Tuesday, April 11, 2017

16 हजार की थाली और ‘आम’ से ‘खास’ होते केजरीवाल

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हमेशा सुर्खियों में रहते हैं। शायद वे मानते हैं कि प्रचार कैसा भी हो- अच्छा या बुरा, होते रहना चाहिए। दिल्ली नगर निगम चुनाव से पहले उनके वकील राम जेठमलानी और हजारों रूपये की थाली को लेकर वे फिर से सुर्खियों और चर्चा के केन्द्र में हैं। शायद उन्हें इसकी चिंता भी नहीं कि इससे उन्हें यश मिलेगा या अपयश। पंजाब और गोवा चुनाव परिणामों के बाद ख़बरों से गायब होना शायद उनके समर्थकों को भी अच्छा नहीं लग रहा था। सो और विवाद खड़े हो गये हैं , लेकिन ये विवाद जरा अलग किस्म के हैं और ये उनकी भविष्य की राजनीति पर गहरा असर कर सकते हैं ।
केजरीवाल, उनकी सोच और राजनैतिक शैली को आप पसंद करते हों या नहीं मगर उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी को लेकर आमतौर पर आजतक उंगलियाँ नहीं उठीं । जेठमलानी की फीस और हज़ारों रूपये की थाली विवाद इस मायने में अलग है कि वह उनकी निजी ईमानदारी पर ही गहरे सवाल खड़े करता है। इस नाते जिन मूल्यों और आस्था को लेकर राजनीति के आसमान में वे और उनकी आम आदमी पार्टी चमके - उन्हीं पर अब चोट हो रही है। इसलिए अगर उनके समर्थक ये सोच रहे हैं कि ये विवाद भी उन्हें सुर्खियों में लाकर राजनीतिक फायदा पहुचाएंगे, वो शायद ये उनकी गलतफहमी ही हो सकती है।
ईमानदारी स्वयं सिद्ध होती है। उसे किसी तर्क या प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। वह उस कस्तूरी की तरह होती है जिसे अपनी सुगंध के लिए किसी से कहना नहीं पड़ता। वह तो स्वयं ही लोगों तक पहुंच जाती है और लोग अपने आप उसकी ओर खिंचे चले जाते हैं। ये भी सही है कि कई बार बनावटी सुगंध भी कुछ समय तक लोगों ध्यान आकर्षित कर लेती है परन्तु उसका असर अधिक समय तक नहीं रहता। जैसे रंगे सियार की पोल बरसात आने पर खुल ही जाती है उसी भांति जनता भी बेईमान और ईमानदार में भेद कर ही लेती है। ईमानदारी और बेईमानी को लेकर देश की आम जनता ज्यादा गफलत में नहीं रहती।
हजारों रूपये की थाली और जेठमलानी फीस विवाद केजरीवाल के वाकई 'आम आदमी' होने की अग्निपरीक्षा के विवाद हैं। अगर उनकी ईमानदारी पर एक भी दाग आ गया तो फिर मान लिया जाएगा कि ईमानदारी की बुनियाद पर बनाया उनका राजनीतिक घरोंदा समुद्र के किनारे रेत से बनाया एक घर ही था, जो पहली लहर आते ही बह गया। ये सोना था ही नहीं इसलिए यथार्थ की भट्टी में पिघल कर वह कुन्दन नहीं बल्कि राख बन गया।
आइये देखते हैं कि ये दोनों विवाद हैं क्या? पहला विवाद है उन बयानों पर जिनमें केजरीवाल ने कुछ लांछन और आरोप भाजपा नेता और केंद्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली पर लगाए। ये आरोप व्यक्तिगत किस्म के थे जिसमें जेटली के परिवार को भी घसीटा गया था। चूंकि आरोप व्यक्तिगत थे इसलिए जेटली ने इसे अपनी अवमानना माना और उन्होंने केजरीवाल के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। ये मुकदमा उन्होंने वित्तमंत्री के तौर पर नहीं बल्कि एक साधारण नागरिक के तौर पर दर्ज कराया। केजरीवाल ने भी जो हलफनामा अदालत में दायर किया उसमें कहा कि वे निजी तौर पर इस मामले में प्रतिवादी हैं।
इसके लिए केजरीवाल ने जाने-माने वकील राम जेठमलानी की सेवाएं ली। यहां तक तो ठीक था, मगर दिल्ली के उप मुख्य मंत्री मनीष सिसौदिया ने फाइल चला कर जेठमलानी के वकील के तौर पर पेश होने वाले बिल को सरकार द्वारा अदा करने के आदेश दिए। ये बिल कोई साढ़े तीन करोड़ रूपये से ऊपर के हैं। सवाल है कि क्या अरूण जेटली के द्वारा दायर मुकदमे में दिल्ली सरकार प्रतिवादी है या फिर अरविंद केजरीवाल? दूसरा, क्या अब तक दिल्ली सरकार का कोई सरकारी वकील इस मुकदमे में पेश हुआ है क्या? और तीसरा, क्या केजरीवाल अब तक अदालत में बाहैसियत मुख्यमंत्री पेश हुए हैं या एक आम मुलजिम के तौर पर? केजरीवाल पर मुकदमा मुख्यमंत्री के तौर पर नहीं हैं तो फिर दिल्ली सरकार को जेठमलानी की फीस भरने को कैसे कहा जा सकता है? यदि ऐसा था तो फिर दिल्ली सरकार के वकील ने उनका वकालतनामा भरना चाहिए था? अगर ऐसा नहीं है तो फिर मनीष सिसौदिया और केजरीवाल से गंभीर चूक हो गई लगती है?
दूसरा विवाद है फरवरी 2016 में मुख्यमंत्री केजरीवाल के घर परोसी हज़ारों रुपये की थाली का। दिल्ली में केजरीवाल सरकार के एक साल पूरा होने पर जश्र मनाया गया। इस में हुए भोज में में एक थाली की कीमत 16000 रुपये से ऊपर है। क्या मुख्यमंत्री आवास में हजारों रूपये प्रति की थाली का परोसा जाना ''आप'' के प्रचारित मूल्यों के अनुरूप है? भाजपा और ''आप'' की रोज़मर्रा की राजनीतिक तू तू-मैं मैं से बाहर जाकर भी देखा जाए तो कुछ बुनियादी सवाल पैदा होते हैं। पहला ये कि एक वैकल्पिक और साफ-सुथरी राजनीति देने का दावा करने वाली पार्टी को एक साल पूरा होने पर ऐसे जश्र की जरूरत ही क्या थी? और दूसरा कि अगर मेहमानों को भोजन कराना भी था तो उसे दिल्ली के सबसे महंगे पांच सितारा होटल ताजमहल से मंगाना क्यों जरूरी था? क्या आम दिल्ली वाला इतने महंगे होटल का खाना खाता है? हज़ारों रूपये की थाली का भोजन तो राजे रजवाड़े और रइसों के बूते की ही बात है। फिर इसका बिल दिल्ली की जनता के पैसे से क्यों जाए?
मैंने जैसा पहले लिखा कि ईमानदारी सिर्फ कहने या दिखाने से साबित नहीं होती। वो तो निभाने से होती है। इस देश में ईमानदारी का उदाहरण विष्णुगुप्त चाणक्य का दिया जाता है। मगध के अमात्य यानि महामंत्री के तौर पर वे जब काम करते थे उस दीपक का इस्तेमाल करते थे जिसका तेल राजकोष के धन से आता था। लेकिन जैसे ही वे अपना निजी काम करते थे तो वे उस दीये को बुझाकर दूसरा दीया जलाते थे जिसमें वे अपनी व्यक्तिगत कमाई से पाए हुए पैसे से खरीदा तेल डालते थे। अगर इस देश में ईमानदारी का प्रतिमान बनना है तो चाणक्य अथवा लालबहादुर शास्त्री सरीखों नेताओं से सीखना और उनका अनुसरण करना पड़ेगा। ईमानदारी किसी तर्क या बहस की मोहताज नहीं है बल्कि वह आचरण की दासी है।
ये दोनों ही मुद्दे राजनैतिक शुचिता, नैतिकता और सार्वजानिक जीवन में ईमानदारी को लेकर कई सवाल उठाते है। लेकिन ये भी साफ़ है कि जनता की अदालत में अगर केजरीवाल की ईमानदारी की प्रतिमा को चोट पहुंच गई तो उसकी भरपाई होना मुश्किल है। केजरीवाल ने एक जनसभा में जनता से पूछा कि क्या दिल्ली सरकार को उनके मुकदमे का बिल भरना चाहिए। मेरे विचार से उन्हें ये चुनावी सभा की भीड़ से नहीं बल्कि अपने अंतरमन से पूछना चाहिए। उन्हें ईमानदारी, सरकारी फिजूलखर्ची पर दिए गए अपने भाषण, अदालत में पेश अपने हलफनामे और बयानों को देखना चाहिए जहां इस गुत्थी के उत्तर छिपे हैं। नहीं तो माना जाएगा कि ''आम आदमी'' बनने वाले केजरीवाल अब ''आम'' नहीं रह गए बल्कि अब वो ''बेहद खास आदमी'' बन गए हैं। बिल्कुल उन सत्तालोलुप नेताओं की तर्ज पर जिनके विरोध में उन्होंने आम आदमी पार्टी बनाई थी।
उमेश उपाध्याय
12 अप्रेल 2017

No comments:

Post a Comment