“सर
इस बार मैंने और मेरे कुनबे के 36 लोगों ने बीजेपी को वोट दिया है। हमेशा से ही हम
कॉंग्रेस को वोट देते रहे हैं। मगर इस बार जी खट्टा हो गया। सोचा इस मोदी को भी
मौका देकर देखें।“ ये बताते हुए तकरीबन 35 उम्र के दिलनवाज़ के चेहरे पर कोई खास
भाव नहीं थे। मैंने उसे थोड़ा उकसाया और कहा कि “लोग इल्ज़ाम लगाते हैं कि मोदी ने
तो गुजरात में दंगे कराये थे?” तो वो बोला “साहब दंगे कौन नहीं कराता?
हर पार्टी इसकी कुसूरवार रही है तो सिर्फ मोदी पर ही निशाना क्यों?
और फिर हम दिल्ली के लाड़ोसराय इलाके में बिलकुल ठीक कुतुबमीनार के अहाते में
पीढ़ियों से रह रहे हैं। दिल्ली में कोई दंगे कराएगा तो हम उसे देख लेंगे। किसी की
हिम्मत नही होगी।” ये कहते हुए उसकी आँखों में गज़ब का विश्वास था। दिलनवाज़ ने
मुझसे कहा कि अब मुल्क थोड़ी सख्ती की ज़रूरत है। हमने 60 साल कॉंग्रेस को बरता है।
60 महीने मोदी को भी देकर देख लेते हैं। देखें तो सही कि वो गुजरात जैसा विकास
क्या देश में भी कर सकते हैं या नहीं? उसने ये भी बताया कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में
उसने कॉंग्रेस को ही वोट दिया था।
आमतौर
से वोट बैंक की राजनीति के आदी होने के बाद एक दिल्ली के एक युवा मुसलमान टॅक्सी
चालक से इतनी सीधी और सपाट बातें सुनकर मुझे एक झटका सा लगा।सोचने लगा कि धारणा के
विपरीत एक मुसलमान युवक क्यों बीजेपी को वोट दे रहा है। क्या ये राजनीति में किसी
बदलाव का संकेत है या एकाकी घटना? वैसे अगर बदलाव की बात करें तो आज बदलाव की प्रतीक
बनी आम आदमी पार्टी यानि “आप” के बारे में मुसलमान मतदाता क्या सोचता है ये भी
मैंने जानने की कोशिश की।
मौलाना
मकसूद उल हसन काजमी जो आल इंडिया इमाम काउंसिल के अध्यक्ष भी है। “आप” से खासे
नाराज़ दिखाई दिये। बहुत ज़ोर से बोले कि “आप से हमें बहुत उम्मीदें थी कि ये नए तरह
की पॉलिटिक्स करेगी और आज के पैटर्न को बदलेगी। इसलिए ये सोचा था कि मुस्लिम बहुल
इलाकों से हिन्दू और हिन्दू बहुल इलाकों से मुसलमान कैंडीडेट खड़े किए जाएँगे।“
जानकारी के लिए मौलाना साहब “आप” के गठन के समय जो 22 सदस्यीय समिति बनी थी उसके
मेम्बर थे। वे पार्टी की राष्ट्रिय काउंसिल के सदस्य भी थे। उन्होने दुख जताया कि
“ “आप” भी उसी जंजाल में फंस गई जिसमें पुरानी पार्टियां उलझी हुई हैं। मसलन
आशुतोष को चाँदनी चौक से टिकट इसलिए दिया गया क्योंकि वह बनिया है। रामपुर से
मुसलमान को टिकट दिया गया”। मौलाना मकसूद उल काजमी के मुताबिक “मुसलमान ठगा महसूस
कर रहा है। वह कन्फूयज्ड है।“
मुसलमानों
का ये भ्रम कोई आज का नहीं। कुछ साल पहले उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले के रहने वाले
एक सफल मुसलमान युवक ने पॉलिटिक्स में जाने की इच्छा व्यक्त की थी । लिखने पढ़ने
वाला प्रगतिशील युवक है, नई सोच है-खूब जोश भी है। मगर उसका भ्रम कि वो कहाँ
जाये? बीजेपी में जाने से मुस्लिम समाज में एक ठप्पा लग जाता है,
कॉंग्रेस को वो इस काबिल नहीं समझता, समाजवादी और बसपा जैसी पार्टियां जाति के गोरखधंधे
से बाहर नहीं आ पा रहीं। रास्ता नहीं मिल रहा सो वह आज तक तय नहीं कर पाया कि जाए
तो जाए कहाँ? उसका परिणाम ये है कि मुसलमानों कि राजनीति ऐसे मजहबी
लोगों के बीच फंसी हुई है जिनकी सोच अठारहवीं शताब्दी की है । उसका मध्यम वर्गीय
तबका उभर ही नहीं पा रहा। सो उसके नेता कौन हैं- आज़म खान,
अबु आज़मी और अकबरुद्दीन ओवेसी आदि।
क्या
ये नेता मुस्लिम मध्यवर्ग की आकांक्षाओं, सपनों और उसकी हकीकत का प्रतिनिधित्व कर सकते है?
संभवतः नहीं। उन युवक युवतियों को भी वही चाहिए जो उनकी उम्र के हर हिन्दुस्तानी
की ख़्वाहिश होती है मसलन – पढ़ाई, अच्छी नौकरी, कार, बेहतर मकान यानि एक बढ़िया जीवन शैली। मगर उनकी
राजनीति उर्दू, वक्फ बोर्ड, हज सबसिडी, तथाकथित भय, अयोध्या, गुजरात के दंगे, मंदिर-मस्जिद आदि के
मकडजाल से बाहर ही नहीं आ पा रही। ये इन नेताओं को रास भी आता है क्योंकि ऐसा करने
से उनकी जवाबदारी खत्म जो हो जाती हैं। और सिर्फ सांकेतिक बातों से उनका काम चल
जाता है। भावनात्मक मुद्दे उठाना और इफ्तार की पार्टी देने से आगे उन्हे बढ्ने की
ज़रूरत ही नहीं दिखाई देती। इस माने में “आप” से उनका मोह टूटना एक तकलीफदेह बात
है।
दिलनवाज़
का अपने कुनबे के साथ भाजपा को वोट देना अकेला वाकया है या फिर पूरे समाज की ओर से
एक संकेत, आज नही बताया जा सकता। लेकिन अगर ऐसा हुआ कि
मुस्लिम समाज के एक तबके ने भी बीजेपी को वोट दिया होगा तो भारतीय राजनीति में ये
एक नई शुरुआत हो सकती है। एक दूसरे की तरफ हमेशा शंका,
भय और नफ़रत से देखने वाले अगर करीब आते है तो मोदीमय इस चुनाव का ये एक बड़ा अजूबा
हो सकता है। ऐसा हुआ तो यह एक अच्छी बात होगी क्योंकि फिर देश की राजनीति मजहब की
संकरी गलियों को छोड़कर विकास के हाइवे को पकड़ लेगी। ये देश के लिए अच्छा ही
होगा।
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उमेश
उपाध्याय
15
अप्रेल 2014
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