Monday, October 1, 2018

भारत का विचार और संघ!





भारत क्या है?
क्या ये महज एक भूखंड का नाम है?
जब हम भारत और भारतीयता की बात करते है तो क्या वह सिर्फ 1947 में स्वतंत्र हुए देश की ही बात होती है?
भारत की राष्ट्रीयता की पहचान क्या है
क्या वह राष्ट्रीयता 1950 में भारत का मौजूदा संविधान होने से पहले मौजूद नहीं थी? और अगर उससे पहले हम एक राष्ट्र के रूप में जीवित और जीवंत थे तो फिर वे कौन से तत्व हैं तो इस राष्ट्रीयता के मूल में हैं?
क्या हिन्दू और भारतीयता को समानार्थक रूप में देखा जा सकता है?

ऐसे और भी कई प्रश्न हैं जो भारत के बारे में किसी भी विचारशील व्यक्ति के मन  में उभरते हैं इसलिए भारत के विचार यानि ‘‘Idea of India’’ को समझना और परखना बहुत जरूरी है 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का 17 सितम्बर से 19 सितम्बर तक दिल्ली के विज्ञान भवन में दिया भाषण इस संदर्भ में खासा महत्वपूर्ण और सार्थक हैं तीन दिन की यह अप्रतिम व्याख्यानमाला हर राष्ट्रप्रेमी के लिए कुतुहल और जिज्ञासा को जगाने वाली हैउनके इस उद्बोधन के बाद समीक्षकों, विश्लेषकों और आलोचकों को संघ के बारे में नए सिरे और नयी दृष्टि से सोचने को मज़बूर किया है 

भारत को देखने के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नजरिये को जानने से पहले जरूरी हैं कि हम भारत की अवधारणा के अन्य दृष्टिकोणों को भी कम से कम संक्षेप में तो देखें आधुनिक समय में भारत को देखने के मोटे तौर से तीन नजरिये रहे हैं एक पश्चिमी औपनिवेशक दृष्टिकोण, दूसरा भारत को देखने का वामपंथी नजरिया और तीसरा भारत को देखने का भारतीय नजरिया
पश्चिमी नजरिये से भारत को देखने वाले आमतौर पर मानते हैं कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत बेहद पिछड़ा, दकियानूसी, जाहिल समाज थायह एक  देश और  राष्ट्र  तो कतई नहीं था  इसमें नयी सोच और जागृति विदेशी ही ले कर आए इस धारा के चिंतक मानते हैं कि ये एककूपमंडूक समाजथा जिसे बाहर से आने वालों ने प्रगति और आधुनिकता की रोशनी दिखाई इसलिए भारत में राष्ट्रीयता के उभार को वे अंग्रेजी और अंग्रेजियत से जोड़ कर देखते हैं

उधर वामपंथी दृष्टि तो भारत को एक राष्ट्र और एक जन ही मानने से इंकार करती है इस विचारधारा के अनुसार भारत में कई राष्ट्रीयताएं हैं और इस विचार के मानने वालों को इन कथित राष्ट्रीयताओं के उभार और उनके भारत से अलग होने में कोई सैद्धांतिक आपत्ति नहीं है इसलिए देश के खिलाफ चल रहे हिंसक आतंकवाद और अन्य अलगाववादी धाराओं को ये लोग मूलतः गलत नहीं मानते इसीलिये ‘‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’’ का नारा इस विचार को मानने वालों को आपत्तिजनक नहीं लगता

भारत को देखने का जो तीसरा नजरिया है वह नितांत भारतीय है वह भारत को उसकी विरासत, लम्बे इतिहास, भाषागत साहित्यिक सम्पदा, बोलियों, जनजातीय रवायतों, रीतिरिवाज़ों, रहनसहन, परंपराओं, सभ्यतागत मूल्यों और उसकी अविरल सांस्कृतिक धारा के सहज प्रवाह के  रूप में देखता है ऐसा मानने वालों के लिए भारत की राष्ट्रीयता पिछले सिर्फ सौ/ढेड़ सौ सालों में उत्पन्न हुआ भाव नहीं है यह विचार मानता है कि अनेक राज्य होने के बावजूद भारतीय समाज का राष्ट्रबोध प्राचीन काल से आमजनों के व्यवहार और आचरण का अंग है इसलिए वह मौजूदाराष्ट्र राज्ययानि ‘‘Nation State’’ विचार से भी पुराना है राष्ट्रत्व का यह बोध किसी एक पूजा पद्धति अथवा एकीकृत शासन व्यवस्था से तो पैदा हुआ है और ही यह उससे बंधा हुआ है 

पिछले कोई सौ साल के ‘‘बौद्धिक  कथ्य’’ या Intellectual  Narrative  को देखें तो पश्चिमी और वामपंथी नैरेटिव को देश का मुख्य नैरेटिव बनाने की कोशिश होती रही है देश के मनीषियों के साथ ही समाज  ने लगातार इसका विरोध लिया है  जब हम पराधीन थे तब तो शायद हम ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे परन्तु  हैरानी की बात तो ये है कि आजादी के बाद भी पश्चिमी और वामपंथी विचार में रंगे हमारे बौद्धिक वर्ग ने इन दोनों अभारतीय परिकल्पनाओं की एक मिलीजुली खिचड़ी को देश के सामने परोस रखा है इन आभिजात्य सोच रखने वालों को देश के सत्तासीनों और प्रभुवर्ग का प्रचुर समर्थन भी मिलता रहा है  

भारत को देखने के 'भारतीय नजरिये' को पराधीनता के सात आठ सौ सालों के दौरान भारत के संतों, कवियों, अलग अलग पंथों के गुरूओं, अलग-अलग भाषाओं में पैदा हुए चिंतकों, दार्शनिकों और समाज सुधारकों ने अपनी वाणी/संदेशों के माध्यम से जिन्दा रखा है डॉ. मोहन भागवत ने अपने  दिल्ली व्याख्यान में भारत को देखने के इसी नजरिये की व्याख्या की पिछले दिनों पूर्व राष्ट्रपति डॉ. प्रणब मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कार्यक्रम में हिस्सा लेने नागपुर गए थे अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति कम से कम पांच हजार साल से अनवरत चलने वाली एकमात्र जिन्दा संस्कृति है पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति को एक अनवरत चलने वाली यात्रा बताते थे इसकी ये निरंतरता और तमाम संकटों के बावजूद जिन्दा रहने की क्षमता के पीछे का मूल तत्व क्या है? यह जाने बिना आप भारत को नहीं समझ सकते 

अथर्ववेद की एक ऋचा कहती है ‘‘माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:’’ यानि यह धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं जब हमने इस धरा को अपनी माता मान लेते हैं  तो उसका सब कुछ  सहज ही हमारा शिरोधार्य हो जाता है उसकी विरासत, परंपराएं, रवायतें, रहन-सहन का तरीका , गुण दोष - सब हमारे हैं अब जो भी इसे मानता है वह भारतीय है और अगर राजनीति और मजहबी चश्में को उतार कर देखा जाये तो भारतीय और हिन्दू एक दूसरे से भिन्न नहीं रह जाते हिन्दू शब्द का किसी एक खास पूजा पद्धति, एक पुस्तक, अथवा खास देवता से कुछ लेना देना है ही नहीं शायद इसीलिए डॉ. भागवत ने कहा कि हिन्दू की व्याख्या करते हुए इसे सबको साथ लेकर चलने वाला और किसी को नहीं छोडऩे वाला भाव कहा उन्होंने कहा कि हिंदुत्व किसी से ‘‘मुक्त’’ नहीं बल्कि ‘‘सर्वयुक्त’’ रखने वाला विचार है

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरोधी उसकी ये कहकर आलोचना करते आए हैं कि वह सिर्फ हिन्दुओं का संगठन करता हैं  अर्थात संघ बाकी सबका विरोधी है सरसंघचालक के इस सार्वजनिक उद्घोष के बाद कि हिंदुत्व सर्व समावेशी है इस बहस पर विराम लगना चाहिए उन्होंने ये भी कहा कि हिन्दू शब्द की संकीर्ण परिभाषा संघ ने कभी नहीं की बल्कि विरोधियों ने उसके ऊपर थोपी है वे  तो एक कदम आगे गए और कहा कि हिन्दू और भारतीय में कोई खास फ़र्क़ नहीं यानि जिसेहिन्दूकहलाने से आपत्ति हो वे अपने को भारतीय कह सकते हैं

संघ के आलोचक इसे मुस्लिम विरोधी, महिला विरोधी और ब्राह्मणवादी संगठन कहते आए हैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को वे आरक्षण का विरोधी भी बताते आए हैं साथ ही वे ये भी कहते आए हैं कि संघ भारत के संविधान को नहीं मानता इस सब आरोपों का डॉ. भागवत ने सिलसिलेवार और तार्किक खंडन किया आरक्षण के बारे में उन्होंने कहा कि संविधान और कानून के तहत दिए गए आरक्षण का संघ समर्थन करता है और उसे तबतक जारी रहना चाहिए जबतक कि आरक्षण का लाभ लेने वाले इसे खत्म करने का मन बनालें

महिलाओं के बारे में उनकी युक्ति भी बिल्कुल साफ थी उन्होंने कहा कि महिलाओं को तो दासी माना जाये और देवी उन्हें बराबर की साझीदार और बराबर की जिम्मेदार समझा जाये है महिला सशक्तिकरण की इससे स्पष्ट परिभाषा और क्या हो सकती है?

विज्ञान भवन में तीनों दिन डॉ. भागवत के भाषण के बाद राष्ट्रगीत हुआ और उन्होंने स्वयं कहा कि भारत का संविधान पूरे समाज की सहमति का दस्तावेज हैं इसलिए वह पूरे समाज को एक रास्ता दिखाता है इसके बाद तो  उन लोगों को चुप हो जाना चाहिए जो संघ को संविधान विरोधी बताते आए हैं

जैसे मैंने इस लेख के शुरू में लिखा कि ‘‘भारत को भारत की नजर’’ से देखे बिना आप भारत के मर्म को  नहीं समझ सकते यही बात कमोबेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर भी लागू होती है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विवेचना का आधार अक्सर उसके विरोधियों द्वारा दिए गए विचारों, लेखों, पुस्तकों और बयानों के आधार पर होता रहा हैसोचिये  अगर आपका चश्मा ही टेढ़ा है तो फिर आपको सीधा कैसे दिखेगा?

ये तो बिल्कुल वैसा ही हुआ कि भारत का अध्ययन करने वाला कोई पाकिस्तान चला जाएं और भारत के विरोध में वहां जो भी कहा जाता है उसे सही मान ले सही मान ही ले बल्कि उसके आधार पर अपनी धारणा बनाकर उसे सत्य के रूप में स्थापित कने की कोशिश करेसंघ के बारे में  भी ऐसा ही होता आया है 

संघ का ईमानदार विश्लेषण करने के लिए जरूरी है कि संघ स्वयं अपने बारे में क्या कहता है आप उसको सुने, पढ़े और जानें इस नाते डॉ. भागवत का ये तीन दिवसीय व्याख्यान महत्वपूर्ण था उन्होंने आज के संदर्भ में संघ के विचार को देश के सामने रखा सरसंघचालक ने कई अनछुए पहलुओं को छुआ साथ ही उन्होंने कुछ धारणाओं को भी तोड़ा ये भी कहा कि किसी खास परिस्थिति में संघ ने अगर कुछ कहा भी है तो उसे उस तात्कालिक परिस्थिति पर संघ की प्रतिक्रिया माना जाना चाहिए कि संघ का मूल सिद्धांत संघ का विचार नदी के उस बहते पानी की तरह है जो लगातार ताजा रहता है वह किसी छोटे तालाब के बंधे हुए जल की तरह नहीं हैं जिसमें कोई बदलाव होता ही नहीं है

संघ के किसी मुखिया ने इस तरह सार्वजनिक मंच पर  आकर देश के सामने इतने खुलेपन के साथ अपनी बातें अबतक कभी नहीं रखी थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन हैं इसलिए आप उससे सहमत हों या नहीं- उसके महत्व को नकार नहीं सकते  इसलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस नवीन खुलेपन और नयेपन का स्वागत ही किया जा सकता है !

#RSS #RashtriyaSwayamSevakSangh

उमेश उपाध्याय 
1/10/2018




1 comment:

  1. भारत विश्व की बौद्धिक / सामाजिक सोच का आयना है !!

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