Sunday, January 20, 2019

सीबीआई के बहाने छिछोरी राजनीति



कभी चुनाव आयोग,
कभी देश के मुख्य न्यायाधीश,
कभी सी.बी.आई.
कभी सी.वी.सी
और अब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस सीकरी।

देश में अब छिछोरी राजनीति की इन्तिहा हो गयी है। आलम ये है कि अब कई दल और नेता किसी सांवैधानिक संस्था पर कीचड़ उछालने और उनकी छीछालेदार करने में एक पल नहीं लगाते। ये असहिष्णुता, गैर लोकतांत्रिक आचरण, संस्थाओं की अवमानना और राजनैतिक असहनशीलता की पराकाष्ठा है।

याद कीजिए किस तरह से चुनाव हारने पर कई नेताओं ने #ईवीएम में हेराफेरी के आरोप लगाए थे? किस तरह उन्होंने चुनाव आयुक्तों पर छींटाकसी की थी? #चुनावआयोग जैसी संस्था की मंशा पर बेतरह उँगलियाँ उठाई गईं थीं। पर अब ये सब चुप हैं क्योंकि तीन राज्यों में उनकी अपनी जीत हो गयी है।

आप भूले नहीं होंगे कि इसी तरह देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा को निशाना बनाया गया था। उनके कई निर्णय जब मनमाफिक नहीं हुए थे उनके खिलाफ महाभियोग की याचिका तक डाल दी गयी थी। लेकिन यही . #उच्चतमन्यायालय उनके लिए उस समय अच्छा बन गया था जब उसने कर्नाटक में उनके पक्ष में फैसला सुनाया था।

अब फिर वही कहानी दोहराई जा रही है। #सीवीआई के डायरेक्टर को लेकर जस्टिस सीकरी ने एक खास रूख अपनाया। उन्होंने सीवीआई डायरेक्टर को बहाल करने के खिलाफ मत दिया तो किस तरह कई राजनीतिक दल, नेता, वुद्धजीवी और मीडिया का एक वर्ग तलवारें लेकर उनके पीछे पड़ गया है। किस भोंडे और शर्मनाक तरीके से  उनके आचरण, उनकी निष्पक्षता और उनकी न्यायिक क्षमता को कटघरे में खड़ा किया जा रहा है?

यानि जो भी संस्था या सांवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति आपके अनुसार चले वह सबसे अच्छा और जो आपके मुताबिक न चले उसपर बेतुके सवाल उठा दिए जांए। आपके मुफीद न चलने वाला हर अधिकारी गड़बड़ हो जाता है। समझ में नहीं आता कि यह कैसी परम्परा को जन्म दिया जा रहा है? इससे किसका भला होगा? सोशल मीडिया  वाली जूतम पजार को मुख्य धारा के विमर्श का आधार बनाने की यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक है।

ऐसा करने वालों को समझना चाहिए कि राजनीति एक हद तक ही सही होती है। कुछ परम्पराओं, संस्थाओं, सांवैधानिक पदों की गरिमा को कायम रखना सभी दलों, मीडिया और वुद्धजीवियों की जिम्मेदारी है। लोकतंत्र इन्ही संस्थाओं की ताकत और मजबूती से चलता और कायम रहता है। इन पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। उन्हें रोज़  बहस में बस पॉइंट बनाने के लिए इस्तेमाल करने से मीडिया को टीआरपी मिल सकती है। कुछ स्वनामधन्य लिक्खाड़ पत्रकारों की सुपारी पत्रकारिता का भी इससे तात्कालिक भला हो सकता है। पर भारत की सामूहिक चेतना इसे नापसंद करती है यह समझने के लिए किसी आइंस्टीन की ज़रुरत नहीं। आम भारतीय इन्हें राजनीति के दलदल में घसीटना अच्छा नहीं समझता।

कई बार छोटे दल और क्षेत्रिय नेता ऐसी बात करते हैं तो देश का जनमानस उसे रोक देता हैं। परंतु अफसोस कि अब देश की सबसे पुरानी पार्टी और उसके शीर्ष नेता लगातार ऐसे बयान दे रहे हैं, जिन्हें सुन और पढ़कर सोशल मीडिया के ट्रोल भी अपना सर शर्म से झुका लेंगे। कांग्रेस, जो कि देश में सबसे ज्यादा सत्ता में रही है, उससे ये अपेक्षा नहीं है। इसे उसकी असहिष्णुता और सामन्तवादी मानसिकता नहीं माना जाए तो और क्या कहा जाए ?

राजनीतिक दलों का सत्ता में आना जाना लगा रहता है। यही तो लोकतंत्र का मज़ा है। जज, सांवैधानिक अधिकारी और संस्थाएं  कभी किसी के पक्ष में और कभी किसी के पक्ष में निर्णय देंगे। उनके फैसलों पर कभी आपको जायज़ आपत्ति भी हो सकती है। परन्तु अपनी आपत्ति दर्ज़ कराने का भी एक सभ्य तरीका होता है। फैसला आने के एकदम बाद ही निर्णय करने वालों की विश्वसनीयता और उनके व्यावसायिक चरित्र पर संदेह और शक करना सिर्फ छिछोरी राजनीति है। ज़िम्मेदार नेताओं और देश की चिंता करने वालों को  इससे बचना चाहिए नहीं तो यह सबके लिए विनाशकारी होगा।

#NarendraModi #RahulGandhi #CBI #SpremeCourtofIndia #SC #AICC #BJP 
उमेश उपाध्याय

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