Monday, August 5, 2013

#Durga Shakti Nagpal यानि अंधेर नगरी चौपट राजा


एक तरफ तो कोंग्रेस के प्रवक्ता कहते हैं “ मस्जिद की दीवार को गिराना ठीक  नहीं था” और दूसरी तरफ  सोनिया गांधी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखतीं हैं, लगता है कि जनता को इन्होने निरा उल्लू समझ रखा  है. अगर  मस्जिद सरकारी ज़मीन पर बन रही थी तो इसे गिराने के लिए कहना क्या गलत था? क्या अब अफसरों को नागरिक का मज़हब देखकर फैसले करने चाहिए?



दुर्गा शक्ति नागपाल पर एक तरफ तो कोंग्रेस के प्रवक्ता कहते हैं “ मस्जिद की दीवार को गिराना ठीक  नहीं था” और दूसरी तरफ  सोनिया गांधी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखतीं हैं, लगता है कि जनता को इन्होने निरा उल्लू समझ रखा  है. अगर इस मामले में सोनिया वाकई गंभीर होती तो वे कार्मिक मामलों के मंत्री वी नारायण सामी को बुलातीं और इस ईमानदार अफसर के मामले में तुरंत केंद्र से हस्तक्षेप करने को कहतीं. प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर उसे मीडिया मे देने का उद्देश्य इस मामले में जनता के आक्रोश को शांत करना भर है.

दुर्गा शक्ति नागपाल को सस्पेंड करने के सरकारी कारण को देखें तो आज तक किसी नेता ने इस बात पर टिप्पड़ी नहीं की जिस मस्जिद की दीवार गिराने के कारण उन्हें हटाया गया वो मस्जिद गैर कानूनी थी कि नहीं. और अगर ये सरकारी ज़मीन पर बन रही थी तो इसे गिराने के लिए कहना क्या गलत था? ऐसा उच्चतम न्यायालय का आदेश है. अगर कोई भी सरकारी ज़मीन पर अतिक्रमण करता है तो क्या अफसर को चुप रहना चाहिए? ऐसा नहीं कि सिर्फ़ मस्जिद के मामले में ही उन्होंने ऐसा किया. खबर है कि कुछ दिनों पहले एक मंदिर के मामले में भी उन्होंने यही कदम उठाया था. सवाल है कि अखिलेश यादव सरकार ने तब उन्हें क्यों सस्पेंड नहीं किया? क्या अब अफसरों को नागरिक का मज़हब देखकर फैसले करने चाहिए?

अब से कोई 130 साल पहले जब सन 1881 में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपना नाटक “अंधेर नगरी चौपट राजा टेक सेर भाजी टेक सेर खाजा” लिखा था तो वे अंग्रेज़ी कुशासन और अन्यायपूर्ण वयवस्था का मजाक उड़ा रहे थे. मगर किसे मालूम था कि भारत की आज़ादी के 63 साल बाद के हुक्मरानों पर भी वह कितना सही और सटीक बैठेगा ! सोचिये एक ईमानदार आई ए एस अफसर को इसलिए हटाया जाता है क्योंकि वो अवैध रूप से नदी से रेत की खुदाई कर रहे ठेकेदारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करता है. ये ठेकेदार बिना टैक्स दिए चोरी कर रहे थे. और बहाना लगाया जाता है एक धार्मिक स्थल की दीवार गिराने का जो खुद भी गैरकानूनी तौर सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करके बनाई गई थी.

मामला इतना साफ़ है कि इसमें जाँच की भी ज़रूरत नहीं. मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और यू पी ए की अध्यक्ष सोनिया गाँधी सब जानते हैं कि असलियत क्या है मगर सुनवाई, रिपोर्ट मंगाने, सुलह-सफाई और चिठ्ठी का एक ड्रामा खेला जा रहा है ताकि ईमानदार अफसर लगातार अपमानित हो उसका स्वाभिमान टूटे. जान लीजिए, ये कार्रवाई सिर्फ़ दुर्गा शक्ति नागपाल के खिलाफ नहीं है बल्कि उन सब अफसरों के खिलाफ है जो निष्ठा के साथ अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे है. इसके बहाने उन्हें बताया गया है कि उन्हें देश में “कानून का शासन” नहीं लागू करना बल्कि हुक्मरानों और उनके चंपुओं के हर सही गलत आदेश का पालन करना है. देश की लूट में उन्हें मदद करना है नहीं तो जैसा कि समाजवादी पार्टी के एक स्थानीय नेता ने दावा किया कि कुछ मिनिटों में उन्हें उनकी औकात दिखा दी जायेगी.

कोंग्रेस पार्टी ने 1970 के दशक श्रीमती इंदिरा गांधी के काल में प्रतिबद्ध न्यायपालिका और प्रतिबद्ध नौकरशाही का सिद्धांत दिया था. आज एक बार फिर समय है कि ये स्पष्ट किया जाए कि ये प्रतिबद्धता किसके लिए होनी चाहिए संविधान और कानून के शासन के लिए या फिर राज काज करने वाले नेताओं के लिए. गठबंधन राजनीति और क्षेत्रीय दलों के बढते प्रभुत्व के इस दौर में राष्ट्रीय दलों जैसे कोंग्रेस और बीजेपी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे वोट बैंक की राजनीति से उपर उठकर व्यापक राष्ट्र हित में सोंचें.

दुर्गा शक्ति नागपाल प्रकरण ने देश को मौका दिया है कि अफसरशाही की भूमिका, अधिकार और उत्तरदायित्व एक बार फिर परिभाषित किये जाएँ. देश में अबतक कई प्रशासनिक सुधार आयोग भी गठित किये गए हैं. ज़रूरत है कि  बंद सरकारी बस्तों में पडी उनकी रिपोर्टों को खंगाला जाए और  प्रशासनिक सुधार लागू किये जाएँ ताकि ईमानदार अफसर निर्भीक होकर अपने संविधानिक दायित्वों का पालन कर सके और छुटभय्ये नेता निहित स्वार्थों के लिए अंधेर नगरी के चौपट राजा की तरह व्यवहार न कर सकें.

उमेश उपाध्याय
5 अगस्त 2013

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