Sunday, July 28, 2013

#TV Debates धारावाहिक तू तू मैं मैं

ये चकल्लस का दौर है. जुमलेबाजी, राजनीतिक चुहुल,अनर्गल प्रलाप, कुतर्क,  ही जैसे विमर्श  का ज़रिया बनकर रह गए हैं. ऐसा लगता है कि पूरा का पूरा "भारत निर्माण" और "राष्ट्र निर्माण" इस अनर्गल और अक्सर भद्दी बहस से ही संपन्न होगा? ये देश इतने भयंकर खतरों और चुनौतियों का सामना कर रहा है? पर कहीं भी वैकल्पिक सोच, नीतियां और मौजूदा एवं आने वाली  चुनौतियों से निपटने की रणनीति की दिशा पर विचार तक का संकेत नहीं दिखाई दे रहा है.



पिछले कुछ दिनों में ख़बरों की सुर्ख़ियों पर, टीवी की चर्चाओं, फेसबुक और ट्विटर पर नज़र डाली जाये तो क्या दिखाई देता है; “नरेन्द्र मोदी के इंटरव्यू में दिए गए एक उदाहरण पर अनवरत चर्चा”, “इंडियन मुजाहिदीन का गुजरात के दंगों के कारण पैदा होना”, “भाजपा की नई टीम”, “मुलायम सिंह को सीबीआई से संभावित छुटकारा”, "सलमान शाहरुख का मिलाप" और "दिग्विजय सिंह का मीनाक्षी नटराजन को टंच माल कहना" आदि. इन्हीं घटनाओं पर नेताओं की लगातार अतार्किक बहस और सवाल जबाब. यूँ लगता है जैसे ये चकल्लस का दौर है. जुमलेबाजी, राजनीतिक चुहुल,अनर्गल प्रलाप, कुतर्क,  ही जैसे विमर्श  का ज़रिया बनकर रह गए हैं.

एक तरफ ये वाग्विलास है तो दूसरी और आम आदमी की स्थितियां बद से बदतर होती जा रहीं है. चीन हमें आये दिन हमारी सरज़मीं पर आकर धमका रहा है. देश का आर्धिक ढांचा चरमरा रहा है और रुपये की कीमत तेज़ रफ़्तार से गिरी है. नक्सल हिंसा की मार लगातार घातक होती जा रही है. पाकिस्तान आयोजित आतंकवादी घटनाएं कम नहीं हुईं हैं. विदेश नीति के खतरे अलग हैं. अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद तालिबान से निपटने की क्या रणनीति होगी इस पर क्या ज़िम्मेदार लोगों का ध्यान है?  उधर कुछ नेताओं में नेतिकता के पतन,  प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार से लोग त्रस्त हैं. उत्तराखंड में तबाही,  मध्य प्रदेश के एक पूर्व मंत्री की रंगरेलियां और बिहार में दिन का भोजन खाने से हुई बच्चों की मौत इनके ताज़ा उदाहरण हैं.

ख़बरों पर हो रही बहस में हिस्सा लेने वाले कोई साधारण लोग नहीं बल्कि देश के बड़े लोग हैं जिनकी प्रतिष्ठा अच्छे वक्ताओं और विचारकों में होती हैं. जब ये बात हमारे ध्यान में आ सकती है तो निश्चय ही ये विचारवान लोग भी इसे समझते होंगे की जिन मुद्दों को लगातार हमारे सामने परोसा जा रहा है वे मुद्दे देश के मुद्दे नहीं हैं. इनसे सनसनी तो पैदा की जा सकती है पर उन समस्याओं से ये कोसों दूर हैं जिन पर देश के ध्यान की ज़रुरत है.

पर आज जैसे सारा विमर्श मुद्दों पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत हमलों और जुम्लेबाजियों पर आकर टिक गया है. ऐसा लगता है कि पूरा का पूरा "भारत निर्माण" और "राष्ट्र निर्माण" इस अनर्गल और अक्सर भद्दी बहस से ही संपन्न होगा? लगता ही नहीं कि ये देश इतने भयंकर खतरों और चुनौतयों का सामना कर रहा है? पर कहीं भी वैकल्पिक सोच, नीतियां और मौजूदा एवं आने वाली  चुनौतियों से निपटने की रणनीति की दिशा पर विचार तक का संकेत नहीं दिखाई दे रहा है.

सोचने की बात है की ऐसा क्यों हो रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं की जानबूझ कर हमारा ध्यान भटकाया जा रहा हो? २०१४ का चुनाव महत्वपूर्ण चुनाव है क्योंकि इसमें फैसला होना है की यूपीऐ-2 की प्रशासनिक अक्षमताओं, भ्रष्टाचार, नीति हीनता और आर्थिक नीतिओं के दिवालियेपन को क्या देश जारी रहने देगा या एक स्पष्ट जनादेश देकर एक  प्रभावी नेतृत्व को चुनेगा?

कभी कभी लगता है कि देश के नेताओं की ये शब्दिक कुश्ती और धींगामुश्ती जानबूझकर एक अफीम की तरह लोंगों को परोसी जा रही है कि तुम देखो और मज़ा लो इस सार्वजनिक गालीगलौच का.  भूल जाओ कि गंभीर समस्याओं से निपटने के लिए गहरी सोच और कड़ी मेहनत की ज़रुरत होती है.  अगर ऐसा है तो कहना पड़ेगा कि देश के दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों का नेतृत्व भारी मुगालते में है. असल बात तो ये है कि ये जो लगातार  “तू तू मैं मैं का धारावाहिक” चल रहा है उससे लोग अब उकता गए हैं. सिर्फ अच्छा जुमला बोलकर देश नहीं चलाया जा सकता और तुलसीदास के शब्दों में “गाल बजाने से ही” साबित नहीं हो जाता की अच्छा पंडित कौन है. या कहा जाए कि अच्छा नेता कौन है.

उमेश उपाध्याय
२२ जुलाई २०१३

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