Monday, August 31, 2015

शीना मर्डर केस: समृद्धि का अभिशाप ‪#‎WhoKilledBora‬‪ #‎murdermostfoul‬ ‪#‎SheenaBoraMurder‬

शीना मर्डर केस में हर रोज नए खुलासे हो रहे हैं। इस मामले की असलियत चाहे जो भी हो अब तक जो भी बातें सामने आईं हैं उसने समाज के अंतर्मन को अंदर तक हिलाकर रख दिया है। व्यक्तिगत जीवन में लोग कैसे भी रहें अथवा संबंध रखें ये उनका निजी मामला माना जाता है, परंतु जब आपके संबंध और उससे उठी गांठें समाज के न्यूनतम स्वीकृत दायरों को भी भींच कर रख दें तो फिर कोई भी मुद्दा व्यक्तिगत नहीं रह जाता। इस मामले में बहुत से सवाल हैं जो शायद पुलिस, अदालत और कानून के दायरे से कहीं बड़े और व्यापक हैं।

पुलिस की तहकीकात अभी जारी है और जल्दी में कोई निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं, मगर कुल मिलाकर अब तक जो बातें छन कर आईं हैं वो लालच, महत्वाकांक्षा निर्ममता, उदासीनता और रिश्तों के खोखलेपन की एक घिनौनी तस्वीर पेश करती हैं। एक ऐसी तस्वीर जो परिवार की बुनियाद पर ही प्रहार करती है। पिछले दिनों में हर सामान्य नागरिक हर व्यक्ति दूसरों से या फिर खुद से कुछ सवाल पूछता नज़र आता है। ये ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर किसी तर्क या कानूनी नुक्ते में नहीं मिल सकता।
INDRANI-MUKHERJEE
मसलन इंद्राणी मुख़र्जी के कितने पति थे या हैं? उनका बेटा मिखाइल तीन साल से चुप क्यों था? इंद्राणी वाकई क्या इतनी शातिर हैं कि अपने पूर्व पति, वर्तमान पति, बेटे, दत्तक पुत्री, पुलिस, मां-बाप सबको एक साथ खेल खिला रहीं थीं? आखिर संजीव मल्होत्रा का लालच क्या था? पीटर मुख़र्जी जैसा व्यक्ति क्या वाकई कुछ नहीं जानता? उसका बेटा राहुल जिसे कि शीना का प्रेमी बताया जा रहा है वह भी तीन साल तक कुछ बोला क्यों नहीं? इस डिजिटल दुनिया में किसी ने तीन साल तक एक लड़की को ढूंढ़ने तक की कोशिश नहीं की? अगर यहां गैर पढ़े लिखे लोगों का सवाल होता तो शायद मन मान भी जाता कि उनके पास साधन नहीं थे, मगर ये तो सब समाज के तथाकथित संभ्रांत, शिक्षित, आधुनिक और संपन्न लोग हैं, ये क्यों चुप रहे?
ये चुप्पी मन को कुरेदती है। इस अपराध के दो कारण हो सकते हैं। एक तो पैसा और दूसरा राहुल और शीना के आपसी संबंधों पर इंद्राणी की आपत्ति। वे अपने निजी जीवन में कैसी हैं उनपर टिप्पणी करने का मकसद यहां नहीं है मगर उनके संबंधों का जो इतिहास आज मीडिया में आ रहा है उससे साफ़ है कि नैतिकता और लोक मर्यादा की सामान्य परिभाषा उनपर लागू नहीं होती। इंद्राणी तो परिवार, स्त्री-पुरुष संबंधों की किसी भी सहज स्वीकृत मान्यता को मानती नज़र नहीं आतीं। राहुल न तो उनके पेटजाये हैं ना ही उनसे शीना का कोई रक्त संबंध है, तो फिर क्या राहुल और शीना के संबंधों के कारण वो हत्या जैसी साजिश रचेंगी ये बात सीधे पचती नहीं है।
तो फिर एक ही बात समझ आती है वो है निन्यानवे का फेर, यानि ये वारदात पैसे और संपत्ति के कारण हुई। यहीं मन दहल जाता है, ऐसा नहीं है कि दौलत के लिए किया गया ये पहला और आखिरी अपराध है। पैसे के लिए आदमी कई बार कुछ भी कर गुज़रता है। मगर इस मामले में रिश्तों की कड़ियां इसे अनूठा बना देती हैं। यहां मिखाइल और ड्राइवर शिवनारायण को छोड़ दिया जाए तो बाकी किरदारों का पेट गर्दन तक भरा हुआ है। फिर पैसे के लिए इतनी मारामारी? इस मामले से ये और लगता है कि हमारे समाज में भी एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है, जिसके लिए मान मर्यादा की कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है, उसका लक्ष्य है कि किसी भी तरह से बस पैसा हासिल हो जाये बस।
वैसे पैसा कमाना और जोड़ना अपने आप में कोई पाप नहीं है मगर पैसा तो किसी लक्ष्य के लिए होता है। पैसे से आप बहुत कुछ कर सकते हैं। मगर अपने आप में सिर्फ पैसा कुछ नहीं है। यानि यदि आपके पास कोई मकसद या उद्देश्य नहीं है तो फिर पैसा बस पैसे के लिए हो जाता है। इसका कोई अंत नहीं। लक्ष्यविहीन समृद्धि अपने साथ कई परेशानियां और विकार लेकर आती हैं।
इंद्राणी भी, लगता है कि इसी मायाजाल में फंसी, फिर उन्होंने सब कुछ दांव पर लगा दिया। महत्वाकांक्षा और लालच में वे सब भूल गयीं। परिवार, रिश्ते, पति और यहां तक कि अपने बच्चे भी जिन्हें उन्होंने नौ महीने तक अपनी कोख में रखा था? उनकी सारी संवेदनाएं, भाव और कोमलताएं पैसे की इस अंधी ललक में मानो तिरोहित हो गईं। एक तरह से देखा जाए तो जो समृद्धि किसी के लिए सम्मान और फ़ख्र की बात होती है वही इंद्राणी और उनसे जुड़े लोगों के लिए अभिशाप बन गई। बचपन में पढ़ा एक दोहा इस सिलसिले में याद आ गया-
" जो जल बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम। दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम"
इसका मतलब है कि जैसे नाव में बढ़ता पानी उसे डुबो देता है उसी तरह अक्लमंद लोग पैसे का सदुपयोग करते हैं, नहीं तो घर में आया हुआ ज़्यादा धन उस घर को बर्बाद कर देता है।

Friday, August 21, 2015

बिहार : मोदी vs ऑल..! #BiharPolls #बिहार_ठगबंधन

                                  बिहार : मोदी vs ऑल..!

राजनीति वाकई संभावनाओं का ही खेल है। अगर इसे आज देखना हो तो बिहार में देखा जा सकता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आज सारे मोदी विरोधियों को साधने में लगे हैं, तभी तो दिल्ली में एक दूसरे की विरोधी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी को भी उन्होंने अपने पाले में लेने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के साथ मंच साझा किया। अपने धुर विरोधी लालू यादव को वो पहले ही अपने साथ ले चुके हैं। हालांकि ज़मीनी तौर पर इन पार्टियों के लोग कितने साथ आएंगे, ये देखने की बात है क्योंकि राजनीति में अक्सर दो जमा दो सीधे ही चार नहीं हो जाते।

नीतीश की इस कवायद का क्या नतीज़ा होगा ये तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे, मगर इससे एक बात साफ़ है कि बिहार में अब चुनाव मोदी बनाम ‘बाकी सब’ हो गया है। नरेन्द्र मोदी को भी ऐसी चुनौती माफिक आती है। स्वभाव से ही वो संघर्ष पसंद करते हैं। उनकी ये बानगी आरा और सहरसा की आम सभाओं में देखने को मिली। दुबई क्रिकेट स्टेडियम में भारतीयों की सभा की गर्मजोशी से सीधे लौटे नरेंद्र मोदी बिहार की सभाओं में पूरे जोश में थे। आरा की रैली में उन्होंने बिहार के लिए सवा लाख करोड़ के पैकेज का ऐलान किया। 1,25,000 करोड़ रुपये का ये पैकेज बिहार चुनाव का बड़ा मुद्दा बन सकता है।

‘मोदी बनाम बाकी सब’ के इस खेल में आरा की रैली से पहले बिहार के मुद्दे काफी व्यक्तिगत किस्म के हो गए थे। मसलन, इससे पहले बिहारियों का डीएनए, लालू का जंगलराज, मोदी और नीतीश की शैली और उनके पुराने बयान ही चर्चा का विषय बन रहे थे। ये मानना पड़ेगा कि सवा लाख करोड़ के पैकेज की उम्मीद किसी ने नहीं की थी। मोदी भी इसको जानते थे, इसलिए उन्होंने नीतीश के मांगे गए 12000 करोड़ से बात शुरू करके अपनी खास स्टाइल में सवा लाख करोड़ के ऐलान पर ख़त्म की। नीतीश ने मोदी के इस अंदाज़ पर सवाल उठाया।

इन दोनों महारथियों की इस राजनीतिक कुश्ती में इस बार नीतीश मोदी के दांव में आ गए लगते हैं, क्योंकि बिहार के लिए स्पेशल पैकेज की मांग वे खुद ही करते रहे हैं। मोदी के इतने बड़े पैकेज के ऐलान के बाद नीतीश ने इसके तौर-तरीके और भाषा पर सवाल उठाया, मगर इसकी तार्किक काट अब तक उनका खेमा नहीं दे पाया है। उनके लिए एक दुविधा होगी कि जितनी बार वे इस स्पेशल पैकेज पर सवाल उठाएंगे, उतनी बार ही वे मोदी के पाले का खेल खेलेंगे। यानी इस बात को वो जनता तक पहुंचाने में मोदी की मदद करेंगे, यानी इसकी चर्चा करें तो भी उनको नुकसान और अगर चर्चा न करें तो बीजेपी सवा लाख करोड़ के इस पैकेज को खूब भुना सकती है, क्योंकि नीतीश का मुख्य मुद्दा तो बिहार का विकास है।

एक तरह से मोदी के इस ऐलान ने बिहार के विकास को एक बार फिर बड़ा मुद्दा बना दिया है। ये एक अच्छी बात है क्योंकि नीतीश और मोदी दोनों ही मुख्यमंत्री के तौर पर विकास के समर्पित नेताओं के तौर पर जाने जाते है। ये सही है कि बीजेपी से अलग होने के बाद से नीतीश राज्य में जातीय समीकरणों की एक अलग बिसात बिछाने में लगे हैं, मगर उनकी छवि एक ऐसे मुख्यमंत्री के रूप में ही है, जो विकास करने का इच्छुक है। लालू के साथ गठबंधन के बावजूद उनकी यही छवि ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। मोदी इसीलिये लगातार जंगल राज की बात कर उनकी इसी छवि को तोड़ना चाहते है।

उधर, मोदी के लिए भी बिहार का चुनाव एक बड़ी चुनौती के समान ही है। संसद का मॉनसून सत्र कांग्रेस के हंगामे के कारण बर्बाद हो जाने के बाद देश की निगाहें बिहार के चुनाव की ओर लगी हैं। प्रधानमंत्री मोदी से देश को ढेर सारी अपेक्षाएं और उम्‍मीदें हैं। लोग उम्मीद कर रहें कि वे कब अर्थव्यवस्था के लिए ज़रूरी उन सुधारवादी क़दमों को उठाएंगे, जिनसे देश के कारखानों में काम तेज़ी से चालू होगा, कंस्ट्रक्शन उद्योग में फिर से जान आएगी, सड़क-पुलों-बांधों का निर्माण होगा और रोज़गार के नए रास्ते खुलेंगे। इन कदमों के लिए ज़रूरी भूमि सुधार कानून और जीएसटी जैसे मामले संसद में अटके पड़े हैं।

इस तरह देखा जाए तो बिहार के लिए इस पैकेज से अगर बीजेपी को चुनाव में फायदा होता है, तो आरा की सभा में प्रधानमंत्री मोदी का सवा लाख करोड़ के पैकेज का ये ऐलान देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी संजीवनी का काम करेगा।

http://khabar.ibnlive.com/blogs/umesh-upadhyay/bihar-assembly-election-2015-6-401479.html

उमेश उपाध्याय
21 अगस्त 2015

Saturday, August 15, 2015

स्वतंत्रता दिवस पर विशेष ब्लॉग: ‘अनास्था के संकट’ से आजादी #ProudIndian #IndiaAt69 #IndependenceDay


3 दिसंबर 2001 को जब आतंकवादियों ने संसद पर हमला किया तब तुरंत सोनिया गांधी ने उस समय के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को फोन किया कि 'आप तो ठीक हैं ना?' सोनिया गांधी उस समय विपक्ष की नेता थीं। कांग्रेस और बीजेपी में खासी तनातनी थी। लेकिन विपक्ष की नेता सोनिया गांधी को देश के प्रधानमंत्री की चिंता थी। ये उनके लोकतांत्रिक संस्कार थे जो संभवतः उन्होंने अपनी सास इंदिरा गांधी और पति राजीव गांधी से सीखे थे। मगर शायद उनके बेटे राहुल गांधी ने ये संस्कार उनसे नहीं सीखे। नहीं तो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने जो बात उन्हें एक राजनीतिक परिवार का बेटा होने के नाते कही थी, उसे वे पिछले दिनों लोकसभा में अपने भाषण में नहीं कहते।

राहुल गांधी ने लोकसभा में ललित मोदी कांड पर अपने भाषण में कहा कि 'एक दिन पहले सुषमा जी ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा कि तुम मुझसे नाराज़ क्यों हो बेटा?' इस व्यक्तिगत बातचीत का संसद में उल्लेख कर राहुल ने मर्यादा और आस्था कि उस लक्ष्मण रेखा को पार कर दिया जो हमारे सामाजिक जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। यह सिर्फ एक उदाहरण है जो आस्था के उस संकट को रेखांकित करता है जिससे हमारा देश आज आजादी के 68 साल बाद गुज़र रहा है।

इससे कुछ दिन पहले भी एक और वाकया हुआ था। देश के एक बड़े नेता मुलायम सिंह यादव से टेलीफोन पर हुई बातचीत एक पुलिस अफसर अमिताभ ठाकुर ने टेप की थी जिसे उन्होंने मीडिया को जारी किया। मुलायम सिंह यादव देश के एक बड़े नेता हैं। उनके विचार और नीतियों से आप सहमत हों, न हों, लेकिन उनके राजनीतिक कद और राजनीति में उनके योगदान को आप नकार नहीं सकते। इस पुलिस अफसर से उनकी बातचीत क्या थी, उसमें पड़े बिना मुझे ऐसा लगा कि उसकी रिकॉर्डिंग करके उस अफसर ने कई मर्यादाओं का उल्लंघन किया।

समाज में लोगों के बीच विश्वास, यकीन और आस्था की एक महीन डोर होती है। दो मनुष्यों के बीच सामाजिकता की पहली कड़ी ये आस्था ही होती है। ये अलिखित भरोसा ही पूरी समाज व्यवस्था का आधार है। और इसी के आधार पर हमारी बाकी अन्य व्यवस्थाएं और तंत्र पैदा हुए हैं। मानव जीवन की जितनी भी व्यवस्थाएं हैं, जैसे कि राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक और यहां तक कि परिवारीय व्यवस्था भी इसी के आधार पर चलती है। इसके बिना कोई देश, तंत्र, समाज या परिवार नहीं चल सकता। इसे अलग अलग नाम दिए जाते हैं। कभी इसे लोकलाज, कभी इसे ‘आंखों की शरम’, कभी इसे निजता, कभी इसे ‘बात रखना’ और कभी इसे ‘संबंधों की पवित्रता’ कहा जाता है।

अपने देश में आज जो सबसे बड़ा संकट है, वो आस्था का ही है। दोस्तों, पति-पत्नी, दफ्तर में सहकर्मियों, युवा प्रेमियों, राज नेताओं, राजनीतिक दलों, व्यापारिक घरानों, आस पड़ोसियों और यहां तक कि परिवारों में भाई-भाइयों में भरोसे की ये कमी साफ़ दिखाई देती है। हर कोई दूसरे से चालाक बनने की कोशिश में नज़र आता है। संसद न चल पाने से लेकर टूटते रिश्तों और तलाक के बढ़ते मामलों के पीछे अगर कोई एक मूल वजह है तो वो है टूटता हुआ भरोसा। वैसे टेक्नोलॉजी ने हमें हजारों नियामतें बख्शी हैं, मगर हमारे बीच रिश्तों की डोर के कमज़ोर होने की एक बड़ी वजह सहज रूप से उपलब्ध 'जासूसी' तरकीबें भी हैं।

जिस तरफ देखिये तो आपको कोई न कोई किसी का ‘स्टिंग’ करता हुआ नज़र आएगा। दफ्तर में सहकर्मी बातचीत को टेप करते मिलेंगे तो प्रेमी प्रेमिका एक दूसरे के फोन को टेप करते दिखाई देंगे। राज नेताओं ने तो ऐसे लोगों की फौज ही लगा रखी है जिनका धंधा ही ‘स्नूपिंग’ है। अगर अच्छे और स्वस्थ संबंधों का आधार विश्वास, भरोसा और यकीन है तो सोचिये जो संबंध शुरू ही अविश्वास से हो रहे हैं, उनका भविष्य क्या होगा?

आस्था का ये संकट आज देश की सबसे बड़ी मानसिक विपत्ति है। आजादी के 68वें साल में अगर कोई कामना है तो यही कि इस अविश्वास से मुक्ति मिले। नहीं तो घुन की तरह ये हमारे सामाजिक, पारिवारिक और राजनीतिक जीवन को खोखला कर देगा।


उमेश उपाध्याय
15 अगस्त ‘15

Sunday, August 2, 2015

तेरा घोटाला मेरा घोटाला #parliamentlogjam



एक तरफ देश आतंकवाद के विष को झेल रहा है. दूसरी तरफ गुरदासपुर में फियादीन हमले और आतंकवादी याकूब मेमन की फांसी से उठी आग पर वोटों की रोटियां सेकीं जा रहीं. इसके बीच बीजेपी और कोंग्रेस के बीच तेरे और मेरे घोटाले का खेल चल रहा है. दोनों मानो एक दूसरे से कह रहे हैं कि ‘तेरी कमीज़ मेरी कमीज़ से ज्यादा मैली है.’ संसद का मानसून सत्र तो अब घोटाले के आरोपों के खेल में तकरीबन बेकार चला ही गया है. मगर लगता है कि देश की ये दोनों पार्टियाँ यहीं रुकने वाली नहीं हैं और बस एक दूसरे के बाल की खाल निकालने में ही व्यस्त हो गयीं हैं.

एक दूसरे पर तंज़, तल्ख़ टिप्पड़ियां, अमर्यादित भाषा और अक्सर बेसिरपैर के आरोप पहले तो देश में सिर्फ छुटभैये नेता ही लगाया करते थे मगर अब शीर्ष नेता भी ऐसा ही कर रहे है. कोंग्रेस उपाध्यक्ष मंत्रियों को जेल भेजने जैसे बयान दे रहे हैं तो बीजेपी के नेता विरोधियों को पाकिस्तान भेजने की हिमायत कर रहे हैं. आम हिन्दुस्तानी हैरान और परेशान है कि उसके नेता बुनियादी मुद्दों को छोड़कर अपने अहम् और वर्चस्व की लड़ाई में ही उलझे हुए हैं. लगता है कि देश में लगातार टीवी के लिए एक  राजनीतिक चकल्लस वाला रीयलिटी शो चल रहा है.

इस तूतू मैंमैं से बाहर निकल कर संजीदगी से सोचने का वक़्त है. नेताओं से ये पूछने का वक़्त है कि संसद क्यों नहीं चल रही? आक्रामक मुद्रा में आई कोंग्रेस का कहना है कि जब तक विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस्तीफ़ा नहीं देते तब तक संसद में इन मुद्दों पर बहस तक भी नहीं होने दी जायेगी.

सुषमा पर आरोप है कि उन्होंने ब्रिटेन से ये कहा कि अगर ब्रिटिश कानून के तहत आईपीएल के पूर्व कमिश्नर ललित मोदी अपनी पत्नी के ओपरेशन के लिए पुर्तगाल जाना चाहते हैं तो भारत को कोई आपत्ति नहीं है. अब विदेश मंत्री ने ऐसा कहकर कोई अनुचित, अनैतिक या गैर कानूनी काम किया है तो बेशक संसद इसपर बहस कर सकती है. विपक्ष उनके खिलाफ प्रस्ताव ला सकता है. राज्य सभा में तो कोंग्रेस केंद्र सरकार की अच्छी खासी किरकिरी कर सकती है क्योंकि वहां बीजेपी के पास बहुमत भी नहीं है. ये सोचने की बात है कि क्या विदेश मंत्री के खिलाफ आरोप इतना बड़ा है कि इसे लेकर उनका इस्तीफ़ा होने तक संसद में कोई कामकाज होने ही नहीं दिया जाए?

शिवराज सिंह चौहान पर व्यापम घोटाले और वसुंधरा पर ललित मोदी को मदद करने का आरोप है. उधर बीजेपी ने भी कोंग्रेस के खिलाफ आरोपों की पोटरी खोल दी है. उसने हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, गोवा के कोंग्रेस नेताओं और पूर्व केंद्रीय मंत्री पी के थुंगन को कटघरे में खड़ा किया है. बीजेपी ने भी हिमाचल के कोंग्रेस मुख्यमंत्री का इस्तीफ़ा माँगा है.

सवाल है कि अगर सिर्फ आरोप लगते ही इस्तीफे का चलन शुरू कर दिया जाए तो न जाने कितनों को इस्तीफ़ा देना पड़ सकता है. देश में तकरीबन हर बड़े नेता, मुख्यमंत्री और मंत्री पर  आरोप लगते है. वैसे ये एक शुचितापूर्ण बात होगी कि जैसे ही आरोप लगे वो नेता पद से हटा दिया जाए या वह खुद हट जाए. पर क्या ऐसे आदर्श हर पार्टी अपना सकती है? ज़रा आरोपों की कड़ी देखिये. हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, पंजाब में बादल सरकार और उनका परिवार, प बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की सरकार, कर्नाटक के लोकायुक्त और यहाँ तक कि कोंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर नेशनल हेराल्ड मामले में आरोप लगे हैं. इस लिस्ट को चाहे जितना लंबा किया जा सकता है. बड़ा सवाल ये है कि क्या इन सबको उस समय तक सार्वजनिक पदों से हट जाना चाहिए जब तक कि ये पाक साफ़ सिद्ध नहीं हो जाते? ऐसा है तो ये एक बड़ी आदर्श स्थिति होगी. क्या कोंग्रेस समेत सब पार्टियाँ इस पर राजी होंगी?

मगर “आरोप सिद्ध होने तक इस्तीफे का सिद्धांत” कुछ पर लागू हो और कुछ पर नहीं, ये तार्किक नहीं है. इसमें न्यायोचित, तर्कसंगत और सही राजनीतिक मूल्यों को स्थापित करने वाला रास्ता क्या है? और कौनसा रास्ता अराजकता, विश्वासहीनता और पूरी व्यवस्था में अनास्था पैदा करने की और ले जाएगा - इन दोनों दलों के बड़े नेताओं को सोचना चाहिए. अन्यथा अगर ‘तेरी कमीज़ नेरी कमीज़ से साफ़’ दिखाई दे रही है तो मैं उसे अपने पैन की स्याही फेंककर गंदा कर दूंगा – ये खेल खतरनाक है. ये खेल पहले विपक्ष में रहकर बीजेपी ने खेला और अब कोंग्रेस खेल रही है. मगर एक गलत से दूसरा गलत सही तो सिद्ध नहीं हो जाता.

‘तेरे घोटाले और मेरे घोटाले’ के बजाय ‘तेरा विकास और मेरा विकास’ – ये खेल भी तो खेला जा सकता है? भारत के बेरोजगार युवा, किसान, मजदूर, कर्मचारी, मध्यम वर्ग और छोटे बड़े सभी उद्यमी कोंग्रेस और बीजेपी के बीच विकास की ये प्रतियोगिता देखना चाहते है. कीचड़ फेंककर एक दूसरे के कपड़ों को गंदा करने की मौजूदा  प्रतियोगिता अब बंद होनी चाहिए.

उम्मीद है कोई तो भारत की इस गुहार को सुनेगा !


उमेश उपाध्याय

3 अगस्त 2015