Thursday, December 15, 2022

मोदी के भारत से क्यों भयभीत है शीजिंगपिंग?




इन दिनों एक वीडियो सोशल मीडिया पर चल रहा है। इसमें चीनी सैनिकों को भारतीय जवान पीटकर खदेड़ रहे हैं। ये वीडियों भारत चीन सीमा के किस हिस्से का है और कब का है ये तो स्पष्ट नहीं है, पर ये साफ़ है भारतीय जवानों ने पी एल के फौजियों की खूब गत बनाई है। ये वीडियो भारतीय फौज की दमदारी और रंगत को दिखाता है। मगर चीन के भारत से आशंकित होने की सिर्फ यही एक वजह नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में चीन भारत को अपना कड़ा प्रतिद्वंदी मानता है। उसे लगता है कि दुनिया का सिरमौर बनने से उसे सिर्फ भारत ही रोक सकता है इसलिए लगातार भारत के लिए सिरदर्दी बढ़ाना उसकी दूरगामी नीति का हिस्सा है। सीमा को अस्थिर बना कर रखना उसी नीति का एक हिस्सा है। 


चीनी राष्ट्रपति शीजिंगपिंग को इस समय महान बनने का भूत सवार है। वे इतिहास के पन्नों में एक शक्तिशाली चीनी सम्राट के बतौर नाम दर्ज़ कराना चाहते हैं इसलिए वे अपने पडोसी देशों पर लगातार दनदना रहे हैं। उनकी महानता के इस सपने में सबसे बड़ी बाधा भारत और उसका मौजूदा नेतृत्व है। इसके कई कारण हैं। पहला, जो इज़्ज़त  और सम्मान भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को दुनिया में मिला हुआ है वैसा चीन की अधिनायकवादी, तानाशाही और निरंकुश कम्युनिस्ट व्यवस्था को नहीं मिलता। इसलिए चीन लगातार अपने प्रचार तंत्र और भारत में मौजूद अपने वैचारिक दत्तक पुत्रों के ज़रिये हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था का मखौल बनाता रहता है। हमारी व्यवस्था पर ये प्रहार कभी माओवादियों के आतंक के जरिये होता है तो कभी वामपंथी बुद्धिजीवी वर्ग के जरिये। 


याद कीजिये कि किस तरह जब भारत में कोविद महामारी की पहली और दूसरी घातक लहर आई थी तो इन कतिपय लोगों ने बड़े बड़े अख़बारों में लेख लिखकर 'चीन से सीखने' की वकालत की थी। कई भाई लोगों ने तो बीबीसी से लेकर न्यूयोर्क टाइम्स तक में भारत के भीतर ही मार्क्सवादी सरकार के 'केरल मॉडल' की तारीफ में दर्जनों ख़बरें और लेख छपवाए थे। ये बात अलग है कि उनमें दिए अधपके तर्क और तथ्य बाद में गलत साबित हुए। ऐसा ही चीन की कोविद नीति के बारे में भी साबित हुआ। आज भारत की कोविद को हराने की रणनीति को सारा विश्व सही मानता है। 


दुनिया को त्रस्त करने वाली कोरोना महामारी के बारे में कहा जाता है कि ये चीन की प्रयोगशाला से ही पैदा हुईं। कई पश्चिमी विशेषज्ञ तो यहाँ तक कहते हैँ कि इसे जैविक हथियार के तौर पर चीन ने दुनिया को परास्त करने के लिए जानबूझकर कर प्रायोगिक तौर पर  पैदा किया।  पर वही कोरोना अब खुद चीन के लिए भस्मासुर बन गया लगता है। इन दिनों चीन में कोरोना को लेकर कोहराम मचा हुआ है। शी जिनपिंग की 'जीरो कोविद' नीति नाकाम हो चुकी है। त्रस्त चीनी जनता ने खुले आम इसका विरोध किया है और चीन के दर्जनों शहरों और विश्व विद्यालयों में सरकार की कोरोना नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं। वैसे तो चीन के निरंकुश और तानाशाही कम्युनिस्ट तंत्र से ख़बरें बाहर आना मुश्किल है। लेकिन इन प्रदर्शनों को लेकर छन छन कर जो थोड़ी मोड़ी जानकारी बाहर आ पायी है उससे लगता है कि कोरोना को लेकर आम चीनी नागरिक बेहद हताश, निराश और गुस्से में हैं। 


ये प्रदर्शन शुरू तो कोरोना को लेकर हुए थे लेकिन बाद में इनमें शी जिंगपिंग के खिलाफ नारे भी सुनाई दिए है। चीन की कठोर नियन्त्रण वाली व्यवस्था में ये प्रदर्शन किसी विद्रोह से कम नहीं है। 1989 के थ्याननमान प्रदर्शनों के बाद चीन में ये ऐसे पहले व्यापक प्रदर्शन है। 1989 के इन प्रदर्शनों को कुचलने के लिए चीनी सरकार ने अपने निहत्थे नागरिकों पर टैंक चढ़ा दिए थे। मौजूदा प्रदर्शनों के दौरान सैकड़ों लोगों की गिरफ्तारी हुई लेकिन फिर भी चीनियों का आक्रोश नहीं थमा है। हारकर कम्युनिस्ट सरकार को अपनी तीन साल से चल रही 'ज़ीरो कोविद' नीति में कई बड़े परिवर्तन करने पड़े है। इससे स्थितियाँ  ठीक होने की बजाय और भी विषम हो गयीं हैं। चीन में अभी भी सभी बुजुर्गों को टीके नहीं लगे हैं। इसलिए वहां कई इलाकों में कोरोना संक्रमण के तेज़ी से फैलने की खबरें आ रहीं हैं। सघन आबादी को देखते हुए कोरोना से भारी संख्या में मौतों की आशंका की जा रही है। 


लेकिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग आंतरिक स्थितियों से चीन की जनता का ध्यान हटाने में माहिर खिलाड़ी हैं। इसका बेहतर इस्तेमाल उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के पिछले अधिवेशन में किया और तीसरी बार चीन के सर्वेसर्वा बन बैठे। ऐसा माओ के बाद पहली बार चीन में हुआ। अरुणाचल में नियंत्रण रेखा का स्वरुप बदलने की नाकाम कोशिश को भी इस सन्दर्भ भी देखा जाना चाहिए। 


उधर बुनियादी तौर पर भारतीय सभ्यता और विरासत के चिर पुरातन और नित्यनूतन स्वरुप को भी चीनी नेतृत्व एक चुनौती के रूप में देखता है। चीनी कम्युनिस्ट नेतृत्व जानता है कि पुराने समय से भारत आध्यात्मिक और नैतिक नेतृत्व प्रदान करता रहा है। तिब्बत और एशिया के बाकी देशों में बौद्ध धर्म का अमिट प्रभाव इसका अन्यतम उदाहरण है। चीन के लिए यह एक बुनियादी वैचारिक और आध्यात्मिक चुनौती है। 


भारत को आर्थिक और सामरिक रूप से रोकने के लिए चीन 50 दशक से ही पाकिस्तान का एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करता आया है। कश्मीर और पंजाब में आतंकवाद की फंडिंग उसी प्रोजेक्ट का हिस्सा रही है। पर असफल पाकिस्तान अब चीन का सरदर्द बन गया है। इस्लामी आतंकवाद अब खुद पाकिस्तान का नासूर बन गया है। पाकिस्तान में चीन ने अरबों डॉलर लगाए हैं लेकिन वे सब अब बट्टेखाते में जाते दिखाई दे रहे हैं। ये पैसा पाकिस्तान कभी लौटा नहीं पायेगा। दिवालिया होता पाकिस्तान अब और पैसे चाहता है जो चीन अब देने को तैयार नहीं है। उलटे उसे पकिस्तान के पाले पोसे इस्लामी अत्तंकवादियों के जरिये अपने यहाँ कट्टरता फैलने का डर सत्ता रहा है।  लेकिन डर ये है कि पाकिस्तान को दिए कर्ज़े की एवज में चीन उसकी की सेना और आईएसआई से भारत में आतंक फ़ैलाने को कहेगा। कश्मीर और पंजाब दोनों में ही भारत की सुरक्षा एजेंसियों की चिंताएँ आगे और बढ़ने वाली है। 


भारत को उलझाए रखने के अपने इसी मिशन के तहत चीन भारत में माओवादियों और वामपंथी गुटों को बढ़ावा देता रहा है। यही कारण है कि भारत में हर छोटी सी बात पर शोर मचाने वाले वामपंथी बुद्धिजीवियों को उइगर मुसलमानों के निर्दयतापूर्ण दमन पर साँप सूंघ जाता है। हिजाब से लेकर नागरिकता कानून पर मजहबी आज़ादी का झंडा लेकर चलने वाले चीन में हो रहे दमन पर एक बयान तक नहीं देते।  वैसे इन चीनी पिछलग्गुओं से  पूछा जा सकता है कि इन्होने रोहिंग्या मुसलमानों को कभी चीन भेजने की वकालत क्यों नहीं की? भारत में असहिष्णुता का राग अलापने वाले हांगकांग में लोकतंत्र, प्रेस की आज़ादी और मानवाधिकारों को खुले आम कुचले जाने पर चुप क्यों बैठ जाते है ? इसका कारण ये है कि ये चीन को अपना वैचारिक आदर्श और आर्थिक माईबाप मानते हैँ।  दरअसल इनमें से अधिकतर लोग बुद्धिजीवियों की आड़ में भारत को परेशान रखने के लिए चीन के पाले हुए तोते जैसे हैँ। चिंता की बात तो ये है अपने देश के मीडिया और अकादमिक जगत में इनकी अच्छी घुसपैठ है।  


असल बात तो ये है कि इन सारी रूकावटों और अडचनों के बावजूद भारत अपनी अस्मिता के साथ आगे बढ़ता ही गया है। प्रधानमंत्री मोदी कि स्पष्ट नीतियों और ठोस सोच ने भारत को एक नई आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक धार दी है। भारत चीन सीमा पर बन रहे सड़कों और पुलों के नए जाल ने चीन के विस्तारवादी इरादों में खलल डाल दी है। मोदी ने तो चीन के साथ भी मिलकर चलना चाहा भी था। इसलिए कई बार उन्होने शीजिंगपिंग के साथ दोस्ती का हाथ भी बढ़ाया। लेकिन चीनी राष्ट्रपति अंतर्राष्ट्रीय मंच पर मोदी को अपने प्रतिद्वंदी के रूप में देखते हैँ। 


अरुणाचल के मुख्यमंत्री प्रेमा खंण्डू ने ठीक ही कहा है कि ये 1962 का भारत नहीं है। आज का भारत सिर्फ आत्मविश्वास के साथ दुनिया की आँख से आंख मिलाकर बात करने वाला भारत ही नहीं है । उसकी सेना में किसी टेढ़ी आँख को फोड़ने का दमखम, कूबत और हौसला है।  डोकलाम, गलवान और अब तावांग में ये दुनिया ने देख ही लिया है।  ये इस नए भारत की नई इच्छाशक्ति के प्रतीक हैँ। पर देश को लगातार चौकन्ना रहने की ज़रुरत है। देश सिर्फ फ़ौज के हाथों जिम्मेदारी देकर हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठ सकता। चीन को आर्थिक मोर्चे पर भी भयभीत करना आवश्यक है। एक बार फिर से लोगों को चीन से आने वाले साजोसामान पर रोक लगाने की ज़रूरत है। अनावश्यक चीनी माल को प्रतिबंधित कर आम भारतीय ही उसकी आर्थिक हेकड़ी को ढीला कर सकते है। यही विस्तारवादी चीन का पक्का इलाज़ होगा। 


Thursday, November 3, 2022

इमरान खान की हत्या की साज़िश और पाकिस्तान की सेना






#पाकिस्तान में कल पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान पर एक रैली के दौरान हमला हुआ। बताया जा रहा है कि गोली उनके पैर में लगी और सौभाग्य से वे बच गए। लेकिन उनकी पार्टी का एक कार्यकर्ता इस हमले में मारा गया तथा सात और नेता भी घायल हो गए। इमरान खान इन दिनों मौजूदा सरकार को हटाकर फ़ौरन चुनाव कराने के लिए लौंग मार्च पर निकले हुए हैं। गोली चलने की ये घटना वज़ीराबाद में हुई जो पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में पड़ता है। दिलचस्प बात ये है कि इस प्रान्त में इमरान की पार्टी #पीटीआई की ही सरकार है। वहाँ की कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी प्रांतीय सरकार की ही है। 

हमलावर को स्थानीय पुलिस ने पकड़ लिया है। हमलावर के शुरुआती बयान के अनुसार उसने खुद ये हमला किया है क्योंकि वो ये समझता था कि अपनी रैलियों में डीजे बजाने जैसा गैर इस्लामी काम करके इमरान खान देश को गर्त में ले जा रहे थे। इस लौंग मार्च के दौरान इमरान खान सीधे सीधे नाम लेकर पाकिस्तानी सेना के मौजूदा सेनाध्यक्ष जरनल बाजवा व अन्य जरनलों पर निशाना साध रहे थे। इस देश में ये पहली बार हो रहा है कि कोई राजनीतिक पार्टी इस तरह सेना के नेतृत्व को खुलेआम निशाना बनाये। 

सब जानते हैं कि पाकिस्तान में प्रधानमंत्री कोई भी हो, देश को वहां का सेनाध्यक्ष और मुख्य जरनल ही चलाते है। इमरान खान भी 2018 में सेना की मदद से ही प्रधानमंत्री बने थे। शुरू में तो सेना के साथ इमरान के सम्बन्ध ठीक रहे लेकिन बाद में दोनों की बनी नहीं। देश की विदेश नीति, डगमगाती अर्थव्यवस्था और ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख की नियुक्ति को लेकर सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा और इमरान के बीच विवाद हो गया। ये मतभेद इतने गहरे थे कि पिछले अप्रेल में अविश्वाश प्रस्ताव के बाद इमरान को गद्दी छोड़नी पड़ गयी। 

उसके बाद विपक्षी दलों की साझा सरकार नवाज़ शरीफ के छोटे भाई शहवाज शरीफ के नेतृत्व में बनी। दिलचस्प बात है कि नवाज़ शरीफ को भी अदालत के ज़रिये चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहराया गया था। इसके लिए भी जानकार सेना के नेतृत्व और जरनल बाजबा को ही जिम्मेदार मानते हैं। नवाज़ शरीफ इन दिनों लन्दन में एक तरह से निर्वासन में हैं। 

अप्रेल में गद्दी से हटाए जाने से पहले इमरान ने सार्वजनिक घोषणा की थी कि वे अगर प्रधानमंत्री नहीं रहे तो वे 'बहुत खतरनाक' हो जायेंगे और सबकी पोल खोल कर रख देंगे। उन्होंने ऐसा ही किया और वे सड़कों पर उतर आये। सार्वजनिक सभाओं में उन्होंने सेना के मौजूदा नेतृत्व को मीर जाफ़र, जानवर, चौकीदार और गद्दार और न जाने कितनी और गालियाँ दी हैं। ऐसा वे तकरीबन हर रैली में कर रहे हैं। जरनल बाजवा की तरफ से उन्हें समझाने और कोई समझौता करने की कोशिश भी हुई परन्तु इमरान अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं कि मौजूदा सरकार की फ़ौरन बर्खास्तगी होकर नए चुनाव हों। साथ ही वे ये भी चाहते हैं कि नया सेनाध्यक्ष वे ही नियुक्त करें। जरनल बाजवा इसी महीने रिटायर होने वाले हैं। 

जरनल बाजवा और इमरान खान के बीच तलवारें इतनी खिंच गयी है कि पिछले हफ्ते पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख जर्नल नदीम अंजुम और सेना के प्रवक्ता जरनल बाबर इफ्तिखार ने बाकायदा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इमरान खान की बातों का खंडन किया। पाकिस्तान के इतिहास में ये पहली बार हुआ जबकि आईएसआई के मुखिया ने इस तरह प्रेस कॉन्फ्रेंस की हो। जानकार कहते है कि पाकिस्तान के किसी नेता ने सेना के खिलाफ ऐसी आक्रामकता नहीं दिखाई कि अपने बचाव के लिए इस तरह ख़ुफ़िया एजेंसी को सामने आना पड़ा हो। 

इससे पहले पाकिस्तान के इमरान समर्थक एक टीवी एंकर पत्रकार अशरफ शरीफ की 23 अक्टूबर को कीनिया में हत्या कर दी गई थी। इमरान की पार्टी के लोगों ने  इसका आरोप आईएसआई पर ही लगाया था। इस खूनखराबे और राजनीतिक अस्थिरता के बीच पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो चुकी है। देश के पास अपना कर्जा चुकाने के लिए पैसे नहीं है। देश में मासिक महंगाई की दर 26 प्रतिशत से ऊपर है। लोगों को रोज़मर्रा की चीजें नहीं मिल पा रहीं। पाकिस्तान की सरकार कभी विश्व बैंक, कभी सऊदी अरब, कभी अमेरिका, कभी संयुक्त अरब अमीरात तो कभी चीन के आगे कटोरा लिए खड़े नज़र आते है। प्रधानमत्री शाहबाज़ शरीफ इन दिनों भी चीन की यात्रा पर हैं। वहां वे मिन्नतें कर रहे हैं कि उन्हें कर्ज़ अदायगी में ढील दी जाए। 

इस बीच दुनिया और भारत के लिए बेहद खतरनाक खबर है कि पाकिस्तान चुपके चुपके यूक्रेन को परमाणु बम तकनीक बेचने की कोशिश में हैं। रूसी सीनेट की रक्षा मामलों के कमेटी के सदस्य इगोर मोरोज़ोव ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में खुलासा किया है कि इसके लिए यूक्रेन के विशेषज्ञ पाकिस्तान गए थे। हालाँकि पाकिस्तान ने इसका खंडन किया है। पर पाकिस्तान की माली हालत ऐसी है कि वह पैसे के लिए कुछ भी कर सकता है। पहले भी पाकिस्तानी वैज्ञानिक ऐसा करते हुए पकडे गए हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो पाकिस्तान में कुछ भी हो सकता है। 

अब इमरान खान पर कल के हमले के बाद पाकिस्तान की पहले से ही डगमगाई राजनीति और तेजी से नीचे जा रही अर्थव्यवस्था में एक नया तूफ़ान आ सकता है। वैसे इमरान खान ने अब आरोप लगा दिया है कि इस हमले के पीछे प्रधान मंत्री शाहबाज़ शरीफ, गृहमंत्री राना सनाउल्लाह और सेना के मेजर जरनल फैसल हैं। उन्होंने इन तीनों की फ़ौरन बर्खास्तगी की मांग की है। जरनल बाजवा के लिए ऐसा करना तकरीबन नामुमकिन होगा। सेना के नेतृत्व में दरार की ख़बरों के बीच एक मेजर जरनल को हटाने के गलत संकेत जायेंगे।  
एक बार और ध्यान देने की है कि पाकिस्तान के कई टिप्पड़िकारों की मानें तो पिछले दिनों इमरान के लौंग मार्च में अपेक्षा से कम भीड़ आ रही थी। इस लिहाज से ये हमला उनके लिए राजनीतिक रूप से प्राणदायक हो सकता है।अब उनके प्रति सहानभूति जताने के लिए और भीड़ बाहर निकलेगी। इस हादसे के बाद उनकी पार्टी ने पूरे देश में कड़े विरोध प्रदर्शन का एलान किया है।  पहले से ही खून खराबे से लहूलुहान पाकिस्तान के लिए आने वाले दिन बेहद मुश्किल वाले है। वहां और और अधिक खून खराबे और गृहयुद्ध की आशंका अब और बढ़ गयी है।


Wednesday, October 26, 2022

ऋषि सुनाक के बहाने भारत में हिन्दूविरोध


ऋषि सुनाक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना भारत, भारतवंशियों और विशेषकर हिन्दुओं के लिए ख़ुशी की बात है। वे ब्रिटिश हैं लेकिन अपनी हिन्दू पहचान को लेकर क्षमापार्थी नहीं है। भारत में तो अपनी हिन्दू पहचान को सार्वजनिक रूप से न बताना ही सेकुलरवाद का पर्याय बना दिया गया है। इस कारण कुछ लोगों को पेट में दर्द भी हो रहा है। एक धार्मिक हिन्दू सुनाक के ब्रिटेन सरीखे घोषित ईसाई देश में प्रधानमंत्री बनने को लेकर शशि थरूर और चिदंबरम जैसे कांग्रेस नेताओं ने खुलकर टिप्पड़ी करना भी शुरू कर दिया है कि भारत में ऐसा कब होगा? पंजाबी में एक कहावत है 'कहे बेटी को, सुनावे बहू को।' इन नेताओं की ये टिप्पड़ियाँ कहने को तो भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार के लिए हैं लेकिन ये क्षद्म सेकुलरवादी बयान दरअसल देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए सुनाने के लिए दिए गए हैं। 


ऐसा क्यों हो रहा है? इसे समझना जरूरी है। एक व्यक्तिगत अनुभव इसके मूल में जाने के लिए बताना ठीक रहेगा। हमारे पिताजी दिल्ली में उत्तर रेलवे के मुख्यालय में  काम करते थे। पिताजी अपनी धार्मिकता के कारण माथे पर वैष्णवी तिलक लगाते थे और शिखा रखते थे। उन दिनों माहौल ऐसा था कि सार्वजनिक रूप वो भी सरकारी कार्यालय में हमारे पिताजी जैसा कोई इक्का दुक्का ही ऐसा 'साहस' कर पाता था। इसलिए पिताजी का तिलक लगाकर और शिखा बांधकर रोज़ दफ्तर जाना एक असामान्य सी बात मानी जाती थी। तभी क्यों, आज भी आपको ऐसे अनेक लोग मिल जायेंगे जो किसी पूजा के बाद जब दफ्तर या किसी व्यावसयिक मीटिंग में जा रहे होते हैं तो पहले वो तिलक मिटाना नहीं भूलते। ऐसा वे क्यों करते हैं? 


यहाँ स्पष्ट करना ज़रूरी है कि तिलक या कोई अन्य धार्मिक चिन्ह धारण करके बाहर निकलना या नहीं निकलना,  ये नितांत व्यक्तिगत फैसला है। इसे सही या गलत कहकर हम इसके महत्व को कम या अधिक नहीं करना चाहते। व्यक्तिगत रूप से इस संवेदनशील मामले को यहाँ उद्धृत करने का अभिप्राय सिर्फ इतना भर है कि कैसे कुछ लोगों ने सार्वजनिक स्मृति में इसे सेकुलरवाद का झूठा प्रतीक बनाकर रख दिया है। याद दिलाने की आवश्यकता नहीं कि आज़ादी के फ़ौरन बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने गुजरात में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में लगे अपने मंत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को उनकी 'हिन्दू पुनर्जागरण' की इस कोशिश के लिए केबिनेट मीटिंग में लताड़ा था। उसके बाद जब 11 मई 1951 को राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर की पुनर्स्थापना के लिए जाने का फैसला किया था तो प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें रोकने की भरसक कोशिश की थी। तर्क था कि सरकारी पदों पर बैठे लोगों को सार्वजनिक रूप से धार्मिक नहीं दिखना चाहिए। 


सेकुलरवादियों का ये तर्क मान भी लिया जाये कि धार्मिक पहचानों को सार्वजनिक रूप से दिखाना नैतिक या राजनैतिक रूप से ठीक नहीं तो फिर सुनाक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनते ही भारत में 'मुस्लिमपीएम' ये किसने ट्रेंड करवाया? इस ट्रेंड के तले हुई ट्ववीट्स को आप देख लें। सेकुलरवाद के बड़े बड़े झंडाबरदारों के नाम इसमें आपको दिखाई देंगे। क्यों फिर स्कूलों में हिजाब पहनने की पुरजोर वकालत की जाती है? ये दोगलापन नहीं तो और क्या है?  कहने का अर्थ ये कि सेकुलरवाद की मोहर का चुनींदा इस्तेमाल आप मज़हब देखकर नहीं कर सकते। आपने ऐसा करके क्या सेकुलरवाद का ये इकतरफा बोझ सिर्फ बहुसंख्यकों के कन्धों पर नहीं लाद  दिया? आपने ऐसा नेरेटिव बनाया कि हिंदू आस्था के प्रतीक चिन्ह धारण करने से लोगों को अपराधबोध होने लगा। इसकी प्रतिक्रिया में हिन्दुओं में अंदर ही अंदर एक रोष पनपता रहा। जब भी उन्होंने इसे प्रकट करने का यत्न किया तो आपने उन्हें साम्प्रदायिक बताकर गाली देना शुरू कर दिया। कुछ लोग आज भी इसीमें लगे हुए हैं। 


ऋषि सुनाक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री निर्वाचित होने की घोषणा के तुरंत बाद भारत में इस तरह के बयान इसी झूठे नेरेटिव को आगे बढ़ाते हैं। इस नाते ही ऋषि सुनाक की हिन्दू अस्मिता और उसकी सार्वजनिक पहचान महत्वपूर्ण है। बहुत अच्छा हुआ है कि ब्रिटेन की कंजर्वेटिव पार्टी ने भारतीय मूल के हिन्दू सुनाक को प्रधानमंत्री चुना है। इसके लिए पार्टी और ब्रिटेन की व्यवस्था को बधाई। परन्तु इसकी भारत से तुलना क्यों? इसे लेकर भारतीय व्यवस्था और हिंदू समाज को उलाहना देना हमारे इतिहास, हमारी बहुलतावादी सोच, सर्व समाहक हिन्दू विचार और उसकी सहिष्णुता के साथ घोर अन्याय है। ऐसा कहने वाले पढ़े लिखे तो हैं, पर उनमें समझदारी और इतिहास बोध कम है। या फिर वे मूलतः हीन भावना से ग्रसित हैं। ये अनावश्यक अपराध बोध उनमें आत्मबोध और आत्मविश्वास की कमी को ही दर्शाता है।  भारतीय दृष्टि को वे जरा भी समझते तो वे ऐसा नहीं कहते। 


भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभाध्यक्ष, मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के जज, सेना प्रमुख, मुख्य सचिव, अनेक राज्यों के राज्यपाल व् मुख्यमंत्री, सेनाध्यक्ष, देश की बड़ी पार्टियों के सर्वेसर्वा तथा चुनाव आयोग के प्रमुख आदि कौनसे पद हैं जो अल्पसंख्यकों में से नहीं बने? क्या हिन्दू समाज को अपना सेकुलरवाद दिखाने के लिए बार बार इनकी सूची बनाकर अपने गले में लटकाकर घूमना होगा ताकि इन कतिपय नेताओं को बताया जा सके कि वे संकीर्ण नहीं हैं? ठीक ही है, सोये आदमी को तो जगाया जा सकता है, परन्तु सोने का अभिनय करने वाले इन आत्ममुग्ध बुद्धिजीवियों को कौन जगा सकता है?


वैसे सुनाक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने हैं तो इससे एक हद तक ही हम खुश हो सकते हैं। उनसे भारत के प्रति किसी विशेष बर्ताव की अपेक्षा रखना खामख्याली ही होगी। बल्कि  इससे उल्टा ही होने की संभावना अधिक है। हो सकता है कि वे थोड़े और सजग होकर भारत के प्रति व्यवहार करें ताकि ब्रिटेन जैसे औपचारिक रूप से ईसाई देश में उनकी साख पर कोई बट्टा न लगे। याद रहे कि ब्रिटेन का राजा वहाँ के चर्च का भी प्रमुख है। ब्रिटेन के राजा रानियों का राज्यारोहण एक चर्च यानि वेस्टमिनिस्टर एब्बे में होता है। उन्हें दफनाया भी वहीँ जाता है। 


एक भारतवंशी और हिन्दू होने के नाते हमारी प्रधानमंत्री सुनाक से इतनी ही अपेक्षा हो सकती है वे अपने देश ब्रिटेन को उस गहरे आर्थिक संकट से निकालें जिसमें वो फंसा हुआ है। भारत और भारतीयों के प्रति सदाशयता बनायें रखें।  


इस पद पर पहुँचने के लिए उन्हें पुनः बधाई !


Friday, September 23, 2022

आर्थिक बदहाली और फौज से तनातनी के बीच गृहयुद्ध की ओर बढता पाकिस्तान





पड़ोसी #पाकिस्तान में एक ओर बाढ़ की जानलेवा विभीषिका है तो दूसरी ओर भयंकर महंगाई ने आग लगाई हुई है। अतिवृष्टि के कारण बलोचिस्तान और सिंध प्रांतो का एक बड़ा हिस्सा पानी में डूबा हुआ है। उधर महंगाई की मार ने पाकिस्तानियों का जीवन दूभर किया हुआ है। पाकिस्तान में पेट्रोल 237 रूपये (पाकिस्तान रुपयों में ) लीटर है। चीनी 155 रूपये किलो है। कई इलाकों में टमाटर 500 रूपये और प्याज़ 300 रूपये किलो तक बिका है।
अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष से 1.1 अरब डॉलर मिलने के बाद भी पाकिस्तानी रुपया लगातार नीचे गिरता ही जा रहा है। इन दिनों एक अमरीकी डॉलर लेने के लिए 240 पाकिस्तानी रुपयों की ज़रुरत पड़ रही है। 2014 में एक भारतीय रुपए में कोई डेढ़ पाकिस्तानी रुपया मिल सकता था। आज एक भारतीय रुपए में औसतन पौने तीन पाकिस्तानी रुपए मिल जायेंगे। इस देश की आर्थिक हालत इतनी पतली है कि बाढ़ से परेशान जनता को कम्बल और ओढ़ने बिछाने के कपड़ों तक के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहवाज शरीफ दूसरे देशों से मदद की गुहार लगा रहे हैं।
मगर आप पाकिस्तानी अख़बारों और टीवी चैनलों को देखें तो इन ख़बरों की जगह वहाँ दूसरी ही खबर सुर्ख़ियों में हैं। ये खबर है पूर्व क्रिकेटर और अपदस्थ प्रधान मंत्री इमरान खान और पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा की आपसी खुन्नस और ज़बरदस्त लड़ाई की। इमरान खुले आम कह रहे हैं कि जरनल बाजवा ने षड्यंत्र करके उन्हें अविश्वास प्रस्ताव के जरिए सत्ता से हटा दिया। लेकिन जिस भाषा का प्रयोग वे उनके लिए कर रहे हैं , वैसा आजतक किसी राजनेता ने पाकिस्तानी सेना की कमान के लिए नहीं किया। जलसों में इमरान ने सेना की कमान को जानवर, गीदड़ और मीर जाफर तक कह डाला है।
पाकिस्तान में कहने को तो चुनाव होते हैं। पर असल में वहाँ सेना ही सब कुछ तय करती है। लोगों का मानना है कि चार साल पहले सेनाध्यक्ष जरनल बाजवा ने ही नवाज़ शरीफ को चुनाव में हरवा कर इमरान को प्रधान मंत्री बनवाया था। तीन साल तक तो दोनों के बीच सब ठीकठाक रहा परन्तु पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख की तैनाती के सवाल पर दोनों में ठन गयी। जिसे जरनल बाजवा आईएसआई का प्रमुख बनाना चाहते थे शुरू में तो इमरान ने उनकी तैनाती नहीं की, पर बाद में उन्हें इसके लिए विवश होना पड़ा। लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकी।
जिस नवाज़ शरीफ की पार्टी को सेना ने हटवाया था और अदालतों के ज़रिये उन्हें कोई भी राजनीतिक पद लेने के अयोग्य घोषित करके जेल में डलवा दिया था, उन्हीं के छोटे भाई शहवाज शरीफ को इसी अप्रेल में प्रधान मंत्री बनवा दिया गया। पाकिस्तानी मीडिया में उस समय खबर गर्म थी कि जब संसद में हारने के बावजूद इमरान गद्दी नहीं छोड़ रहे थे तो सेनाध्यक्ष बाजवा ने रात में उनके घर जाकर इमरान को इस्तीफे के लिए मजबूर किया था। कहा तो यहाँ तक गया कि आपस में गर्मागर्मी होने के बाद सेनाध्यक्ष ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान को थप्पड़ मार दिया था। उसी के बाद इमरान से इस्तीफ़ा लिया गया।
लेकिन ये भी सच है कि इमरान खान पाकिस्तान के लोकप्रिय नेता हैं। उन्होंने 'हकीकी आज़ादी' यानि असली आज़ादी की एक मुहीम छेड़ दी है। ये आज़ादी वे पाकिस्तानियों को अपनी सेना से दिलाना चाहते है। सीधे शब्दों में कहा जाये तो वे पाकिस्तान में सेना की राजनीतिक ताकत को कमज़ोर करना चाहते हैं। पर जिस देश में प्रधानमत्रीं को तकरीबन हर बड़े फैसले के लिए सेना की मंजूरी लेनी पड़ती हो वहाँ ऐसा करना तकरीबन असंभव ही है। पर इमरान सोचते हैं कि वे अपनी लोकप्रियता से ऐसा कर सकते हैं। यों भी जरनल बाजवा से तो आप उनकी निजी खुन्नस हो गयी है।
इसीलिये गद्दी छोड़ने के बाद इमरान खान ताबड़तोड़ रैलियाँ कर रहे हैं। इसमें बड़ी तादाद में लोग आ रहे हैं। देश के कोने कोने में हो रही इन रैलियों में युवा लोग ज्यादा आ रहे हैं। अब इमरान ने इन्हें इस्लामाबाद कुछ करने को तैयार होने को कहा हैं। सार्वजनिक सभाओं में वे अब सेना को सीधे ललकार रहे हैं। उनकी पार्टी के नेता सेना के अफसरों को अपनी कमान के आदेश न मानने के लिए तक उकसा रहे हैं। सेना की कमान को सोशल मीडिया पर गालियाँ तक दी जा रही है। माना जाता है कि इमरान की पार्टी की सोशल मीडिया फौज ऐसा कर रही है।
उधर सेना के लिए भी ये सब न तो निगलते बन रहा है न ही उगलते। #इमरान की रैलियों में उमड़ती भीड़ को देखते हुए सेना सीधे उनपर हाथ डालने से कतरा रही है। इमरान खान और उनकी पार्टी सेना द्वारा बोई हुई एक ऐसी फसल हो गई है जो स्वयं सेना और उसकी कमान के लिए अब ज़हर बन गयी है। लेकिन इतिहास बताता है कि लोकप्रिय राजनेताओं का आखिरकार पाकिस्तान में बुरा हश्र होता है। लोकप्रिय नेताओं की एक बड़ी कतार पाकिस्तान में रही है। जिस राजनीतिक नेता ने वहाँ भी एक हद से बढ़ने की कोशिश की है उसका अंजाम दुनिया देख चुकी है। भुट्टो को वहाँ फाँसी दे दी गयी थी। शेख मुजीब को अलग देश यानि बांग्लादेश बनाना पड़ा था। बेनज़ीर भुट्टो एक हमले में मारी गयीं थी। मौजूदा लोकप्रिय नेता नवाज शरीफ चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित होने के बाद एक तरह से लन्दन के निर्वासन में हैं।
बाढ़ की मार और गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा पाकिस्तान तकरीबन #श्रीलंका की राह पर है। सऊदी अरब और चीन जैसे दोस्त देश भी अब पाकिस्तान को आर्थिक मदद देने को तैयार नहीं हैं। वे जानते हैं कि उनका पैसा डूबने ही वाला है। चीन-पाकिस्तान कॉरिडोर पर भी काम बंद पड़ा है। इसमें चीन अभी तक कोई 40 अरब डॉलर लगा चुका है। समस्याओं के इस अम्बार के बीच इमरान खान और जरनल बाजवा की ये लड़ाई पाकिस्तान को गृह युद्ध की तरफ ले जाती हुई दिखाई दे रही है। इससे केवल दक्षिण एशिया ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया प्रभावित होगी। पाकिस्तान के परमाणु हथियार सबके लिए चिंता का विषय हैं।
भारत भी इससे आँखें मूंदकर नहीं रह सकता क्योंकि पड़ोस में लगी इस आग की तपिश हम पर भी असर डालेगी।

Friday, August 12, 2022

मृग मरीचिका की तलाश में नीतीश!




मृग मरीचिका की तलाश में नीतीश!


राजनीति संभावनाओं का कभी न रुकने वाला खेल हैं। #राजनीति की दाल में जब महत्वाकांक्षाओं का छौंक लगता है तब उसका स्वाद और भी रोचक हो जाता है। इसलिए राजनीति में महत्वाकांक्षा रखना एक बड़ा गुण माना जाता है। मगर इसी दाल में यदि अतृप्त आकाँक्षाओं के नमक का अनुमान गलत हो जाये तो वह अधिक नमकीन होने के कारण ज़हर की तरह कड़वी भी हो जाती है। फलदायी महत्वाकांक्षा और विभ्रम पैदा करने वाली अतृप्त आकांक्षा का सही आकलन और फिर उसका उचित संतुलन ही राजनीति में किसी को सफल और असफल बनाता है। 



#बिहार जैसे राज्य के आठवीं बार #मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार ने भाजपा को छोड़कर जो दाव खेला है उसके कारण कल काफी कुछ स्पष्ट हो गए। जब उनसे पूछा गया कि वे क्या खुद को 2024 में #प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार की सम्भावना को देखते हैं, तो उन्होंने पहले तो हाथ जोड़ लिए। उसके बाद फिर पलटकर उन्होंने कहा कि इस बारे में उनके पास कई फोन आये हैं। वे तो बस 2024 में विपक्षी एकता के लिए काम करेंगे। 'विपक्षी एकता के लिए काम करने' के उनके इस कथन में दिल्ली की गद्दी के लिए उनकी अतृप्त आकाँक्षाओं का अनकहा सच छिपा है। 


2013 में भाजपा के साथ अपना लम्बा गठबंधन तोड़ने के बाद नीतीश कुमार की ये चौथी राजनीतिक कलाबाज़ी है। पहले भाजपा, फिर 2015 में लालू यादव के राजद,  2017 में फिर भाजपा और अब फिर लालू की पार्टी और कॉंग्रेस के साथ जो राजनीतिक शादी रचाई है वह सिर्फ पटना की गद्दी के लिए नहीं हैं। 2014 से ही कई पत्रकार और विश्लेषक उन्हें प्रधानमंत्री पद के सबसे उपयुक्त राजनेता के रूप में प्रस्तुत करते आये हैं। उन्हें इस तरह पेश करने वाले उनके कितने शुभचिंतक है ये तो वक्त ही बताएगा। इससे लेकिन अब लगता है कि खुद नीतीश के सोये सपनों को पंख लग गए हैं। इसीलिये वे अपनी भरी दावत से उठकर पड़ोस के घर में बारात लेकर पहुँच गए हैं। मगर उनके ये अरमान वास्तविकताओं से बहुत दूर लगते हैं।

 

विपक्षी एकता का जो परचम वे थामने के लिए निकले हैं उसके बहुत से दावेदार पहले से ही मौजूद हैं। जो विपक्षी राजनीतिक दल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव तक में एक नहीं हो पाए वो 2024 के आम चुनाव में नीतीश के नेतृत्व तले एकजुट हो जायेंगे वो मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसा ख्याल ही है। अगर ऐसा है तो फिर ममता बनर्जी का क्या होगा? चन्द्रशेखर राव क्या करेंगे? कांग्रेस पटना में नीतीश की ताजपोशी में तो बैंड बाजा लेकर गाने गाकर नाच सकती है। लेकिन दिल्ली दरबार के लिए तो पार्टी के एकमात्र युवराज राहुल गाँधी ही हो सकते हैं। 


संत कबीर का एक दोहा है: 

माया मरी न मन मरा, मर मर गये शरीर। 

आषा तृष्णा ना मरी, कह गये दास कबीर।।


इस दोहे का अर्थ है कि मनुष्य का मन बड़ा छलिया होता है। वह आदमी की अतृप्त आकाँक्षाओं और सुप्त कामनाओं को लगातार छेड़ता रहता है। इस दौरान उसकी बुद्धि भी उसके बस में नहीं रहती। माया का ये खेल आदमी से जो न करा दे सो कम है। विवेकशील लोग इसलिए हमेशा ही इस ठगिनी माया से सतर्क ही बने रहते हैं। पर कुर्सियों पर बैठे सत्ता के मद  में रहते हुए विवेक की रक्षा कर पाना बहुत ही मुश्किल काम हैं । लगता है राजनीति की इस मोहिनी ने एक बार फिर नीतीश कुमार पर अपना जादू चला दिया है। 


यानि लालकिले की प्राचीर से झंडा फहराने का मोह एक बार फिर #नीतीश कुमार के पाला बदलने के पीछे की बड़ी वजह है। अन्यथा उन जैसा कुशल और चतुर राजनेता और मंझा हुआ खिलाडी इस समय राष्ट्रीय जनता दल और #कांग्रेस की झोली में जाकर नहीं बैठता। उनकी सरकार ठीकठाक ही चल रही थी। #भाजपा से कोई ऐसा मतभेद भी नहीं था जो दूर न हो सके। उनके नेतृत्व को भी कोई चुनौती नहीं थी। वे मोह के इस जाल में #राजनीति के तपते रेगिस्तान में पानी का आभास देती उन वायुतरंगों के फेर में पड़ गए हैं जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है। 


#नीतीशकुमार ऐसे राजनेता हैं जिनकी हर पक्ष में अब तक इज़्ज़त रही है। पर  इस मृग मरीचिका के चक्कर में कहीं ऐसा न हो कि उनकी स्थिति तृष्णा में दोनों गए, 'माया मिली न राम जैसी हो जाये'।


Tuesday, July 26, 2022

महज राजनीतिक संकेतवाद नहीं है द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति होना

राजनीति और समाज जीवन में संकेतों की अपनी जगह होती है। बड़े लक्ष्य के लिए यदि संकेत के तौर पर किसी को कोई पद दिया जाये तो इसमें कोई बुराई भी नहीं हैं। पंजाब में आतंकवाद की पृष्ठभूमि में जब ज्ञानी जैलसिंह 1982 में देश के सातवें #राष्ट्रपति बने थे तो यह भी राजनीतिक संकेत ही था। उस समय ज्ञानी जी सर्वानुमति से राष्ट्रपति चुने गए थे। तब का विपक्ष इंदिरा जी का धुर विरोधी था। पक्ष और विपक्ष एक दूसरे को फूटी आँखों नहीं सुहाते थे लेकिन आज के विपक्ष की तरह एक 'छद्म वैचारिक संघर्ष' के नाम पर ज्ञानी जी के नाम का विरोध  तब के विपक्ष ने नहीं किया था। 


अच्छा होता कि वनवासी समाज की पहली बेटी जब देश के प्रथम नागरिक के तौर पर देश के सर्वोच्च पद पर बैठी तो ये बिना चुनाव के होता। पर संभवतः विपक्ष के नेताओं का व्यर्थ का अहंकार और हर कीमत पर मोदी के विरोध ने उनकी आँखों पर एक पट्टी बांध दी है। अन्यथा वे एक बनावटी वैचारिक संघर्ष के तर्क के आधार पर यशवंत सिन्हा को इस चुनाव में खड़ा नहीं करते। 


श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के चुनाव को लेकिन सिर्फ एक राजनीतिक संकेतवाद मानना उन भागीरथ प्रयासों की अनदेखी करना होगा जो पिछले कई दशकों से देश के अनुसूचित जनजातीय इलाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके अनुषंगी संगठन चला रहे हैं। ये देखना हो तो वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा सुदूर क्षेत्रों में बालकों और बालिकाओं के लिए चलाये जा रहे सैंकड़ों छात्रावासों में से किसी में जाइये। नहीं तो किसी एकल विद्यालय में हो होकर आइये। मैं स्वयं मणिपुर में वनवासी कल्याण आश्रम के एक हॉस्टल में कुछ दिन सपरिवार रहा। भाषा की दिक्कत होने के बावजूद उन बच्चियों के साथ मेरी बेटी दीक्षा और पत्नी सीमा का अपनेपन का एक सहज और निर्मल नाता जुड़ गया। कुछ साल बाद उनमें से भी कोई बच्ची किसी जिम्मेदारी को संभालेगी तो वह राजनीतिक संकेत मात्र नहीं होगा।  


इस परिवर्तन को एक तरह अपनों का लम्बे समय बाद मिलना या सम्मिलन कहा जा सकता है। हम ही अपने वनवासी भाई बहनों से अलग हो गए थे अथवा हमें दूर कर दिया गया था। परिवर्तन की एक व्यापक लेकिन निश्चित लहर ऊपर के अराजनीतिक उद्वेलन के बरक्स समाज रुपी नदी के गंभीर आँचल में बह रही है। श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जमीनी स्तर पर चल रही इस व्यापक क्रांति की प्रतीक हैं। वे भारत की उस लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से निकली हैं जिसकी जड़ें देश की सांस्कृतिक विरासत में हैं। दिखने में विविध होते हुए भी यह धारा एकात्म ही है। एक अध्यापिका से पार्षद, उड़ीसा में मंत्री, झारखण्ड में राज्यपाल और अब देश की राष्ट्रपति - परत दर परत और कदम दर कदम उन्होंने एक लम्बी और संघर्षपूर्ण यात्रा तय की है। जो पद और सम्मान उन्हें मिला है वे उसकी बराबरी की हकदार हैं। 


देश का वनवासी समाज इस देश के बृहत् समाज का ही अभिन्न अंग है। वह भी देश की शताब्दियों से चली आ रही विरासत की अविरल धारा का उतना ही महत्वपूर्ण हिस्सा है जितना कि मुंबई अथवा दिल्ली जैसे बड़े और आधुनिक शहरों में रहने वाला कोई नागरिक। यह सोच आदिवासी नाम देकर समाज के किसी हिस्से को पिछड़ा अथवा असंस्कृत नहीं घोषित करती। उन्हें कथित मुख्यधारा में जोड़ने के नाम पर उन्हें अपनी जड़ों से अलग करने का गोरखधंधा नहीं करती। इस सोच के अनुसार भारतीय समाज का एक हिस्सा वनों में रहता रहा है और एक हिस्सा शहरों और गांवों में। लेकिन समाज मूल रूप से एक ही है। 


अंग्रेज़ों के आने के बाद इन वनवासियों को असंस्कृत घोषित कर उनका धर्म और रहन सहन बदलने का सुनियोजित षड्यंत्र किया गया जो आज भी बदस्तूर जारी है। उनको भारत और अन्य भारतीयों से अलग दिखाने के लिए कभी उन्हें मूल निवासी और कभी आदिवासी कहा गया। इसी आधार पर बड़े पैमाने पर उनका धर्म परिवर्तन किया गया। 


सैमुअल पी हंटिंगटन 'सभ्यताओं के संघर्ष' नाम की अपनी पुस्तक मे पिछड़े समाजों को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि ऐसा समाज वो है - 1) जो पढ़ा लिखा नहीं है, 2) जिसका शहरीकरण नहीं हुआ है और जो,  3) एक जगह पर स्थापित नहीं है। ऐसा हर समाज इस पाश्चात्य अवधारणा के अनुसार 'आदिम' और 'असभ्य' है। इस आदिम और असभ्य समाज को सभ्यता सिखाने के नाम पर उसका नरसंहार, उत्पीड़न और मतांतरण बड़े पैमाने पर दुनिया में किया गया। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैसे कई देशों में तो लाखों 'इंडियन' और वहाँ रहने वाले 'एबोरीजन्स, यानि मूलवासियों  को मार ही डाला गया। वनवासियों को इस निगाह से देखने का ये नजरिया पाश्चात्य दर्शन की देन है। हैरत की बात है कि इस तरह की सोच रखने वाले आज हमें मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रताओं पर भाषण देते हैं। अफ़सोस, अपने ही देश के बुद्धिजीवी वर्ग का एक हिस्सा ऐसे लोगों की  इन भेदभावपूर्ण और सिरे से नस्लगत बातों पर तालियाँ पीटता है। 


भारत की सोच यह नहीं है। पौराणिक काल से लेकर गांधीजी तक और गुरु गोलवलकर से लेकर प्रधानमंत्री मोदी तक वनवासी समाज को अपना ही अभिन्न हिस्सा मानते हैं।  रहने का स्थान जंगल में होने के कारण कोई भिन्न कैसे हो सकता है? कहने का ये अर्थ कदापि नहीं कि वनवासी समाज की अनदेखी नहीं हुई। इस समाज के साथ कतिपय कारणों से भेदभाव हुआ। ये सही है कि दूरस्थ इलाकों में रहने के काऱण समाज का ये हिस्सा आज की शिक्षा और अन्य विकासमूलक गतिविधियों में पिछड़ गया। इसके लिए संविधान में अनुसूचित जनजातियों के लिए अलग प्रावधान किये गए। जो बिलकुल उचित ही हैं। 


ये देखते हुए राष्ट्रपति मुर्मू का पहला भाषण बहुत ही प्रेरणादायक और उत्साहित करने वाला था। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायकों के साथ रानी चेन्नमा और रानी गाइडिल्यू तथा संथाल, भील और कोल क्रांति को भी स्मरण किया। वे लगातार राष्ट्रपति पद के दायित्व बोध की बात करतीं रहीं। वे संयम, शालीनता, स्वाभिमान और स्वचेष्टा से परिपूर्ण रहीं। लगातार उन्होंने भारत की अविछिन्न लोकतान्त्रिक परम्परा और अविरल बहती सांस्कृतिक धारा का उल्लेख अपने भाषण में किया। उन्हें देखकर लगा कि वे राष्ट्रपति भवन का मान और मर्यादा दोनों ही बढ़ायेंगी। 


उनके राष्ट्रपति बनने पर समूचे भारत को बधाई!

पुरातन काल से अविछिन्न उसकी लोकतान्त्रिक विरासत को बधाई। 

उसके जनजातीय समाज को बधाई। 

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू जी भारत की प्राचीनतम समय से चली आ रही अविरल सांस्कृतिक धारा की प्रतीक हैं। 

हम सबको बधाई क्योंकि हम भी उसी महान विरासत की एक कड़ी हैं।


Sunday, July 24, 2022

200 करोड़ टीकों के मायने


#200 करोड़ टीकों के मायने 
बचपन में पिताजी की कही एक बात आज याद आयी। उन्होंने कहा था कि आवश्यक बातों के फेर में अक्सर हम महत्वपूर्ण बातें भूल जाते हैं। इसलिए ज़रूरी है कि हम बार बार ये याद करते रहें कि हमारे लिए महत्वपूर्ण क्या है। इसी बात को यदि ख़बरों के सन्दर्भ में देखा जाए तो हमारे आसपास जो तुरंत की घटनाएं हो रहीं होती हैं वे हमें इतनी घेर लेतीं हैं कि हम उन समाचारों की अनदेखी कर देते हैं जो हमारे लिए उनसे कहीं अधिक महत्व की होतीं हैं। 

इन दिनों ख़बरों की सुर्ख़ियों में राष्ट्रपति/उपराष्ट्रपति के चुनाव, महाराष्ट्र का घटनाक्रम, मानसून की बारिश, देश के कई राज्यों में बाढ़, संसद का मानसून सत्र तथा रूस-उक्रेन युद्ध आदि प्रमुखता से छाए हुए हैं। इस बीच ये खबर कहीं दब कर रह गई कि देश ने 17 जुलाई को 200 करोड़ कोरोना टीके लगाने का आंकड़ा छू लिया। शायद सबने इसे ये कहकर सामान्य सी घटना मान लिया कि 'ये तो होना ही था।' देश की इस बड़ी उपलब्धि की चर्चा महत्वपूर्ण होने के साथ साथ आवश्यक भी है। 

याद कीजिये कोरोना की पहली और दूसरी लहर को। जब लाखों लोग खौफजदा होकर पैदल अपने गावों के लिए निकल पड़े थे। जब अस्पताल में बिस्तर कम पड़ गए थे। बिस्तर मिल गया तो लोग ऑक्सीजन की जद्दोजहद से जूझ रहे थे। देश का कोई ही परिवार शायद ऐसा होगा जिस पर किसी न किसी तरह कोरोना की महामारी का असर न पड़ा हो। असलियत तो ये है कि उन दिनों जब किसी के भी फोन की घंटी बजती थी तो बस मन अनिष्ट की आशंका से भर जाता था। ये कोई दूर की बात नहीं बस 18 से 20 महीनों के भीतर ही हम सबके साथ गुजरा है। 

मौजूदा ख़बरों के शोर में यदि ये सब आप भूल गए हैं तो कुछ तथ्यों पर गौर करने की ज़रुरत है। कोरोना की महामारी अभी गयी नहीं हैं।  पिछले एक हफ्ते में दुनिया भर में कोरोना के 64 लाख से ज़्यादा नए मामले दर्ज हुए है।  फ़्रांस में 9 लाख 14 हज़ार,  अमेरिका में 8 लाख 17 हजार, जर्मनी में 6 लाख 30 हजार, इटली में 6 लाख 71 हजार, जापान में 2 लाख 69 हजार और ऑस्ट्रलिया में 2 लाख 63 हजार से ज्यादा नए मरीज एक हफ्ते में निकले हैं। भारत में इनके मुकाबले हफ्ते भर में कोई 1 लाख 20 हजार मामले ही आये। ये सभी देश भारत से कहीं अधिक विकसित हैं और इनकी जनसँख्या तो अपने देश से बहुत ही कम है।  

उधर चीन में पिछले दो महीने से अधिक समय से कोरोना को लेकर त्राहि त्राहि मची हुई है। शंघाई और बीजिंग जैसे शहरों को बार बार बंद करना पड़ा है। दुखी लोग कई बार सड़कों पर भी निकले हैं। चीन से सही खबरें और आंकड़े आना तो असम्भव ही है। लेकिन कुल मिलाकर कहा जा सकता है वहां से जो भी छन छन कर खबरें मिल रहीं हैं उनके अनुसार 'ज़ीरो कोविड' की नीति पर चलने वाला चीन कोरोना के नियंत्रण में बुरी तरह असफल रहा है। वहां लोगों की स्थिति ठीक नहीं हैं। 

एक और आँकड़ा देश की कोरोना के खिलाफ अभूतपूर्व लड़ाई को और अच्छी तरह रेखांकित करता हैं। कोरोना से हुई मौतों की दर भारत में दुनिया के औसत से कोई एक तिहाई के आसपास ही है। विश्व में प्रति 10 लाख जनसँख्या पर 819 लोगों ने कोरोना से जान गवाई है। भारत में प्रति दस लाख पर ये संख्या 373 है। अगर अन्य देशों को देखा जाये तो फ़्रांस में 10 लाख लोगों पर 2296, जर्मनी में 1690, ब्रिटेन में 2646, रूस में 2615, इटली में 2819 और स्पेन में 2373 लोगों की मौत कोरोना से हुई है। ये सब अमीर देश हैं और इनकी स्वास्थ्य व्यवस्था हमेशा अच्छी बताई जाती रही है। 

और तो और जैसे देश में भी कोरोना से मरने वालों की कुल संख्या अमेरिका में 10 लाख 48 हजार से ज्यादा रही है। अमेरिका की जनसँख्या 33 करोड़ के आसपास है। इसके बनिस्बत भारत में 140 करोड़ की जनसँख्या पर कोरोना से हुई मौतों की संख्या अब तक 5 लाख 25 हजार दर्ज की गई है। यों तो एक भी मौत दुखद है परन्तु आप अगर तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो कोरोना से संघर्ष में हम लोगों ने दुनिया के मुकाबले कहीं बेहतर काम किया है। 

200 करोड़ टीके लगने का आँकड़ा अभी भी जारी कोरोना के साथ लड़ाई में मील का एक बड़ा पत्थर है। इसके लिए हम सबको अपनी पीठ थपथपाने की ज़रुरत है। देश के वैज्ञानिक, टीका विकसित करने और बनाने वाली प्राइवेट कम्पनियाँ, डॉकटर, अन्य चिकित्साकर्मी, आरोग्य सेतु/अन्य ऐप बनाने और चलाने वाले आई टी कर्मी, राज्यों और केंद्र सरकार इसके लिए बधाई की पात्र है। बधाई का पात्र है नरेंद्र मोदी की अगुआई में देश का नेतृत्व जिसने तमाम विवादों और आशंकाओं के बीच अपने निश्चय को डिगने नहीं दिया।  

कुल मिलाकर ये सफलता है भारत के सजग समाज की, जिसने बिना हिचक दिखाए 18 महीने के भीतर इतनी तत्परता से कोरोना के देशनिर्मित टीके लगवाए। जिन पढ़े लिखे और अमीर देशों का उल्लेख हमने ऊपर किया है उनमें से कई अभी तक 'वैक्सीन हैजिटेन्सी' यानि टीका लगवाने में संकोच की गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। और कुल मिलाकर कर इसका खामियाजा भी भुगत रहे है। 

शाबाश भारत !

Wednesday, June 29, 2022

महाराष्ट्र : हिन्दू विरोध की राजनीति और शिंदे का विद्रोह








राज्य में शिवसेना के नेतृत्व में बनी महाराष्ट विकास अघाड़ी की उद्धव सरकार का बचना अब तकरीबन असंभव है। नयी सरकार किसकी होगी और कौन इसका मुखिया होगा फिलहाल इसके सिर्फ अनुमान लगाए जा सकते हैं। मगर महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना में जो उखाड़-पछाड हो रही है, उसका असर वे यहीं तक सीमित नहीं रहेगा। उसके परिणाम भारतीय राजनीति पर दूर तक पड़ेंगे। 

देखा जाये तो ये देश में उभरी नई राजनीतिक वास्तविकता का परिणाम है। स्वतंत्र भारत में पहला मौका है जब ताल ठोक कर ये कहकर एक सरकार को गिराया जा रहा है कि वह हिन्दू विरोधी है। शिवसेना से विद्रोह करने वाले एकनाथ शिंदे ने उद्धव की अघाड़ी सरकार को साफ़ साफ 'हिन्दू विरोधी' कहा है। यही शिवसेना से बाहर आने का उनका मूल तर्क भी है। नहीं तो इतने नेताओं का शिवसेना जैसी पार्टी में एकसाथ होकर नेतृत्व को खुली चुनौती देना एक तिलिस्म जैसा ही लगता है। अगर जमीनी हकीकत बदली नहीं होती तो गठजोड़ों की राजनीति के उस्ताद शरद पवार के नेतृत्व वाले एमवीए को ऐसे ललकारना कोई आसान बात नहीं थी। 

ये बात सही है कि राजनीति में सब कुछ सीधा सीधा नहीं होता इसलिए शिवसेना से अलग होने के कई और भी कारण ज़रूर हैं। मगर अघाड़ी का सरकार का 'हिन्दू विरोधी' चरित्र वह धागा है जो इतने शिवसेना विधायकों और मंत्रियों को एकसाथ जोड़ रहा है।  इससे पहले छगन भुजबल और नारायण राणे जैसे नेता भी सेना से अलग हुए थे। लेकिन वह कुछेक नेताओं का ही पार्टी से अलग होना था। अबकी बार तो जनता के वोट से चुने तकरीबन सभी बड़े नेता अगर शिवसेना से अलग हो रहे हैं तो बात कुछ गहरी है। 

ये सब शिवसेना के उस बीज की उपज है जो प्रखर और व्यक्त रूप से हिन्दू हितों की बात करता रहा है। बाल ठाकरे का स्पष्ट हिंदुत्व इनके ही नहीं बल्कि उस जनता के भी डीएनए में जिसने इन्हें चुना है। ये समझते हैं कि उद्धव सरकार के मौजूदा रवैये को जिसे ये हिन्दू विरोधी मानते हैं, लेकर वे जनता के बीच नहीं जा सकते। ये सही है कि  राजनीति में लोग पाला और दिशा दोनों बदलते है। लेकिन सौ की रफ़्तार से तेज़ी से दौड़ता हुआ व्यक्ति यदि अचानक पलटे तो वह धड़ाम से गिर ही जायेगा। ऐसी रफ़्तार में मुड़ने से पहले गति कम करनी होती है और एक अर्धकार गोल चक्कर लगाना पड़ता है। इन खाँटी शिवसैनिकों के लिए आक्रामक हिंदुत्व छोड़कर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति करना कुछ ऐसे ही हो गया था। 

ये कैसे अपने वोटरों और जमीन पर काम करने वाले शिवसैनिकों को समझा पाएंगे कि हनुमान चालीसा पढ़ने के 'जुर्म' में एक सांसद और उनके विधायक पति को इनकी सरकार ने जेल भेजा? ये उन्हें कैसे बताएँगे कि एक सोशल मीडिया पोस्ट साझा करने के लिए अभिनेत्री केतकी चिताले को एक महीने से अधिक जेल में क्यों रहना पड़ा?  क्योंकर पालघर में दो साधुओं और उनके चालक की भीड़ ने सरे आम  पीट पीट कर हत्या कर दी और बालासाहब के पुत्र के नेतृत्व में चल रही सरकार बस दाएं बाएं करती रही? इन विधायकों को लगता है कि इस तरह उनका दोबारा चुनना ही मुश्किल नहीं होगा, बल्कि उनकी अब तक जमा की हुई सारी राजनीतिक जमापूँजी सिर्फ इस 'यू टर्न' को समझाते समझाते हवा में फुर्र हो जाएगी।

अब तक कथित 'साम्प्रदायिकता' का सवाल जिसे मूलतः हिन्दू विरोध के रूप में देखा जा सकता है, भारतीय राजनीति के कई गठजोड़ों की जड़ में रहा है। पर ये पहली बार हो रहा है जब हिन्दू हितों के समर्थन में  महाराष्ट्र जैसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य में एक सरकार गिरने की कगार पर है। अल्पसंख्यकवाद की राजनीति का सिक्का देश में खूब चलता रहा है। लेकिन ये सिक्का अब खोटा हो चला है। महाराष्ट्र का घटनाक्रम इसकी पुष्टि कर रहा है। 

अल्पसंख्यकों को भावनात्मक मुद्दों पर भड़का कर राजनीति कोई नयी बात नहीं हैं। 1979 में जब चौधरी चरणसिंह और समाजवादियों ने मिलकर जनता पार्टी तोड़ी थी तो उन्होंने दोहरी सदस्यता को मुद्दा बनाया था। याद रहे कि 1977 में विपक्षी दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई थी। जनता पार्टी में तत्कालीन भारतीय जनसंघ (जो अब भारतीय जनता पार्टी है) भी शामिल था। समाजवादियों ने ये कहकर पार्टी तोड़ी थी कि जनसंघ के सदस्य पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों से जुड़े नहीं रह सकते। इसका सीधा साधा मतलब था कि आप अन्य सामाजिक सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े रह सकते है लेकिन हिन्दू हितों की बात करने वाले संघ से सम्बन्ध नहीं रख सकते। 

जनता पार्टी उस आपत्काल की देन थी जिसकी बरसी गए 25 जून को देश ने मनाई । हर साँस में मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करने वाले दल, एन जी ओ, एक्टिविस्ट और सोशल मीडिया वीर कॉंग्रेस द्वारा देश पर थोपे इस काले अध्याय पर चुप ही रह जाते हैं। और तो और पालघर के साधुओं की हत्या में उन्हें 'लिंचिंग' नजर नहीं आती। जुबैर की गिरफ्तारी उन्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटने जैसी लगती है पर केतकी के जेल में रहने को वे एक सामान्य घटना मानते हैं। सवाल अब दोहरी सदस्यता का नहीं बल्कि इन दोहरे मानदंडों का बन गया है। 

इस लिहाज से महाराष्ट्र की घटनाएं और उत्तर प्रदेश के आजमग़ढ और रामपुर लोकसभा उपचुनावों के नतीजे एक नए जमीनी रुख और राजनीतिक वास्तविकता की और इशारा करते हैं। रामपुर में 50% से अधिक आबादी मुसलमानों की है तो आज़मगढ़ में 40% से अधिक मुस्लिम यादव जनसँख्या है। इन दोनों सीटों को अल्पसंख्यक लामबंदी और मुस्लिम यादव गठजोड़ के कारण समाजवादी पार्टी की बपौती माना जाता रहा है। लेकिन उपचुनाव के नतीजे अब नई कहानी कह रहे हैं। ये कहानी है कि चाहे वह उत्तरप्रदेश हो या फिर महाराष्ट्र, मुस्लिम तुष्टिकरण और जातिगत समीकरण की राजनीति एक नए तरह के ज़मीनी ध्रुवीकरण को जन्म दे रही है। 

बनावटी, क्षद्म और सुविधा के अनुसार ओढी गयी एकतरफा सेकुलरवाद की चादर अब सिर्फ मैली ही नहीं बल्कि तार तार हो गयी हैं। हिन्दू हितों की बात करने वालों को साम्प्रदायिक बताकर अल्पसंख्यक वोट बटोरने का राजनीतिक खेल अब उलटे राजनीतिक और चुनावी परिणाम दे रहा है। इस मायने में एकनाथ शिंदे के विद्रोह ने एक नयी राजनीतिक इबारत लिख दी है। इस नये राजनीतिक यथार्थ को जो दल झुठलायेगा वह राजनीतिक इतिहास के पन्नों में ही सिमट कर रह जायेगा। एक तरह से शिंदे और उनके साथियों ने हिन्दू विरोध की राजनीति के ताबूत में एक मोटी कील ठोक दी है।

Thursday, May 5, 2022

द कन्वर्जन : लवजिहाद पर एक सशक्त फिल्म



 

द कन्वर्जन : लवजिहाद पर एक सशक्त फिल्म 

सीमा की नज़र बार बार अपने मोबाइल की डिजिटल घड़ी पर जा रही थी। नौ बजने को आये थे पर फिल्म अभी तक शुरू नहीं हुई थी। उसे चिंता थी कि फिल्म लम्बी चली तो खाना मिल पायेगा कि नहीं। पिछली बार हम जब कश्मीर फाइल्स का पहले दिन का शो देखने गए थे तब भी देर रात होने से सारे रेस्टोरेंट बंद हो चुके थे। खाना उसदिन भी नहीं मिला था। कल यानि बृहस्पतिवार की रात तो हम दिल्ली के चाणक्य सिनेमा में 'द कन्वर्जन' का ग्रेंड प्रीमियर देखने के लिए आये थे। प्रीमियर का घोषित समय था सात बजे का। मैंने मुझे बड़े आदर भाव से निमंत्रित करने वाले मित्र कपिल मिश्रा से पूछा भी था तो उन्होंने कहा था कि आप 7.25 तक आएंगे तो चलेगा। इसलिए मेरा अनुमान था कि कुल मिलाकर 7.45 तक तो पिक्चर शुरू हो ही जाएगी। ढाई घंटे की लम्बी फिल्म हुई तो भी साढ़े दस तक तो हम फारिग हो जायेंगे। लेकिन यहाँ तो नौ बज चुके थे और फिल्म शुरू होने का नाम ही नहीं ले रही थी। एक दो बार बीच में कभी वीडियो तो कभी आवाज़ आती थी पर फिर गायब हो जाती थी। 

बार बार कुछ तकनीकी गड़बड़ी की घोषणओं के बीच खचाखच भरे ऑडी 3 में दर्शक धैर्य और उत्कंठा से फिल्म शुरू होने का इंतज़ार कर रहे थे। मेरा पत्रकारीय मन किसी गड़बड़ी या अनिष्ट की आशंका भी कर रहा था। मुझे ध्यान आ रहा था कि अभूतपूर्व सफलता पाने वाली कश्मीर फाइल्स को भी शुरू के दिनों में कुछ थियेटरों में दिक्क्तों का सामना करना पड़ा था। दूर क्यों जाया जाये, पिछले हफ्ते ही राजधानी के फॉरेन कॉरेस्पोंडेंट क्लब और फिर प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया ने कश्मीर फाइल्स के सफल निर्देशक विवेक अग्निहोत्री को प्रेस वार्ता करने की इजाज़त नहीं दी थी। 'द कन्वर्जन' तो सीधे सीधे एक बेहद विवादित मगर ज्वलंत मुद्दे पर बनी फिल्म है। न जाने दिनरात 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' की वकालत करने वालों में से किसी को 'सलेक्टिव सेकुलरवाद' का कौन सा कीड़ा काट जाये और फिल्म का प्रदर्शन ही रोक दिया जाये। 

ऐसे कई सवाल मन में उस भूख की तरह बिलबिला रहे थे जो हमारे पेट में भी हलचल मचा रही थी। इतनी भीड़ में उठकर कुछ खाने के लिए जाना भी अटपटा लग रहा था। मगर तकनीकी गड़बड़ से भूख थोड़े ही रुकती है सो कई लोग बड़े साइज़ की बाल्टी के आकार के कागज़ के डिब्बों  में पॉपकॉर्न लेकर आना शुरू कर चुके थे। इससे उठती  महक ने हमारी भूख की भड़कती अग्नि में मानो घी डाल दिया। वो तो भला हो साथ की सीट पर बैठे श्रीमान विनोद बंसल की बिटिया विदुषी का जो उठकर गयी और तीन लार्ज पॉप कॉर्न के डिब्बे ले आई। एक सादा नमकीन, एक चीज़ वाले और एक कैरामल के स्वाद वाले। मालूम नहीं कि ये विदुषी के उठ के जाकर पॉपकॉर्न लाने का कमाल था या देरी के लिए किये जाने वाली बंसल साहब की ट्वीट का कि ऐसा होने के कुछ समय बाद फिल्म चालू हो गयी। 

यकीन मानिये फिल्म देखने के बाद न मुझे और न ही सीमा को उस देरी पर कोई गिला शिकवा रहा जो अबतक हुई थी। सबसे पहली बात तो ये कि ये एक बेहद साहसपूर्ण विषय पर बनाई फिल्म है। फिल्म देखने जाते हुए मन में था कि कहीं ये महज एक नज़रियाती प्रॉपेगण्डा फिल्म ही न हो। सोचा था कि यदि ऐसा हुआ तो हम बीच में उठकर चले आएंगे। इससे हमें बुलाने वाले कपिल मिश्रा के आग्रह की इज़्ज़त भी रह जाएगी और हमारा समय भी जाया नहीं होगा। पर ऐसी नौबत नहीं आयी और अगर एक दो दृश्यों को छोड़ दिया जाये तो फिल्म ने हमें लगातार बांधे रखा। सीमा को अगली सुबह जल्दी ऑफिस जाना था तो भी उन्होने कहा कि अब तो पूरी फिल्म देखनी ही है। 

फिल्म की कहानी को देखा जाये तो मध्यांतर तक फिल्म थोड़ी हलकी फुल्की रहती है। अच्छा संगीत, दृष्यानुसार गीत और सुरुचिपूर्ण लोकेशन फिल्म को गति देते हैं। गीत कर्णप्रिय हैं।वाराणसी के घाट, कैम्पस की बिंदास ज़िन्दगी और एक संस्कारवादी हिन्दू माता पिता तथा उनकी  'मॉर्डन' बेटी के बीच के टकराव का अच्छा चित्रण निर्देशक विनोद तिवारी ने किया है। कहानी लिखी है वंदना तिवारी ने। फिल्म ये बताने में सफल है कि 'लवजिहाद' अब हिंदूवादियों की एक राजनीतिक फेंटेसी मात्र नहीं बल्कि ऐसी सचाई है जिससे समाज को लगातार दोचार होना पड़ रहा है। यों तो प्यार और जिहाद दो कभी न मिलने वाले अलग-अलग किनारे जैसे लगते हैं, मगर मजहबी कट्टरता कई बार आदमी को इंसान बने नहीं रहने देती। धर्मान्धता में अपने मजहब के विस्तार के लिए कैसे प्रेम जैसी पवित्र भावना का दुरुपयोग हो सकता है फिल्म इसे गहनता के साथ उकेरती है। 

फिल्म के डायलॉग और बेहतर हो सकते थे। मगर कहानी के अलावा 'द कन्वर्जन' का सबसे सशक्त पक्ष है हीरोइन का पात्र निभाने वाली अभिनेत्री का अभिनय। मुझे नहीं मालूम कि अभिनेत्री विंध्य तिवारी ने इससे पहले कौन से फिल्म की है। मगर बाप रे बाप क्या अभिनय क्षमता है इस अभिनेत्री में। एक ही किरदार में अनेक कठिन भाव बड़ी कुशलता के साथ उसने निभाए है। एक बिंदास भरी उत्श्रंखलता से लेकर असहनीय अत्याचार और दर्द सहने वाली नायिका का सशक्त अभिनय विंध्य तिवारी ने किया है। सच मानिये तो हीरोइन की शुरुआती एंट्री इतनी अधिक प्रभावित नहीं करती पर जैसे फिल्म आगे बढ़ती है वैसे ही शृंगार, करुणा, भय, छल, क्रोध और रौद्र आदि कई जटिल भावों को वे बड़ी सहजता से निभाती नज़र आतीं है। 

फिल्म के कई दृश्य बहुत भावपूर्ण है। मुझे सबसे सबसे अधिक मार्मिक दृश्य लगता है कि जब फिल्म में साक्षी बनी अभिनेत्री निकाह के समय अपना नाम बदलने को मज़बूर होती है। जिस गहराई के साथ सिर्फ अपनी आँखों के ज़रिये अपने हुए साथ हुए अनजाने छल को विंध्य अभिनीत करती हैं वह उनकी अभिनय क्षमता का नमूना है। हलाला की घृणित क्रूरता विचलित कर देने वाली है। निर्देशक की दाद देनी पड़ेगी कि वे इस दौरान आम मुम्बईया फिल्मों की तरह सेक्स दिखाने के लालच से बचे रहे। आप अपनी जवान होती बेटी के साथ फिल्म को देखने में असहज नहीं होते। बबलू शेख की भूमिका में प्रतीक शुक्ला ने भी जोरदार अभिनय किया है। 

कुल मिलाकर एक नाज़ुक विषय पर बनी एक सशक्त फिल्म है 'द कन्वर्जन'। मुद्दा विवादास्पद होने के साथ साथ समीचीन भी है। फिल्म पर राजनीति होना भी अवश्यम्भावी है। निर्देशक विनोद तिवारी ने शुरू में बताया ही था कि उनकी फिल्म महीनों सेंसर बोर्ड में लटकी रही थी। देखा जाये तो मजहब, राजनीति, विवाद और स्त्रीविमर्श - ये सब मिलकर बॉक्स ऑफिस पर इसकी सफलता की कहानी अभी से कह रहे हैं ।