देश की सबसे पुरानी पार्टी यानि कांग्रेस का स्वास्थ्य अगर लगातार खराब रहे तो वह भारत के लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं हैं। कांग्रेस के खराब हाल का महज़ लोकसभा में उसकी कम सीटों या फिर कई राज्यों में लगातार उसकी हार से ही लेना देना नहीं है। चुनावों में हार जीत लोकतंत्र का एक सामान्य और सहज हिस्सा है। कोई पार्टी सिर्फ कुछ चुनाव हार गयी है इसलिए ही वह बीमार है-यह मानना सही नहीं है। चुनावी गणित से ज्यादा चिन्ता की बात है पार्टी के वैचारिक/मानसिक स्वास्थ्य की मौजूदा स्थिति। आप पूछ सकते है पार्टी का मानसिक स्वास्थ्य यानि क्या?
कभी सर्व समावेशी
मानी जाने वाली कांग्रेस पार्टी पिछले काफी समय से एक संकीर्ण वैचारिक दायरे में बंधी नजर आती है। उसकी नीतियों, घोषणाओं, चलन और नेतृत्व के सार्वजनिक बर्ताव - सब में ये बात निरंतर दिखाई देती है। ये संकीर्ण वैचारिक दायरा है - अतिवादी
वामपंथी सोच का। एक के बाद एक मुद्दे को उठाकर देख लें तो कांग्रेस के नेतृत्व के बयान और व्यवहार अति वामपंथी वैचारिक धारा की सुर में सुर मिलाते दिखाई देते है। कई बार तो यहां तक लगता है कि कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी मानो बयानबाज़ी में अति वामवादियों तथा आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविन्द केजरीवाल के बयानों से होड़ में लगे हुए हैं। इन दोनों राजनीतिक धाराओं का आचरण अक्सर अराजकतावाद की सीमाएं तक पार कर जाता है।
इसके कई उदाहरण गिनाये जा सकते है। भारत की सेना द्वारा पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर नक्सल समर्थक कथित बुद्धिजीवियों पर पुलिस कार्रवाई की ताजा घटना तक - ऐसे मामलों की एक लंबी सूची है। जेएनयू में राष्ट्रविरोधी नारे लगाने की घटना हो या फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर बिना कोई सुबूत दिए आरोप लगाना - वामपंथी
समूह का एक तयशुदा नैरेटिव यानि कथ्य है। मगर कांग्रेस
लम्बे समय तक बीच का रास्ता चुनने वाली पार्टी रही है। यहाँ ये कहना भी सही होगा कि आजादी के बाद से कांग्रेस ने कई बार वामपंथ की तरफ स्पष्ट झुकाव दिखाया है। मगर इस वैचारिक पैंडुलम में भी वह अतिवादी वामपंथी कथ्य से बचती रही है। बल्कि उसने नक्सलियों/माओवादियों के खिलाफ
अक्सर कड़ा रूख अपनाया है। मगर अब ऐसा लगता है कि राहुल गांधी मानो ''अल्ट्रा
लेफ्ट '' की बी टीम के तौर पर काम कर रहे हैं। शहरी माओवादियों की पुलिस द्वारा गिरफ्तारी पर कांग्रेस नेताओं का बर्ताव इसका ताजातरीन उदाहरण है।
राहुल गांधी और कांग्रेस ने इन गिरफ्तारियों को लोकतंत्र पर हमला बताया है। जबकि तथ्य ये है कि खुद पिछली यूपीए सरकार ने इनमें से कईयों को गिरफ्तार किया था। जिन्हें आपने पहले गिरफ्तार किया था वे आज पाक साफ शहरी कैसे हो गए? खुद यूपीए सरकार माओवाद को देश की व्यवस्था पर सबसे बड़ा खतरा मानती थी। क्या कांग्रेस नेतृत्व को याद नहीं कि एक घातक हमले में माओवादियों ने छतीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी के समूचे राज्य नेतृत्व को गोलियों से भून दिया था। 25 मई 2013 को छतीसगढ़ में हुए उस हमले में पार्टी के वरिष्ठ नेता विद्याचरण शुक्ल सहित 28 नेता मारे गए थे। इसलिए जब आज कांग्रेस संभ्रांत नक्सलों के खिलाफ कार्रवाई का विरोध करती है तो हैरत होना स्वाभाविक है।
यही केवल एक मुद्दा नहीं है। अन्य कई विषयों पर भी पार्टी की रीत ऐसी ही दिखाई देती है। कभी पार्टी के शीर्ष नेता सुप्रीम कोर्ट में रामजन्म भूमि मसले की त्वरित सुनवाई के खिलाफ गुहार लगते हैं तो कभी वे तीन तलाक खत्म करने का विरोध करते दिखाई देते है। जिस तरह से पिछले कुछ समय से कांग्रेस ने जातिगत और सांप्रदायिक हितों वाले हिंसक आंदोलनों को हवा दी है उससे लगता है कि वह ज़िम्मेदार राजनीतिक पार्टी नहीं रह गयी है। भारतीय
समाज की विभाजक रेखाओं यानि ''फान्ट लाइन्स '' को गहरा करना वामपंथियों की घोषित नीति हैं। क्योंकि वे भारत को एक राष्ट्र मानते ही नहीं।
मगर कांग्रेस की मूल सोच तो ऐसी नहीं थी । 1885 में अपने जन्म से ही कॉंग्रेस राष्ट्रीय मूल्यों और आस्थाओं में विश्वाश रखने वाली पार्टी रही है। तो फिर आज अब अराष्ट्रीय तत्वों के कन्धों पर सवार होने का यह भूत पार्टी पर क्यों सवार हुआ है? क्या ये पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष राहुल गांधी की अपने किसी मौलिक वैचारिक विश्वाश के कारण है? ऐसा है तो ये देश के भविष्य के लिए बेहद खतरनाक संकेत है। पर शायद ऐसा कहना अभी जल्दवाजी होगी। अभी तो लगता है कि राहुल गाँधी एक वैचारिक भ्रम की स्थिति में हैं। अभी तो राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर ही देश में चर्चा होती रहती है। कांग्रेस के कई नेता भी अंदरखाने उनकी शैली पर सवाल उठाते हैं। तो क्या कांग्रेस के स्वास्थ्य को ठीक करने का एक मात्र उपाय उसके नेतृत्व को बदलना है?
ऐसा नहीं हैं कि कांगे्रस में अच्छे नेताओं की कमी है। कई राज्यों में पार्टी के पास अनुभवी तथा युवा दोनों तरह के कार्यकर्ता हैं। जो जरूरत पडऩे पर नयी जिम्मेदारी संभाल सकते है। परंतु कांग्रेस पार्टी का ढ़ांचा ऐसा है कि नेहरू-गांधी परिवार के अलावा किसी और को पार्टी की रहनुमाई मिलना अवास्तविक कल्पना है। सब जानते हैं कि पारिवारिक आधार पर चलने वाली पार्टियों में योग्यता नहीं बल्कि वंश के आधार पर नेता तय होते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि खानदान के बाहर के नेता शायद पार्टी को एक न रख पाएं। अर्थात कांग्रेस के अध्यक्ष तो राहुल ही रहने हैं। तो फिर क्या उपाय है?
तरीका है कि पार्टी अपने अध्यक्ष के सलाहकारों को बदले। हुआ ये है कि राहुल गांधी लुटियन दिल्ली के कथित चिन्तकों, राजनीतिक रणनीतिकारों और चंद सुविधाजीवी पत्रकार सलाहकारों के जाल में उलझ गए लगते है। ये सब सिर्फ बातों की राजनीति करने वाले लोग हैं और ज़मीन से इनका ज़्यादा वास्ता नहीं है। इन वामपंथी चिंतकों और दिल्ली के सत्ता गलियारे के क्षुब्ध पैरवीकारों की इस जमात के पास मानो कांग्रेस ने सोचने के काम को आउटसोर्स कर दिया है। चूंकि इनमें से जमीन पर किसी की पकड़ नहीं है। इसलिए जमीन पर मौजूद माओवादियों
के समर्थक,
शहरी नक्सल और कई भारत विरोधी तत्व कांग्रेस पार्टी का 'नैरेटिव ' तय कर रहे है। कथित चिंतकों की ये फौज मूलतः परजीवी है और अपने स्वार्थों के लिए कोन्ग्रेस्स का इस्तेमाल कर रही है। इसी जमात ने शायद राहुल गांधी को समझा दिया है कि भारतीय समाज की 'फॉल्ट लाइंस' को गहरा करने से ही वे सत्ता पर काबिज हो सकते हैं।
सलाहकारों के इस समूह ने शायद राहुल गांधी को ये भी समझा दिया है कि वे 'आरएसएस ' को जितनी गाली देंगे उन्हें उतना ही लाभ होगा। परंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना वामपंथियों का एजेंडा तो हो सकता है, कांग्रेस का नहीं। क्योंकि अगर सिर्फ ऐसा करने से देश में राजनीतिक प्रभाव बढ़ता तो अबतक तो पूरे देश पर वामपंथियों का राज होना चाहिए था। पर उनका प्रभाव तो लगातार कम होता गया है। इसका मतलब है कि इस वैचारिक मकडज़ाल से निकलकर ही कांग्रेस का भला हो सकता है।
कांग्रेस पार्टी में नेतृत्व तो नहीं बदला जा सकता परंतु शीर्ष नेतृत्व के आसपास मंडराने वालों और उनकी नीतियों को प्रभावित करने वालों की टीम बदले जाने के बिना कांग्रेस के अच्छे दिन नहीं आने वाले। राहुल गाँधी को समझना होगा कि कांग्रेस के झंडे में अति वामपंथ का वैचारिक डंडा लगाने से पार्टी की बची-खुची राजनीतिक जमीन भी खिसक सकती है। ऐसा होना न तो पार्टी के लिए अच्छा है, न ही भारत के लोकतंत्र के लम्बे स्वास्थ्य के लिए।
No comments:
Post a Comment