पक्ष हो या विपक्ष हमाम में सब नंगे हैं.पार्टियां भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के विरोध में लिए कितनी ही बड़ी बड़ी बातें क्यों न करें असल में कुछ करना नहीं चाहतीं, और जब सुप्रीम कोर्ट कुछ करता हैं तो ये कानून ही बदल देतीं हैं.
संसद में सारे राजनीतिक दल किसी मुद्दे पर एक हों ऐसा नज़ारा कम ही दिखाई देता है. अक्सर ज़रा सी बात पर ये दल तलवार खींचे रहते हैं. अक्सर कोफ़्त होती है कि राष्ट्रीय हित पर ये एक क्यों नहीं होते? मगर आश्चर्य ! पिछले सत्र में ये एक बार नहीं तीन तीन बार सारी पार्टियां एक हुईं. मगर अफ़सोस, मुद्दे राष्ट्रीय हित के नहीं बल्कि पार्टी हित के थे. इन तीनों ही ख़बरों पर लोगों का उतना ध्यान नहीं गया जितना जाना चाहिए था. वे मुद्दे जिन पर सारे राजनीतिक दल संसद में एक हो गए थे - एक, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के तरीके में बदलाव का विधेयक, दूसरा, राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखने का विधेयक और तीसरा जेल गए जनप्रतिनिधियों से चुनाव लड़ने का अधिकार छीनने वाले उच्चतम न्यायालय के फैसले को उलटने वाला विधेयक. ये तीनों ही मुद्दे सार्वजनिक जीवन में शुचिता, नैतिकता और पारदर्शिता से जुड़े हुए हैं. लेकिन राजनीतिक दलों ने इसका उल्टा ही किया.
सबसे पहले बात करते हैं उच्चतम न्यायालय के जुलाई महीने के उस फैसले की जिसके तहत उसने ऐसे नेताओं को चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया था जो जेल में बंद हैं. अभी तक ऐसे नेता इस बहाने जेल से भी चुनाव लड़ते रहे हैं कि उनका मामला बड़ी अदालत में लंबित है. और जैसा कि होता रहा है ये मामले निचली अदालत से उच्च न्यायालय और फिर वहाँ से उच्चतम न्यायालय जाते हैं. यानि फैसला होने में बरसों बीत जाते हैं और ऐसे नेता चुनाव लड़ते रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ साफ कहा कि आप जेल से चुनाव नहीं लड़ सकते. ये एक ऐसा फैसला था जिससे राजनीति के अपराधीकरण को समाप्त करने में मदद मिलती.
मगर राजनीतिक दलों की जल्दबाजी तो देखिये 6 सितम्बर को सिर्फ़ 15 मिनट में लोकसभा में बिना किसी बहस के जन प्रातिनिधि कानून में संशोधन कर दिया गया और सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को बदल दिया गया. लोकसभा में ऐसी एकता पहले नहीं देखी गई थी. कहाँ कोयला घोटाले में संसद में जूतमपजार हो रही थी कहाँ सब अपने जेलबंद साथियों को बचाने सब एक हो गए?
दूसरा मसला था सूचना के अधिकार के कानून से राजनीतिक दलों को बाहर रखने का. पिछले महीने संसद में सूचना के अधिकार के दायरे से राजनीतिक दलों को बाहर रखने के लिए कानून मे बदलाव का बिल लोकसभा में सरकार ने रखा. इसका तृणमूल कोंग्रेस को छोडकर सारे दलों ने समर्थन किया. राजनीतिक दलों का कहना है कि अगर वे आरटीआई के दायरे में आये तो बहुत सी “गोपनीय” सूचना उन्हें जनता को देनी पड़ेगी. है न कमाल की बात? जनता के “चंदे” से चलने वाले दल जनता को सूचना देने से डरते हैं?
इसका बड़ा कारण है. राजनीतिक दलों के पास छुपाने को बहुत कुछ है. इसके लिए एक ही उदाहरण काफी होगा. एक अध्ययन के मुताबिक़ 2004-05 से 2010-11 के बीच अगर पार्टियों के आयकर रिटर्न को देखा जाए तो 6 बड़े राजनीतिक दलों को 4895 करोड रुपये का चन्दा मिला. इसमें से 3674 करोड यानि 75 % पैसा अज्ञात स्रोतों से आया. ये दल हैं कोंग्रेस, बीजेपी, सीपीआई, सीपीएम, बीएसपी ओर एनसीपी. जाहिर है कि अगर आरटीआई के तहत अगर इन पार्टिओं को ये बताना पडा कि ये अग्यात स्रोत क्या हैं तो इन दलों की तो नानी ही मर जायेगी. इसलिए सब दल साथ आये कानून को बदलने के लिए. यानि जनता को ये जानने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि हमारे दलों को कौन पैसा देता है?
जिस तीसरे मुद्दे पर सारे दल एक हुए हैं वो है सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति.अब तक ये नियुक्ति एक कोलेजिअम सिस्टम के तहत सुप्रीम कोर्ट ही करता रहा है. अब सरकार चाहती है कि जजों की नियुक्ति में उसका भी हाथ हो सो सरकार इसके लिए नया क़ानून लाना चाहती है. इस पर भी सारे दल एक साथ आ गए है.
इन तीनों ही मामलों में एक बात साफ़ हैं कि ये पार्टियां भ्रष्टाचार और राजनीति के अपराधीकरण के विरोध में लिए कितनी ही बड़ी बड़ी बातें क्यों न करें असल में कुछ करना नहीं चाहतीं, और जब सुप्रीम कोर्ट कुछ करता हैं तो ये कानून ही बदल देतीं हैं.और तो और अब इन्होने ठान लिया हैं कि ये जजों की नियुक्ति भी खुद ही करेंगे ताकि अदालतें ऐसे फैसले ही न दे पायें जिनसे नेताओं के हितों को चोट पहुँचती हो. वाह रे लोकतंत्र ! अब चोर ही कोतवाल हुआ जाता है.
इन तीनों ही मुद्दों से ये बिलकुल स्पष्ट हो गया कि चाहे वो पक्ष हो या विपक्ष सब एक हैं. हमाम में सब नंगे हैं. जनता को एक ही सन्देश नेताओं और दलों ने मिलकर दिया है जब हमारे हितों की बात आयेगी हम एक होंगे. केस भी हमारा होगा और फैसला भी हम करेंगे. सुप्रीम कोर्ट कुछ भी फैसला दे, जनता कुछ भी कहे हमें लोकलाज का कोई डर नहीं. सच ही है जब सैयाँ भये कोतवाल तो डर कहे का ?
उमेश उपाध्याय
25 सितम्बर 2013
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