किश्तवाड की घटनाओं पर बुद्धिजीवियों की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है.लोग क्यों साम्प्रदायिकता को भी स्वीकार्य और अस्वीकार्य के बीच बांटकर देखते हैं? आप क्यों दोनों को बराबरी से बुरा नही बताते? नागरिकों को मज़हब के पलड़े पर तोलने का ये खेल बंद होना चाहिए. अगर गुजरात के दंगे गलत थे तो उतने ही जोर से क्यों नहीं कहते कि गोधरा कांड भी अमानवीय और घोर निन्दनीय था....
सोचिये कि किश्तवाड जैसी घटना मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात या पंजाब में होती तो अभी क्या दृश्य होता? साम्प्रदायिकता के खिलाफ तकरीबन हर पार्टी ज़बरदस्त हो हल्ला मचा रही होती. इन राज्यों में राष्ट्रपति शासन की मांग कोंग्रेस से लेकर समाजवादी और साम्यवादी दल कर रहे होते. मगर जब किश्तवाड में वहाँ के अल्पसंख्यकों पर फिरकावाराना दहशतगर्दी का हमला हुआ तो आज भाजपा को छोडकर कोई राजनीतिक दल आवाज़ क्यों नहीं उठा रहा है? क्या वहाँ हिंसा में मारे गए लोग भारतीय नागरिक नहीं थे? आज क्यों नहीं बोलते हैं दिग्विजय सिंह? नाम तो कई हैं पर उनका नाम इसलिए लिया कि वे अल्पसंख्यक हितों के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं. क्या किश्तवाड में हिंसा के शिकार अल्पसंख्यक उनकी हमदर्दी के काबिल नहीं हैं? या फिर उनका मज़हब इसके आड़े आ रहा है?
चलिये मान लिया जाए कि ये राजनीतिक दल मजबूर हैं. 2014 के आम चुनाव और जम्मू कश्मीर के चुनावों में उन्हें वोट लेने हैं इसलिए वो नहीं बोलेंगे मगर क्या बुध्दिजीवी वर्ग की भी ऐसी कोई मजबूरी है? क्या वे इसलिए चुप हैं कि किश्तवाड में अल्पसंख्यक वो नहीं जिन्हें वे परंपरागत रूप से अल्पसंख्यक मानते रहे हैं. तो क्या वे पहले नागरिकों का मज़हब देखेंगे और उसके बाद तय करेंगे कि उन्हें इस घोर साम्प्रदायिक और अलगाववादी हिंसा की निंदा करनी चाहिए या नहीं. ये कैसा सैधांतिकवाद है जो उन्हें इसकी निंदा करने से रोक रहा है ? और अगर सब जानते हुए भी वे चुप हैं तो क्या माना जाए कि वे कुछ दलों की राजनीतिक हित पूर्ति के साधन मात्र हैं और महज वे इन दलों के मुखौटे भर का काम कर रहें हैं.
किश्तवाड की घटनाओं पर बुद्धिजीवियों की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है. पहला सवाल है कि धर्मनिरपेक्षता, सांविधानिक सेकुलरवाद और अल्पसंख्यक हितों को जीवन सिद्धांत की तरह पूजने वाले लोग क्यों साम्प्रदायिकता को भी स्वीकार्य और अस्वीकार्य साम्प्रदायिकता के बीच बांटकर देखते हैं? क्या एक वर्ग के खिलाफ होने वाली हिंसा मान्य है वो इसलिए कि किश्तवाड में अल्पसंखयक हिंदू हैं मुसलमान नहीं?
सेकुलरवादी अक्सर कहते हैं कि एक पक्ष की साम्प्रदायिकता दूसरी साम्प्रदायिकता का पोषण करती है. ये कहना और दूसरी तरफ किश्तवाड जैसी घटनाओं पर चुप्पी क्या दर्शाती है ? ये भेद तो आप ही पैदा कर रहे हैं. आप क्यों दोनों हिंसाओं को बराबरी से बुरा नही बताते. अगर गुजरात के दंगे गलत थे तो उतने ही जोर से क्यों नहीं कहते कि गोधरा कांड भी अमानवीय और घोर निन्दनीय था.
क्या ये उचित है कि आप पूरे देश में विभिन्न मुद्दों पर जनहित का दावा करते हुए लड़ाई करेंगे मगर कश्मीर से विस्थापित हुए पंडितों के अधिकारों के लिए एक शब्द भी नहीं बोलेंगे? बंगलादेश से आये हुए गैरकानूनी घुसपैठियों के मानवीय अधिकारों के लिए आप संघर्ष करेंगे मगर अपने ही देश में अलगाववादियों द्वारा विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं के संविधान प्रदत्त अधिकारों के लिए कोई निर्णायक कदम नहीं उठाएंगे? ये कैसा अजीब विरोधाभास है?
साम्प्रदायिकता पर बहस लंबी और जटिल है. कई तर्क और पक्ष हैं. एक इतिहास भी है. मगर एक बात साफ़ है कि आप अगर पक्षपाती होंगे और सिर्फ़ एक तरफ़ झुकेंगे तो फिर आपके सेकुलरवाद को जब छद्म बताया जाएगा तो फिर आपको आपत्ति क्यों होनी चाहिए ? साम्प्रदायिकता को अच्छी वाली और बुरी वाली साम्प्रदायिकता में बांटना देश को बांटने जैसा है.
नागरिकों को मज़हब के पलड़े पर तोलने का ये खेल बंद होना चाहिए. हर हिन्दुस्तानी को सिर्फ़ हिन्दुस्तानी की नज़र से देखकर उसके साथ न्याय किया जाएगा तो ऐसा नहीं होगा. सांप्रदायिक हिंसा करने वालों से समान व्यवहार कानून के मुताबिक होना ज़रूरी हैं न कि वोट की खातिर अपराधी वर्ग का धर्म देखकर. इस नाते जो भी किश्तवाड की हिंसा के दोषी हैं उन्हें भारतीय विधान के अनुसार कड़ा दंड मिले मगर फिलहाल वहाँ के अल्पसंख्यक नागरिकों के घावों पर मलहम की ज़रूरत है.
उमेश उपाध्याय
11 अगस्त 2013
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