Friday, September 6, 2013

#Politics of Appeasement ये कैसा सेकुलरवाद !

मस्जिद में काम कर रहे इमाम और मुअज्ज़िन गरीब और ज़रूरतमंद हैं तो फिर मुख्यमंत्री होने के नाते उन्होंने मंदिरों के पुजारियों, गिरजाघरों के पादरियों, बौद्ध मठों के भिक्षुओं और गुरुद्वारों के ग्रंथियों आदि के बारे में ऐसा क्यों नहीं सोचा? कोलकता उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने सरकार के निर्णय को गैरकानूनी बताते हुए इसे निरस्त कर दिया. उन्होंने इसे असंवैधानिक और जनहित के विरुद्ध करार दिया.

  
कोलकता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार के उस फैसले को संविधान के विरुद्ध करार दिया है जिसमें सरकार मस्जिदों के इमाम और मुअज्जिनों को हर महीने सरकारी खजाने से भत्ता दे रही थी. ममता सरकार ने अप्रेल 2012 से हर इमाम और मुअज्ज़िन को 2500 और 1500 रूपये भत्ता देना शुरू किया था. उस समय विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया था मगर सरकार ने इसे लागू कर दिया था. फैसले के खिलाफ चार जनहित याचिकाएं कोलकता उच्च न्यायालय में दायर की गयीं थीं, इनमें से एक राज्य भाजपा के महामंत्री असीम सरकार की याचिका भी थी.

एक सितम्बर के अपने फैसले में न्यायमूर्ति पी के चट्टोपाध्याय और न्यायमूर्ति एम पी श्रीवास्तव की खंडपीठ ने सरकार के निर्णय को गैरकानूनी बताते हुए इसे निरस्त कर दिया. उन्होंने इसे असंवैधानिक और जनहित के विरुद्ध करार दिया. न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि ये भत्ता भारतीय संविधान की धारा 14 और 15/1 का उल्लंघन करता है. इन धाराओं के मुताबिक राज्य नागरिक के धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर उनमें भेदभाव नहीं कर सकता. इस भत्ते पर राज्य सरकार सालाना तकरीबन 126 करोड रुपये खर्च कर रही थी.

उच्च न्यायालय का फैसला कानून के अनुसार ही है क्योंकि मस्जिद या मंदिर चलाने की जिम्मेदारी उनकी है जो उसमें इबादत या पूजा करते हैं. सरकार किसी एक मज़हब के धर्मस्थान चलाने के लिए जनता का पैसा नहीं खर्च कर सकती. मगर सवाल ये है कि क्या ममता बनर्जी, उनके सलाहकारों और अधिकारिओं  को क्या ये मालूम नहीं था? उन्हें ये ज़रूर मालूम रहा होगा कि ये फैसला न्यायालय में नहीं टिकेगा फिर भी उन्होंने ऐसा किया. इसके पीछे की मानसिकता क्या है? और ऐसा सभी अल्पसंख्यकों के लिए नहीं बल्कि मुसलमानों के लिए ही क्यों किया गया? क्योंकि पश्चिम बंगाल में  तृणमूल पार्टी को उनके वोट चाहिए?

ये सही है कि लोकतंत्र में हर पार्टी वोट की तलाश में रहती है मगर लोकतंत्र की मर्यादाएं भी तो हैं. ये मर्यादाएं खींची है भारतीय संविधान ने. और इसके अनुसार मज़हब के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता. तो फिर किस चिंता के तहत ममता बनर्जी ने ऐसा किया ? अगर उन्हें ये चिंता थी कि मस्जिद में काम कर रहे इमाम और मुअज्ज़िन गरीब और ज़रूरतमंद हैं तो फिर मुख्यमंत्री होने के नाते उन्होंने मंदिरों के पुजारियों, गिरजाघरों के पादरियों, बौद्ध मठों के भिक्षुओं और गुरुद्वारों के ग्रंथियों आदि के बारे में ऐसा प्रावधान करने के बारे में क्यों नहीं सोचा?

बेहतर होता कि वे इन लोगों की शिक्षा और तरक्की के लिए कोई योजना बनातीं. उन्होंने तो भत्ते का टोकन देकर सिर्फ़ अपने को “बड़ा सेकुलरवादी” दिखाने का प्रयास किया. दिक्कत ये है कि अल्पसंख्यकों की भी कोई वास्तविक चिंता करने की न तो मानसिकता है ना ही ऐसा कोई मकसद था इस कदम के पीछे. देखा जाए तो अल्पसंख्यकों की चिंताएं भी रोजी-रोटी, कामधंधा, शिक्षा और तरक्की  है. उन्हें सिर्फ़ भावनात्मक और मजहबी मामलों में उलझा कर वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करने की राजनीति उनकी और देश की तरक्की में आड़े आ रही है. ये बहुत खतरनाक भी है. पड़ोसी देश पाकिस्तान में हम ये देख ही रहे हैं.

ये सिर्फ़ ममता कर रहीं हैं ऐसा नहीं है. सच्चर आयोग के गठन से लेकर रंगनाथ मिश्र आयोग और मुसलमानों के लिए आरक्षण की वकालत, उत्तर प्रदेश में आईऐएस  दुर्गा शक्ति नागपाल का निलंबन आदि लगातार ऐसी घटनाएं हो रही हैं जहाँ पार्टियां अपने को दूसरे से अधिक सेकुलर दिखाने की होड में घोर साम्प्रदायिक काम कर रहीं हैं. इस प्रतियोगी सेकुलरवाद में पार्टियां और नेता इतने आगे चले गए हैं कि घोर देशद्रोही और आतंकवादी कार्यवाहियों को भी इसी चश्मे से देखने की कोशिश हो रही है. कोइ इशरत जहान को अपने राज्य की बेटी बताता है, कोई संसद पर हमले के दोषी अफजल की फांसी का विरोध करता है तो कोई बटाला हाउस एनकाउंटर को फर्जी बताता है.

इनसे पूंछा जाना चाहिए कि अल्पसंख्यकों की ये ठेकेदारी उन्हें किसने दी है? क्या ये अल्पसंख्यकों का भी अपमान नहीं? शायद इस राजनीतिक जमात को ज़रूरत है कि देश का संविधान एक बार फिर ठीक से पढ़ें और हर हिन्दुस्तानी को हिन्दुस्तानी की तरह देखें ना कि एक वोट बैंक की तरह. कोलकता उच्च न्यायालय के इस फैसले ने एक बार सबको यही याद दिलाया है.

उमेश उपाध्याय 
4 सितम्बर 2013  

5 comments:

  1. सरजी
    आप का लेख पढा।
    मेरे विचारसे ये मुद्दा मायनॉरिटी का नही है॰ बल्की वोट का है. बाकी मायनॉरिटी को इतना भाव नही देते है. हिसाब नंबर्स और न्यूसेन्स का है. हमारा एकमेव देश है जहां मेजॉरिटी को जुते और मायनॉरिटी को जहान दिया जाता है. सवाल हिंदू समाज के विभाजन का भी है. कहनेको हम 80 करोड है लेकीन हर एक का मुह अलग अलग दिशाओ को है॰ हिंदू की कोई औकात नही. आजकाल जो हिंदू को गाली दे वह इंटेलेक्चुवल माना जाता है.
    हिंदू युवा अप्ने धरम के साथ कमही नजर आते है॰ संघ मे भी युवा कम और बुढे ज्यादा है.

    राजेन्द्र चांदोरकर



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  2. Sirji in sab me sirf humari kamjori dikhai deti hai, kahne k liye hum aaj duniya k pragtishil desh me hai lekin sach to ye hai ki hum aaj b aadim kaal me hi ji rahe hai. aadim kaal isliye kaha qki hum aaj b chote chote guto me bate hue hai or ek dusre ki tang khichne me lage hai.
    Ab rahi baat vote bank ki to isme b humari hi galti hai jo hum aise anpad or chotti buddi k logo ko chunkar laate hai.
    sirji or jaisa ki chandorkar sirji ne kaha ki hum 80 crore to andhvishwas kme lipt hai to kya hum sacchai ko dekhe. or rahi baat yuvao ki to agar aaj desh ko jarurat hai ki Rajneeti ko samaj seva se na jode use ek pese (profession) ki tarah banaye. Qki yuva to pahle hi junjh rahe hai apne bhavishya ko lekar. kisi k b mata-pita nai chahte ki unka beta ya beti Rajneeti me jaye.
    Aaj jarurat hai jatiwad se upar uthakar aisi Rajneeti ki jise har ek deshwasi khushi se apnaye.


    Apka,
    Ritesh Jangade.

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    1. Ritesh,
      Politics is already a profession. Only problem is that we do not accept it openly.But very good suggestion.

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  3. sir ji kab milenge is desh ko asey neta jo apne ghar ki fikre kam desh ki chinta karen

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