Sunday, April 27, 2014

#EC चुनाव आयोग या "सुपर सरकार"




हर साल देश के राज्यों में शराब के ठेकों के लाइसेंस दिये जाते हैं। राज्यों के आबकारी विभाग एक प्रक्रिया के तहत इन्हें जारी करते हैं। राज्यों का बहुत बड़ा राजस्व शराब की बिक्री से आता है। मगर इस साल ये मामला चुनाव आयोग के पास पहुँच गया। अब सोचिए चुनाव आयोग ये तय करेगा कि दारू के ठेके दिये जाएँ या नहीं? मगर हुआ ऐसा ही। चुनाव आचार संहिता के कारण राज्यों ने ये मामला ठेल दिया चुनाव आयोग के पास और आयोग ने 31 मार्च को एक आदेश जारी करके कहा कि राज्य सरकारें शराब के ठेकों की नीलामी कर सकती है। और तो और भारतीय रिजर्व बैंक नए बैंकों को लाइसेंस दे कि नहीं ये मामला भी आयोग के पास गया और उसने “तय किया” कि आरबीआई ऐसा कर सकता है ! 

उत्तर प्रदेश में चुनाव आयोग ने बसपा की नेता मायावती द्वारा बनवाए गए हाथियों की मूर्तियों को ढकने का आदेश दिया था क्योंकि हाथी बसपा का चुनाव चिन्ह है। मगर अभी किसीने मुझसे पूंछा की चुनाव आयोग प्रदेश भर की साइकिलों का क्या करेगा? क्योंकि साइकिल समाजवादी पार्टी का चुनाव चिन्ह है? चलो साइकिल को तो उठाकर घर में बंद करने का आदेश दिया भी जा सकता है मगर वो हाथ का क्या करेगा? हाथ तो कॉंग्रेस का चुनाव चिन्ह है। क्या सारे नागरिकों को दस्ताने दिये जाएँगे ताकि वे चुनाव होने तक उन्हें पहनकर चलें। नहीं तो इससे कॉंग्रेस को फायदा पहुँच सकता है !!! बात हंसी की लगती है मगर इतनी हास्यास्पद भी नहीं क्योंकि मौजूदा आम चुनाव में आयोग के कई फैसले उन दायरों से बाहर के हैं जो आमतौर से उसके अधिकार क्षेत्र में आते हैं।

भारतीय जनता पार्टी का चुनाव घोषणापत्र कब जारी होगा और इसे मीडिया कवरेज मिले या न मिले इस पर चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर खूब टीका टिप्पड़ी हुई। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने तो इस पर ट्वीट कर के उन टीवी संपादकों पर सवाल भी उठाए जिन्होने घोषणापत्र के कार्यक्रम को कवरेज दी थी। उधर कुछ अफसरों के ट्रान्सफर को लेकर चुनाव आयोग और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी में भी तनातनी हुई। आखिरकार ममता मानी और वहाँ चुनाव आयोग की चली। यहाँ तक तो ठीक मगर कुछ उदाहरण अगर देखें जाएँ तो लगता है की आयोग के कामकाज, रवैये और कार्यक्षेत्र को लेकर बड़ा भ्रम है। इसे ठीक होना चाहिए।

सवाल है कि चुनाव आचार संहिता का उद्देश्य क्या है? इसका मकसद है कि सत्तारूढ़ दल कोई ऐसे फैसले नहीं ले जिसका फायदा उसे चुनावों में मिले। यानि हर दल और प्रत्याशी के लिए मामला बराबरी का हो। न कि सत्तासीन पार्टी सरकारी पैसे और पद का उपयोग करके मतदाताओं को प्रभावित करे। देश का संविधान और कानून चुनाव आयोग को अधिकार देता है कि वह "स्वतंत्र और निष्पक्ष" चुनाव कराने के लिए उपयुक्त कदम उठाए। 

साथ ही यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि ये व्यवस्था नहीं है कि आयोग एक "सुपर सरकार" के तौर पर काम करेगा।  ऐसा नहीं कि चुनाव के समय देश का कामकाज ही रुक जाये और हर मामला चुनाव आयोग के पास जाये। चुनाव का मतलब देश का रुकना नहीं हो सकता। अभी बिजली की कीमतों और गैस की कीमतों के बारे कुछ ऐसा ही हुआ। लेकिन सारी गलती क्या चुनाव आयोग की है? यह भी तो हुआ है कि सरकारी अफसरों ने चुनाव आयोग को ढाल बना लिया है और हर उस फैसले को जो वो लेना नहीं चाहते वे आयोग के पास भेज देते हैं। एक उदाहरण काफी होगा। 

रक्षा मंत्रालय को देश के जवानों के लिए 6400 मीट्रिक टन खाने का तेल खरीदना था। इसके लिए जनवरी में टेंडर भी हो चुके थे। अब सिर्फ तेल सप्लाई होना था।  अब सोचिए कि इस मामले का चुनाव आयोग से क्या लेना देना। मगर डर के मारे या फिर “कौन चक्कर में पड़े” इस सोच के कारण रक्षा सचिव ने चुनाव आयोग से इसकी “इजाज़त मांगी”। उसके बाद चुनाव आयोग ने चिट्ठी निकाली कि जो भी रोज़मर्रा के काम हैं उसके लिए आयोग के पास आने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन चुनाव आचार संहिता को लेकर जो अस्पष्टता और भ्रम की स्थिति बनी हुई है उसे ठीक करने की ज़रूरत है।


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उमेश उपाध्याय
9 अप्रेल 14




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