अटलजी को इतिहास कैसे याद करेगा?
-एक कवि हृदय नेता, जो जब बोलने के लिए खड़ा होता था तो उनके समर्थक तो समर्थक, उनके विरोधी भी तालियां बजाने के लिए मज़बूर हो जाते थे।
-मर्यादाओं की राजनीति करने वाला एक ऐसा नेता जिसने तकरीबन पांच दशक तक भारतीय राजनीति को एक नयी दिशा की ओर ले जाने का प्रयास किया। पहले जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी का शिखर पुरूष जिसने प्रमुखतः हिंदी भाषी क्षेत्र की इस पार्टी को संपूर्ण भारत की पार्टी बनाया।
-एक ऐसा नेता जो तीन बार प्रधानमंत्री रहा, विदेश मंत्री रहा, विपक्षी दल का नेता रहा - फिर भी वह अजातशत्रु बन गया। अर्थात ऐसा नेता जिसे सबसे प्यार मिला।
अटल बिहारी वाजपेयी के ये सभी रूप और भूमिकाएं एक से एक बढक़र हैं। एक सामान्य नेता यदि अपने जीवन काल में इनमें से एक भूमिका को ठीक से निभा ले तो वह एक महान नेता की श्रेणी में आ खड़ा होगा। फिर अटल जी के राजनीतिक जीवन में तो इन सभी गुणों का समावेश था। तो क्या इतिहास उन्हें सिर्फ इतने भर के लिए ही याद करेगा?
मेरे विचार में अटल जी का योगदान इन सबसे भी कहीं बढक़र था। उनके योगदान को अगर एक वाक्य में समेटना हो तो अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘भारत की भारतीय अवधारणा’ को देश की राजनीति की मुख्यधारा में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसे थोड़ा गहराई से समझना जरूरी है। अटलजी अक्सर विनोद में कहा करते थे कि उन्हें उनके वैचारिक विरोधी ये कहकर चिढ़ाते हैं कि 'वे आदमी तो अच्छे हैं पर गलत पार्टी में हैं।'
‘‘गलत पार्टी में अच्छे नेता’’- इसका भाव क्या हैं? ये बात चाहे मजाक में ही कही गयी हो - परंतु ये लगातार अटल जी के बारे में कही तो गई। मजाक में ही सही, विरोधियों के इस व्यंग्य में खासी राजनीतिक चतुराई थी। ‘‘गलत पार्टी’’ और ‘‘अच्छे आदमी’’ को इस अवधारणा को समझना आवश्यक है। तभी हमें मालूम पड़ेगा कि अटलजी होने का मायने भारत के लिए क्या है?
अपनी को बात को एक उदाहरण से समझाता हूँ । पिछले साल न्यूयार्क के विख्यात ‘‘न्यूयार्क मेट्रोपालिटन म्यूजियम” को देखने गया। इस संग्रहालय में एक तरह से इतिहास के संग्रहण के माध्यम से आपको विश्वसंस्कृति के दर्शन होते हैं। दुनिया में कौन कितना वजन रखता है - कौनसी संस्कृति ने दुनिया को कितना प्रभावित किया है। उसका नजरिया आपको यहां कला संग्रहण के माध्यम से दिखाई देता है। परंतु भारतीय होने के नाते मुझे वहां गहरी निराशा हुई। भारत के नाम पर वहां मुगलकाल का थोड़ा सा चित्रण है। भगवान बुद्ध की कुछ प्रतिमाएं तथा दो चार इरोटिक हिंदू धार्मिक मूर्तियां और चित्र ही इस विख्यात संग्रहालय में भारत और भारतीयता का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसे देखकर मन में बड़ी खिन्नता हुई। भारत की महान संस्कृति-जो विश्व की एकमात्र अविरल बहने वाली जीवित सांस्कृतिक
धारा है। उसकी इतनी घोर उपेक्षा?
ये उदाहरण भारत को देखने के विदेशी नजरिये का एक छोटा सा उदाहरण मात्र है। ये सिर्फ बताता है कि भारत को देखने का दुनिया का नजरिया क्या है। अपने देश को देखने के दुनिया के इस नज़रिये पर हर भारतीय को क्षोभ हो सकता है। पर ये अलग विषय है। इस पर लम्बी चर्चा कभी बाद में। फिलहाल हम बात कर रहे हैं अटल जी के भारत में योगदान की।
भारत की तरफ देखने के नज़रिए का विरोधाभास और द्वन्द पुराना है। आजादी के पहले से ही भारत के आकलन की दो धाराएं रही है। एक पश्चिमी और दूसरी ठेठ भारतीय।अटल जी दरअसल 'सही पार्टी में सही आदमी' थे क्योंकि वे भारत को, भारत की नज़र से देखने की दृष्टि और वैसा कहने की हिम्मत रखते थे। पश्चिमी दृष्टि से भारत की ओर देखने वाली सोच की दो धाराएं हैं। एक मार्क्सवादी धारा और दूसरी उदारवादी धारा। इनमें से किसी भी चश्मे से आप देखें तो पाएंगे कि भारत के मौजूदा शिक्षा, विज्ञान, साहित्य, कला और सभ्यतागत संस्थानों को एक खास पश्चिमी नजरिये से ही बनाया गया है। भारत को लेकर इन दोनों दृष्टियों की मूल सोच एक ही है। और वो ये कि अंग्रेजों के आने बाद ही भारत में आधुनिकता आई। ये विचार मूलत: ये मानता है कि अंग्रेजो से पहले का भारत पुरातनपंथी
और दकियानूसी था। उसमें कुछ भी बताने लायक है ही नहीं। न्यूयोर्क संग्रहालय की तरह इन लोगों के लिए भारतीय सभ्यता का स्थान विश्व इतिहास की एक बड़ी पुस्तक में एक छोटे अध्याय के एक पन्ने के नीचे लिखे एक फुटनोट से ज्यादा नहीं है।
भारत की इस ‘‘अभारतीय धारणा’’ को अंग्रेज़ो द्वारा स्थापित/पोषित संस्थाओं से उत्पन्न भारत के बड़े वौद्धिक वर्ग ने पुष्पित और पल्लवित किया है। यह वौद्धिक वर्ग आजादी के बाद और मज़बूत होता गया। अपने यहाँ प्रचलित ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला, संस्कृति और भाषा सबने इसी धारणा और नजरिये को ही ताकत दी है। इसमें वामपंथी और उदारवादी सेकुलरिस्ट
दोनों ही शामिल हैं। भारत की राजनीती और नेरेटिव को नियंत्रित करने वाले इन दोनों विचारों की गंगोत्री में पश्चिमी दर्शन और दृष्टिकोण ही है।
इसके विपरीत ‘‘भारत को भारत की नजर’’ से देखने को एक धारा है। सदियों की गुलामी के कारण ‘‘भारत का ये भारतीय नजरिया’’ कभी भी शासकीय नहीं हो पाया। भारतीय तत्वदर्शन, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान, यहाँ की परंपराएं, रवायतें, रीति रिवाज़ों को हमेशा इस पश्चिमी नजरिये ने रूढि़वादी, पुरातनपंथी
कहकर त्याज्य बताया। यहां ये बताना उल्लेखनीय होगा कि राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से गुलाम होने के परिणामस्वरूप अपना देश कई राजनीतिक टुकड़ों में विभक्त हो गया था। पर इसमें भी एक बात खास थी। उसपर शासन विदेशियों ने ज़रूर किया परन्तु विदेशी आक्रांता देश में अन्तर्निहित भारतीयता को तोड़ नहीं सके।
इसका कारण था कि सरकारों को दरकिनार कर, बृहत् समाज ने देश की अस्मिता की रक्षा का काम अपने हाथों में ले लिया। देश के विभिन्न भागो में जन्में अलग-अलग भाषाओं के संत कवियों ने भारत की इस भारतीयता को लोक संयोजन के माध्यम से ज़ोरदार ढंग से लोगों के चित्त में सबसे पहले खड़ा किया। दीर्घकाल तक अनवरत चलने वाली रिले रेस की तरह इसका जिम्मा अलग-अलग समय पर अलग-अलग वैचारिक योद्धा उठाते रहे। मां भारती के ये सच्चे सुपूत कभी धार्मिक प्रणेंताओं
के रूप में हमारे सामने आते है; तो कभी समाज सुधारक के रूप में। कभी ये राजनीतिक चिन्तकों का रूप धारण करते हैं; तो कभी कुशल संगठन कर्ताओं का। देश काल परिस्थिति के अनुसार इनकी बात कहने का ढ़ंग अलग होता है - भाषा भिन्न होती है। पर ये सब बात एक ही कहते हैं। जिस तरह से बाँसुरी से निकलने वाली अलग-अलग मीठी धुनों के पीछे एक ही प्राणवायु होती है - वैसे ही इन भारतीय सपूतों के बोलों में अनेक विविधताओं के बावजूद एक ही सुर निकला वो था भारतीयता का गान।
भारत माता के इन सपूतों की एक लम्बी श्रृखंला है। गुरू नानक, दयानंद सरस्वती, तुलसीदास, कबीर, गुरु गोविन्द सिंह, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, गांधी, अम्बेडकर, वीर सावरकर, डॉ. हेगडेवार, सुभाष चंद्र बोस, दीनदयाल उपाध्याय, तिलक, महामना मालवीय आदि आदि। ये तो कुछ ही नाम हैं। महा पुरुषों के ये सूची और भी लम्बी है।
अगर आप ध्यान से देखें तो अटल बिहारी वालपेयी अपनी वकृतत्व कला, शहद से मीठे व्यक्तित्व
और राजनीतिक सूझबूझ के माध्यम से भारतीय राजनीति में ‘‘भारतीयता’’ की इस धारा को मुख्यधारा का हिस्सा बना देते हैं।
उनके विरोधी भी इसका लोहा मानते हैं। क्योंकि वाजपेयी का राजनीतिक चातुर्य, गांधी और समाजवाद को भी एकात्म मानववाद से जोड़ देता है। अटलजी के पूरे जीवन के महत्वपूर्ण राजनीतिक निर्णयों को देखा जाए तो उनमें आपको 'भारत का भारतीय दृष्टिकोण' दिखाई देगाा। इसलिए जब विदेशमंत्री के तौर पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में बोलने का साहस दिखाते हैं तो वह महज एक लोक-लुभावन कदम नहीं होता। वह भारतीयता को विश्व पटल पर स्थापित करने का एक मजबूत कदम होता है।
इसी तरह जब जनता पार्टी की सरकार भारतीय प्रशासनिक सेवााओं में अनिवार्य अंग्रेजी निबंध के पेपर को समाप्त कर, सभी भारतीय भाषाओं को यू.पी.एस.सी. में अंग्रेजी के बराबर खड़ा करती है, तो वह एक बड़ा प्रशासनिक सुधार होता है। वाजपेयी की एनडीए सरकार के आर्थिक सुधारों के फैसलों पर 'व्यवसाय को व्यवसायियों के लिए छोड़ देने' की भारतीय अवधारणा की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। 1998 के परमाणु विस्फोट भारत के रक्षा मेरूदंड और अस्मिता को जो ताकत देते हैं। उसे आज कौन नहीं समझता!
वैसे देखा जाए तो अटल जी को लेकर एक वैचाारिक सम्भ्रम खड़ा करने की एक जोरदार कोशिश लगातार होती रही है। अटलजी की लोकप्रियता
सिर्फ उनके अच्छा बोलने से नहीं बल्कि उनकी वैचारिक पृष्टभूमि से है। विरोधी जब वाजपेयी के अटल इरादों की कोई काट नहीं ढूंढ पाते तो वे ‘‘गलत पार्टी में सही आदमी’’ जैसे कमजोर तर्क का सहारा लेते हैं। अटलजी के विचार, उनकी भावपूर्ण कविताओं और उनकी राजनीती में तारतम्यता साफ़ नजर आती है। वहां कोई भ्रम नहीं है। प्रधानमंत्री होते हुए भी वे अपनी कविता को छुपाते नहीं है और ताल ठोक के कहते हैं।
हिंदू तन मन हिंदू जीवन,
रग-रग हिंदू मेरा परिचय।
इसी कविता के एक और पद से हमने जो ऊपर बात कही है उसकी पुष्टि होती है।
वे लिखते हैं:
मै एक बिन्दु परिपूर्ण सिन्धु है यह मेरा हिन्दु समाज;
मेरा इसका संबन्ध अमर मै व्यक्ति और यह है समाज।
इससे मैने पाया तन मन इससे मैने पाया जीवन;
मेरा तो बस कर्तव्य यही कर दू सब कुछ इसके अर्पण।
मै तो समाज की थाति हूं मै तो समाज का हूं सेवक;
मै तो समष्टि के लिए व्यष्टि का कर सकता बलिदान अभय,
हिन्दु तन मन हिन्दु जीवन रग रग हिन्दु मेरा परिचय॥
यहाँ स्पष्ट कर देना उचित होगा कि अटलजी हिंदू और भारतीय में फर्क नहीं मानते। दरअसल ये ये फर्क है भी नहीं। पश्चिमी चिंतन और उससे निकले संकीर्ण विचारों ने ऐतिहासिक/राजनीतिक कारणों से वृहत और बुनियादी रूप से उदार हिंदू अस्मिता को मजहबी खांचे में ढ़ालने की लगातार कोशिश की है। कई बार ये भ्रम फ़ैलाने में वे सफल भी हुए हैं। इसके सामानांतर अटल बिहारी वाजपेयी का सबसे बड़ा योगदान ये है कि उन्होंने भारतीय और हिंदू के बीच की इस कृत्रिम राजनीतिक विभाजक खाई को पाटने की पुरजोर और एक बड़ी हद तक सफल कोशिश की है।
उन्होंने भारत को हौसला दिया है कि वह भारत को भारत की नजर से देखने में लज्जित न हो।
भारतीय विरासत की अपनी अनवरत यात्रा में मां भारती इस अमिट योगदान के लिए अपने अमर सपूत ‘अटल’ की हमेशा ऋणी रहेगी।
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उमेश उपाध्याय
18 अगस्त 18
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