Thursday, June 13, 2013

आडवानी - खंडित प्रतिमा



आडवानी - खंडित प्रतिमा

“लौह पुरुष” लाल कृष्ण आडवानी ने इस्तीफ़ा क्यों दिया और फिर क्यों वापस लिया यह  राजनीतिक गुत्थी बड़ी जटिल है. घोर अचम्भित कर देने वाले इस  राजनीतिक ड्रामे के कारणों के बारे में राजनीतिक पंडित  कयास लगाते रहेंगे. इसके नफा नुक्सान का अंदाजा भी लगाया जाता रहेगा. नुक्सान सबको हुआ है चाहे वो भाजपा हो, मोदी हो या फिर एनडीए, पर अगर इसका असली नुक्सान किसी को हुआ है तो वो हैं खुद लाल कृष्ण आडवानी. इया बात का अनुमान शायद स्वयं आडवानी को भी नहीं होगा कि अपने इस एक कदम से वे अपनी जीवन भर की पूँजी गवाँ बैठे है. भाजपा जैसे काडर आधारित दल में राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी पूँजी होती है आम लोगों से मिलने वाला विश्वाश, एकनिष्ठता और प्रतिष्ठा. क्या अब कहा जा सकता है कि आडवानी के पास ये बचा है? भरोसा न हो तो साइबर स्पेस में आम लोंगो द्वारा हो रही टीका टिप्पणियाँ देख लें.
प्रधान मंत्री बनने का सपना देखना प्रजातान्त्रिक वयवस्था में कोई बुरी बात नहीं. और आडवानी के लिए तो ये कोई शेखचिल्ली के ख्वाब जैसा भी नहीं. वे देश के उप प्रधान मंत्री रह चुके हैं. इसलिए प्रधान मंत्री की कुर्सी उनके लिए स्वाभाविक और सहज ही है. देश में इस पद के कई दावेदारों से वे निस्संदेह बेहतर ही सिद्ध होंगे. मगर आडवानी का आडवानी होना क्या किसी पद का मोहताज था? उनके विरोधी भी सहमत होंगे कि उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा सिर्फ़ पद पर आधारित नहीं. लेकिन आज ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने सारे राजनीतिक वजूद को इस एक पद की तराजू पर तोल दिया. क्या अब उनका राजनीतिक कद पार्टी में एक शीर्ष पुरुष का रह जाएगा? क्या अब जब वो कोई बात बोलेंगे तो उसका वजन संघ परिवार में पहले जितना रहेगा?
इस्तीफ़ा देने और वापस लेने के पीछे उनकी मंशा क्या थी ये तो खुद आडवानी ही बता सकते हैं. मगर आश्चर्य है कि उन जैसा नेता उसके असर के आकलन में इतनी चूक कैसे कर गया. उससे  पार्टी के उन नेताओं के स्वभाव और राजनीतिक रुख को भांपने में उनसे इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी जिनको उन्हीने राजनीति का ककहरा पढाया है. क्या उन्हें लगता था पार्टी अपना  फैसला और मोदी को दिया गया पद वापस ले लेगी? क्या इसके बाद आडवानी के राजनीतिक आकलन पर कोई भरोसा कर पायेगा?
इस प्रकरण से पहले उन्हें भाजपा को दो सीटों वाली पार्टी  से सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाने वाला माना जाता था. एक ऐसा नेता जो इस उम्र तक भी खूब पढ़ता लिखता है. एक ऐसा नेता जिसने अपनी पार्टी के लिए जीतोड महनत की और फिर वाजपेयी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे उपयुक्त घोषित किया. हर राजनेता की तमन्ना अपना नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज कराने की होती है मगर सवाल है कि इस्तीफ़ा प्रकरण के बाद आडवानी को इतिहास कैसे याद करेगा?
कारण  और परिस्थितिया कोई भी रहीं हों और अंदरखाने कुछ भी हुआ हो एक बात तो तय है कि आडवानी ने जिस प्रतिमा को बड़े जतन , मनोरथ , स्वाध्याय और निश्चय के साथ पूरा जीवन देकर बनाया था वो उनके ही हाथों खंडित हो गई. और इतना तो आडवानी और उनके नज़दीकी जानते ही होंगे कि भारत में खंडित प्रतिमा की न तो पूजा होती हैं न उसपर फूल चढ़ाये जाते है.

उमेश उपाध्याय
१३ जून २०१३

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