Saturday, September 14, 2013

#Modi Vs Rahul मोदी घोषणा और कोंग्रेस की “पारिवारिक” मजबूरी

बीजेपी ने अपना तुरुप का इक्का चल दिया है. मगर कोंग्रेस क्या कहेगी? क्या ये, कि अगर पूर्ण बहुमत हुआ तो राहुल गांधी, नहीं तो फिर कोई राजनीतिक “चरण पादुका” ? कभी पार्टी का संबल होने वाला गांधी परिवार ही अब उसकी सीमा बनता दिखाई दे रहा है.राहुल गांधी की अदृश्यता और सोनिया की रहस्यमयी चुप्पी ये दोनों ही पार्टी को एक अनजाने खोल के अंदर रहने को मजबूर कर रहे हैं. 



बीजेपी ने अपना तुरुप का इक्का चल दिया है. गेंद अब कोंग्रेस के पाले में हैं कि वो क्या करेगी? क्या  राहुल अपने खोल से बाहर आकर इस खुली चुनौती को स्वीकार करेंगे? क्या तीसरी बार मनमोहन ही उसका चेहरा होंगे? या फिर 2014 तक राहुल गाँधी को लेकर “हैं भी और नहीं भी” का मौजूदा  सिलसिला जारी रहेगा? बीजेपी ने प्रधानमंत्री के लिए नरेन्द्र मोदी के नाम की घोषणा करके कोंग्रेस की इन दिक्कतों को खासा बढ़ा दिया है. कोंग्रेस की सबसे बड़ी समस्या ये है कि वो राहुल का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए घोषित कर नहीं पा रही. क्योंकि ऐसा करना आज उसके लिए बेहद राजनीतिक जोखिम से भरा है. राहुल के खाते में ऐसी कोई राजनीतिक, प्रशासनिक अथवा राष्ट्रीय उपलब्धि नहीं है जिसे पार्टी जनता के सामने ले जा कर चुनावो में भुना सके.

और किसी का नाम लेने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि कोंग्रेस में शीर्ष पद सिर्फ़ गाँधी परिवार का सदस्य ही ले सकता है. परिवार का सदस्य किसी भी कारण से यदि पद लेने की स्तिथि में न हो तो परिवार ऐसे व्यक्ति को चुनता है जिसका जनाधार न हो. पद देने के बाद भी ऐसे व्यक्ति को पदनाम तो मिल जाता है पर पद की सत्ता और ताकत नहीं. मौजूदा प्रधान मंत्री डा मनमोहन सिंह इसके उदाहरण हैं. प्रधानमंत्री तो वे तकरीबन नौ साल से हैं पर सब जानते हैं कि असली ताकत और सत्ता  सोनिया और राहुल के हाथ में हैं. तो  आज यूपीए की नाकामियों का ठीकरा  फूट रहा है तो वो प्रधान मंत्री के सर पर और अगर कुछ भी उपलब्धि होती तो वो गाँधी  परिवार के नाम. यानि मीठा मीठा गप्प और कड़वा कड़वा थू.

परिवार की ये स्थिति आज कोंग्रेस की सबसे बड़ी मजबूरी है. ये नहीं कि कोंग्रेस में नेता नहीं हैं. कई मुख्यमंत्री हैं जो कोंग्रेस को एक से ज्यादा बार जिता चुके है. कई केंद्रीय मंत्री भी हैं जिनमे क़ाबलियत है. मगर इनमें से कोई भी कोंग्रेस में प्रधानमंत्री पद की ख्वाहिश तो क्या सपने में भी ऐसा सोच नहीं सकता. यानि नीचे से उठकर कोई कितनी भी क्षमता दिखादे एक समय बाद उसके लिये फुल स्टॉप ही है.

बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के अनुसार 2014 में मोदी के नेतृत्व में उनकी पार्टी की सरकार बनेगी. ये बात सही होती है कि नहीं ये बाद में मालूम पडेगा. मगर ये सही है कि इससे पार्टी के कार्यकर्ता एक निश्चयात्मक स्वर में वोट तो माँग सकेंगे. मगर कोंग्रेस क्या कहेगी? क्या ये, कि अगर पूर्ण बहुमत हुआ तो राहुल गांधी, नहीं तो फिर कोई राजनीतिक “चरण पादुका” ?  दरअसल जो परिवार और विरासत उसकी बड़ी ताकत रही है वही आज उसकी बड़ी राजनीतिक कमजोरी बन गई है. कभी पार्टी का संबल होने वाला गांधी परिवार अब उसकी सीमा बनता दिखाई दे रहा है.

ये सब जानते हैं कि मोदी को लेकर बीजेपी में राजनीतिक उठा पटक, सियासी दांवपेंच, मान मनव्वल और शह मात का खेल गोवा की बैठक के बाद से ही चल रहा है. और ये शायद आगे भी चले. पार्टी के बड़े नेता और पूर्व उपप्रधान मंत्री लाल कृष्ण आडवानी ने तो राजनाथ सिंह को पत्र लिखकर अपनी नाराजगी भी ज़ाहिर कर दी है. मगर एक राजनीतिक दल में खुलकर राजनीति होना ऐसा बुरा भी नहीं और एक तरह से प्रजातान्त्रिकता की निशानी है बशर्ते कि वो सियासी दंगल में न बदल जाए. पर कोंग्रेस में क्या ऐसा हो सकता है? पार्टी कार्यकर्ता तो दूर कोंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से कोई पत्रकार तक नहीं पूँछ सकता कि वे २०१४ के चुनाव में पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उमीदवार के बारे में क्या सोचतीं हैं. वे तो किसी को उपलब्ध ही नहीं है.

राहुल गांधी की अदृश्यता और सोनिया की रहस्यमयी चुप्पी ये दोनों ही पार्टी को एक अनजाने खोल के अंदर रहने को मजबूर कर रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए रणभेरी बज चुकी है. एक तरफ का सेनापति कमर कस कर अपनी सेना को हुंकार रहा है मगर दूसरी और मालूम ही नहीं कि सेनापति कौन है और राजा अपने किले के भीतर गहरी खामोशी में है. एक समय ये खामोशी सोनिया गाँधी का एक ताकतवर हथियार था मगर शायद आज नहीं. ट्विटर और फेसबुक के इस युग में जब टेलिविजन भी प्राचीन दिखाई देता है ऐसी चुप्पी राजनीतिक रूप से आत्मघाती हो सकती है.

उमेश उपाध्याय
13 सितम्बर 2013

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