ये कहना कि अगर मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता हिंदू नेताओं से मिलेंगे तो मुसलमानों को खराब लगेगा, कहाँ तक उचित है ? क्या वीएचपी के नेता देश के नागरिक नहीं? क्या नागरिक का मज़हब देखकर ये तय होना चाहिए कि सत्तासीन लोग उनसे मिलें या नहीं? ऐसी राजनीतिक छुआछूत की बात कहकर क्या उन्होंने नहीं दर्शाया कि उनकी राजनीति की धुरी संकीर्ण और संकरी है?
उत्तर प्रदेश सरकार के ताकतवर मंत्री और समाजवादी पार्टी के महासचिव मोहम्मद आज़म खान अपने नेता मुलायम सिंह यादव और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से बेहद नाराज़ हैं. इसकी वजह है कि मुलायम और अखिलेश का विश्व हिंदू परिषद के नेताओं से मिलना. पिछले हफ्ते अशोक सिंघल के नेतृत्व में परिषद का एक प्रातिनिधि मंडल इन दोनों से मिला था और उन्होंने मुलायम सिंह यादव से अयोध्या विवाद में मध्यस्थता करने का अनुरोध किया था.
आज़म खान ने इसके बाद एक कड़ा पत्र मुलायम सिंह यादव को लिखा. इसमें उन्होंने कहा कि इस बैठक से मुसलमानों के बीच मुलायम सिंह यादव की छवि बिगड़ने का खतरा है “ जो श्री यादव ने बड़ी मेहनत से मुसलमानों के बीच बनाई है ” और उम्मीद है कि वो ऐसा नहीं होने देंगे. दो पन्ने के पत्र में आज़म खान ने ये भी लिखा कि “ समाजवादी नेताओं के इस कृत्य से मुसलमानों की भावनाओं को चोट पहुँची है और वीएचपी नेताओं और मुलायम सिंह की बातचीत से मुसलमानों में गलत सन्देश गया है.”
आज़म खान अपनी राजनीति करने को स्वतंत्र है. वे वीएचपी का विरोध कर सकते हैं. उसके खिलाफ धरना, प्रदर्शन, बयान और जो कुछ भी राजनीतिक हथियार हैं उनका इस्तेमाल कर सकते हैं परन्तु ये पत्र और इसकी भाषा आपत्तिजनक है. ये कहना कि अगर सूबे के मुख्यमंत्री और पार्टी के नेता हिंदू नेताओं से मिलेंगे तो मुसलमानों को खराब लगेगा, कहाँ तक उचित है ? क्या वीएचपी के नेता देश के नागरिक नहीं और क्या नागरिक का मज़हब देखकर ये तय होना चाहिए कि सत्तासीन लोग उनसे मिलें या नहीं? वीएचपी की नीतियों से आज़म खान इत्तिफाक रखें ये ज़रूरी नहीं मगर वे खुद भी एक मंत्री हैं और मंत्री वे किसी एक वर्ग या सम्प्रदाय के नहीं पूरे राज्य के हैं. ऐसी राजनीतिक छुआछूत की बात कहकर क्या उन्होंने नहीं दर्शाया कि उनकी राजनीति की धुरी संकीर्ण और संकरी है? सवाल है कि इस तरह की सियासी और मजहबी छुआछूत क्या प्रजातान्त्रिक मूल्यों के अनुरूप है? क्या ये देश और समाज के लिए ये शुभ संकेत है?
बकौल आज़म खान ये बैठक दो घंटे चली. उन्होंने इस बैठक की अवधि पर भी आपत्ति जताई. इसका अर्थ है कि अब प्रदेश के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष किससे कितनी देर मिलेंगे और क्या बात करेंगे ये भी आज़म खान की राजनीतिक ज़रूरतें ही तय करेंगी?
अयोध्या विवाद में मुख्यमंत्री और मुलायम सिंह यादव से मध्यस्थता का अनुरोध करना भी कोई ऐसी बात नहीं जिससे आज़म खान इतने भड़क उठे. अगर ये अनुरोध उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष से नहीं होगा तो किससे होगा? उन्हें बताना चाहिए कि क्या वे अयोध्या विवाद को सुलझाने की कोशिश करने को सही नहीं मानते ? या फिर आज़म खान की राजनीति इस विवाद को लटकाये रखकर मुसलमानों को भडकाए रखने भर की है ताकि उनकी राजनीतिक रोटियां सिकती रहें.
यहाँ उनसे सवाल करना ज़रूरी है कि क्या वे मुसलमानों को सिर्फ़ अयोध्या विवाद जैसे भावनात्मक मुद्दों में ही अटकाए रखना चाहते है. क्यों नहीं वे अपनी क्षमता, ताकत और राजनीतिक कद का उपयोग उनके विकास में करते? पिछले हफ्ते ही मुझे आज़म खान के शहर रामपुर से गुजरने का अवसर मिला. पूरे शहर और वहाँ की सड़कों की हालत दयनीय है. मैंने ये तस्वीरें सार्वजनिक भी की थीं. वे चाहें तो फेसबुक पर जाकर खुद अपने शहर की ये तसवीरें देख सकते है उसका लिंक है https://www.facebook.com/ photo.php?fbid=1015178449331825 2&set=pcb.10151784494888252&ty pe=1&theater
२०१४ के चुनाव आने वाले हैं. कहीं ऐसा तो नहीं कि रामपुर की कमियों को छुपाने के लिए उन्होंने ये राजनीतिक तीर फैंका है. अगर वे अपने क्षेत्र पर थोड़ा ध्यान दें तो जनता का इससे भला होगा. पिछले लोकसभा चुनावों में उनके तमाम विरोध के बावजूद जया प्रदा वहाँ से चुनाव जीत गयीं थीं और वे हाथ मलते रह गए थे. इसका उन्हें बहुत मलाल है. कहीं ऐसा तो नहीं कि उनकी ये चिट्ठी दरअसल “कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना” है ? उनकी ये राजनीति शायद उन्हें वोट ज़रूर दिला दे मगर क्या ये देश या राज्य के हित में होगा?
उमेश उपाध्याय
25 अगस्त 2013