Friday, September 13, 2013

भारतीय अर्थव्यवस्था : एक सपने की मौत

सरकार ने अर्थव्यवस्था के मर्ज़ को ठीक करने के लिए लगातार  ऐसी खिचड़ी परोसी है कि मरीज़ और बीमार होता गया है. हालत ये है कि अब भारतीय अर्थव्यवस्था आईसीयू में वेंटिलेटर पर पहुँच गई है. सोचिये आज देश के सोने को बेचने की बात हो रही है? इस सरकार ने उस सपने को पूरी तरह तोड़ दिया है जो ये देश कुछ समय पूर्व देख रहा था.



खबर है कि मुंबई के आस पास के समुद्र तटों पर दशकों बाद एक बार फिर सोने के तस्कर सक्रिय हो गए हैं. वहाँ सोने की तस्करी फिर से शुरू हो गई है. ये नतीजा है सरकार की उन ताज़ा नीतियों का जो उसने सोने का वैध और कानूनी आयात रोकने के लिए लागू की हैं. लोंगों को एक बार हिंदी फिल्मों के “राबर्ट” “बॉस”, “सोना” और “मोना”  के  दृश्य याद आने लगे हैं. सवाल है कि क्या हम फिर से अभावों, मंदी, कंट्रोल और लाइसेंस के युग में जा रहे हैं.

आइये, कुछ ताज़ा आंकड़े देखते हैं. अगस्त के महीने में देश में औद्योगिक गतिविधि में तेज़ी से गिरावट हुई है. मार्च २००९ के बाद पहली बार भारतीय अर्थव्यवस्था में ऐसा हुआ है. अप्रेल से जून के बीच विकास की दर 4.4 फीसदी रही है. रुपया गिर रहा है, महँगाई सुरसा की तरह बढ़ रही है, नौकरियां घट रहीं हैं और काम के बाज़ार में नए आने वाले युवा भारतीयों की संख्या में बेतहाशा बढोत्तरी हो रही है. देश एक विकट और भयावह आर्थिक स्थिति में फंसा है और सबसे कष्टप्रद बात है कि देश को चलाने वालों के पास किसी सवाल का संतोषजनक उत्तर नहीं है.

केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली रात को पेट्रोल पम्प बंद करने का हास्यास्पद सुझाव दे रहे हैं तो प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह विपक्षी दल भाजपा को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं. कोई अंतर्राष्ट्रीय हालातों को इसका ज़िम्मेदार बता रहा है तो चालू खाते  का घाटा कम करने के लिए वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने तो देश के सोने के भण्डार को ही तकरीबन बेचने की सलाह दे डाली. हालांकि बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि वे तो सोने के मौद्रिकीकरण (monetising) की बात कह रहे थे ना कि उसे गिरवी रखने की. ये बात अलग है कि उन्होंने ये नहीं समझाया कि मौद्रिकीकरण से उनका आशय क्या था !

आर्थिक विशेषज्ञ और विश्लेषक इसका आकलन कर रहे हैं कि यूपीए सरकार ने ऐसा क्या किया (या क्या नहीं किया) जिससे ऐसे हालत पैदा हुए. बहुत संक्षेप में कहा जाए तो नीतिगत किंकर्तव्यविमूढता (Policy Paralysis), चुनावी मानसिकता और भ्रष्टाचार इसके लिए ज़िम्मेदार हैं. लेकिन इससे भी ज्यादा ज़िम्मेदार है कोंग्रेस में शीर्षतम स्तर पर फ़ैली वैचारिक भ्रम और नीतिगत अस्पष्टता की स्थिति. प्रधान मंत्री और वित्त मंत्री जहाँ विकास के घोड़े का मुहँ विश्व बैंक निर्देशित घोर उदारीकरण की तरफ करना चाहते हैं वहीं सोनिया गाँधी देश को सत्तर के दशक के समाजवादी युग में ले जाना चाहती हैं. इसलिए एक तरफ खुदरा व्यापार में विदेशी कंपनियों को खुली छूट की वकालत होती है तो दूसरी ओर खाद्य सुरक्षा बिल आता है. ये तो मात्र एक उदाहरण हैं. बुनियादी ढाँचे में निवेश, कृषि, भूमि अधिग्रहण, शिक्षा, निर्यात, मेन्यूफेक्चरिंग, छोटे उद्योग और बैंकिंग - तकरीबन हर क्षेत्र में नीतिगत असमंजसता की ऐसी स्थिति बनी हुई है. नतीजा हैं कि मौजूदा सरकार ने अर्थव्यवस्था के मर्ज़ को ठीक करने के लिए लगातार  ऐसी खिचड़ी परोसी है कि मरीज़ और बीमार होता गया है. हालत ये है कि अब भारतीय अर्थव्यवस्था आईसीयू में वेंटिलेटर पर पहुँच गई है.

याद कीजिये कि किस तरह कुछ ही बरस पहले तकरीबन हर बहस में में ये चर्चा होती थी कि हम चीन के बराबर कब पहुंचेंगे ! 9 प्रतिशत के आसपास की विकास दर का आंकड़ा देखकर हम सोचते थे कि कैसे इसे दो अंकों का बनायें ? जबभी भारत के आर्थिक शक्ति बनने का ज़िक्र होता था दिल में कैसी हर्ष देने वाली हिलोर उठती थी ! हर भारतीय देश को एक विकसित देश बनने का अरमान दिल में संजोये हुए है, ऐसा होने की कल्पना मात्र से वो सिहर उठता था. मगर सोचिये आज देश के सोने को बेचने की बात हो रही है? कहाँ से कहाँ आ पहुंचे हम? इस सरकार ने उस सपने को पूरी तरह तोड़ दिया है जो ये देश कुछ समय पूर्व न सिर्फ़ देख रहा था बल्कि पूरे आत्मविश्वास और यकीन के साथ उसे साकार करने में जुटा था.

विकास दर उपर नीचे होना, रूपये की दर में कमबढ़त, महंगाई, जिंसों के दाम घटना बढ़ना, शेयर बाज़ार में ऊँचनीच – ये सब होता रहता है. मगर देश के समूचे आर्थिक भविष्य को लेकर ही आम लोगों में अनिश्चितता हो जाये ये खतरनाक है. इसलिए अगर सबसे बड़ा पाप हुआ है तो वो है उस सपने का टूट जाना जो हम सब देख रहे थे. इसकी सज़ा जिसे मिलनी है वो तो मिलेगी ही मगर देश को ये भारी पडा है और ना जाने कितनी पीढ़ियों को इसका बोझ उठाना पड़ेगा !

उमेश उपाध्याय
3  सितम्बर  2013

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