्हें ये चिंता थी कि मस्जिद में काम कर रहे इमाम और मुअज्ज़िन गरीब और ज़रूरतमंद हैं तो फिर मुख्यमंत्री होने के नाते उन्होंने मंदिरों के पुजारियों, गिरजाघरों के पादरियों, बौद्ध मठों के भिक्षुओं और गुरुद्वारों के ग्रंथियों आदि के बारे में ऐसा प्रावधान करने के बारे में क्यों नहीं सोचा?

बेहतर होता कि वे इन लोगों की शिक्षा और तरक्की के लिए कोई योजना बनातीं. उन्होंने तो भत्ते का टोकन देकर सिर्फ़ अपने को “बड़ा सेकुलरवादी” दिखाने का प्रयास किया. दिक्कत ये है कि अल्पसंख्यकों की भी कोई वास्तविक चिंता करने की न तो मानसिकता है ना ही ऐसा कोई मकसद था इस कदम के पीछे. देखा जाए तो अल्पसंख्यकों की चिंताएं भी रोजी-रोटी, कामधंधा, शिक्षा और तरक्की  है. उन्हें सिर्फ़ भावनात्मक और मजहबी मामलों में उलझा कर वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करने की राजनीति उनकी और देश की तरक्की में आड़े आ रही है. ये बहुत खतरनाक भी है. पड़ोसी देश पाकिस्तान में हम ये देख ही रहे हैं.

ये सिर्फ़ ममता कर रहीं हैं ऐसा नहीं है. सच्चर आयोग के गठन से लेकर रंगनाथ मिश्र आयोग और मुसलमानों के लिए आरक्षण की वकालत, उत्तर प्रदेश में आईऐएस  दुर्गा शक्ति नागपाल का निलंबन आदि लगातार ऐसी घटनाएं हो रही हैं जहाँ पार्टियां अपने को दूसरे से अधिक सेकुलर दिखाने की होड में घोर साम्प्रदायिक काम कर रहीं हैं. इस प्रतियोगी सेकुलरवाद में पार्टियां और नेता इतने आगे चले गए हैं कि घोर देशद्रोही और आतंकवादी कार्यवाहियों को भी इसी चश्मे से देखने की कोशिश हो रही है. कोइ इशरत जहान को अपने राज्य की बेटी बताता है, कोई संसद पर हमले के दोषी अफजल की फांसी का विरोध करता है तो कोई बटाला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताता है.

इनसे पूंछा जाना चाहिए कि अल्पसंख्यकों की ये ठेकेदारी उन्हें किसने दी है? क्या ये अल्पसंख्यकों का भी अपमान नहीं? शायद इस राजनीतिक जमात को ज़रूरत है कि देश का संविधान एक बार फिर ठीक से पढ़ें और हर हिन्दुस्तानी को हिन्दुस्तानी की तरह देखें ना कि एक वोट बैंक की तरह. कोलकता उच्च न्यायालय के इस फैसले ने एक बार सबको यही याद दिलाया है.

उमेश उपाध्याय 
4 सितम्बर 2013  

Thursday, August 29, 2013

#Politics of Untouchability आज़म खान और वीएचपी : कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना

ये कहना कि अगर मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता हिंदू नेताओं से मिलेंगे तो मुसलमानों को खराब लगेगा, कहाँ तक उचित है ? क्या वीएचपी के नेता देश के नागरिक नहीं? क्या नागरिक का मज़हब देखकर ये तय होना चाहिए कि सत्तासीन लोग उनसे मिलें या नहीं? ऐसी राजनीतिक छुआछूत की बात कहकर क्या उन्होंने नहीं दर्शाया कि उनकी राजनीति की धुरी संकीर्ण और संकरी है? 



उत्तर प्रदेश सरकार के ताकतवर मंत्री और समाजवादी पार्टी के महासचिव मोहम्मद आज़म खान अपने नेता मुलायम सिंह यादव और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से बेहद नाराज़ हैं. इसकी  वजह है कि मुलायम और अखिलेश का  विश्व हिंदू परिषद के नेताओं से मिलना. पिछले हफ्ते अशोक सिंघल के नेतृत्व में परिषद का एक प्रातिनिधि मंडल इन दोनों से मिला था और उन्होंने मुलायम सिंह यादव से अयोध्या विवाद में मध्यस्थता करने का अनुरोध किया था.

आज़म खान ने इसके बाद एक कड़ा पत्र मुलायम सिंह यादव को लिखा. इसमें उन्होंने कहा कि इस बैठक से मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की छवि बिगड़ने का खतरा है “ जो श्री यादव ने बड़ी मेहनत से मुसलमानों  के बीच बनाई है ” और उम्मीद है कि वो ऐसा नहीं होने देंगे. दो पन्ने के पत्र में आज़म खान ने ये भी लिखा कि “ समाजवादी नेताओं के इस कृत्य से मुसलमानों की भावनाओं को चोट पहुँची है और वीएचपी नेताओं और मुलायम सिंह की बातचीत से मुसलमानों में गलत सन्देश गया है.”

आज़म खान अपनी राजनीति करने को स्वतंत्र है. वे वीएचपी का विरोध कर सकते हैं. उसके खिलाफ धरना, प्रदर्शन, बयान और जो कुछ भी राजनीतिक हथियार हैं उनका इस्तेमाल कर सकते हैं परन्तु ये पत्र और इसकी भाषा आपत्तिजनक है. ये कहना कि अगर सूबे के मुख्यमंत्री और पार्टी के नेता हिंदू नेताओं से मिलेंगे तो मुसलमानों को खराब लगेगा, कहाँ तक उचित है ? क्या वीएचपी के नेता देश के नागरिक नहीं और क्या नागरिक का मज़हब देखकर ये तय होना चाहिए कि सत्तासीन लोग उनसे मिलें या नहीं? वीएचपी की नीतियों से आज़म खान इत्तिफाक रखें ये ज़रूरी नहीं मगर वे खुद  भी एक मंत्री हैं और मंत्री वे किसी एक वर्ग या सम्प्रदाय के नहीं पूरे राज्य के हैं. ऐसी राजनीतिक छुआछूत की बात कहकर क्या उन्होंने नहीं दर्शाया कि उनकी राजनीति की धुरी संकीर्ण और संकरी है? सवाल है कि इस तरह की सियासी और मजहबी छुआछूत क्या प्रजातान्त्रिक मूल्यों के अनुरूप है? क्या ये देश और समाज के लिए ये शुभ संकेत है?

बकौल आज़म खान ये बैठक दो घंटे चली. उन्होंने इस बैठक की अवधि पर भी आपत्ति जताई. इसका अर्थ है कि अब प्रदेश के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष किससे कितनी देर मिलेंगे और क्या बात करेंगे ये भी आज़म खान की राजनीतिक ज़रूरतें ही तय करेंगी?

अयोध्या विवाद में मुख्यमंत्री और मुलायम सिंह यादव से मध्यस्थता का अनुरोध करना भी कोई ऐसी बात नहीं जिससे आज़म खान इतने भड़क उठे. अगर ये अनुरोध उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष से नहीं होगा तो किससे होगा? उन्हें बताना चाहिए कि क्या वे अयोध्या विवाद को सुलझाने की कोशिश करने को सही नहीं मानते ? या फिर आज़म खान की राजनीति इस विवाद को लटकाये रखकर मुसलमानों को भडकाए रखने भर की है ताकि उनकी राजनीतिक रोटियां सिकती रहें.

यहाँ उनसे सवाल करना ज़रूरी है कि क्या वे मुसलमानों को सिर्फ़ अयोध्या विवाद जैसे भावनात्मक मुद्दों में ही अटकाए रखना चाहते है. क्यों नहीं वे अपनी क्षमता, ताकत और राजनीतिक कद  का उपयोग उनके विकास में करते? पिछले हफ्ते ही  मुझे आज़म खान के शहर रामपुर से गुजरने का अवसर मिला. पूरे शहर और वहाँ की सड़कों की हालत दयनीय है. मैंने ये तस्वीरें सार्वजनिक भी की थीं. वे चाहें तो फेसबुक पर जाकर खुद अपने शहर की ये तसवीरें देख सकते है उसका लिंक है  https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10151784493318252&set=pcb.10151784494888252&type=1&theater

२०१४ के चुनाव आने वाले हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि रामपुर की कमियों को छुपाने के लिए उन्होंने ये राजनीतिक तीर फैंका है. अगर वे अपने क्षेत्र पर थोड़ा ध्यान दें तो जनता का इससे भला होगा. पिछले लोकसभा चुनावों में उनके तमाम विरोध के बावजूद जया प्रदा वहाँ से चुनाव जीत गयीं थीं और वे हाथ मलते रह गए थे. इसका उन्हें बहुत मलाल है. कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी ये चिट्ठी दरअसल  “कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना” है ? उनकी ये राजनीति शायद उन्हें वोट ज़रूर दिला दे मगर क्या ये देश या राज्य के हित में होगा?

उमेश उपाध्याय
25 अगस्त 2013

#Communal Violence किश्तवाड यानि अच्छी वाली साम्प्रदायिकता ??

किश्तवाड की घटनाओं पर बुद्धिजीवियों की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है.लोग क्यों साम्प्रदायिकता को भी स्वीकार्य और अस्वीकार्य के बीच बांटकर देखते हैं? आप क्यों दोनों को बराबरी से बुरा नही बताते? नागरिकों को मज़हब के पलड़े पर तोलने का ये खेल बंद होना चाहिए.  अगर गुजरात के दंगे गलत थे तो उतने ही जोर से क्यों नहीं कहते कि गोधरा कांड भी अमानवीय और घोर निन्दनीय था....


सोचिये कि किश्तवाड जैसी घटना मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात या पंजाब में होती तो अभी क्या दृश्य होता? साम्प्रदायिकता के खिलाफ तकरीबन हर पार्टी ज़बरदस्त हो हल्ला मचा रही होती. इन राज्यों में राष्ट्रपति शासन की मांग कोंग्रेस से लेकर समाजवादी और साम्यवादी दल कर रहे होते. मगर जब किश्तवाड में वहाँ के अल्पसंख्यकों पर फिरकावाराना दहशतगर्दी का हमला हुआ तो आज भाजपा को छोडकर कोई राजनीतिक दल आवाज़ क्यों नहीं उठा रहा है? क्या वहाँ हिंसा में मारे गए लोग भारतीय नागरिक नहीं थे? आज क्यों नहीं बोलते हैं दिग्विजय सिंह? नाम तो कई हैं पर  उनका नाम इसलिए लिया कि वे अल्पसंख्यक हितों के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं. क्या किश्तवाड में हिंसा के शिकार अल्पसंख्यक उनकी हमदर्दी के काबिल नहीं हैं? या फिर उनका मज़हब इसके आड़े आ रहा है?

चलिये मान लिया जाए कि ये राजनीतिक दल मजबूर हैं. 2014  के आम चुनाव और जम्मू कश्मीर के चुनावों में उन्हें वोट लेने हैं इसलिए वो नहीं बोलेंगे मगर क्या बुध्दिजीवी वर्ग की भी ऐसी कोई मजबूरी है? क्या वे इसलिए चुप हैं कि किश्तवाड में अल्पसंख्यक वो नहीं जिन्हें वे परंपरागत रूप से अल्पसंख्यक मानते रहे हैं. तो क्या वे पहले नागरिकों का मज़हब देखेंगे और उसके बाद तय करेंगे कि उन्हें इस घोर साम्प्रदायिक और अलगाववादी हिंसा की निंदा करनी चाहिए या नहीं. ये कैसा सैधांतिकवाद है जो उन्हें इसकी निंदा करने से रोक रहा है ? और अगर सब जानते हुए भी वे चुप हैं तो क्या माना जाए कि वे कुछ दलों की राजनीतिक हित पूर्ति के साधन मात्र हैं और महज वे इन दलों के मुखौटे भर का काम कर रहें हैं.

किश्तवाड की घटनाओं पर बुद्धिजीवियों की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है. पहला सवाल है कि  धर्मनिरपेक्षता, सांविधानिक सेकुलरवाद और अल्पसंख्यक हितों को जीवन सिद्धांत की तरह पूजने वाले लोग क्यों  साम्प्रदायिकता को भी स्वीकार्य और अस्वीकार्य साम्प्रदायिकता के बीच बांटकर देखते हैं? क्या एक वर्ग के खिलाफ होने वाली हिंसा मान्य है वो इसलिए कि किश्तवाड में अल्पसंखयक हिंदू हैं मुसलमान नहीं?

सेकुलरवादी अक्सर कहते हैं कि एक पक्ष की साम्प्रदायिकता दूसरी साम्प्रदायिकता का पोषण करती है. ये कहना और दूसरी तरफ किश्तवाड जैसी घटनाओं पर चुप्पी क्या दर्शाती है ? ये भेद तो आप ही पैदा कर रहे हैं. आप क्यों दोनों हिंसाओं को बराबरी से बुरा नही बताते. अगर गुजरात के दंगे गलत थे तो उतने ही जोर से क्यों नहीं कहते कि गोधरा कांड भी अमानवीय और घोर निन्दनीय था.

क्या ये उचित है कि आप पूरे देश में विभिन्न मुद्दों पर जनहित का दावा करते हुए लड़ाई करेंगे मगर कश्मीर से विस्थापित हुए पंडितों के अधिकारों के लिए एक शब्द भी नहीं बोलेंगे? बंगलादेश से आये हुए गैरकानूनी घुसपैठियों के मानवीय अधिकारों के लिए आप संघर्ष करेंगे मगर अपने ही देश में अलगाववादियों द्वारा विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं के संविधान प्रदत्त अधिकारों के लिए कोई निर्णायक कदम नहीं उठाएंगे? ये कैसा अजीब विरोधाभास है?

साम्प्रदायिकता पर बहस लंबी और जटिल है. कई तर्क और पक्ष हैं. एक इतिहास भी है. मगर एक बात साफ़ है कि आप अगर पक्षपाती होंगे और सिर्फ़ एक तरफ़ झुकेंगे तो फिर आपके सेकुलरवाद को जब छद्म बताया जाएगा तो फिर आपको आपत्ति क्यों होनी चाहिए ? साम्प्रदायिकता को अच्छी वाली और बुरी वाली साम्प्रदायिकता में बांटना देश को बांटने जैसा है.

नागरिकों को मज़हब के पलड़े पर तोलने का ये खेल बंद होना चाहिए. हर हिन्दुस्तानी को सिर्फ़ हिन्दुस्तानी की नज़र से देखकर उसके साथ न्याय किया जाएगा तो ऐसा नहीं होगा. सांप्रदायिक हिंसा करने वालों से समान व्यवहार कानून के मुताबिक होना ज़रूरी हैं न कि वोट की खातिर अपराधी वर्ग का धर्म देखकर. इस नाते जो भी किश्तवाड की हिंसा के दोषी हैं उन्हें भारतीय विधान के अनुसार कड़ा दंड मिले मगर फिलहाल वहाँ के अल्पसंख्यक नागरिकों के घावों पर मलहम की ज़रूरत है.


उमेश उपाध्याय
11 अगस्त 2013

सवाल सिर्फ़ हिंदी का नहीं

बहस हिंदी और अंग्रेज़ी की कतई नहीं है सवाल सारी गैर अंग्रेज़ी भाषाओँ का हैं. अंग्रेजी अब एक खास तरीके से समाज में असमानता को और ज्यादा गहराने वाली भाषा बन गई है. ज्यों ज्यों इन्टरनेट का फैलाव हो रहा है कार्य व्यापार से भारतीय भाषाएँ सिमटती जा रहीं हैं.आज से पचास साल बाद क्या होगा अत्यंत समृद्ध और संपन्न भारतीय भाषाओँ का? क्या वे पुस्तकालयों तक सीमित नहीं रह जायेंगी?  



सीमा फोन पर जोर जोर से रो रही थी. मैं तुरंत हॉस्टल पहुंचा. उसे चुप कराया. खाना खिलाया. वार्डन से बात करके मैं वापस आकर सोचने लगा कि थोड़े दिन पहले ही  तो उसने इंजीनियरिंग में दाखिला लिया था. कितने उत्साह से अपने माँ बाप के साथ वो मेरे दफ्तर आई थी. छत्तीसगढ़ के सुदूर आदिवासी इलाके से आई सीमा ने बारहवीं कक्षा में 65 प्रतिशत अंक हासिल किये थे. फीस के पैसे के लिए परिवार ने पुश्तेनी ज़मीन का एक टुकड़ा बेचा था. पर इसका उन्हें कोई मलाल नहीं था वे तो बस बेटी का इंजीनियर बनने का सपना पूरा करने के लिए सबसे अच्छे कॉलेज मे एडमिशन चाहते थे. फीस का सारा पैसा नगद लाये थे. गांव के कोई दस बारह लोग उसे दाखिले के बाद रायपुर छोड़ने आये थे. चटक ज़रीदार गुलाबी कुर्ते और हरी पजामी में सीमा बहुत खुश लग रही थी. एक अजीब से स्नेह का नाता बन गया था उसका और मेरा.

मगर धीरे धीरे वह उदास रहने लगी. कक्षाओं से जी चुराने लगी. कभी बीमारी का बहाना तो कभी मन खराब रहने का. एक दिन फुर्सत में उसके साथ बैठा. पता पडा कि उसे क्लास में कुछ समझ नहीं आता. सहपाठियों के सामने उसकी हेठी होती है. उसकी दिक्कत थी कि वो स्कूल में हिंदी मीडियम से पढ़ी थी और इन्जीनियरिंग की पढाई अंग्रेज़ी में होती है. साल पूरा होते होते सीमा पीछे होती गई और फिर उसने कॉलेज छोड़ दिया ....

सीमा अकेली नहीं हैं जो सिर्फ़ भाषाज्ञान के कारण आगे की पढाई छोड़ने पर मजबूर हुई. जांच करने पर मालूम हुआ कि इन्जीनियरिंग जैसे प्रोफेसनल कोर्स बीच में छोड़ने और उनमें पिछड़ने वाले बच्चे विषयज्ञान से ज्यादा अंग्रेजी से घबराते हैं. अंग्रेजी की मार वो झेल नहीं पाते. स्कूली पढाई बीच में छोड़ने के कारण कई हैं पर कॉलेज छोड़ने के पीछे सबसे बड़े कारणों में भाषा की दिक्कत है. जहाँ विद्यालयों में पढाई मातृभाषा में वहीं उच्च शिक्षा ज़्यादातर अंग्रेजी मैं हैं.

देशभर के आंकडे देखे जाएँ तो स्कूलों में दाखिला लेने वाले कोई एक करोड ७० लाख बच्चे पढाई बीच में छोड़ देते हैं. कॉलेज पढाई बीच में छोड़ने वालों की संख्या भी लाखों में है. इसमें भी समाज के वंचित तबकों जैसे पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति  अनुसूचित जनजातियों के विद्यार्थियों की संख्या सबसे ज्यादा है. अंग्रेजी अब एक खास तरीके से समाज में असमानता को और ज्यादा गहराने वाली भाषा बन गई है.

ये बहस हिंदी और अंग्रेज़ी की कतई नहीं है सवाल सारी गैर अंग्रेज़ी भाषाओँ का हैं. भूमंडलीकरण की आंधी में देश में ही नहीं पूरे विश्व में अंग्रेज़ी का वर्चस्व और फैलाव बढ़ता जा रहा है क्योंकि कम्प्युटर की कोडिंग इसी भाषा में हो रही है. अंग्रेजी का वर्चस्व भयावह है. ज्यों ज्यों इन्टरनेट का फैलाव हो रहा है कार्य व्यापार से भारतीय भाषाएँ सिमटती जा रहीं हैं. ई मेल और एस एम एस पर जैसे जैसे लोग निर्भर होते जा रहे हैं अंग्रेजी सीखना ज़रूरी होता जा रहा है. आज मजबूरी है कि हिंदी टाइप करने के लिए भी रोमन स्क्रिप्ट की ज़रूरत पड़ रही है. ये बाज़ार की भाषा है और बाजार और रोज़गार इसी पर केंद्रित हो गया है. पर क्या आदमी की ज़िंदगी  सिर्फ़ पेट भरने तक ही सीमित है? हर भाषा से जुडी होती है संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, संस्कार और जीवन की एक शैली. आज अंग्रेजी का समर्थन करने वालों से पूछना चाहिए कि सब कुछ इस भाषा में होने के उपरांत हमारी इस समृद्ध धरोहर का क्या होगा ?

कल्पना कीजिये आज से पचास साल बाद की. क्या होगा अत्यंत समृद्ध और संपन्न भारतीय भाषाओँ का? जब सारा कार्य व्यापार और शिक्षा अंग्रेज़ी में होगी तो हमारी अपनी भाषाएँ – हिंदी, तमिल, बंगला, गुजराती, असमिया, मराठी, तेलुगु, कन्नड़ आदि का क्या होगा? क्या वे पुस्तकालयों तक सीमित नहीं रह जायेंगी.

हिंदी पर चल रही आज की बहस को इसलिए इसे सिर्फ़ आउटसोर्सिंग और  कालसेंटर से होने वाली आय से ही जोड़कर मत देखिये. इसे इस व्यापक सन्दर्भ में देखना ज़रूरी है अन्यथा ये मुद्दा भी रोज की चकल्लस वाली राजनीति में फंस कर रह जाएगा. इसीलिये इस बहस से राजनेताओं को बहुत दूर रखने की ज़रूरत है. क्योंकि पहले भी नेताओं ने वोट की राजनीति से जोड़कर हिंदी का बड़ा नुक्सान किया है. उनका ध्यान सदा से वोटों पर रहा है लोंगों पर नहीं. और भाषा का सवाल जुड़ा है लोंगों के वजूद से, उनकी भावनाओं से और उनकी अस्मिता से.


उमेश उपाध्याय
२८ जुलाई २०१३ 

Monday, August 5, 2013

#Durga Shakti Nagpal यानि अंधेर नगरी चौपट राजा


एक तरफ तो कोंग्रेस के प्रवक्ता कहते हैं “ मस्जिद की दीवार को गिराना ठीक  नहीं था” और दूसरी तरफ  सोनिया गांधी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखतीं हैं, लगता है कि जनता को इन्होने निरा उल्लू समझ रखा  है. अगर  मस्जिद सरकारी ज़मीन पर बन रही थी तो इसे गिराने के लिए कहना क्या गलत था? क्या अब अफसरों को नागरिक का मज़हब देखकर फैसले करने चाहिए?



दुर्गा शक्ति नागपाल पर एक तरफ तो कोंग्रेस के प्रवक्ता कहते हैं “ मस्जिद की दीवार को गिराना ठीक  नहीं था” और दूसरी तरफ  सोनिया गांधी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखतीं हैं, लगता है कि जनता को इन्होने निरा उल्लू समझ रखा  है. अगर इस मामले में सोनिया वाकई गंभीर होती तो वे कार्मिक मामलों के मंत्री वी नारायण सामी को बुलातीं और इस ईमानदार अफसर के मामले में तुरंत केंद्र से हस्तक्षेप करने को कहतीं. प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उसे मीडिया मे देने का उद्देश्य इस मामले में जनता के आक्रोश को शांत करना भर है.

दुर्गा शक्ति नागपाल को सस्पेंड करने के सरकारी कारण को देखें तो आज तक किसी नेता ने इस बात पर टिप्पड़ी नहीं की जिस मस्जिद की दीवार गिराने के कारण उन्हें हटाया गया वो मस्जिद गैर कानूनी थी कि नहीं. और अगर ये सरकारी ज़मीन पर बन रही थी तो इसे गिराने के लिए कहना क्या गलत था? ऐसा उच्चतम न्यायालय का आदेश है. अगर कोई भी सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमण करता है तो क्या अफसर को चुप रहना चाहिए? ऐसा नहीं कि सिर्फ़ मस्जिद के मामले में ही उन्होंने ऐसा किया. खबर है कि कुछ दिनों पहले एक मंदिर के मामले में भी उन्होंने यही कदम उठाया था. सवाल है कि अखिलेश यादव सरकार ने तब उन्हें क्यों सस्पेंड नहीं किया? क्या अब अफसरों को नागरिक का मज़हब देखकर फैसले करने चाहिए?

अब से कोई 130 साल पहले जब सन 1881 में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपना नाटक “अंधेर नगरी चौपट राजा टेक सेर भाजी टेक सेर खाजा” लिखा था तो वे अंग्रेज़ी कुशासन और अन्यायपूर्ण वयवस्था का मजाक उड़ा रहे थे. मगर किसे मालूम था कि भारत की आज़ादी के 63 साल बाद के हुक्मरानों पर भी वह कितना सही और सटीक बैठेगा ! सोचिये एक ईमानदार आई ए एस अफसर को इसलिए हटाया जाता है क्योंकि वो अवैध रूप से नदी से रेत की खुदाई कर रहे ठेकेदारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करता है. ये ठेकेदार बिना टैक्स दिए चोरी कर रहे थे. और बहाना लगाया जाता है एक धार्मिक स्थल की दीवार गिराने का जो खुद भी गैरकानूनी तौर सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करके बनाई गई थी.

मामला इतना साफ़ है कि इसमें जाँच की भी ज़रूरत नहीं. मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और यू पी ए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी सब जानते हैं कि असलियत क्या है मगर सुनवाई, रिपोर्ट मंगाने, सुलह-सफाई और चिठ्ठी का एक ड्रामा खेला जा रहा है ताकि ईमानदार अफसर लगातार अपमानित हो उसका स्वाभिमान टूटे. जान लीजिए, ये कार्रवाई सिर्फ़ दुर्गा शक्ति नागपाल के खिलाफ नहीं है बल्कि उन सब अफसरों के खिलाफ है जो निष्ठा के साथ अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे है. इसके बहाने उन्हें बताया गया है कि उन्हें देश में “कानून का शासन” नहीं लागू करना बल्कि हुक्मरानों और उनके चंपुओं के हर सही गलत आदेश का पालन करना है. देश की लूट में उन्हें मदद करना है नहीं तो जैसा कि समाजवादी पार्टी के एक स्थानीय नेता ने दावा किया कि कुछ मिनिटों में उन्हें उनकी औकात दिखा दी जायेगी.

कोंग्रेस पार्टी ने 1970 के दशक श्रीमती इंदिरा गांधी के काल में प्रतिबद्ध न्यायपालिका और प्रतिबद्ध नौकरशाही का सिद्धांत दिया था. आज एक बार फिर समय है कि ये स्पष्ट किया जाए कि ये प्रतिबद्धता किसके लिए होनी चाहिए संविधान और कानून के शासन के लिए या फिर राज काज करने वाले नेताओं के लिए. गठबंधन राजनीति और क्षेत्रीय दलों के बढते प्रभुत्व के इस दौर में राष्ट्रीय दलों जैसे कोंग्रेस और बीजेपी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे वोट बैंक की राजनीति से उपर उठकर व्यापक राष्ट्र हित में सोंचें.

दुर्गा शक्ति नागपाल प्रकरण ने देश को मौका दिया है कि अफसरशाही की भूमिका, अधिकार और उत्तरदायित्व एक बार फिर परिभाषित किये जाएँ. देश में अबतक कई प्रशासनिक सुधार आयोग भी गठित किये गए हैं. ज़रूरत है कि  बंद सरकारी बस्तों में पडी उनकी रिपोर्टों को खंगाला जाए और  प्रशासनिक सुधार लागू किये जाएँ ताकि ईमानदार अफसर निर्भीक होकर अपने संविधानिक दायित्वों का पालन कर सके और छुटभय्ये नेता निहित स्वार्थों के लिए अंधेर नगरी के चौपट राजा की तरह व्यवहार न कर सकें.

उमेश उपाध्याय
5 अगस्त 2013

Sunday, July 28, 2013

#TV Debates धारावाहिक तू तू मैं मैं

ये चकल्लस का दौर है. जुमलेबाजी, राजनीतिक चुहुल,अनर्गल प्रलाप, कुतर्क,  ही जैसे विमर्श  का ज़रिया बनकर रह गए हैं. ऐसा लगता है कि पूरा का पूरा "भारत निर्माण" और "राष्ट्र निर्माण" इस अनर्गल और अक्सर भद्दी बहस से ही संपन्न होगा? ये देश इतने भयंकर खतरों और चुनौतियों का सामना कर रहा है? पर कहीं भी वैकल्पिक सोच, नीतियां और मौजूदा एवं आने वाली  चुनौतियों से निपटने की रणनीति की दिशा पर विचार तक का संकेत नहीं दिखाई दे रहा है.



पिछले कुछ दिनों में ख़बरों की सुर्ख़ियों पर, टीवी की चर्चाओं, फेसबुक और ट्विटर पर नज़र डाली जाये तो क्या दिखाई देता है; “नरेन्द्र मोदी के इंटरव्यू में दिए गए एक उदाहरण पर अनवरत चर्चा”, “इंडियन मुजाहिदीन का गुजरात के दंगों के कारण पैदा होना”, “भाजपा की नई टीम”, “मुलायम सिंह को सीबीआई से संभावित छुटकारा”, "सलमान शाहरुख का मिलाप" और "दिग्विजय सिंह का मीनाक्षी नटराजन को टंच माल कहना" आदि. इन्हीं घटनाओं पर नेताओं की लगातार अतार्किक बहस और सवाल जबाब. यूँ लगता है जैसे ये चकल्लस का दौर है. जुमलेबाजी, राजनीतिक चुहुल,अनर्गल प्रलाप, कुतर्क,  ही जैसे विमर्श  का ज़रिया बनकर रह गए हैं.

एक तरफ ये वाग्विलास है तो दूसरी और आम आदमी की स्थितियां बद से बदतर होती जा रहीं है. चीन हमें आये दिन हमारी सरज़मीं पर आकर धमका रहा है. देश का आर्धिक ढांचा चरमरा रहा है और रुपये की कीमत तेज़ रफ़्तार से गिरी है. नक्सल हिंसा की मार लगातार घातक होती जा रही है. पाकिस्तान आयोजित आतंकवादी घटनाएं कम नहीं हुईं हैं. विदेश नीति के खतरे अलग हैं. अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद तालिबान से निपटने की क्या रणनीति होगी इस पर क्या ज़िम्मेदार लोगों का ध्यान है?  उधर कुछ नेताओं में नेतिकता के पतन,  प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार से लोग त्रस्त हैं. उत्तराखंड में तबाही,  मध्य प्रदेश के एक पूर्व मंत्री की रंगरेलियां और बिहार में दिन का भोजन खाने से हुई बच्चों की मौत इनके ताज़ा उदाहरण हैं.

ख़बरों पर हो रही बहस में हिस्सा लेने वाले कोई साधारण लोग नहीं बल्कि देश के बड़े लोग हैं जिनकी प्रतिष्ठा अच्छे वक्ताओं और विचारकों में होती हैं. जब ये बात हमारे ध्यान में आ सकती है तो निश्चय ही ये विचारवान लोग भी इसे समझते होंगे की जिन मुद्दों को लगातार हमारे सामने परोसा जा रहा है वे मुद्दे देश के मुद्दे नहीं हैं. इनसे सनसनी तो पैदा की जा सकती है पर उन समस्याओं से ये कोसों दूर हैं जिन पर देश के ध्यान की ज़रुरत है.

पर आज जैसे सारा विमर्श मुद्दों पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत हमलों और जुम्लेबाजियों पर आकर टिक गया है. ऐसा लगता है कि पूरा का पूरा "भारत निर्माण" और "राष्ट्र निर्माण" इस अनर्गल और अक्सर भद्दी बहस से ही संपन्न होगा? लगता ही नहीं कि ये देश इतने भयंकर खतरों और चुनौतयों का सामना कर रहा है? पर कहीं भी वैकल्पिक सोच, नीतियां और मौजूदा एवं आने वाली  चुनौतियों से निपटने की रणनीति की दिशा पर विचार तक का संकेत नहीं दिखाई दे रहा है.

सोचने की बात है की ऐसा क्यों हो रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं की जानबूझ कर हमारा ध्यान भटकाया जा रहा हो? २०१४ का चुनाव महत्वपूर्ण चुनाव है क्योंकि इसमें फैसला होना है की यूपीऐ-2 की प्रशासनिक अक्षमताओं, भ्रष्टाचार, नीति हीनता और आर्थिक नीतिओं के दिवालियेपन को क्या देश जारी रहने देगा या एक स्पष्ट जनादेश देकर एक  प्रभावी नेतृत्व को चुनेगा?

कभी कभी लगता है कि देश के नेताओं की ये शब्दिक कुश्ती और धींगामुश्ती जानबूझकर एक अफीम की तरह लोंगों को परोसी जा रही है कि तुम देखो और मज़ा लो इस सार्वजनिक गालीगलौच का.  भूल जाओ कि गंभीर समस्याओं से निपटने के लिए गहरी सोच और कड़ी मेहनत की ज़रुरत होती है.  अगर ऐसा है तो कहना पड़ेगा कि देश के दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों का नेतृत्व भारी मुगालते में है. असल बात तो ये है कि ये जो लगातार  “तू तू मैं मैं का धारावाहिक” चल रहा है उससे लोग अब उकता गए हैं. सिर्फ अच्छा जुमला बोलकर देश नहीं चलाया जा सकता और तुलसीदास के शब्दों में “गाल बजाने से ही” साबित नहीं हो जाता की अच्छा पंडित कौन है. या कहा जाए कि अच्छा नेता कौन है.

उमेश उपाध्याय
२२ जुलाई २०१३

Monday, July 22, 2013

#Corruption पैसे का रंग और समाज में सडांध

अपने देश में चोर और बेईमान वो है जो पकड़ा जाए, और उससे पहले समाज ने मानो सबको जैसे इमानदारी का लाइसेंस दे रखा है कि जाओ कैसे भी हो पैसा कमाओ. जब तक न पकडे जाओ फिक्सिंग और सेटिंग करते रहो, चाहे वो क्रिकेट हो, राजनीति या फिर काम धंधा. घर परिवार और समाज में न सिर्फ़ तुम्हे अपनाया जाएगा बल्कि सर आँखों पर बिठाया जाएगा. 

पैसे का रंग और समाज में सडांध
गुरुनाथ मय्य्प्पन, के श्रीसंथ, अजीत चंदालिया, अंकित चव्हाण, बिंदु दारासिंह,  पवन बंसल, ए राजा, सुरेश कलमाड़ी, अब्दुल करीम तेलगी, हर्षद मेहता, केतन पारिख ....... एक लंबी श्रृंखला है ऐसे हिंदुस्तानियों की जो पैसे के रंग में फर्क नहीं करते. उनके लिए पैसा कैसा भी हो अच्छा है. उसके लिए  इन्हें कुछ भी कर गुज़रना नागवार नहीं है. नैतिकता-अनैतिकता, कानूनी-गैरकानूनी और सही-गलत के फर्क को इन्होने कब का छोड़ दिया है. जब इन्हें अपनी और परिवार की मान मर्यादा का ही ध्यान नहीं तो देश की मान मर्यादा की तो बात छोड़ ही दें तो अच्छा है.

देश की मान मर्यादा की बात हमने इसलिए की क्योंकि इनमें से कई ने उसकी रक्षा करने की कसम खाई थी. याद कीजिये, भारत की जर्सी पहने गर्व से सीना उठाये कितनी बार के श्रीसंथ ने राष्ट्रीय गान गाते हुए भारत माता की वंदना करते हुए कहा था “तव शुभ आशिष मागे”. सांसद और भारत का मंत्री बनते हुए कितनी बार राष्ट्रपति भवन और संसद भवन में कितने बंसलों, राजाओं और कल्माडियो  ने “सच्चे मन और शुद्ध अन्तःकरण से भारत के संविधान की” मर्यादा अक्षुण्ण रखने और उसका पालन करने की कसम खाई थी. यकीन कीजिये कि इसके बाद भी इन्हें मौका मिला तो उतनी ही बेशर्मी से ये फिर खड़े होंगे सीना तान के. ये थी इस किस्म के लोंगों की दूसरी विशेषता.
एक और खासियत है इस किस्म के लोंगों में - वो ये कि इनमें से कोई भी किसी मजबूरी के कारण बेईमान नहीं बना. क्रिकेटर श्रीसंथ को सिर्फ़ आई पी एल में ही खेलने के लिए सालाना 681000 अमेरिकी डॉलर यानि तीन करोड चौहत्तर लाख रुपये (3,74,55000) मिलते रहे  हैं. ये महीने का इकतीस लाख से ज्यादा बैठता है. अर्थात पूरे साल भर तक रोज का एक लाख से भी ज्यादा ! पवन बंसल भी करोंड़ों में खेलते हैं. बाकी तो अरबोँ में खेलने वाले लोग थे. लालच और सिर्फ़ लालच इनकी फितरत है.

लेकिन इन बेईमानों को इतना बेईमान बनाने में हमने भी कोई छोटी भूमिका नहीं अदा की. सोचिये क्या सचमुच हमारे समाज में ईमानदारों की इज्ज़त है? ज़रा अपने आस पास, परिवार, गांव, मोहल्ले और शहर में नज़र दौडाइये. जो भी रिश्तेदार या दोस्त पैसेदार है क्या उसके बारे में हम कभी पूंछते भी हैं कि वो पैसा कैसे लाया? बल्कि उल्टा है. कई स्थानों पर तो बड़े गर्व से पूंछा जाता है “उपर का कितना कमा लेते हो?” क्या हम पैसे वाले नेताओं, अफसरों और व्यापारिओं को बड़े जतन से मोहल्ला समितिओं, धार्मिक स्थानों और उत्सव समितियों के अध्यक्ष नहीं बनाते? उनके साथ खिंचाए फोटुओं को बड़े मान के साथ अपने घर में (और अब फेसबुक मे) नहीं सजाते? क्या तब हम पूंछते हैं कि ये धन तुमने कहाँ से कमाया?

और तो और बी सी सी आई के तमाम गडबड घोटालों और आई पी एल की फिक्सिंग जाहिर होने के बाद भी क्या दर्शकों की भीड़ कम हुई? अपने पद की ज़िम्मेदारी से सिर्फ़ “अलग हुए” स्वनामधन्य श्रीनिवासन इस बात को अपने पक्ष में लेकर जोर जोर से कहा कि फिक्सिंग के मामले के बाद भी आई पी एल के फ़ाइनल में दर्शक तो भर भर के आये. इसी कारण क्रिकेट बोर्ड का श्रीनिवासन को पद से सिर्फ़ अलग रखने जैसा स्वांग भी अपने देश में चल जाता है.

असलियत तो ये है कि अपने देश में चोर और बेईमान वो है जो पकड़ा जाए, और उससे पहले समाज ने मानो सबको जैसे इमानदारी का लाइसेंस दे रखा है कि जाओ कैसे भी हो पैसा कमाओ. जब तक न पकडे जाओ फिक्सिंग और सेटिंग करते रहो, चाहे वो क्रिकेट हो, राजनीति या फिर काम धंधा. घर परिवार और समाज में न सिर्फ़ तुम्हे अपनाया जाएगा बल्कि सर आँखों पर बिठाया जाएगा. ज़रा सोचिए जब समाज की सोच में ही पैसे का सिर्फ़ एक रंग हो गया है तो फिर इस बेईमानी और क्रिकेट  बोर्ड के गडबड घोटाले पर इतना हो हल्ला क्यों? जब पूरे समाज की सोच में इतनी सडांध हैं तो फिर हम क्यों अपेक्षा करते हैं इन मौकापरस्त और लालची व्यक्तियों से इमानदारी और मर्यादा पालन की. चमत्कार की उम्मीद में हम कभी किसी जयप्रकाशनारायण की तरफ देखते हैं तो कभी किसी  अन्ना की तरफ. कभी सोचते हैं कि कोई और जादू की छड़ी चलाएगा और भ्रष्टाचार छूमंतर हो जाएगा. पर एक छोटा सा सबक भूल जाते हैं कि जो कुछ करना है हमीं को करना है. लूटपाट के धंधे में ये सब तो चोर चोर मौसेरे भाई हैं.

उमेश उपाध्याय

Wednesday, July 10, 2013

#Kedarnath Tragedy शर्म आती है

क्या लोगों की लाशों को इसलिए चील कौवों को खाने के लिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि वो आम हिन्दुस्तानी  तीर्थयात्री हैं और सीधे सीधे एक वोट बैंक का हिस्सा नहीं हैं?


उत्तराखंड में आज भी आम भारतीय नागरिकों की लाशें सड रहीं हैं. सैकड़ों हिन्दुस्तानी आज भी अपने लापता परिजनों के लौट आने की उम्मीद में दर दर भटक रहे हैं. भयानक आपदा में किसी तरह बच गए उत्तराखंड के हजारों लोग आज भी बिना किसी सहायता के दूरदराज के अपने गावों मे किसी तरह ज़िंदगी की आस लगाए दिन काट रहे हैं. मगर क्या आज  अखबार के पन्नों, टी वी की चर्चाओं और इन्टरनेट पेजों को देखकर ऐसा लगता हैं की इस देश का एक बड़ा हिस्सा इस भयानक विपदा के दौर में हैं? और उससे पीड़ित जिनकी संख्या लाखों में हैं देश के कोने कोने परेशान हैं? 


शासकीय दल कोंग्रेस का तो क्या कहा जाए? उसके स्वनामधन्य नेतागण हर जगह साम्प्रदायिकता का भूत तलाश रहे हैं. पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह ने तो बोधगया मंदिर के बम धमाकों को भी नहीं छोडा. वे ट्वीट करते हैं “ मोदी ने बिहार भाजपा कार्यकर्ताओं को नितीश को सबक सिखाने को कहा और अगले दिन ही बोधगया के महाबोधि मंदिर में बम धमाके हो गए. क्या इनमें कोई संबंध है? मुझे नहीं मालूम....” अरे आपको नहीं मालूम तो छोड़ दीजिए न. आतंकवादी घटनाओं पर राजनीति क्यों?  

इस  सरकार की व्यस्ततायें तो अजीब हैं. यू पी ए को लग रहा है कि कहीं चुनाव की गाड़ी निकल न जाए तो उसने संसद के सत्र का इंतज़ार भी नहीं किया और अध्यादेश के सहारे खाद्य सुरक्षा बिल ले आयी. सोनिया और राहुल गाँधी ने भी एक बार रस्म अदायगी करके दोबारा देखने की कोशिश नहीं की कि क्या हाल हैं उत्तराखंड में बचे खुचे लोंगों का.


हिंदू हितों की झंडाबरदार भारतीय जनता पार्टी भी व्यस्त है अगले आम चुनाव की तैयारी में या फिर उसके नेता एक दूसरे को निपटाने में लगे हुए हैं. एक दूसरे की सीडी बनाने से उन्हें फुर्सत कहाँ है? मध्य प्रदेश का प्रकरण हम सबके सामने है. पार्टी का संसदीय बोर्ड व्यस्त है अगले चुनाव की रणनीति बनाने में. अरे इतनी जल्दी क्या है? इस बड़ी आपदा के बाद कुछ इंतज़ार तो हो सकता था? ऐसा लगता है कि पार्टी के अनुसार उत्तराखंड से विपदा निपट गई है.


उधर माकपा इशरत जहान के परिवार के सदस्यों को लेकर इधर उधर घूम रही है और नरेन्द्र मोदी का इस्तीफ़ा माँग रही है. पूरे  देश में इशरत के मामले में जैसे एक सियासी फूटबाल खेला जा रहा है. टीवी की चर्चाओं को देखिये किस तरीके से सीबीआई और आई बी को एक दूसरे के सामने खड़ा किया जा रहा है? ज़रा पार्टियों के नेताओं से पूँछिये कि क्या सारी संस्थाओं को अपने वोट बैंक के खेल में कुर्बान कर देंगे? इशरत के मामले में सच ज़रूर खोजिये मगर उनसे पूंछा जाना चाहिए कि  क्या यही एक एनकाउंटर देश में हुआ है पिछले सालों में? क्या ये सही नहीं है कि आतंकवाद के खिलाफ चाहे किसी भी सरकार रही हो - पंजाब, जम्मू कश्मीर या फिर असम – क्या सिर्फ़ रुलबुक से काम किया है विभिन्न राज्य सरकारों ने? याद रखने की बात है कि ये सरकारें ज़्यादातर कोंग्रेस की रही हैं.


इशरत जहान एनकाउंटर, २०१४ के चुनाव, खाद्य सुरक्षा बिल और इन सब पर होने वाली राजनीति- सब ठीक है. मगर जब घर में गमी हो और आफत पडी हो तो इन बातों को पीछे छोडा जाता है. मुद्दा है कि इतनी बड़ी त्रासदी के बाद देश की बड़ी पार्टियों,  मीडिया और बुद्धिजीवी वर्ग की प्राथमिकताएं क्या हैं? 


मुझे शर्म आती है ये देखकर कि इस विपदा के महौल में भी सब लगे हैं अपने अपने स्वार्थ में. पूरे देश में जैसे संवेदनशीलता की कमी हो गई है. नहीं तो क्यों किसी बड़ी पार्टी के बड़े नेता ने उत्तराखंड में डेरा जमाया और कहा कि स्थति सामान्य होने तक वह तीर्थ्यात्रिओं के लिए कार्य करेगा? क्यों मीडिया ने भी सियासी पैतरेबाजिओं की ख़बरों से दूर होकर इस त्रासदी के फोलोअप को उस शिद्दत के साथ नहीं लिया जिस पैमाने पर तबाही हुई है? क्या लोगों की लाशों को इसलिए चील कौवों को खाने के लिए छोड़ देना चाहिए क्योंकि वो आम हिन्दुस्तानी  तीर्थयात्री हैं और वे सीधे सीधे एक वोट बैंक का हिस्सा नहीं हैं?  

उमेश उपाध्याय  
८ जुलाई १३

Saturday, July 6, 2013

#Dhoni उत्तराखंड : संवेदनाओं की मौत

भारतीय क्रिकेट  कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने पिछले दिनों  इंग्लॅण्ड के एजबेस्टन में चैम्पियन ट्रोफी लेते वक़्त एक शब्द भी उत्तराखंड की भीषण त्रासदी के बारे में नहीं बोला. हालांकि उनका पैतृक गांव उत्तराखंड के अल्मोड़ा में ही है. न ही इतने बड़े हादसे के बाद  भारतीय टीम ने मैच के दौरान मृत तीर्थयात्रियों से सम्वेदना व्यक्त करने के लिए कोई काली पट्टी बांधी. सोचिये अगर मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में कोई छोटा मोटा हादसा भी हुआ होता तो किस तरह सारे खिलाडी और बीसीसीआई शोक मना रहे होते !

ऐसा नहीं कि इस भयानक त्रासदी के प्रति संवेदनहीनता सिर्फ़ क्रिकेटरों तक सीमित है. राहुल गांधी को त्रासदी के आठ दिन बाद हादसे की सुध आई क्योंकि उससे पहले वे विदेश में अपना जन्मदिन मनाने में व्यस्त थे. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पहले तो हादसे के तुरंत बाद दिल्ली आ गए और फिर उनकी स्विट्जरलैंड यात्रा की कहानियां चलती रहीं.

आज ही मैंने फेसबुक पर एक बड़ी मल्टी नेशनल विज्ञापन एजेंसी के अधिकारी की टिप्पडी पढ़ी की अगर उत्तराखंड के दुकानदारों नें मुसीबत में पड़े तीर्थयात्रियों से एक रोटी के २५० रूपये और पानी की बोतल के ३०० रुपये माँग भी लिए तो क्या बुरा किया. यह तो माँग और पूर्ती का नियम है. उसके माल की माँग ज्यादा थी सो उसने ज्यादा कीमत ले ली !!

और तो और छोटी मोटी घटनाओं को इवेंट बनाकर बेचने वाले टीवी चेनलों के बड़े बड़े एंकर/एडिटर  जो कि हर जगह “घटना स्थल से खुद लाइव” करने पहुंचते रहे है त्रासदी के हफ्ते भर बाद भी अपने स्टूडियो तक सीमित हैं क्योंकि देश के गांव गांव से आये हुए इन तीर्थ्यात्रिओं की न तो कोई एक आवाज़ हैं न ये टीआरपी बढाने वाले है. इसलिए इस हादसे की विभीषिका कितनी ही तीव्र क्यों न हो, मरने वालों का आंकडा कई हजारों में क्यों न पहुच जाए, लोगों की तकलीफें कितनी गहरी क्यों न हों – जब तक ये बाज़ार में बेचने लायक नहीं है तब तक इसका कोई मोल नहीं है.

सारी दिक्कत यही है. पिछले दो दशकों में देश में हर चीज़ का बाजारीकरण हो गया है. हमारे रिश्ते नाते, भावनाएँ, व्यवहार, हादसे, उत्सव - सब जैसे अब नफा नुक्सान की तराजू में तोले जाते हैं. सब “प्रोफेशनल” हो गया है – किसका किससे कितना फायदा और किसका किससे कितना काम? अब इस विशुद्ध धंधेबाजी के दौर में ये तीर्थयात्री न तो किसीका बाज़ार हैं और न ही वोट बैंक. तो फिर इनके लिए कौन बेवजह परेशान हो?

यही अगर किसी एक वोट बैंक के साथ हुआ होता तो हम देखते कि किस तरह हर पार्टी अपने झंडे लगाकर गांव गांव में “सेवा कार्य “ में जुटी होती? किस तरह पार्टिओं ने अपने संसाधन झोंक दिए होते. बड़े बड़े नेता किस तरह वाहन तम्बू गाड़ कर बैठ जाते. ये कम त्रासदी नहीं है कि हादसे के पहले कुछ दिनों में उत्तराखंड में राहत और बचाव कार्यों के लिए हेलिकोप्टरों की बेहद कमी थी. अगर देश के बड़े राजनीतिक दल कोंग्रेस और भाजपा ही उन हेलिकोप्टरों और छोटे विमानों को ही, जिनमें इनके नेता घूमते रहते हैं प्रदेश में भेज देते  तो कई जाने बचाई जा सकती थी.

आजादी के बाद देश मे आई बड़ी और भयानक प्राकृतिक विपदाओं में से एक है उत्तराखंड की ये विपदा. इसका घाव और भी गहरा है क्योंकि देश के तकरीबन हर राज्य से कोई न कोई इसका शिकार  ज़रूर हुआ है. मरने वालों की संख्या हज़ारों में हो सकती हैं. संपत्ति के नुक्सान का अंदाज़ा लगाने में बहुत समय लगेगा. अगर ये राष्ट्रिय विपदा नहीं है तो क्या है? पर विचित्र बात ये है कि देश का सत्ता प्रतिष्ठान सिर्फ़ सेना और अफसरों के हाथ बचाव और राहत कार्य छोड़ कर बैठा है. उसकी अपनी संवेदनाएं जैसे मर गई हैं.

वैसे यहाँ मैं क्रिकेटर शिखर धवन की तारीफ करना चाहूँगा कि ने अपना गोल्डनबैट पुरस्कार उन्होंने हादसे के शिकार तीर्थयात्रियों को समर्पित किया ! धन्यवाद शिखर! तुमने अभी उम्मीदों को जिंदा रखा है!

उमेश उपाध्याय
२४ जून २०१३

Sunday, June 30, 2013

#Corruption रिश्वत के लड्डू

पिछले कई साल से भ्रष्टाचार के नए कारनामे रोज राज्यों और केंद्र दोनों में ही  जनता के सामने आते रहे हैं. पर जन लोकपाल का अभी भी कहीं दूर दूर तक पता नहीं है. सरकार इस मुगालते में है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है.



राजस्थान के टोंक ज़िले में स्वास्थ्य विभाग के दो कर्मचारियों को एक साल की सजा सुप्रीम कोर्ट ने दी है. ये सजा भ्रष्टाचार  निरोधी कानून यानि Anti Corruption Act  के तहत पिछले दिनों सुनाई गयी.  उनकी गलती इतनी भर थी कि उन्होंने अठारह साल पहले एक मरीज़ से डिस्चार्ज पर्ची देने के एवज में “मिठाई” मांगी थी. मरीज़ ने जब उन्हें सचमुच दो किलो लड्डू ला कर दिए तो कर्मचारियों ने “मिठाई” का असली मतलब समझाया. यानि लड्डुओं के बदले २५ रुपये मांगे. मरीज़ ने उन्हें भ्रष्टाचार निरोधक शाखा से रंग हाथों पकडवा दिया.

लड्डू रिश्वत का मामला १९९४ का है. उस वक़्त का जब देश में नरसिम्हा राव सरकार थी और सेंट किट्ट्स, हवाला, सांसद रिश्वत कांड और हर्षद मेहता जैसे बड़े बड़े मामले हवा में थे. सवाल है कि २५ रूपए की कीमत के दो किलो लड्डुओं के लिए मुकुट बिहारी और कल्याण लाल नाम के दो अदने कर्मचारिओं को सुप्रीम कोर्ट १८ साल बाद भी सजा देता है पर  बड़े मामलों पर जब हल्ला मचता है  तो न्यायालय से लेकर कार्य पालिका तक असहाय और पंगु नज़र आते हैं. लीपा पोती करते हैं. और तो और जब अन्ना हजारे जैसे समाज सेवी भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ताकतवर जन लोकपाल लाने के लिए मुहीम चलाते हैं तो ये सरकार उन्हें और उनके साथियों को ही बदनाम करने कि शाजिश करती है. हल्ला मचाया जाता है कि जन लोक पाल की माँग संसद की स्वायतत्ता और लोकतन्त्र पर हमला है ? संसद में सरकार की शह पर विधयेक फाड़ दिया जाता है. हमें समझाया जाता है कि हमारी सांवैधानिक वयवस्था में जन प्रातिनिधि सबसे ऊपर हैं ! अर्थात उन्हें चुनने वाली जनता से भी ऊपर. सारे तर्कों का लब्बोलुआब ये कि जैसा चल रहा है चलते रहने दो. अगर जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा व्यव्स्था में बैठे लोग खा रहे है तो सवाल मत करो !

ये संयोग नहीं है कि पिछले दो तीन साल में भ्रष्टाचार के खिलाफ देश मैं कई आन्दोलन हुए हैं. अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने आन्दोलन के तहत दिल्ली के रामलीला मैदान में अनशन पर बैठे थे. उस समय पूरे देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ लोग एकजुट हुए थे. ये लोग देश के हर प्रान्त में, हर कोने में बिना जात , धर्म, संप्रदाय, लिंग, उम्र, सामाजिक और आर्थिक हैसियत के भेद के इस उम्मीद से अनशन में शामिल हुए थे कि अन्ना के इस अनशन से सरकार और राजनीतिक पार्टिया जागेंगी और एक ऐसा कानून लाएंगी जिससे भ्रष्टाचार के राक्षस से देश को मुक्ति मिलेगी. बाबा रामदेव ने भी दिल्ली में अनशन किया था.

सवाल ये है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इतना आक्रोश होते हुए भी आज तक उसके खिलाफ कोई मारक कदम क्यों नहीं उठाया गया? सारे सत्ताधारी – बिना किसी दलीय  अपवाद के इस लूट की नदी में मिलकर हाथ साफ़ करते रहे हैं. इस ‘हमाम में सब नंगे’ हैं. भ्रष्टाचार का जंग पूरे समाज की जड़ों को काट रहा है. पिछले कई साल से भ्रष्टाचार के नए कारनामे रोज राज्यों और केंद्र दोनों में ही  जनता के सामने आते रहे हैं. पर जन लोकपाल का अभी भी कहीं दूर दूर तक पता नहीं है. सरकार इस मुगालते में है कि जनता की याददाश्त कमजोर होती है.

लोग तंग आ चुके हैं. आम आदमी को रोज अपने छोटे मोटे काम करवाने के लिये ‘मुटठी गर्म’ करनी पड़ती है या साहब की  ‘मिठाई या चायपानी’ का इंतजाम  करना पडता है. इसलिए ये अच्छा हुआ कि दो किलो लड्डुओं के लिए मुकुट बिहारी और कल्याण लाल को एक साल जेल की सजा हुई पर मैं पूछना चाहता हूँ इस देश के प्रधान मंत्री से, सुप्रीम कोर्ट से और संसद से कि आप लोग कब तक टाल सकेंगे भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े क़दमों को ? २५ रुपये के लिये दो किलो लड्डुओं कि रिश्वत के दोषियो पर ही मत रुकिए. ऐसा इंतजाम कीजिये कि हर भ्रष्टाचारी सलाखों के पीछे हो चाहे वो प्रधानमंत्री हो या बड़ा अफसर या फिर जज. नहीं तो लड्डू रिश्वत कांड में ये सजा हास्यास्पद बन कर रह जायेगी. क्या “समरथ को नहि दोष गुसाईं” की कहावत अपने इस विकृत रूप में ऐसे ही चरितार्थ होती रहेगी? क्या सिर्फ़ २५ रुपये की रिश्वत लेने वाले ही जेल जायेंगे और जनता का अरबोँ रुपये खा जाने वाले डकार भी नहीं लेंगे?   

Saturday, June 29, 2013

भ्रष्टाचार और छोटे राज्य


भ्रष्टाचार इन राज्यों की सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरा है. ये बात नहीं है कि देश के अन्य हिस्सों में भ्रष्टाचार नहीं हैं पर जिस पैमाने और तरीके से छोटे राज्यों मे ये समस्या आई है कई बार उससे हैरत हो जाती है!!


ये अब देश में बहस का मुद्दा नहीं रह गया है कि छोटे राज्य होना ठीक है या नहीं. हरियाणा और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने जिस तरह से देश की विकास यात्रा में हिस्सा लिया है उससे साफ़ है कि अगर इन राज्यों में राजनीतिक स्थिरता और थोडा भी उद्देश्यपूर्ण नेतृत्व रहे तो फिर पीछे मुड़कर देखने की ज़रूरत नहीं है. मगर हर विकास नयी परिस्थितियों, संभावनाओं और संकटों को जन्म देता है. अब जो चुनौतियाँ इन राज्यों के सामने आ रहीं हैं या आ सकती है उनका आकलन और निराकरण  अगर आज नहीं हुआ तो जिन उद्देश्यों को लेकर इनका गठन हुआ था वही खतरे में पड़ जाने की आशंका है.

भ्रष्टाचार इन राज्यों की सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरा है. ये बात नहीं है कि देश के अन्य हिस्सों में भ्रष्टाचार नहीं हैं पर जिस पैमाने और तरीके से छोटे राज्यों मे ये समस्या आई है कई बार उससे हैरत हो जाती है. याद कीजिये कि किस तरीके से झारखण्ड में मधु कोड़ा ने मुख्यमंत्री के तौर पर दो साल से भी कम समय में ४००० करोड रूपये का गबन किया या फिर किस तरीके से गोवा की खानों से अवैध खनन होता रहा. और किस तरीके से तकरीबन हर राज्य में रियल इस्टेट कारोबारिओं के साथ मिलकर लूट का धंधा चल रहा है. इनमें राज्यों के मुख्यमंत्रिओं, मंत्रिओं से लेकर रोबर्ट वाड्रा तक के नाम सामने आते रहे हैं. कोंग्रेस हो या बीजेपी कोई भी पार्टी इससे अछूती नहीं है.

हुआ यों है कि एक बार पूर्ण बहुमत मिलने के बाद इन राज्यों का नेतृत्व एकदम निरंकुश सामंतों की तरह व्यवहार करने लगता है. कोई भी नियम या कानून ये मानने को तैयार नहीं. जी हुजूरी और चापलूसी करने वाले अफसर ही इन राज्यों में महत्वपूर्ण पद पाते हैं. हरियाणा में चौटाला पिता पुत्र नें किस तरह से शिक्षा विभाग में मनमानी की और अब वो जेल में हैं ये सब जानते हैं.

इन राज्यों में राज नेता ही निरंकुश और भ्रष्ट नहीं हुए हैं. नव धनाड्यों का एक ऐसा वर्ग भी पैदा हुआ है जो सारे संसाधन अपने हाथ में ले लेना चाहता है. “व्यापारी-भ्रष्ट्र राजनेता-अफसरों” की एक लालची तिगड़ी पैदा हो गई है जो विकास योजनाओं में प्राप्त होने वाले धन, प्राकृतिक संसाधनों, सरकारी ठेकों और हर उस आयोजन को कंट्रोल करती है जहाँ पैसा या ताकत है. इस वर्ग को कोई नियम कोई कायदा मान्य नहीं. अपनी पंसन्दीदा चीज़ के लिए ये किसी भी हद तक जा सकते हैं. हरियाणा के सिरसा में जूते की दूकान से एयरलाइन्स का मालिक और राज्य सरकार में मंत्री बना गोपाल कांडा इसका एक नमूना भर है.

छोटे राज्यों के शहरों में किसी भी स्तर पर होने वाले विरोध को डरा धमका कर या लालच देकर दबा दिया जाता है. बड़े शहरों की तरह इन राज्यों में ऐसी सिविल सोसायटी नहीं बन पाई है जो “व्यापारी-भ्रष्ट्र राजनेता-अफसरों” की इस लालची और निरंकुश तिगड़ी पर थोडा भी नैतिक नियंत्रण रख पाए. इस कारण से शहरीकरण और औद्योगीकरण से उत्पन्न हुए बड़े खतरों जैसे जिहादी आतंकवाद, जंगलों से शहरों की और बढते लाल गुरिल्लाओं के आतंक, शहरों में फ़ैल रहे स्लम, संसाधनों के असंतुलित वितरण और इनके साथ पैदा होने वाली प्रशासनिक जटिलताओं की तरफ किसीका ध्यान ही नहीं है. यही कारण है कि छत्तीसगढ़ मे बस्तर की दरभा घाटी में कोंग्रेस नेताओं की नृशंस हत्या के पन्द्रह दिन बाद भी न तो राज्य कोंग्रेस और न ही राज्य की भाजपा सरकार एक नयी नीति बनाने का संकेत भी दे पाई है. एक और मोहल्ले के नेताओं की तरह कोंग्रेसी नेता एक दूसरे पर शब्दवाण चला रहे हैं और राज्य सरकार भी हाथ पर हाथ धरे न जाने किसका मुँह ताक रही है. भाजपा को भी इस मुद्दे पर कोंग्रेस नेताओं के खिलाफ गली मोहल्ले में चलने वाली बचकानी  अफवाहों पर राजनीतिक रोटी सेकने में मज़ा आ रहा है. जबकि समस्या कितनी गंभीर है ये सबको मालूम हैं.

कुल मिलाकर छोटे राज्यों के सामने आने वाली प्रशासनिक, सुरक्षागत और संसाधनों के संतुलित  वितरण की चुनौतियाँ बेहत जटिल और विषम हैं. इनसे निपटने के लिए नए संकल्पों और नये ढांचों की ज़रूरत है. पर क्या इन राज्यों का राजनैतिक, प्रशासनिक, अकादमिक और सामाजिक नेतृत्व इसके लिए तैयार है ? ये एक अहम सवाल है.

उमेश उपाध्याय
२९ जून २०१३

Thursday, June 13, 2013

आडवानी - खंडित प्रतिमा



आडवानी - खंडित प्रतिमा

“लौह पुरुष” लाल कृष्ण आडवानी ने इस्तीफ़ा क्यों दिया और फिर क्यों वापस लिया यह  राजनीतिक गुत्थी बड़ी जटिल है. घोर अचम्भित कर देने वाले इस  राजनीतिक ड्रामे के कारणों के बारे में राजनीतिक पंडित  कयास लगाते रहेंगे. इसके नफा नुक्सान का अंदाजा भी लगाया जाता रहेगा. नुक्सान सबको हुआ है चाहे वो भाजपा हो, मोदी हो या फिर एनडीए, पर अगर इसका असली नुक्सान किसी को हुआ है तो वो हैं खुद लाल कृष्ण आडवानी. इया बात का अनुमान शायद स्वयं आडवानी को भी नहीं होगा कि अपने इस एक कदम से वे अपनी जीवन भर की पूँजी गवाँ बैठे है. भाजपा जैसे काडर आधारित दल में राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी पूँजी होती है आम लोगों से मिलने वाला विश्वाश, एकनिष्ठता और प्रतिष्ठा. क्या अब कहा जा सकता है कि आडवानी के पास ये बचा है? भरोसा न हो तो साइबर स्पेस में आम लोंगो द्वारा हो रही टीका टिप्पणियाँ देख लें.
प्रधान मंत्री बनने का सपना देखना प्रजातान्त्रिक वयवस्था में कोई बुरी बात नहीं. और आडवानी के लिए तो ये कोई शेखचिल्ली के ख्वाब जैसा भी नहीं. वे देश के उप प्रधान मंत्री रह चुके हैं. इसलिए प्रधान मंत्री की कुर्सी उनके लिए स्वाभाविक और सहज ही है. देश में इस पद के कई दावेदारों से वे निस्संदेह बेहतर ही सिद्ध होंगे. मगर आडवानी का आडवानी होना क्या किसी पद का मोहताज था? उनके विरोधी भी सहमत होंगे कि उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा सिर्फ़ पद पर आधारित नहीं. लेकिन आज ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने सारे राजनीतिक वजूद को इस एक पद की तराजू पर तोल दिया. क्या अब उनका राजनीतिक कद पार्टी में एक शीर्ष पुरुष का रह जाएगा? क्या अब जब वो कोई बात बोलेंगे तो उसका वजन संघ परिवार में पहले जितना रहेगा?
इस्तीफ़ा देने और वापस लेने के पीछे उनकी मंशा क्या थी ये तो खुद आडवानी ही बता सकते हैं. मगर आश्चर्य है कि उन जैसा नेता उसके असर के आकलन में इतनी चूक कैसे कर गया. उससे  पार्टी के उन नेताओं के स्वभाव और राजनीतिक रुख को भांपने में उनसे इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी जिनको उन्हीने राजनीति का ककहरा पढाया है. क्या उन्हें लगता था पार्टी अपना  फैसला और मोदी को दिया गया पद वापस ले लेगी? क्या इसके बाद आडवानी के राजनीतिक आकलन पर कोई भरोसा कर पायेगा?
इस प्रकरण से पहले उन्हें भाजपा को दो सीटों वाली पार्टी  से सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाने वाला माना जाता था. एक ऐसा नेता जो इस उम्र तक भी खूब पढ़ता लिखता है. एक ऐसा नेता जिसने अपनी पार्टी के लिए जीतोड महनत की और फिर वाजपेयी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त घोषित किया. हर राजनेता की तमन्ना अपना नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज कराने की होती है मगर सवाल है कि इस्तीफ़ा प्रकरण के बाद आडवानी को इतिहास कैसे याद करेगा?
कारण  और परिस्थितिया कोई भी रहीं हों और अंदरखाने कुछ भी हुआ हो एक बात तो तय है कि आडवानी ने जिस प्रतिमा को बड़े जतन , मनोरथ , स्वाध्याय और निश्चय के साथ पूरा जीवन देकर बनाया था वो उनके ही हाथों खंडित हो गई. और इतना तो आडवानी और उनके नज़दीकी जानते ही होंगे कि भारत में खंडित प्रतिमा की न तो पूजा होती हैं न उसपर फूल चढ़ाये जाते है.

उमेश उपाध्याय
१३ जून २०१३