Thursday, August 24, 2017

गाल बजाने का काल #70YearsOfIndependence


तुलसीदास ने रामचरितमानस में कलियुग का चित्रण करते हुए लिखा है:
''पंडित सोई जो गाल बजावा’’
यानि कलियुग में जो जितनी अच्छी बातें कर लेता है उसे ही सबसे बड़ा ज्ञानी मान लिया जाता है इसे देखते हुए तो साफ लगता है कि हम आजकल कलियुग की  पराकाष्ठा के काल में जी रहे हैं जो मीडिया में जितना वाकपटु - वह उतना ही मूर्धन्य विद्धान ! अपने चारो तरफ देखिए, सिर्फ बातों का शोर ही शोर सुनाई देगा किसी भी क्षेत्र को देखिए - कला, संस्कृति, साहित्य, कॉरपोरेट जगत, विज्ञान, राजनीति, क्रीड़ा यहां तक कि चिकित्सा विज्ञान तक - जो बस अच्छी अच्छी बातें करके अपनी ‘‘पोजीशनिंग’’ और ‘‘ब्रांडिंग’’ ठीक करले- वही सबसे सफल, सुयोग्य और संपन्न व्यक्ति कहा जाने लगा है

कर्तत्व और वकृत्व का जो सहज संतुलन समाज की सफलता और उत्थान के लिए आवश्यक है वह जीर्णशीर्ण होकर पड़ा है किसी से भी बात कीजिए वह आपको बताएगा कि हम इस समय ‘‘मीडिया संचालित युग’’ में जी रहे हैं कर्णप्रियता और दृश्यप्रियता ही सबसे बड़े गुण हो गए हैं अध्यवसाय, गहनता, मूल्यप्रियता, और क्रियाशीलता अब ऐसे गहने हैं जिनका सफलता के बाजार में मानो कोई मोल ही नहीं हैं जो बखारा जा सके, वह ज्ञान ही नहीं है

''मीडिया संचालित युग’’ का जुमला इस कदर लोगों के दिलोदिमाग पर हावी है कि कंपनियां, संस्थान, पार्टियां और व्यक्ति काम से पहले ही काम का ढोल कैसे पीटा जाए उसकी रणनीति बनाते में लग जाते है अक्सर काम तो पीछे रह जाता है उसका ढोल ही बजता रहता है सिर्फ ‘‘पॉवर पाइंट प्रजेन्टेशन’’ के आधार पर बड़े-बड़े अनुमान लगाये जाते है विकास की कल्पना के आधार पर प्रेाजेक्ट खड़े कर दिए जाते हैं इसी गुब्बारे के आधार पर ही बैंकों से पैसा लेकर प्रोजेक्ट का निर्माण शुरू हो जाता है मगर अक्सर इसका इस्तेमाल नहीं हो पता इसीलिए आप देश के किसी भी शहर के थोड़ा बाहर चले जाइए आपको मीलों तक दिखाई देते हैं- अनबसे मकान, खाली कारखाने, स्कूल-कॉलेजों के खाली भवन, बिना मरीजों के अस्पताल और बिना ग्राहकों के ‘‘मॉल्स’’ पिछले कोई दो ढाई दशकों से सिर्फ बातों का जो सिलसिला चालू हुआ है - उसके दत्तक पुत्र हैं ये सब

टेलीविजन चैनल पर चलने वाली बहस के आधार पर और सोशल मीडिया पर हो रहे गुलगपाड़े  से राजनेता, अधिकारी, व्यवसायी और आम जनता इतनी प्रभावित है कि अक्सर निर्णयों का आधार उपयोगिता होकर मीडिया में चल रहा शोर होता है देश की सुरक्षा नीतियां हो अथवा अर्थव्यवस्था, शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हो अथवा विदेश नीति- कई बार तो ऐसा लगता है कि इन सब विषयों पर जो नीतियां बनाई जा रही है उनका सबसे बड़ा आधार मीडिया की बहस हो गई है

इस विषयों के सबसे बड़े विशेषज्ञ आज वही लोग माने जाते हैं जो रसीले और चुटीले अंदाज में इनके बारे में सिर्फ बतिया सकें चिन्तन की जगह बहस ने ले ली है ऐसा लगता है कि विचार का स्थान वाकपटुता ने ले लिया है पहले किसी महत्वपूर्ण निर्णय पर पहुंचने के लिए विद्वान लोग अध्ययन करते थे फिर एकांत में जाकर मनन करते थे उसके आधार पर लोकप्रियता की चिन्ता करते हुए लोकहित के आधार पर नीतियों का निर्धारण करते थे पर क्या आज ऐसा होता है?

न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी इसीलिए बंधी रहती थी कि वह बाहर के शोर को देखे सुने बल्कि सिर्फ विवेक के अनुसार सही न्याय करे मगर हैरानी की बात है कि आज न्याय की ऊंची कुर्सियों पर उच्चतम और उच्च न्यायालयों में बैठै न्यायधीश भी कई बार मीडिया में मचने वाले शोर से प्रभावित होकर निर्णय लेते हैं वे भी अखबारों में छपी खबरों तथा टीवी और सोशल मीडिया पर चल रहे प्रलाप से प्रभावित हो जाते हैं जब न्यायपालिका तक मीडिया से प्रभावित हो रही है तो फिर देश और समाज का हाल क्या होगा?

हैरानी होती है कि टीवी के प्राइम टाइम में एंकर तकरीबन आदेशात्मक सुर में हमें बताते हैं कि भारत को  चीन या पाकिस्तान से युद्ध कब करना चाहिए यही नहीं, कई तथाकथित विशेषज्ञ और एंकर तो यह भी बता देते हैं कि युद्ध कैसे करना चाहिए अपराध के मामलों में खुलेआम टीवी में अदालतें चलती हैं और तय कर दिया जाता हैं कौन दोषी है? सोशल मीडिया का विमर्श तो और आगे बढ़ गया है वहां तो अगर आप किसी के तर्क या विचार से असहमत हो तो लोग गाली-गलौच पर उतर आते हैं अफ़सोस, हमारी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों इस शोर से सिर्फ प्रभावित हो रहे हैं बल्कि अक्सर उसके हिस्सेदार भी बन रहे हैं

आजादी की 70वीं वर्षगांठ पर देश के लिए ये सोचने का विषय है कि क्या हम मीडिया के इस शोर से संचालित होंगे या देश और समाज के व्यापक हित में मीडिया का संचालन होगा? क्या सिर्फ अच्छा बोलने और बेहतर पोजीशनिंग करने वालों को ही विद्वान मान लिया जाएगा अथवा गंभीर, धैर्यवान और प्रसिद्वि की चाह से दूर रहने वालों को सम्मान मिलेगा ‘‘थोथा चना, बाजे घना’’ के आधार पर अगर यूं ही हम आगे बढ़ते रहे तो यह निश्चित है कि अंत में फल भी थोथा ही मिलेगा

#IndiaAt70 #IndependenceDay #IndiaAt70

उमेश उपाध्याय,

अगस्त 2017

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