Saturday, November 20, 2021

कृषि कानून वापसी - यथार्थ पर भारी पड़ा मिथ्या प्रचार / कोई भी कृषि सुधार सिख-हिन्दू भाईचारे से महत्वपूर्ण नहीं





युद्ध जीतने के लिए कभी कभी कुछ मोर्चों से पीछे हटना ज़रूरी होता है। अच्छे सेनापति वो होते हैं जो किसी एक मोर्चे पर अटक कर नहीं रह जाते। वे अपनी लक्ष्यसिद्धि के सदा नए नए रास्ते तलाशते है। देश में लम्बे समय से एक युद्ध चल रहा है वह है ग्रामीण विपन्नता के साथ युद्ध। जब तक देश का कृषि क्षेत्र उन्नत नहीं होगा सम्पूर्ण देश गरीबी के दुष्चक्र से बाहर नहीं आएगा। दशकों से किसान संगठन, अर्थशास्त्री और कृषि विशेषज्ञ ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार की मांग कर रहे थे। तीन कृषि कानून उसी लम्बे विमर्श के नतीजे में आये थे। पर कोई भी युद्ध बिना सैनिकों की भागीदारी के जीता नहीं जा सकता। 

ग्रामीण अर्थव्यस्था सुधार के इस युद्ध में किसान एक तरह से अग्रिम पंक्ति के सैनिक ही हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश अन्न उपजाने के मामले में देश का अग्रणी हिस्सा है। पंजाब देश का सीमावर्ती राज्य होने के कारण बेहद संवेदनशील प्रान्त है। इस भूभाग के किसानों को सरकार समझा ही नहीं पाई कि किसान कानून उनके हित में हैं। कई विरोधी ताकतें, जिनमें देश के दुश्मन पाकिस्तान और चीन शामिल है, ये प्रोपेगंडा फैलाने में सफल रहे कि तीनों कानून उनके खिलाफ हैं। पंजाब बड़े समय तक आतंकवाद भी झेल चुका है। चाहे मुट्ठीभर ही सही, पर वहां विदेशपोषित कुछ तत्व तो है हीं जो राष्ट्रद्रोही अलगाववादी मनोवृत्ति रखते हैं। इन्होंने किसानों के असंतोष की आग में खूब घी डाला।  

कृषि बिल विरोध की आड़ में पंजाब में हिन्दू सिख भाईचारे को भी नुक्सान पहुँचाने की भरसक कोशिश हुईं। 26 जनवरी की लालकिले की घटना को इससे जोड़कर देखा जा सकता है। पाकिस्तान ने इस दौरान वहां की शांति में खलल डालने के लिए ड्रोन द्वारा हथियार भी भेजे। इसका जिक्र पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने लगातार किया है। खालिस्तान के नाम पर चले आतंकवाद के उस दौर को दोहराने के लिए कई तत्व आमदा हैं। इसकी अनदेखी कोई सरकार नहीं कर सकती। इसी सिलसिले में एनआईऐ  की एक टीम पिछले दिनों कनाडा में थी। उसका फीडबैक भी महत्वपूर्ण रहा होगा। पंजाब में अमनचैन से बड़ा कोई कृषिसुधार नहीं हो सकता। 

कृषि सुधारों से एक बड़े बिचौलिए वर्ग को भी कठिनाई हो रही थी। सरकार अपने संवाद की विफलता का विपक्ष को दोष नहीं दे सकती क्योंकि दूसरे दलों का तो काम ही विरोध करना है। कुल मिलाकर इन सबका एक घातक मिश्रण बन गया। स्वभावतः सरल ग्रामीण मन को इन सबने बरगलाया और एक बात इस भूभाग के किसानों के मन में बिठा दी कि ये कानून उनकी जमीन तक हड़पने के औज़ार बन सकते हैं। किसान अपनी ज़मीन से अपनी संतान से भी ज़्यादा लगाव रखता है। बात चाहे गलत ही थी, पर कई बार दुष्प्रचार भी यथार्थ से अधिक शक्तिशाली बन जाता है। सरकार और भाजपा का प्रचार तंत्र इसके सामने बौना पड़ गया। इस बीच केंद्र सरकार सिर्फ कृषि कानून विरोध को विपक्षी दलों का प्रचार मानकर अपनी धुन में ऐंठी रही। 



वैसे बीजेपी को उसी समय चेत जाना चाहिए था जब उसका सबसे पुराना सहयोगी अकाली दल पंजाब में इस मुद्दे पर गठजोड़ तोड़कर केंद्र सरकार से अलग हो गया था। जहाँ एक और सरकार किसानों से संवाद में विफल रही वहीँ दूसरी और ये एक बड़ी राजनीतिक विफलता भी थी। इस राजनीतिक विफलता का शिकार भाजपा महाराष्ट्र में पहले शिवसेना के साथ करके एक बड़ा राज्य गवाँ ही चुकी है। गठबंधन धर्म के मर्म को समझने में विफलता तथा उससे उत्पन्न संकेतों को न पढ़ पाने पर तुलसीदास की एक पंक्ति कही जा सकती है - 'सत्ता मद केहि नहि बौराया।'

विपक्षी दल कह रहे हैं कि मोदी ने ये फैसला उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा व् अन्य राज्यों के चुनावों के मद्देनज़र किया है। ऐसा किया है भी तो इसमें गलत क्या है। राजनीतिक दलों का काम ही हैं कि वे जनता की नब्ज़ पहचाने और उसके अनुसार अपनी नीतियों में बदलाव करें। चुनाव जीतने के लिए कोशिश करना उनका मूल धर्म है। मोदी ने चुनाव जीतने के लिए अगर ये ऐलान किया है, तो क्या अखिलेश यादव, राहुल गाँधी, मायावती, ममता बनर्जी, केजरीवाल आदि रामनामी ओढ़कर संन्यास पर जाने के लिए किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे थे?  

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुरुपरब पर राष्ट्र के नाम अपने सम्बोधन में संवाद की सरकारी विफलता को ठीक पहचाना और तीनों कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर जता दिया कि वे सच्चे मायनों में जनता के मन को पढ़ना जानते हैं। मोदी सदा फ्रंटफुट पर खेलते आये हैं। इस नाते इस बड़े फैसले को अपने ऊपर ओढ़कर उन्होंने बड़े मन और लचीलेपन का भी परिचय दिया। इस सम्बोधन की भाषा, शैली और हावभाव ने उनका कद और बढ़ा दिया है। अपनी बात से पीछे हटने के लिए, वह भी सार्वजनिक तौर पर, बड़ा कलेजा और साहस चाहिए। मोदी जैसा बड़ा नेता ही ऐसा कर सकता है। इसलिए ये एक साहसी निर्णय है जो  उनके जैसे कद्दावर नेता के ही बूते की बात है।




Saturday, September 11, 2021

कामकाजी औरतों और वेश्याओं में फ़र्क़ नहीं करते तालिबानी प्रवक्ता ?

कामकाजी औरतों और वेश्याओं में फ़र्क़ नहीं करते तालिबानी प्रवक्ता ??

तालिबान 0.2 - बोतल भी वही शराब भी वही !


पाकिस्तान और कुछ हद तक चीन को छोड़कर किसी भी अन्य देश ने अंतरिम अफगानिस्तान सरकार को लेकर संतोष नहीं जताया है। पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी की आई एस आई के प्रमुख जनरल फैज़ हामिद तो सरकार बनवाने के लिए काबुल में बैठे ही थे, चीन ने भी अफ़ग़ानिस्तान को 3.1 करोड़ डॉलर की फौरी  मदद देने की घोषणा की है।  हालाँकि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने भी ब्रिक्स देशों के दिल्ली घोषणापत्र पर दस्तखत किये है। भारत की अध्यक्षता में हुए बृहस्पतिवार को हुए ऑनलाइन ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति को लेकर चिंता जाहिर की गयी । इसमें तालिबान का नाम लिए बगैर ये भी कहा गया कि ये सुनिश्चित करना चाहिए कि अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल दूसरे देशों में आतंक और उग्रवाद फ़ैलाने के लिए नहीं हो।  


अफ़ग़ानिस्तान के पडोसी ईरान ने तो सबसे कड़ी प्रतिक्रिया दी है। ईरान के विदेश मंत्रालय ने पंजशीर घाटी में  तालिबान द्वारा  नॉर्दन अलायंस को कुचलने की कोशिशों में बाहरी ताकतों यानि पाकिस्तान की भूमिका की कड़ी निंदा की है। उसने ये भी कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में चुनाव होने चाहिए ताकि वहां एक वास्तविक प्रतिनिधित्व वाली सरकार बने। मौजूदा तालिबान सरकार में पख्तूनों और तालिबान का वर्चस्व है। अफगानिस्तान के अन्य वर्गों जैसे ताजिक और उज़बेकों की इसमें अनदेखी की गयी है। शिया सम्प्रदाय को मानने वाले हज़ाराओं को तो प्रतिनिधित्व तक नहीं मिला है। तालिबान और महिला अधिकारों का सांप छछूँदर का रिश्ता है सो किसी महिला को मंत्रिमंडल में जगह न  मिलना तो तकरीबन तयशुदा ही था। 


यों भी तालिबान के प्रवक्ता जेकरुल्ला हाशिमी ने कहा है कि औरतों का मंत्रिमंडल में क्या काम? उन्होने कहा कि औरतों का असल काम बच्चे पैदा करना है। बृहस्पतिवार को काबुल स्थित तोलो न्यूज़ में प्रसारित इस इंटरव्यू में हाशिमी ने कहा कि औरतों को बस ज़्यादा से ज़्यादा अफगानी बच्चे पैदा करने के काम में लगना चाहिए न कि मंत्रिमंडल पद जैसी जिम्मेदारी लेना चाहिए जो वो निभा नहीं सकतीं। हाशिमी ने अपने इंटरव्यू में कहा "पिछले 20 साल के दौरान आपके इस मीडिया, अमेरिका  और उसकी कठपुतली सरकार ने जो कहा, जो औरतें दफ्तरों में काम करतीं थीं वो वेश्यावृत्ति नहीं तो और क्या है।" तोलो न्यूज़ के एंकर ने इस पर उन्हें टोका कि वे सभी अफगानी औरतों को वेश्या कैसे कह सकते हैं। इसका मतलब क्या है? क्या घर से बाहर काम करने वाली सभी औरतें वेश्या होतीं हैं। तालिबान और भारत में उनके पक्ष में बोलने वालों को इसका उत्तर देना चाहिए। इस साक्षात्कार के हिस्से इस ट्वीट में देखे जा सकते हैं। 


https://twitter.com/natiqmalikzada/status/1435928332718067718?s=20


ये सोच निकलती है इस्लाम की घोर कट्टरपंथी व्याख्या से जो हक्कानी नेटवर्क जैसे कई तालिबानी  मानते हैं। नयी अफ़ग़ान सरकार में हक्कानी नेटवर्क को ज़रुरत से ज़्यादा जगह मिली है। हक्कानी यानि पाकिस्तान परस्त इस्लामिक कट्टरपंथी गुट जिसे आईएसआई ने लगातार आतंक के लिए पाला पोसा है। चार हक्कानियों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है। मालूम हो कि अफ़ग़ानिस्तान के नए गृहमंत्री सिराजुद्दीन हक़्क़ानी संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा घोषित अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी हैं। उनके सर पर एक करोड़ डॉलर का इनाम है। इसी तरह मंत्रिमंडल में शामिल उनके चाचा  खलीउर्रहमान हक्कानी के तार अल कायदा से जुड़े रहे हैं। वे भी घोषित अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी है। मंत्रिमंडल में शामिल दो अन्य हक्कानी हैं - नजीबुल्ला हक्कानी और शेख अब्दुल बकी हक्कानी। नजीबुल्ला संयुक्त राष्ट्र द्वारा तो अब्दुल बकी यूरोपीय संघ द्वारा नामित आतंकी हैं। 


अबतक अंतरराष्ट्रीय जनमत के सामने एक नया मुखौटा पहन कर आने वाले तालिबान ने अपने असली तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। आम माफ़ी के घोषणा के बावजूद आत्मसमर्पण करने वाले अफ़ग़ान सेनाकर्मियों को क़त्ल किये जाने की खबरें हैं। खोर प्रान्त के फ़िरोज़कोह इलाके में एक गर्भवती महिला पुलिसकर्मी को उसके बच्चों के सामने ही बर्बरता के साथ मार डाला गया है। मारने से पहले उसके परिवार के सामने ही उसके चेहरे और शरीर को क्षत-विक्षत किया गया। बताया जाता है कि निगारा नाम की इस पुलिसकर्मी को आठ महीने का गर्भ था।  

इस हफ्ते काबुल में होने वाले शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को बेरहमी से कुचल दिया गया है। इन प्रदर्शनों को कवर करने गए कई पत्रकारों को गिरफ्तार कर तालिबान ने क्रूर यातनाएँ दी हैं। इत्तिलातेरोज़ नामके स्थानीय अफगानी अखबार के कर्मियों और संपादक को कोड़े मारे गए हैं। खबर है कि रॉयटर के प्रतिनिधि एवं अन्य पत्रकारों की भी कवरेज करने के कारण पिटाई की गई है। 


कुल मिलाकर अफ़ग़ानिस्तान को एक नयी तालिबानी सरकार नहीं मिली बल्कि 20 साल पहले के तालिबान अपने दुर्दांत रूप में फिर से काबुल में काबिज़ हो गए हैं। तालिबान की इस नई पारी का कोच पाकिस्तान है जो नहीं चाहता कि अफ़ग़ानिस्तान कट्टरवाद और इस्लामिक धर्मान्धता की अँधेरी खाई से बाहर निकले। अफ़ग़ानिस्तान में 'नियंत्रित अस्थिरता' और कट्टरवाद पाकिस्तान की नीति का हिस्सा है। उसे लगता है कि इससे वह भारत और मध्य एशिया में अपने हितों को साध लेगा। लेकिन इसमें एक ही अड़चन है वो है कि ये इंटरनेट के ज़माने का अफ़ग़ानिस्तान है। काबुल एवं अन्य अफगानी शहरों में हो रहे प्रदर्शन इसका एक नमूना भर है। यों भी आतंक, धर्मान्धता और 'नियंत्रित अस्थिरता' एक ऐसे शेर की सवारी है जो संतुलन खोने पर सवार को ही खा जाता है। 


तालिबान और पाकिस्तान एक ऐसे बबंडर की ओर बढ़ रहे हैं जो उनसे संभाले नहीं संभलेगा। तालिबान में हक्कानियों के दबदबे के बाद मध्य एशिया में कट्टरवाद और भारत में इस्लामी आतंकवाद बढ़ने की गंभीर आशंका हैं। इस सबके बीच भारत को सक्रियतापूर्ण धैर्य और सतर्कता की आवश्यकता है। लेकिन असली संकट में अफ़ग़ान जनता है क्योंकि अमेरिका ने उसे तकरीबन तश्तरी में रखकर हैवानों के सामने परोस दिया है। दुनिया इन आसन्न संकटों से बेखबर नहीं है। इसीलिए ब्रिटेन की गुप्तचर संस्था एम्आई 6 के प्रमुख, अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए के प्रमुख और रूस के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार इस हफ्ते नई दिल्ली में थे। रूस और अमरीका इस मामले पर अलग-अलग राय रखने के बावजूद भारत के महत्व को समझते है। सब देख चुके हैं कि कट्टरपंथी इस्लाम से प्रेरित आतंकवाद की आग से कोई भी अछूता नहीं रहता।


Monday, August 30, 2021

तालिबान और भारत : आशंका नहीं संकल्प लेकर फ्रंटफुट पर खेलने का समय




तालिबान और भारत : आशंका नहीं संकल्प लेकर फ्रंटफुट पर खेलने का समय


भारत को अफ़ग़ानिस्तान में खोने तो अब कुछ नहीं है। उसे अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान के विवादों पर ध्यान रखना है। हमें इसी स्थिति में से रास्ता निकालना है।  पख्तून अगर अमरीका के गुलाम नहीं रहे तो वे सदा के लिए पाकिस्तान के भी पिछलग्गू नहीं रहेंगे। उसे पुरानी सतर्कता वाली नीति छोड़ कर आगे बढ़कर फ्रंटफुट पर खेलना चाहिए।कल ही अफ़ग़ान-पाक सीमा पर दो पाकिस्तानी फौजियों को अफ़ग़ानियों ने मार गिराया है। डूरंड लाइन अगले कुछ सालों में रक्तरन्जित हो सकती है।

#अफ़ग़ानिस्तान में #तालिबान के कब्ज़े के बाद भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में भय, आशंका और अनिश्चय का माहौल हैं। अगर #पाकिस्तान को छोड़ दिया जाए तो दुनिया का हर सभ्य देश तालिबान को लेकर फिक्रमंद दिखाई पड़ता है। यही वजह है कि अभी तक किसी देश ने तालिबान शासन को औपचारिक मान्यता नहीं दी है। तालिबान ने बयान ज़रूर दिए हैं कि वे अब पहले जैसे नहीं है, पर उनकी बात पर यकीन मुश्किल है । 

उनके बयानों के परे अफ़ग़ानिस्तान से आ रही खबरें आश्वस्त नहीं करतीं। #काबुल में औरतों का घर से निकलना बंद हो गया है। जीत के उपहार के तौर पर घरों की तलाशी लेकर नाबालिग बच्चियों तथा अन्य औरतों की शादी जबरन तालिबान लड़ाकों से करवाई जा रही है। कई जगहों से समर्पण करने वाली अफगान सेना के फौजियों की निर्मम हत्या की खबरें आ रहीं हैं।   

#भारत को जिस तरह से अपने दूतावास को बंद करके काबुल से निकलना पड़ा है वह कोई खुश होने की बात नहीं हैं। ये कोई खास शाबाशी की बात नहीं है कि हम अपने लोगों को बिना नुकसान वहां से ले आये हैं। आखिर एक पडोसी देश से हमें अफरातफरी में तकरीबन भाग के आना पड़ा हो, भारत जैसे देश के लिए कोई गर्व का विषय नहीं हो सकता। पिछले कई सालों में अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में हमने अच्छा खासा निवेश किया था। ये निवेश सिर्फ आर्थिक संसाधनों  का ही नहीं वरन हमारे संबंधों, राजनीतिक और राजनयिक पूँजी का भी था। लोग कह सकते है कि आज के हिसाब से तो वहां से निकलना ही हमारे सामने  सबसे बेहतर विकल्प था। 

तालिबान के कब्ज़े के बाद भारत के पास अफ़ग़ानिस्तान में दो ही विकल्प थे - एक ख़राब विकल्प और दूसरा बहुत खराब विकल्प। हमने 'बहुत खराब विकल्प' की अपेक्षा 'खराब विकल्प' को चुना और बिना किसी बड़ी परेशानी के हम अपने लोगों को निकाल लाये। ये आज के लिए संतोष की बात होगी पर हमारे दूरगामी हितों पर इसका कितना उल्टा असर होगा ये अंदाज़ा लगाने के लिए आपको कोई विशारद होने की आवश्यकता नहीं है। 

सवाल है कि हम ऐसी स्थिति में पहुंचे कैसे?

पिछले चालीस साल में दरअसल हमारी अफ़ग़ानिस्तान नीति बेहद रक्षात्मक और पराबलम्बी रही है। जब सोवियत संघ ने 1979 में  अफ़ग़ानिस्तान पर कब्ज़ा किया तो हम उसकी नीति के पिछलग्गू हो लिए थे। सोवियत संघ की गोद  में बैठने का ही परिणाम था कि उसके जाने के बाद वहाँ हमें कोई पूछने वाला नहीं था और तालिबान के पिछले शासन में पाकिस्तान ने उसका उपयोग कर हमारे लिए सुरक्षा के गंभीर खतरे खड़े कर दिए। 9/11 के बाद हमने अपने पिछले अनुभवों से कुछ नहीं सीखा और हमने अपने सारे पाँसे अमरीका के खाने में डाल दिये। और अब जब अमरीका वहाँ से भाग रहा है तो हम भी ऐसा करने के लिए मजबूर हो गए हैं। 

ये समस्या इस सरकार को विरासत में ही मिली थी इसलिए मौजूदा सरकार की जिम्मेदारी सीमित ही बनती है। इसके लिए पिछले चालीस साल का  राजनीतिक नेतृत्व तो उत्तरदायी है ही; अगर कोई सबसे अधिक जिम्मेदार है तो वे हैं, आजकल टीवी चैनलों की बहस में भाग लेने वाले और अफ़ग़ानिस्तान विशेषज्ञ बनकर कागज काले करने वाले विदेश सेवा और सुरक्षा प्रतिष्ठान के अधिकारी। ज्ञान बखारने वाले ये कथित विदेश और सुरक्षा नीति विशेषज्ञ आज बता रहे हैं कि भारत को क्या करना चाहिए था। इनमें से कई तो सीधे तौर पर इन मामलों को देखते रहे  हैं। इनमें से एक एक को बुलाकर पूछना चाहिए कि भाई जब आप कुर्सी पर बैठे थे तब आपने खुद क्या किया था ? क्या आपकी देश के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं बनती? 

अब इन्हीं में से अधिकतर 'विशेषज्ञ'  देश में  डर, अनिश्चितता और आशंका का माहौल पैदा कर रहे हैं। मानो, तालिबान के आने से न जाने क्या हो जाएगा?  ये बात सही है  कि चार दशक की गलत नीतियों के कारण भारत आज अफगानिस्तान को लेकर तकरीबन शून्य की स्थिति में खड़ा हो गया है। ये भी सही है कि पड़ोस में जब मध्ययुगीन बर्बर मानसिकता से संचालित धर्मांध इस्लामी जिहादियों को अफ़ग़ानिस्तान के रूप में एक पूरा देश मिल गया है तो हमारी सुरक्षा चुनौतियाँ विकट हो गयी हैं। पर ये भी याद रखने की बात है ये भारत सन 1999-2000 का भारत नहीं है। 

आज भारत को दो चीज़ों की ज़रुरत है। 
पहला है धैर्य और दूसरा है संकल्प। हमारी विदेश नीति के कर्ता धर्ताओं को अब धैर्यपूर्वक नयी अफ़ग़ानिस्तान नीति पर काम करना चाहिए। अफगानिस्तान नीति को आरामकुर्सी पर बैठकर व्याख्यान देने वाले इन विशेषज्ञों से लेकर जमीन पर काम करके भीतरी  पैठ बनाने वाले लोगों को सुपुर्द करना चाहिए। ज़रूरी नहीं कि वे भारतीय विदेश सेवा से ही हों। 

अब तो संयम के साथ  ईंट पर ईंट जमाते हुए धीरज, मनोयोग और मेहनत से अफगानी समाज में उन लोगों के साथ ताल्लुक कायम करने की ज़रुरत है जिनका भारत से भावनात्मक रिश्ता है। ऐसे ही लोग भारत के लिए जमीन तैयार कर सकते हैं   यह काम एक दो बरस नहीं बल्कि दशकों तक करना पड़ेगा।  जिस तरह अफ़ग़ानिस्तान में भारत का खेल बिगड़ने में कोई चार दशक लगे हैं, उन्हें सुधारने के लिए भी दशकों का धैर्य चाहिए। 


साथ ही भारत को पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा विवाद की लकीर को भी गहरा करने का काम करना चाहिए। डूरण्ड रेखा के दोनों पार बसे पख्तूनों को मिलाकर एक पख्तून रियासत की योजना 1947 से कई लोगों के मन में रही है। यों भी तालिबान भी डूरण्ड रेखा को मंज़ूर नहीं करते। पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान की पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा है कि कश्मीर मसले पर तालिबान उनका साथ देंगे। हालाँकि तालिबान के बयान इससे भिन्न हैं। पर हम किसी ग़लतफ़हमी में नहीं रह सकते। इसलिए पाकिस्तान सेना और जिहाद समर्थक पाकिस्तानी आतंकी गुटों को पता रहना चाहिए कि भारत में दखल देने का नतीजा उल्टा भी हो सकता है। भारत हमेशा रक्षात्मक क्यों रहे? वह एक #अलग पख्तून रियासत का पाँसा क्यों नहीं फेंक सकता? 

साथ ही अब भारत को संकल्प भी करना है। वो है सतत चौकन्ना रहकर किसी भी संभावित कुटिलता का उत्तर बुद्धिमत्तापूर्ण वीरता से देने की तैयारी करने का। पाकिस्तान की परमाणु धमकियों की हवा #बालाकोट के आक्रामक तरीके से देश का मौजूदा मज़बूत  नेतृत्व निकाल चुका है।  उसी तरह पाशविक बर्बरता की हद तक जाने वाले आसन्न #कट्टरपंथी #इस्लामिक खतरे से निपटने का माद्दा, हिम्मत और क़ाबलियत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मौजूदा नेतृत्व में है। इसका सबको भरोसा रहना चाहिए।

Wednesday, June 30, 2021

मंदे पड़ते पाकिस्तानी सेना के #इस्लामी #आतंक के धंधे के बीच जम्मू में ड्रोन के जरिये #आतंकवाद फ़ैलाने की साज़िश


सीमा पर ड्रोन आतंकी हमले और कश्मीर पर राजनीतिक पहल 

आज सुबह  भारत पाक सीमा पर तीन ड्रोन को भारतीय एजेंसियों ने खदेडा है। ड्रोन के जरिये आतंक फ़ैलाने की ये नयी साजिश बेहद संगीन और खतरनाक है। इससे पहले रविवार को जम्मू कश्मीर पर केंद्र की राजनीतिक पहल के 4 दिन के भीतर ही जम्मू के वायुसेना अड्डे पर ड्रोन के दो हमले हुए। इन आतंकी कार्रवाई में कोई अधिक नुकसान तो नहीं पहुंचा पर इसका मतलब ये कतई नहीं लगाया जा सकता कि ये हमले खतरनाक नहीं हैं। इस पूरे घटनाक्रम की गहरी पड़ताल बहुत ज़रूरी है। 

जम्मू के वायुसेना अड्डे पर 27 जून को तड़के अचानक दो ड्रोन आए थे। इनमें प्रत्येक में कोई 2 किलो विस्फोटक पदार्थ थे जो इन्होने वहां गिरा दिए। हवाई अड्डे में इनसे छोटे विस्फोट हुए। उसके बाद बताया जाता है कि ड्रोन वापस चले गए। जिस जगह हमला हुआ वह भारत पाक सीमा से बहुत दूर नहीं है। इसी तरह सोमवार और मंगलवार को भी भारत पाक सीमा के कुछ हिस्सों में ड्रोन के जरिये  आतंक फ़ैलाने की नाकाम कोशिश हुई है। क्या ये नए किस्म का हमले आतंकवादियों, अलगाववादियों इस्लामी कट्टरपंथियों और पाकिस्तान की गंभीर हताशा का परिणाम है?  या फिर ये जम्मू कश्मीर में आतंकवाद को फिर से एक नया रंग देने की कोशिश है ? 

पाकिस्तान की आई एस आई अगस्त 2019 में धारा 370 के खात्मे के बाद से कश्मीर घाटी में अपना असर खोती ही जा रही है। पिछले हफ्ते बृहस्पतिवार यानि  24  जून को जम्मू कश्मीर के राजनीतिक दलों से केंद्र की जो बातचीत हुई उससे ऐसा लगा कि राज्य का माहौल पूरी तरह बदल सकता है। क्या जम्मू में ड्रोन के जरिये  किये गए विस्फोट ये बताते हैं कि पाकिस्तान अब आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए कश्मीरी युवक नहीं जुटा पा रहा इसीलिये अब उसने मानव रहित ड्रोन के इस्तेमाल खूनखराबा फैलाने का जिम्मा खुद अपने हाथ में ले लिया है। ये ड्रोन कहाँ से उड़ाए गए और इसके पीछे कौन आतंकवादी संगठनहै?  इसकी जांच एजेंसियों के हाथ में है। देर सबेर वे इस साजिश का पता लगा ही लेंगी। लेकिन आतंकवाद के इस नए और खतरनाक हथियार के अंतर्निहित कारणों का विश्लेषण बेहद ज़रूरी है।  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बुलावे पर 24 जून को नई दिल्ली में जम्मू कश्मीर के राजनीतिक दलों- पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस, बीजेपी, पैंथर्स पार्टी, पीपुल्स कांफ्रेंस, सीपीएम और जेके अपनी पार्टी के नुमाइंदों और केंद्र के साथ बातचीत हुई। बातचीत के बाद जो बयान आये वे काफी आशाजनक लगते हैं। इससे जो संकेत निकले वह बड़े स्पष्ट है। पहला, किसी भी राजनीतिक दल ने इस बातचीत का बहिष्कार नहीं किया। दूसरा, सभी पार्टियों ने प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की इस राजनीतिक पहल का आमतौर पर स्वागत किया। तीसरा, जम्मू कश्मीर में चुनाव प्रक्रिया शुरू करने और उसमें शामिल होने में सभी ने अपनी सहमति जताई।  

बैठक से एक बात और भी निकली कि सभी राजनीतिक दल वहाँ चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए भी राजी हो गए। कुल मिलाकर इस बैठक में  370 को हटाने को लेकर कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया। यानी इन राजनीतिक दलों ने यह मान लिया है कि अब धारा 370 का समाप्त होकर जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म होना अब इतिहास की बात हो गई है। 370 का हटाया जाना अब राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की निरर्थकता को अब इन पार्टियों ने परोक्ष रूप से तो स्वीकार कर ही लिया लगता है। 

यह स्वाभाविक ही है कि राजनीतिक दल जब बात करेंगे तो उनमें कई मतभेद भी होंगे लेकिन बुनियादी राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सा लेने की हामी भर के सभी राजनीतिक दलों ने जम्मू कश्मीर में आगामी चुनावों के लिए एक जमीन तैयार की है। इस बैठक का सबसे सकारात्मक परिणाम यही है। 

हालांकि कई विशेषज्ञ कह रहे हैं कि बातचीत का न्योता देकर केंद्र सरकार  झुक गई है। उनका तर्क है कि धारा 370 हटाने के बाद सरकार ने कड़ा रुख अपनाया था। वहाँ के नेताओं को गिरफ्तार भी किया गया था। प्रधानमंत्री अगर अब उन्हीं नेताओं से बातचीत कर रहे हैं तो इसका मतलब है कि उन्हें झुकना पड़ा है। हालांकि यह तर्क समझ में नहीं आता। क्योंकि धारा 370 हटाने के बाद राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने के लिए केंद्र सरकार की तत्परता को उसका झुकना कैसे बताया जा सकता है? असलियत में तो यह उसकी नीतियों की सफलता का ही द्योतक है। इस बैठक में कई पूर्व मुख्यमंत्री शामिल थे जो धारा 370 को लेकर पहले बड़े बड़े बयान देते रहे हैं। वे ताल ठोक कर कहते रहे हैं कि अगर धारा 370 हटी तो वे ईंट से ईंट बजा देंगे। धारा 370 हट गई तो वे ईंट तो क्या घाटी में एक कंकड़ भी नहीं हिला पाए। 

उनका इस बैठक में आना और आगे होने वाली राजनीतिक प्रक्रिया मेँ भाग लेने को सहमति देना बताता है कि ये नेता भी समझ चुके हैं कि अब जम्मू कश्मीर का खास दर्ज़ा दोबारा वापस नहीं आने वाला। ये विश्लेषक भारत की इस बड़ी  कूटनीतिक विजय को शायद पचा नहीं पा रहे। उन्हें लगता नहीं ही नहीं था कि जम्मू कश्मीर से हिंसा, राजनीतिक मारामारी, आतंकवाद और विदेशी हस्तक्षेप को खत्म भी किया जा सकता है। 

वैसे देखा जाए तो धारा 370 समाप्त होने के बाद जम्मू कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया का शुरू होना यह नई बात नहीं है। इससे पहले केंद्र सरकार ग्राम पंचायतों के चुनाव करवाकर यह सिद्ध कर चुकी है कि जम्मू कश्मीर के अंदर एक नया जमीनी नेतृत्व तैयार हो रहा है। 

इन पंचायत चुनावों में 51.7 % से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। कुल 280 जिला पंचायत सदस्य चुने गए जिनमें 100 महिलाएं भी चुनी गई। वहां बिना हिंसा के चुनाव भी हो सकते हैं पहले ऐसा कभी सोचा नहीं गया था। इस सफलता से वहां राजनीतिक प्रक्रिया की शुरुआत तो हो ही चुकी थी। इसलिए चाहे वह पीडीपी हो चाहे वह नेशनल कॉन्फ्रेंस अथवा अन्य राजनीतिक दल वे समझ चुके हैं कि अगर इसमें उन्होंने हिस्सा नहीं लिया तो वह वहां पर अप्रासंगिक हो सकते हैं। 

ध्यान देने की बात है कि धारा 370 समाप्त होने के बाद जम्मू कश्मीर के अंदर कोई बड़ा बवाल नहीं पैदा हुआ। जो राजनीतिक नेता धारा 370 की ओट में यह कहते थे की उनकी लाश पर ही जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा समाप्त किया जा सकता है, उन्हें भी अब एहसास हो गया है कि वे अलगाववाद, हिंसा, आतंकवाद और इस्लामी कट्टरवाद की जो फसल राज्य के अंदर पिछले कई दशकों से बोई जा रही थी वह सूखने लगी है। 

इन गर्मियों में कश्मीर घाटी में पत्थरबाजी  का प्रायः नदारद हो जाना क्या बताता है? पाकिस्तान की तमाम कोशिशों के बावजूद वहाँ कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं हो पाने के संकेत बड़े स्पष्ट है। कुल मिलाकर वहाँ  हिंसा और आतंक के मामलों में भी कमी आने का मतलब है कि जम्मू कश्मीर के लोग देश के अन्य हिस्सों की तरह जमीनी लोकतंत्र और विकास की राह देख रहे थे। जम्मू कश्मीर के कुछ दलों और परिवारों ने वहां हिंसा और आतंकवाद की आड़ लेकर अपनी मठाधीशी कायम की हुई थी। हिंसा और आतंक का चक्र उन्हें  खूब रास आता था। वहां का अवसरवादी राजनीतिक नेतृत्व इस दुश्चक्र को ढाल की तरह इस्तेमाल कर भारत सरकार और भारत की जनता को तकरीबन ब्लैकमेल करते रहे हैं। 

24 जून की बैठक के संकेत बहुत साफ है यह कि अब जनता के साथ वहां के राजनीतिक दल भी जम्मू कश्मीर के इस नए अध्याय में देश की ताल से ताल मिलाने को तैयार हैं। 27 जून को जम्मू के वायुसेना अड्डे पर ड्रोन के हमलों को कश्मीर घाटी में तेज़ी से चल रही इस सामान्यीकरण की प्रक्रिया से जोड़कर देखा जा सकता है।   पिछले कई दशकों से चल रहा आतंकवाद, इस्लामी कट्टरवाद और अलगाववाद का घातक खेल पाकिस्तान और कुछ स्थानीय तत्वों ने मिलकर चला रखा था। इसी षड्यंत्र के तहत पाकिस्तान से हथियार और पैसा आता रहा और घाटी में कट्टरपंथी इस्लामिक सोच को पानी मिलता रहा।  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने और गृह मंत्री अमित शाह ने दूरंदेशी और साहस दिखाते हुए धारा 370 को समाप्त करने का अकल्पनीय फैसला अगस्त 2019 में लिया था। जिस तरह से पूरे देश ने उनका साथ दिया इससे अब पाकिस्तान में घोर निराशा है। पाकिस्तान सेना की आतंकवाद की फैक्ट्री के ढांचे को इससे गहरी चोट पहुंची है। दुनिया में भी इस पर कोई खास हलचल नहीं हुई थी क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय जनमत भी समझ गया है कि कश्मीर के नाम पाकिस्तान पर पूरी दुनिया में इस्लामी #कटटरवाद और आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है।  

पाकिस्तानी सेना, इस्लामी कट्टरवाद और आतंक की दूकान चलने वालों का धंधा अब मंदा पड़ने लगा है। आतंक की इसी बुझती हुई आग को हवा देने की कोशिश थी जम्मू के ये ड्रोन हमले।भारत सरकार और देश के लोगों को अभी काफी समय तक सतर्क रहना होगा ताकि इस्लामिक कट्टरपंथी विचार से प्रेरित आतंकवादी संगठन और पाकिस्तान की सेना फिर से जम्मू कश्मीर में नफरत की फसल को न बो पाए।


Sunday, June 6, 2021

सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को हिंदू मुस्लिम रंग देने की शरारत


सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को हिंदू मुस्लिम रंग देने की शरारत

प्रधानमंत्री को औरंगज़ेब, हिटलर और तालिबानी कहना निंदनीय  


सर्वोच्च न्यायालय और दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिए जाने के बाद अब इस मामले को सांप्रदायिक रंग देने की भोंडी शरारत हो रही है। पहले सुप्रीम कोर्ट और एक हफ्ते पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने इस प्रोजेक्ट को राष्ट्रीय महत्व का प्रोजेक्ट बताते हुए इस पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। दिल्ली उच्च न्यायालय ने तो इस प्रोजेक्ट को रोकने की याचिका करने वालों पर ₹100000 का जुर्माना भी लगाया था। लेकिन प्रोजेक्ट का विरोध करने वाले यहीं पर रुके नहीं हैं । 


अब इसे हिंदू मुस्लिम का रंग देकर सांप्रदायिकता भड़काने की कोशिश हो रही है। एक तरफ आम आदमी के चर्चित विधायक अमानुल्लाह खान ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखकर सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के इलाके की 3 मस्जिदों को नुकसान पहुंचने पर चेतावनी भरा पत्र लिखा है। दूसरी ओर ब्रिटेन से छपने वाले 'द गार्डियन अखबार' में सेंट्रल विस्टा को 'हिन्दू तालिबानी' प्रोजेक्ट बताया गया है। अखबार के 5 जून के अंक में छपे इस लेख में सारी पत्रकारीय मर्यादाएं  तोड़ते हुए प्रधानमंत्री मोदी को आज का औरंगजेब, हिटलर और तालिबानी जैसा बताया है। 


पहले बात अमानुल्लाह खान की चिट्ठी की। आम आदमी पार्टी के विधायक अमानुल्लाह खान अपनी गुंडागर्दी के लिए जाने जाते हैं। आपको बताना जरूरी है कि इन्हीं पर  2018 की फरवरी में दिल्ली के तत्कालीन मुख्यसचिव अंशु प्रकाश के साथ मारपीट इल्जाम है। इस बहुचर्चित केस में दिल्ली के मुख्य सचिव के साथ मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के आवास में रात को 12:00 बजे बुलाकर मारपीट की गई थी। अंशु प्रकाश की लिखित शिकायत में इस मामले में अमानुल्लाह खान को नामजद किया गया था। 


इन्हीं अमानुल्लाह खान ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है। 03 जून की तारीख वाली इस चिठ्ठी में उन्होंने चेतावनी दी है कि सेंट्रल विस्टा में आने वाली तीन मस्जिदों को कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से 10 दिन में इस पर जबाव माँगा है। आम आदमी पार्टी से पूछना बनता है कि अगर सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट में पड़ने वाले धार्मिक स्थलों के बारे में चिंता है तो फिर पार्टी विधायक को वहाँ के मंदिरों, गुरुद्वारों और गिरजाघरों का भी जिक्र करना चाहिए था। क्या धार्मिक भावनाएं सिर्फ मुसलमानों की होती हैं? राष्ट्रीय महत्व के इस प्रोजेक्ट को हिन्दू और मुसलमान के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। सवाल है कि यह चिट्ठी अमानुल्लाह खान जैसे कुख्यात विधायक से क्यों  लिखवाई गई? अगर आम आदमी पार्टी को इस प्रोजेक्ट से शिकायत है तो पार्टी दूसरे तरीके से भी इस मामले को उठा सकती थी। 

 

आम आदमी पार्टी को खैर दिल्ली में हिंदू मुसलमान वोटों की राजनीति करनी है। पर 'द गार्डियन' जैसे ब्रिटेन से छपने वाले अंग्रेजी अखबार को क्या हो गया कि उसके लेख में  सारी पत्रकारीय लक्ष्मण रेखाएँ लाँघ दी गयीं। इंग्लैंड की नागरिकता रखने वाले आर्किटेक्ट अनीश कपूर का ये लेख कई अनर्गल तर्क और झूठ परोसता है। इस तर्क को आप क्या कहेंगे कि मोदी सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट इसलिए बनवा रहे हैं क्योंकि वे मुसलमानों से घृणा करते है। बहुत ही बचकाना तरीके से इस लेख में मौजूदा संसद भवन और राजपथ की अन्य सभी इमारतों को इस्लामी बताया गया है। इन्हें "दुनिया की इस्लाम प्रभावित सबसे महत्वपूर्ण निशानी" बताते हुए वे लिखते हैं कि "मोदी भारत की सभी इस्लामिक इमारतों और 20 करोड़ मुसलमानों को नेस्तनाबूद करने से कम कुछ भी नहीं चाहते।"   


उनका झूठ यहीं नहीं रुकता। वे कहते है कि "हमें नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने (मोदी ने ) ज़ोर ज़बरदस्ती से लाखों भारतीय मुसलमानों की नागरिकता छीनकर उन्हें राज्य-विहीन बना दिया है।" ये झूठ छापने से पहले गार्डियन को इसकी पुष्टि करनी चाहिए थी। समझ में नहीं आता कि अपने को प्रतिष्ठित करने वाले द गार्डियन जैसे 200 साल पुराने अखबार ने ये सफ़ेद झूठ अपने यहां क्यों छपने दिया। या फिर ये माना जाये कि ये अखबार और इसके संपादक भी सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को सांप्रदायिक रंग देने के इस  राजनीतिक खेल में शामिल हैं?  


ध्यान देने की बात है कि इसी व्यक्ति ने 12 मई को एक खुला पत्र लिखकर भारत सरकार से सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को रोकने की मांग की थी। उनके साथ कोई 76 कथित बुद्धिजीवियों ने इस पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इस पर हताक्षर करने वालों में अधिकतर रोमिला थापर जैसे वामपंथी विचार वाले लोग ही थे। इस पत्र में कहा गया था कि कोरोना के कारण दिल्ली में कई खतरे हैं। कोरोना को देखते हुए सेंट्रल विस्ता प्रोजेक्ट को फिलहाल रोक देना चाहिए। इसी तर्क के आधार पर दायर अन्या मल्होत्रा और सोहेल हाशमी की याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने सुनवाई की। इन मुद्दों को सिलसिलेवार ढंग से निपटाते हुए हाई कोर्ट के निर्णय में स्पष्ट कर दिया गया कि राष्ट्रीय महत्व के इस प्रोजेक्ट को रोकना ठीक नहीं होगा। इससे पहले सर्वोच्च न्यायालय इस प्रोजेक्ट को हरी झंडी दे ही चुका था। 


लगता है प्रोजेक्ट का विरोध करने वालों के लिए भारत की न्यायपालिका का कोइ मोल नहीं है। क्योंकि गार्डियन के लेख में अदालतों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर अवमानना पूर्ण टिप्पड़ी की गयी है। सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को 'मूर्खतापूर्ण' कहते हुए लिखा गया है कि " भारतीय अदालतों पर दबाव डालकर इस मूर्खतापूर्ण योजना            (सेंट्रलविस्टा ) पर हामी भरवाई गई है..." 


उच्च न्यायालय के फैसले को एक हफ्ता भी नहीं बीता है कि जो लोग कोरोना के नाम पर सेंट्रलविस्टा का विरोध कर रहे थे, उन्हीं ने अब इसे हिंदू-मुस्लिम का रंग देना शुरू कर दिया है। शक पैदा होता है कि क्या प्रोजेक्ट का विरोध करने वाले भारत के लोकतंत्र में सचमुच में आस्था रखते हैं ? आप प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों से सहमत नहीं है, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। प्रजातंत्र में ऐसा होता ही है। परंतु आप एक प्रोजेक्ट के विरोध के बहाने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और सबसे प्राचीन विरासत वाले राष्ट्र के चुने हुए प्रधानमंत्री को तकरीबन गाली गलौज देने पर उतर आये है। यह बात अशोभनीय, अमर्यादित और अलोकतांत्रिक है।  इसे हिंदू मुस्लिम का रंग देने वाले भारत की स्वतंत्र और निष्पक्ष न्याय प्रणाली का अपमान तो कर ही रहे हैं, वे इस देश की लोकतांत्रिक मर्यादाओं, परंपराओं, आत्मसम्मान और गौरव का भी मज़ाक उड़ा रहे हैं। शायद इससे अधिक साम्प्रदायिक और निंदनीय कुछ और नहीं हो सकता।  

#NarendraModi #CentralVista 

Saturday, January 9, 2021

किसान आंदोलन : लोकतंत्र को भीड़ तंत्र से बचाना ज़रूरी





बुधवार को अमेरिकी संसद के बाहर वॉशिंगटन में जो हुआ वह भीड़ तंत्र का भयानक नजारा था। एक उकसाई गई भीड़ जोर जबरदस्ती करते हुए अमेरिकी संसद कैपिटल हिल में घुस गई और उसने नई चुनी हुई सरकार के निर्वाचन की अंतिम प्रक्रिया को रोकने की भोंडी कोशिश की। कुछ सौ हुड़दंगी लोगों ने धक्काशाही करके नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन के नाम पर सीनेट की मुहर लगाने को रोकने का प्रयास किया। ये लोग राष्ट्रपति ट्रम्प के समर्थक थे जो चुनाव हार चुके हैं।

लोकतंत्र में आस्था रखने वाले दुनिया भर के लोगों के लिए यह एक भूल जाने वाला दिन था। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप जाते जाते अपना नाम उन नेताओं की सूची में लिखा गए जिन्हें कोई याद नहीं रखना चाहेगा। अमेरिकी चुनावों में धांधली हुई, कि नहीं हमें नहीं मालूम। लेकिन जब चुनाव सत्यापन के लिए अमरीकी संसद बैठ रही थी तो धौंसपट्टी से संसद के काम में बाधा डालने से गैर लोकतांत्रिक काम नहीं हो सकता। 

यह भीड़तंत्र का एक नमूना था। यह भीड़ तंत्र अब दुनिया भर के लोकतंत्रों के लिए एक गंभीर खतरा बन गया है। यह उस खतरे से भी बड़ा है जो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के निरंकुश, अतिवादी और तानाशाही नेतृत्व  ने दुनिया के सामने खड़ा किया है। चीन की अधिनायकवादी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा पैदा संकट तो बाहरी खतरा है। जिसकी काट लोकतान्त्रिक व्यवस्थाएं निकाल ही लेंगी। भीड़तंत्र की ये चुनौती घुन की तरह है जो भीतर ही भीतर लोकतंत्र को खोखला कर देगी। इसकी जितनी निंदा की जाए उतनी कम है। 

चुनाव में कभी न जीत सकने वाली या सत्ता गँवा देने जाने वाली ताकतें इस सुनियोजित अराजकता के पीछे सक्रिय हो रही हैं। इनका मिथ्या प्रचार आगे बढ़ने  में ये सोशल मीडिया का चालाकीपूर्ण उपयोग भी ये लोग कर रहे हैं। शत्रुता रखने वाले देश भी इस आग में घी डाल कर अपना शत्रुधर्म निभा रहे हैं। लोकतान्त्रिक समाजों का खुलापन ही, ऐसा लगता है, उनकी बड़ी कमजोरी बन गया है।  ऐसी ताकतें लोगों को बरगला कर अराजकता का माहौल पैदा कर रहीं है। इनका मकसद हिंसा का सहारा लेकर चुनी हुई सरकारों को काम करने से रोकना है। इनका आखिरी लक्ष्य अन्तोगत्वा लोकतंत्र को बदनाम कर उसे खत्म करने का ही है। इनकी आस्था लोकतान्त्रिक मूल्यों और व्यवस्था में कतई नहीं हैं। लोकतान्त्रिक अधिकारों का इस्तेमाल वे तो उसे उखाड़ने के लिए कर रहे हैं। 

एक बात तो तय है, लोकतंत्र में फैसले सड़कों पर नहीं हो सकते। इसके लिए लोकतांत्रिक समाजों ने कई संस्थाएं बनाई है। जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर विधायिकाओं में भेजती है, जिनका काम है कानून बनाना और उनका पालन करवाना। और, यदि किसी चुनी हुई सरकार का काम जनता को पसंद नहीं आता है तो जनता उनको बाहर का रास्ता दिखा देती है। सरकार बदलने का अधिकार भारत में जनता को हर 5 वर्ष में मिलता है। देखा जाए तो जनता अपने इस अधिकार का उपयोग राज्यों के चुनावों में भी करती है। स्थानीय चुनाव भी होते हैं जिनमें लगातार जनता अपने अभिमत को दर्ज़ कराती रहती है। इसके अलावा न्यायपालिका भी इन समाजों में अपनी प्रभावी भूमिका निभाती है। 

भारत एक बड़ी जनसंख्या वाला देश है। यहां मिथ्या प्रचार कर के,  बहला-फुसलाकर, बरगला कर, भड़का कर, भय दिखा कर अथवा लालच देकर कुछ हजार लोगों को इकट्ठा करना कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं है। तो क्या, अगर कुछ हजार लोग इकट्ठे हो जाएं तो उन्हें किसी विषय पर वीटो का अधिकार दिया जा सकता है? ऐसा हुआ तो फिर लोकतान्त्रिक व्यवस्था जिन्दा नहीं रह सकती। वामपंथी और अराजकतावादी दोनों ही ऐसा करना चाहते हैं। 

अमेरिका में भीड़ ने जो किया वह अत्यंत निंदनीय है। लेकिन देखा जाए तो क्या भारत में पिछले 2 साल से किसी न किसी मुद्दे को लेकर से भीड़ को इकट्ठा करके ऐसा ही करने का उपक्रम क्या नहीं चल रहा? इसके पीछे वही लोग हैं जिन्हें बार बार लोग चुनाव में नकार चुके हैं। तर्क और मुद्दा हर बार अलग होता है पर तरीका एक ही है। किसी संवेदनशील मुद्दे पर आक्रोश पैदा करो और भीड़ को इकठ्ठा कर सरकार की विश्वश्नीयता और नीयत पर सवाल खड़े करो। साथ ही बड़े जतन से बनाई गई संस्थाओं और व्यवस्थाओं को लांछित करो। 

याद कीजिये, पिछली सर्दियों में दिल्ली की सड़कों पर सीएए  यानि नागरिकता कानून का विरोध करने के नाम पर आम जनजीवन ठप्प कर दिया गया था। अब कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर दिल्ली की सड़कों पर कुछ लोग जमे हुए हैं।  वे कहते हैं कि या तो कृषि कानूनों को वापस लो या फिर वह दिल्ली को चलने नहीं देंगे। 

इतना ही नहीं, अब तो धमकी देश की शान समझी जाने वाली गणतंत्र दिवस की परेड को भी एक तरह से रोकने की भी है। गणतंत्र दिवस की परेड भारत के सैन्य बल, तकनीकी क्षमता, विकास, गतिशीलता, स्वाभिमान और राष्ट्रीय गौरव का नमूना होती है। इसे दलगत राजनीतिक स्वार्थों में घसीटना अगर एक स्पष्ट राष्ट्रविरोधी नहीं तो अराष्ट्रीय काम तो है ही। कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर इस बार देश की गणतंत्र दिवस परेड के समानांतर एक अलग परेड आयोजित करने की कुत्सित चेष्टा की जा रही है। ऐसा अराष्ट्रीय कार्य पहली बार नहीं हो रहा है। जनवरी 2014 में भी आम आदमी पार्टी ने भी गणतंत्र दिवस परेड के विरोध में बोट क्लब के पास धरना दिया था। तब देश में कांग्रेस की सरकार थी। तब भी कड़ाके की ठंड में फुटपाथ पर सोने का नेरेटिव चलाया गया था। 

गौर करने की बात है कि आज भी कृषि कानूनों का विरोध करने वाले कई चेहरे वही हैं जिन्हें देश की जनता चुनावों में बार बार नकार चुकी है। किसानों का नेतृत्व करने वाले एक प्रमुख देता है हन्नान मुल्लाह। श्री मुल्लाह अपने को किसान नेता कहते हैं। पर असल में तो वे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीएम की पोलित ब्यूरो के वरिष्ठ सदस्य है। पश्चिम बंगाल की उलूबेरिया लोकसभा सीट से 8 बार सीपीएम के टिकट पर लोकसभा का चुनाव जीत चुके हैं। पश्चिम बंगाल की जनता द्वारा चुनावों में धूल चटाये जाने के वाद्य वे और उनकी पार्टी  के बाद अब किसानों के नेता बन गए हैं। किसान यूनियनें भारत सरकार से समझौता करना भी चाहें पर ये किसानधारी नेता कहते हैं कि किसान कानून वापस लिए जाने से कम कोई समझौता नहीं होगा। कृषि कानूनों का विरोध करने वाले अधिकतर लोग वामपंथी एक्टिविस्ट और अराजकतावादी तत्व हैं। उनके साथ अन्य विरोधी दल बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। 2014 और 2019 दोनों के चुनावों में हार चुके लोग अब एक चुनी हुई सरकार को कृषि बिलों के नाम पर मात देना चाहते हैं। 

माना जा सकता है कि कृषि कानूनों में परिवर्तन किए जाने की गुंजाइश है। अपना देश इतना बड़ा है कि हर प्रदेश के किसान एक कानून से खुश नहीं हो सकते।  देश के अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग फसलें उगाई जाती हैं।  इसलिए अलग-अलग किसानों की अलग-अलग परेशानियां हो सकती हैं। पंजाब और हरियाणा के मुख्यतः धान और गेहूं  पैदा करने वाले किसानों की कुछ जायज मांगे हो सकतीं हैं। इन्हें नए कानूनों में शामिल किया जाना चाहिए। यह आमने सामने बैठकर और बातचीत में लचीलापन अपनाकर ही हो सकता है। लेकिन अड़ियल होकर यह रट लगाना कि 'कानून वापसी तक घर वापसी नहीं', एक नितांत अनुचित माँग है। वीटो का ये अधिकार देश में किसी को नहीं है।  

हम इसे एक और तरह से देख सकते हैं। पिछले करीब एक साल से पूरी दुनिया कोविड की महामारी से जूझ रही है। भारत में भी अब तक 1 करोड़  4 लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं। 1,50,000  से ज़्यादा भारतीय कोरोना से जान गँवा चुके है। देश का शायद ही कोई परिवार ऐसा होगा जिसपर कोरोना की मार न पड़ी हो। कारखाने बंद हो गए हैं, छोटे बड़े सभी  दुकानदारों को परेशानी है, कामकाज ठप्प हुए हैं, पढ़ाई लिखाई नहीं हो पा रही है, गाँव -गाँव शहर-शहर  परेशानियों और तक़लीफ़ों का अंबार है। लाखों नौजवान रोज़गार खो चुके हैं। इससे एक स्वाभाविक दुःख और गुस्सा अंदरखाने लोगों में है। कोरोना की तक़लीफ़ों से पैदा हुए इस दर्द का लाभ उठाकर लोगों में आक्रोश पैदा करने का काम कई स्वार्थी तत्व कर रहे हैं। ये घाव पर मरहम की जगह नमक छिड़कने जैसा है।  

और तो और, कृषि कानूनों के बहाने ऐसे तत्त्व किसानों और उद्योगों के बीच एक कृत्रिम दीवार खड़ी करने का काम कर रहे है। सब जानते हैं कि कृषि और उद्योग एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि एक नदी के दो किनारों की तरह हैं। देश के विकास की गाड़ी को - उन्नत कृषि और आधुनिक उद्योग - दोनों ही पहिये चाहिए। किसानों को भड़का कर ये मूलतः विकास विरोधी दल उद्योगों को कृषि के सामने खड़ा करना चाहते हैं। यह कैसा विचित्र तर्क है कि जो उद्योग के लिए सही है वह कृषि के लिए गलत है? देश को उद्योग भी चाहिए क्योंकि उन्हीं से रोजगार मिलेगा और कृषि भी चाहिए क्योंकि वही से पेट भरता है। इन दोनों में कोई द्वंद और विरोधाभास नहीं है।  लेकिन कुछ अतिवादी  लोग इस देश में उद्योगों के खिलाफ माहौल बना रहे हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने पश्चिम बंगाल को एक अच्छे खासे खुशहाल तथा उन्नत, विकासमान और संपन्न राज्य से अपने शासन में एकदम पिछड़ा राज्य बना दिया। ऐसा वे अब पंजाब में भी करने पर आमादा है।  

कृषि कानूनों के विरोध के नाम पर चल रहा प्रदर्शन भीड़तंत्र का ही एक नमूना है। याद कीजिए जब नागरिकता कानून का मामला आया था तब भी कुछ लोगों ने सार्वजनिक तौर पर भाषण देकर कहा था अब तो फैसला सड़कों पर ही होगा। भीड़ को उकसाने की कार्यवाही तब भी हो रही थी और भीड़ को उकसाकर जनता को बरगलाने की कार्यवाही अभी हो रही है। यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। 

इस नाते  ट्रंप समर्थकों ने लोकतंत्र पर जो हमला किया उसमें, और भारत में जो चुनी हुई सरकार के खिलाफ हो रहा है, दोनों में बुनियादी सोच के तौर पर कोई ज्यादा फर्क नहीं है।  लोगों के दर्द का इस्तेमाल कर उन्हें इकट्ठा करके अराजकता और असंतोष पैदा करना लोकतंत्र नहीं भीड़तंत्र है। ध्यान देने की बात है कि इनमें से ज़्यादातर तत्व चीन की निरंकुश व्यवस्था को अपना आदर्श और वहां की कम्युनिस्ट पार्टी को अपना आका मानते हैं। इसलिए भारत सहित दुनिया के लोकतंत्रों को सबसे बड़ा खतरा इस समय चीन की अधिनायकवादी व्यवस्था से नहीं बल्कि अपने ही भीतर बसे इन तत्वों से है जो सड़कों पर आकर को भीड़ की लाठी से देश को  हांकना चाहते हैं। इस आंदोलन का नतीजा कुछ भी हो नुक्सान हम सबका ही होने वाला है। 
ये भीड़तंत्र लोकतंत्र का दुश्मन है।