युद्ध रोकने के
लिए युद्ध हो तो हो !
1993- मुम्बई
1998- कोयम्बटूर
2001- संसद हमला
2002- अक्षरधाम
2003/2006- मुम्बई ट्रेन
2005- दिल्ली
2006- वाराणसी
2007- समझौता एक्सप्रेस, हैदराबाद
2008- मुम्बई 26/11
2016- उरी
2019- पुलवामा ...... सैकड़ों और
हमले।
ये क्या युद्ध नहीं है ??
आज 'युद्ध को न कहें' #SayNoToWar का हैशटैग चलाने वालों से पूछना चाहिए
कि वे किस #युद्ध को न करने की अपील कर रहे है? दशकों से जारी
इस युद्ध पर उनकी संवेदनाएं क्यों नहीं जागी थी? इन हमलों में
मरने वाले भारतीय क्या कमतर इंसान थे?
शांति के ये कथित मसीहा अचानक आज ही क्यों जाग उठे हैं?
इस सवाल का उत्तर ईमानदारी से खोजने की
जरूरत है। आज की परिस्थिति को समझने के लिए भी यह बहुत जरूरी है नहीं तो हम भी
सोशल मीडिया पर अक्सर चलने वाली बेतुकी और निरर्थक बहस के हिस्से बनकर रह जाएंगे।
हम सबको जानना चाहिए कि #पाकिस्तान के
पास दो तरह की सेना है। एक उनकी रेगुलर सेना और दुसरी उनकी जिहादी सेना। वह अपनी
जरूरत के मुताबिक इन दोनों सेनाओं का इस्तेमाल भारत के खिलाफ करता रहा है। 1948,
1965, 1999 के युद्धों में पहले उसकी जिहादी आर्मी आई और फिर उसकी सेना।
जम्मू-कश्मीर में तो लगातार वो #इस्लामी #जिहादी #आर्मी का इस्तेमाल कर ही रहा है।
अत: #पाकिस्तानी रणनीति में इन्हें अलग माना ही नहीं जाता। उनकी फंडिग, ट्रेनिंग और
नियंत्रण सेना की आईएसआई के हाथ में रहता है।
इस जिहादी आर्मी के जनरल बदलते रहते
हैं। कभी दाउद इब्राहिम, कभी हमीद गुल, कभी मसूद अजहर
तो कभी हाफ़िज़ सईद। लेकिन इसमें कोई शक
नहीं होना चाहिए कि उनकी कमान पाकिस्ताना की सेना के हाथ में ही रहती है। जब कभी
पाकिस्तान पर दवाब पड़ता है तो वह सार्वजनिक रूप से इनसे पल्ला झाड़ लेता है लेकिन
तब भी अंदरखाने ये उसकी गोद में ही बैठे रहते हैं। ये सारे आतंकवादी #पाकिस्तानी
सेना के जिहादी विंग यानि 'इर्रेगुलर आर्मी' का ही हिस्सा हैं। #भारत के खिलाफ इन
लोगों ने खुल्लम-खुल्ला युद्ध छेड़ा हुआ है। इस युद्ध को न जाने क्यों हम छदम या
परोक्ष युद्ध करते आए हैं? दरअसल पाकिस्तानी प्रोपेगंडा इतना
जबरदस्त रहा है कि पिछले दो तीन दशकों से हम उसी में फंस कर रह गए हैं। जब ये
जिहादी आर्मी कमज़ोर होती है तो 'अमन की आशा' की मोमबत्तियां
जलतीं है। पाकिस्तान की कूटनीतिक ज़रुरत के मुताबिक ये आतंकवादी भारत के कोने कोने में बारूद के धमाके करके खून
बहाते हैं।
अब जब इतने सालों से हमारे खिलाफ युद्ध
चल ही रहा है तो फिर आज नया क्या हो गया जो लोग #SayNoToWar की छाती पीटने
निकल आए हैं। एक तरह से आज युद्ध का विरोध करने वाले या तो पाकिस्तान के इन प्रोपेगंडा
के शिकार हैं या फिर वे इस प्रोपेगंडा के हिस्से हैं।
#पुलवामा के हमले के बाद भारत ने
जैश-ए-मोहम्मद के #बालाकोट अड्डे पर हमला किया तो अचानक लोगों को शांति की चिंता
क्यों सताने लगी है? अगर जैश-ए-मोहम्मद पाकिस्तान की आर्मी और उसकी रणनीति के हिस्से नहीं
हैं तो उसके लिए पाकिस्तान ने क्यों भारत पर हमला किया? कुछ और भी भ्रम
फैलाए जा रहे है। जैसे कि बालाकोट में जैश के ठिकाने पर कोई नुकसान हुआ ही नहीं तो
भाई इमरान खान से लेकर पाक आर्मी के लोग इतना बिलबिला क्यों रहे है?
असल में भारत की दृष्टि से ये तो
ज्यादा मायने रखता ही नहीं कि बालाकोट में कितने लोग मारे गए या कितना नुकसान हुआ।
मूल बात है कि भारत ने पहली बार पाकिस्तान की सेना के जिहादी विंग पर उनकी जमीन पर
घुसकर वार किया। यह भारत के इस नए संकल्प का हिस्सा है जिसके तहत वह अपने दुश्मनों
को कहीं भी जाकर मारने की कूवत, काबिलियत और हिम्मत रखता है।
पाकिस्तान की घबराहट और बौखलाहट साफ
बताती है कि उसकी धोखेबाजी को खत्म करने का फैसला उसकी सारी रणनीति को बेकार कर
देगा। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने भी इस जिहादी सेना पर भारत के हमले का स्वागत किया
है। इस हमले से जो नयी परिस्थिति पैदा हुई है इससे पाकिस्तानी सेना की बरसों से
बनाई हुई धूर्ततापूर्ण रणनीति बेकार होती दिखाई देती है।
ये कहना कि भारत की बालाकोट हवाई कारवाई से युद्ध का खतरा पैदा हो
गया है। ये बात तथ्य और सत्य दोनों से परे है। असल में तो युद्ध लगातार चल ही रहा
है। भारत ने तो सिर्फ इस युद्ध की दिशा बदलने का काम किया है। ये कारवाई तो बहुत
पहले हो जानी चाहिए थी। पहले के नेतृत्व ने ऐसा नहीं किया, तो इसके लिए आज
की सरकार दोषी कैसे है?
परमाणु युद्ध का खतरा दिखाकर भारत को
चुप कराने का ये खेल अर्से से चलता आया है। ये कूटनीतिक और सामरिक ब्लैकमेल रोकना ज़रूरी था।
ये कैसा मज़ाक है ? अगर आप मुम्बई हमले, संसद पर हमला, पुलवामा के आतंक
को चुपचाप बर्दाश्त कर लें तो आप शांति के मसीहा हैं। यदि आप इसका प्रतिकार करने
के लिए कारवाई करें तो आप 'युद्धपिपासु राष्ट्रवादी' हैं। यह तो वैसे
ही हुआ जैसे कि पड़ोस के गुंडे से पिटने का आदी हो चुका आदमी जब आवाज उठाये और
गुंडा उसपर ही शांति भंग करने का आरोप लगाए।
भारत ने अब जो हिम्मत दिखाई है वह सोशल
मीडिया के कातर क्रंदन और प्रलाप से रूकनी नहीं चाहिए। युद्ध कई बार स्थाई शांति
की अनिवार्य शर्त बन जाता है। हमें स्पष्ट करना चाहिए कि भारत ने युद्ध नहीं चाहा
पर उस पर थोपे गए खून-खराबे को रोकने के लिए युद्ध उसकी मजबूरी है। ये युद्ध भारत
ने चालू नहीं किया लेकिन इसे खत्म करने के लिए उसे युद्ध करना पड़ा तो वह उससे
भागेगा नहीं।
इस नए
भारत का अभिनन्दन।
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