Wednesday, June 29, 2022

महाराष्ट्र : हिन्दू विरोध की राजनीति और शिंदे का विद्रोह








राज्य में शिवसेना के नेतृत्व में बनी महाराष्ट विकास अघाड़ी की उद्धव सरकार का बचना अब तकरीबन असंभव है। नयी सरकार किसकी होगी और कौन इसका मुखिया होगा फिलहाल इसके सिर्फ अनुमान लगाए जा सकते हैं। मगर महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना में जो उखाड़-पछाड हो रही है, उसका असर वे यहीं तक सीमित नहीं रहेगा। उसके परिणाम भारतीय राजनीति पर दूर तक पड़ेंगे। 

देखा जाये तो ये देश में उभरी नई राजनीतिक वास्तविकता का परिणाम है। स्वतंत्र भारत में पहला मौका है जब ताल ठोक कर ये कहकर एक सरकार को गिराया जा रहा है कि वह हिन्दू विरोधी है। शिवसेना से विद्रोह करने वाले एकनाथ शिंदे ने उद्धव की अघाड़ी सरकार को साफ़ साफ 'हिन्दू विरोधी' कहा है। यही शिवसेना से बाहर आने का उनका मूल तर्क भी है। नहीं तो इतने नेताओं का शिवसेना जैसी पार्टी में एकसाथ होकर नेतृत्व को खुली चुनौती देना एक तिलिस्म जैसा ही लगता है। अगर जमीनी हकीकत बदली नहीं होती तो गठजोड़ों की राजनीति के उस्ताद शरद पवार के नेतृत्व वाले एमवीए को ऐसे ललकारना कोई आसान बात नहीं थी। 

ये बात सही है कि राजनीति में सब कुछ सीधा सीधा नहीं होता इसलिए शिवसेना से अलग होने के कई और भी कारण ज़रूर हैं। मगर अघाड़ी का सरकार का 'हिन्दू विरोधी' चरित्र वह धागा है जो इतने शिवसेना विधायकों और मंत्रियों को एकसाथ जोड़ रहा है।  इससे पहले छगन भुजबल और नारायण राणे जैसे नेता भी सेना से अलग हुए थे। लेकिन वह कुछेक नेताओं का ही पार्टी से अलग होना था। अबकी बार तो जनता के वोट से चुने तकरीबन सभी बड़े नेता अगर शिवसेना से अलग हो रहे हैं तो बात कुछ गहरी है। 

ये सब शिवसेना के उस बीज की उपज है जो प्रखर और व्यक्त रूप से हिन्दू हितों की बात करता रहा है। बाल ठाकरे का स्पष्ट हिंदुत्व इनके ही नहीं बल्कि उस जनता के भी डीएनए में जिसने इन्हें चुना है। ये समझते हैं कि उद्धव सरकार के मौजूदा रवैये को जिसे ये हिन्दू विरोधी मानते हैं, लेकर वे जनता के बीच नहीं जा सकते। ये सही है कि  राजनीति में लोग पाला और दिशा दोनों बदलते है। लेकिन सौ की रफ़्तार से तेज़ी से दौड़ता हुआ व्यक्ति यदि अचानक पलटे तो वह धड़ाम से गिर ही जायेगा। ऐसी रफ़्तार में मुड़ने से पहले गति कम करनी होती है और एक अर्धकार गोल चक्कर लगाना पड़ता है। इन खाँटी शिवसैनिकों के लिए आक्रामक हिंदुत्व छोड़कर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति करना कुछ ऐसे ही हो गया था। 

ये कैसे अपने वोटरों और जमीन पर काम करने वाले शिवसैनिकों को समझा पाएंगे कि हनुमान चालीसा पढ़ने के 'जुर्म' में एक सांसद और उनके विधायक पति को इनकी सरकार ने जेल भेजा? ये उन्हें कैसे बताएँगे कि एक सोशल मीडिया पोस्ट साझा करने के लिए अभिनेत्री केतकी चिताले को एक महीने से अधिक जेल में क्यों रहना पड़ा?  क्योंकर पालघर में दो साधुओं और उनके चालक की भीड़ ने सरे आम  पीट पीट कर हत्या कर दी और बालासाहब के पुत्र के नेतृत्व में चल रही सरकार बस दाएं बाएं करती रही? इन विधायकों को लगता है कि इस तरह उनका दोबारा चुनना ही मुश्किल नहीं होगा, बल्कि उनकी अब तक जमा की हुई सारी राजनीतिक जमापूँजी सिर्फ इस 'यू टर्न' को समझाते समझाते हवा में फुर्र हो जाएगी।

अब तक कथित 'साम्प्रदायिकता' का सवाल जिसे मूलतः हिन्दू विरोध के रूप में देखा जा सकता है, भारतीय राजनीति के कई गठजोड़ों की जड़ में रहा है। पर ये पहली बार हो रहा है जब हिन्दू हितों के समर्थन में  महाराष्ट्र जैसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य में एक सरकार गिरने की कगार पर है। अल्पसंख्यकवाद की राजनीति का सिक्का देश में खूब चलता रहा है। लेकिन ये सिक्का अब खोटा हो चला है। महाराष्ट्र का घटनाक्रम इसकी पुष्टि कर रहा है। 

अल्पसंख्यकों को भावनात्मक मुद्दों पर भड़का कर राजनीति कोई नयी बात नहीं हैं। 1979 में जब चौधरी चरणसिंह और समाजवादियों ने मिलकर जनता पार्टी तोड़ी थी तो उन्होंने दोहरी सदस्यता को मुद्दा बनाया था। याद रहे कि 1977 में विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई थी। जनता पार्टी में तत्कालीन भारतीय जनसंघ (जो अब भारतीय जनता पार्टी है) भी शामिल था। समाजवादियों ने ये कहकर पार्टी तोड़ी थी कि जनसंघ के सदस्य पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों से जुड़े नहीं रह सकते। इसका सीधा साधा मतलब था कि आप अन्य सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े रह सकते है लेकिन हिन्दू हितों की बात करने वाले संघ से सम्बन्ध नहीं रख सकते। 

जनता पार्टी उस आपत्काल की देन थी जिसकी बरसी गए 25 जून को देश ने मनाई । हर साँस में मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करने वाले दल, एन जी ओ, एक्टिविस्ट और सोशल मीडिया वीर कॉंग्रेस द्वारा देश पर थोपे इस काले अध्याय पर चुप ही रह जाते हैं। और तो और पालघर के साधुओं की हत्या में उन्हें 'लिंचिंग' नजर नहीं आती। जुबैर की गिरफ्तारी उन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने जैसी लगती है पर केतकी के जेल में रहने को वे एक सामान्य घटना मानते हैं। सवाल अब दोहरी सदस्यता का नहीं बल्कि इन दोहरे मानदंडों का बन गया है। 

इस लिहाज से महाराष्ट्र की घटनाएं और उत्तर प्रदेश के आजमग़ढ और रामपुर लोकसभा उपचुनावों के नतीजे एक नए जमीनी रुख और राजनीतिक वास्तविकता की और इशारा करते हैं। रामपुर में 50% से अधिक आबादी मुसलमानों की है तो आज़मगढ़ में 40% से अधिक मुस्लिम यादव जनसँख्या है। इन दोनों सीटों को अल्पसंख्यक लामबंदी और मुस्लिम यादव गठजोड़ के कारण समाजवादी पार्टी की बपौती माना जाता रहा है। लेकिन उपचुनाव के नतीजे अब नई कहानी कह रहे हैं। ये कहानी है कि चाहे वह उत्तरप्रदेश हो या फिर महाराष्ट्र, मुस्लिम तुष्टिकरण और जातिगत समीकरण की राजनीति एक नए तरह के ज़मीनी ध्रुवीकरण को जन्म दे रही है। 

बनावटी, क्षद्म और सुविधा के अनुसार ओढी गयी एकतरफा सेकुलरवाद की चादर अब सिर्फ मैली ही नहीं बल्कि तार तार हो गयी हैं। हिन्दू हितों की बात करने वालों को साम्प्रदायिक बताकर अल्पसंख्यक वोट बटोरने का राजनीतिक खेल अब उलटे राजनीतिक और चुनावी परिणाम दे रहा है। इस मायने में एकनाथ शिंदे के विद्रोह ने एक नयी राजनीतिक इबारत लिख दी है। इस नये राजनीतिक यथार्थ को जो दल झुठलायेगा वह राजनीतिक इतिहास के पन्नों में ही सिमट कर रह जायेगा। एक तरह से शिंदे और उनके साथियों ने हिन्दू विरोध की राजनीति के ताबूत में एक मोटी कील ठोक दी है।