Thursday, February 16, 2017

मोदी और मनमोहन : रेनकोट, छाता और पेटीकोट सरकार !

यह बुद्धिजीवी वर्ग भी अजीब फितरत लिए हुए है। वाम-उदारवादी बुद्धिजीवी हमेशालोकतांत्रिक अधिकारों , जनतनिक सोच और जनवादी व्यवस्था की दुहाई देते आये है। मगर दुनिया के कई हिस्सो में जब जनता ने अपने मर्ज़ी से पारदर्शिता और खुली चुनावी व्यवस्था से अपनी पसंद की सरकार और नेता चुन लिए तो उन्हें रास नहीं आ रहा। भारत में चाहे वो नरेंद्र मोदी Narendra Modi हो अथवा अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प President Donald J. Trump इनके चुनाव से, ये बुद्धिजीवी वर्ग बेहद परेशान है। और इसलिए एक नयी दिमागी कसरत के तहत इन्होंने 'पोस्ट ट्रुथ' #PostTruth का एक नया बौद्धिक जुमला निकाल लिया है जो आजकल चर्चा का विषय बना हुआ है।
जब आपको सत्य स्वीकार नहीं हो तो फिर नयी परिभाषा और जुमलेबाज़ी जरुरी हो जाती है। दरसल इस वर्ग को लगता है ज्ञान, बुद्धि, समझदारी और बौद्धिकता पर इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। मगर सोशल मीडिया के ज़माने मै उसपर से इनका आधिपत्य सामान्य जनता तोड़ रही है। तो यह 'सत्य से परे' यानि पोस्ट ट्रुथ (Post Truth) के बौद्धिक खोल में छुपने की कोशिश कर रहे है। वैसे भारतीय मनीषा दुनियावी सत्य और असत्य से परे मोक्ष्य की परिकल्पना करती आई है। मगर ये बुद्धिजीवी वर्ग दुनियादारी और सत्ता छोड़कर मोक्ष नहीं चाहते । इन्हें तो बौद्धिक सत्ता की दादागिरी करनी है।
खैर ये तो बहस और बौद्धिक वाग्विलास का विषय है मगर ये समझ नहीं आया की उदारवाद, खुली बहस और अति यथार्थवादी भाषा प्रयोग ( जिसे आम भाषा में गालियाँ कहा जाता है) तक की वकालत करने वाले बुद्धिजीवियों और उनके समर्थक नेताओ को 'बाथरूम में रेनकोट' के प्रयोग पर आपत्ति क्यों हैं। बाथरूम मे रेनकोट पहनकर नहाने का जुमला कैसे असंसदीय हो गया ? क्या नरेंद्र मोदी अपने भाषण में हिंदी में 'गुशलखाने में बरसाती' पहनकर नहाने का उपयोग करते तो उन्हें आपत्ति नहीं होती। वैसे आम फहम की भाषा मैं एक शब्द का प्रयोग और भी होता है वो है किचन कैबिनेट। इसे हिंदी में अनुवाद करते हुए 'पेटीकोट सरकार' कहा जाता रहा है। गनीमत है कि प्रधानमंत्री मोदी ने 'पेटीकोट गवर्नमेंट' शब्द का प्रयोग नहीं किया। अन्यथा देश में महिला अधिकारवादियों से लेकर बाकी सब बुद्धिजीवी कहर ही बरपा देते ।
अब बात करतें है डॉक्टर मनमोहनसिंह की। 1972 से 1976 तक वे केंद्र मे मुख्य आर्थिक सलाकार थे। 1982 से 1985 तक भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर थे। 1985 से 1987 तक वे योजना आयोग में थे। 1991 से 1996 तक वे देश के वित्तमंत्री थे। 1998 से 2004 तक वे राज्यसभा में वे विपक्ष के नेता थे और 2004 से 2014 तक देश के प्रधान मंत्री। यानि सत्तर के दशक से 2014 तक तकरीबन लगातार देश में आर्थिक नीतियों को वे एक तरह से नियंत्रित और संचालित करते रहे।
तो क्या उनसे पूछा नहीं जाना चाहिए कि इस दौरान देश की अर्थव्यवस्था में जो भी बुराई आयी है उसकी ज़िम्मदारी थोड़ी बहुत तो उनकी भी हैं। जब भी देश में टैक्सचोरी, कालेधन और घोटालों की चर्चा होती है तो अन्य राजनेताओं का नाम आता है मगर डा सिंह का नहीं। पिछले कोई चालीस साल में अगर देश की अर्थव्यवस्था में कई बीमारियां पनपी उनका उत्तरदायित्व क्या डॉक्टर मनमोहन सिंह का नहीं है। उनसे क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि जब देश में काले धन की एक समानान्तर व्यवस्था खड़ी हो रही थी तो वे क्या कर रहे थे ? डॉक्टर सिंह की व्यक्तिगत ईमानदारी और देश में हुई सामूहिक लूटखसोट के बीच का पर्दा क्या इतना मोटा था कि डॉक्टर मनमोहन सिंह को कुछ दिखाई नहीं दिया? और उनकी ईमानदारी का देश क्या करे?
सरकारी ख़ज़ाने की खुली लूट के मामले में तत्कालीन प्रधान मंत्री डॉक्टर सिंह क्यों मौनीबाबा बने रहे ऐसे कई सवाल है जो 'बाथरूम में रेनकोट' पहनने के जुमले में समाये हुए हैं। कोई यह यह तो बताये की इस में आपत्ति क्या है? आखिर डॉक्टर मनमोहन सिंह को यह महारथ तो हासिल है ही कि तमाम घोटालों के बीच उनपर कोई कीचड नहीं उछली-कोई लांछन नहीं लगा। कैसे किया उन्होंने यह सब ?
अगर शब्द प्रयोग की ही बात की जाये तो डॉक्टर सिंह ने राज्यसभा में अपने भाषण में लूट और प्लंडर जैसे शब्दों का प्रयोग किया था। अगर आप विद्वान् होकर इन शब्दो का प्रयोग है करते हैं तो फिर बाथरूम में रेनकोट पहनकर नहाने जैसे प्रयोग से क्यों आपत्ति हो रही है। राजनीति में हास्य का कुछ पुट तो होना ही चाहिये। किचन कैबिनेट - जिसका डॉक्टर सिंह लगातार हिस्सा रहे है उसे तो पेटीकोट सरकार कहा जा सकता है। आखिर काजल की कोठारी से बेदाग़ निकले डॉक्टर सिंह को यह महारथ तो हासिल है ही कि घोटालों की महफ़िल में बरसों तक शरीक होने के बावजूद उनके कपडे साफ़ रहे। तो भाई ज़रूरी है कि उनके सहयोगी हल्ला मचाने के स्थान पर इस हुनर का राज़ बताये।

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