Thursday, May 29, 2014

नेटवर्क18 के अधिग्रहण पर बयान

Sunday, May 25, 2014

कपटी चौकड़ी के शिकार केजरीवाल




“ये बेचारा जमानत की मार का मारा” ये शीर्षक आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल पर आज बखूबी लागू होती है। उन्हें दो जमानतों ने मारा है। एक तो उनकी पार्टी के 96% उम्मीदवारों की जमानत ज़ब्त हो गई और दूसरे अदालती जमानत के कारण उन्हें जेल में रहना पड़ा है। हालांकि ये बेचारगी उन्होने खुद मोल ली है इसलिए आज ज़्यादातर लोगों को न तो उन पर तरस आ रहा है न ही उनसे कोई सहानभूति हो रही है।

ज़रा पहली जमानत को देखते है। अब सोचिए उन्हें दिल्ली में अच्छी ख़ासी सत्ता मिल गई थी मगर साहब महत्वाकांक्षा के कीड़े ने ऐसा काटा कि "चौबे जी छब्बे बनने चले थे, दुबे भी नहीं रहे।" (मेरे चौबे और दुबे मित्र इस तुलना से आहत हो सकते हैं सो उनसे पहले ही माफी की गुजारिश है)। ज़रा आंकड़े देखिये। पार्टी ने 434  उम्मीदवार खड़े किए थे। उनमे से 413 ने अपनी जमानत गंवा दी। 15 राज्य ऐसे हैं जहां आम आदमी पार्टी का एक भी ऊमीद्वार जमानत नहीं बचा सका। इसमें कर्नाटक, सीमान्ध्र, तेलंगाना, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तमिलनाडू, केरल, बिहार, गुजरात और हरियाणा जैसे प्रदेश शामिल है। हरियाणा का नतीजा तो पार्टी के अनुसार भयावह रहा क्योंकि अरविंद केजरीवाल और योगेन्द यादव यहीं से आते है। उनकी उम्मीद हरियाणा विधान सभा में दिल्ली जैसे नतीजों की थी। मगर यहाँ खुद पार्टी के चिंतक कहे जाने वाले योगेंद्र यादव भी गुड़गाँव में जमानत नही बचा सके। उत्तर प्रदेश में वाराणसी को छोड़ दिया जाये तो कोई भी उम्मीदवार जमानत नहीं बचा पाया। दो महीने से हल्ला मचा रहे  कवि कुमार विश्वास अमेठी में सिर्फ 25527 मत प्राप्त कर पाये और वे अपनी जमानत तक नहीं बचा पाये। वे चौथे स्थान पर रहे जबकि कुछ ही दिन पहले मैदान में उतरीं भाजपा की स्मृति ईरानी 300748 वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहीं। केवल पंजाब, दिल्ली और चंडीगढ़ में ही आम आदमी पार्टी अपने प्रदर्शन पर कुछ संतोष कर सकती है।

इस प्रदर्शन पर कोई भी समझदार आदमी आत्मचिंतन करता। मगर केजरीवाल ने ठीक इसका उल्टा किया। मामला बिलकुल सीधा था। उन्होने भाजपा के नितिन गडकरी को दस सबसे भ्रष्ट राजनेताओं की सूची मे शामिल किया था। अब सोचिए आप आरोप लगाएंगे तो साबित करने की ज़िम्मेदारी आपकी है। ये देश की न्याय व्यवस्था ही तय कर सकती है कि कोई दोषी है कि नहीं। इसलिए इसके खिलाफ गडकरी अदालत में चले गए कि या तो केजरीवाल आरोप साबित करें या माफी मांगें। गडकरी ने उन पर अवमानना का एक फ़ौजदारी मामला दायर किया कि केजरीवाल के आरोपों से उनकी प्रतिष्ठा की हानि हुई है। अब जैसा कि स्थापित न्यायिक प्रक्रिया है कि फ़ौजदारी मामले में आपको जमानत लेनी पड़ती है। केजरीवाल ने अदालत में ऐसा करने से मना कर दिया तो कानून के अनुसार उन्हें जेल भेज दिया गया। अरविंद  इसलिए अड़े कि उनकी पार्टी का सिद्धान्त है कि जमानत नहीं ली जाएगी। ये अलग बात है कि उनके अगले ही दिन साथियों जैसे योगेंद्र यादव, मनीष सिसौदिया आदि ने जमानत ले ली। भाई, ये कैसा सिद्धान्त है जो पार्टी में किसी पर तो लागू होता है और किसी पर नहीं? मगर मौके के मुताबिक बात करना जैसे इस पार्टी की रणनीति बन गई है। 

अरविंद को उम्मीद थी कि इससे लोग उनके प्रति हमदर्दी दिखाएंगे और उनके लिए दिल्ली की सड़कों पर हजारों लोग इक्कठे हो जाएँगे। हजारों तो क्या, जब वे जेल गए तो सैकड़ों लोग भी नहीं आए। उनकी पार्टी के मुट्ठी भर लोग ही तिहाड़ के बाहर पहुंचे जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। मीडिया ने भी थोड़ी देर दिखाकर अपना कर्तव्य निभाया। ज़्यादातर अखबारों में ये सुर्खी भी नहीं बनी। अब अरविंद ने एक खुला पत्र लिखा है जनता और अपने समर्थकों के नाम। लोग इसे भी हमदर्दी जुटाने की रणनीति ही समझ रहे हैं। 

अरविंद दरअसल या तो एक सदमे या फिर एक सपने में हैं। वे बहुत आत्मकेंद्रित हो गए लगते हैं। उन्हें दुनिया में “मैं, मेरा और मेरी ज़िद”  इससे आगे कुछ दिखाई नहीं दे रहा। यही कारण है कि उनकी पार्टी बिखरनी शुरू हो गई है। उनकी पार्टी की संस्थापक सदस्य शाजिया इल्मी और केप्टेन गोपीनाथ के साथ साथ कई सदस्यों ने पार्टी छोड़ दी है। उनका मूल आरोप पार्टी में अंदरूनी लोकतन्त्र की कमी है। इन लोगों का कहना है कि पार्टी पर कुछ लोगों ने  कब्जा कर लिया है। मीडिया के अनुसार  इन नामों में वकील प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, गोपाल राय और संजय सिंह का नाम आता है। आरोप है कि श्री भूषण अपने कतिपय हितों के लिए केजरीवाल का इस्तेमाल कर रहे हैं। जैसा कि किसीने ट्वीट किया कि अदालत में दो बार  केजरीवाल ने श्री भूषण से पूंछा कि क्या वे जमानत ले लें, तो प्रशांत ने उन्हे ऐसा करने से रोक दिया। सुश्री शाजिया इल्मी ने "बेल और जेल की राजनीति" को खारिज ही नहीं किया बल्कि साफ साफ कहा कि केजरीवाल कुछ लोंगों की इच्छाओं के गुलाम हो गए है। शाजिया ने इसे “कपटी चौकड़ी” का नाम दिया है। उनके मुताबिक इस चौकड़ी ने केजरीवाल के चारों तरफ एक शिकंजा सा कस दिया है बाकी लोग उनसे मिल तक नहीं पाते। इन लोगों का एक  तय एजेंडा है जिसे वो पूरा कर रहे हैं। 

पिछले साल हमने कई लेखों में लिखा था कि आम आदमी पार्टी भारतीय राजनीति में एक नई बयार लेकर आई है।  उसने पुरानी मान्यताओं को चुनौती दी है। यहाँ तक कि पार्टी के कारण स्थापित राजनीतिक दलों को भी खुद को बदलना पड़ रहा है।  दिल्ली की जनता ने विधानसभा में इसीलिए उसे हाथोंहाथ लेकर तकरीबन बहुमत दे दिया था। मगर उसने ये मौका गंवा दिया। 

याद रखने की बात है कि नकारात्मकता लोगों को आकर्षित तो कर सकती है मगर यही किसी पार्टी का मूल सिद्धान्त नहीं हो सकता। लोकसभा चुनाव के बाद जब केजरीवाल ने माफी मांगी तो लगा कि वे आत्ममंथन की और जा रहे है मगर 24 घंटे भी नहीं बीते थे कि वे “बेल और जेल” के गोरखधंधे में फंस गए। अगर ये सलाह प्रशांत भूषण ने दी भी थे तो भी इसे चुना तो केजरीवाल ने खुद ही। इसलिए जब आज वो  अपने खुले पत्र में पूंछ रहे है कि “मैं किस गलती के कारण जेल मैं हूँ” और “ईमानदार जेल में और भ्रष्ट नेता बाहर क्यों ?” तो लोगों को समझ नहीं आ रहा। ये  सवाल तो उन्हें खुद से पूंछना चाहिए या फिर अपने वकील और साथी प्रशांत भूषण जैसे रणनीतिकार से। जो खुद ही  शिकायतकर्ता और जज दोनों बने बैठे हैं और इस पार्टी को उन्होने सिर्फ गुस्से और ज़िद की पार्टी बना डाला है। शायद किसी ने सही ही ट्वीट किया कि “अब ये आम आदमी पार्टी से चार आदमी पार्टी” बन गई है। अरविंद को अगर फिर इस पार्टी को आम लोगों की उम्मीद की पार्टी बनाना है तो इस “कपटी चौकड़ी” के चंगुल से बाहर आना होगा।


https://www.facebook.com/uu.umeshupadhyay/posts/631470000278684

उमेश उपाध्याय
25 मई 2014

Saturday, May 17, 2014

#Modi अब्दुल ने मोदी को वोट क्यों दिया? #ModiVictoryLap

 अब्दुल ने मोदी को वोट क्यों दिया !!
Twitter @upadhyayumesh
आज सुबह जब अब्दुल ने मुझसे कहा कि “साब मोदी को पता होएगाँ न कि हमने भी उसी को वोट दिया है?” तो में सोचने लगा कि ये सवाल मैंने उससे क्यों पूंछा? क्योंकि वो मुसलमान है? और मैं भी उसे आम हिन्दुस्तानी ना समझकर मजहब के खांचे में डालकर देखता हूँ। अब्दुल मेरा ड्राईवर है। उम्र होगी कोई 30-32 वर्ष। मुंबई में ही जन्मा और पला बढ़ा है। न सिर्फ उसने, बल्कि उसने बताया कि उसके परिवार ने भी इस बार मोदी को ही वोट दिया। उसने ऐसा क्यों किया तो अब्दुल हँसकर बोला साब क्यों पूंछते हो? आप ही तो हमेशा बात करते हो कि “इस बार सरकार चेंज करना जुरूरी था ना सर।” मैं सोचने को मजबूर हुआ कि क्या अब्दुल अकेला ऐसा अपवाद है तो मुझे याद आया कि पिछले महीने दिल्ली के दिलनवाज ने भी ऐसा ही कुछ मुझे कहा था।

दिलनवाज़ दिल्ली में मेरु टॅक्सी चलाता है। “सर इस बार मैंने और मेरे कुनबे के 36 लोगों ने बीजेपी को वोट दिया है। हमेशा से ही हम कॉंग्रेस को वोट देते रहे हैं। मगर इस बार जी खट्टा हो गया। सोचा इस मोदी को भी मौका देकर देखें।“ ये बताते हुए तकरीबन 35 उम्र के दिलनवाज़ के चेहरे पर कोई खास भाव नहीं थे। मैंने उसे थोड़ा उकसाया और कहा कि “लोग इल्ज़ाम लगाते हैं कि मोदी ने तो गुजरात में दंगे कराये थे?” तो वो बोला “साहब दंगे कौन नहीं कराता? हर पार्टी इसकी कुसूरवार रही है तो सिर्फ मोदी पर ही निशाना क्यों? और फिर हम दिल्ली के लाड़ोसराय इलाके में बिलकुल ठीक कुतुबमीनार के अहाते में पीढ़ियों से रह रहे हैं। दिल्ली में कोई दंगे कराएगा तो हम उसे देख लेंगे। किसी की हिम्मत नही होगी।” ये कहते हुए उसकी आँखों में गज़ब का विश्वास था। दिलनवाज़ ने मुझसे कहा कि अब मुल्क थोड़ी सख्ती की ज़रूरत है। हमने 60 साल कॉंग्रेस को बरता है। 60 महीने मोदी को भी देकर देख लेते हैं।

ये दोनों उदाहरण इसलिए देने पड़े क्योंकि मतगणना शुरू होने के बाद जैसे ही रुझान आने आरंभ हुए और बीजेपी को बढ़त मिलने लगी तो बस टीवी पर एक ही सुर बजने लगा। वो ये कि ये “सांप्रदायिक ध्रुवीकरण” का नतीजा है। पटना में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते हुए नीतीश कुमार ने भी यही कहा और लखनऊ में मायावती ने भी ऐसा ही बोला।ये मुद्दे का बहुत ही सरलीकरण है और लोगों को एक खांचे या एक स्टीरियो छवि में बांधकर देखने की कोशिश है।

यहाँ हमारा मक़सद ये बताना कदापि नहीं है कि मुसलमानों ने बीजेपी को वोट दिया या नहीं। बल्कि ये कहना है कि हमारा सोचने का तरीका सांप्रदायिक हो गया है। चुनाव विश्लेषण के हमारे तरीके बहुत पुराने हो गए है जबकि देश के लोग, चाहे वे किसी भी मजहब के क्यों न हों, बहुत आगे बढ़ गए हैं। जबकि हमारे ज़्यादातर विचारक, बुद्धिजीवी और पत्रकार अभी 2002 पर ही अटके हुए हैं। तब से अबतक साबरमती में बहुत पानी बह गया है। इसी कारण अभी तक बहुत सारे लोग भौचक हैं। पचा नहीं पा रहे कि ऐसा कैसे हो गया?

बीजेपी को इतना सारा समर्थन देश के लोंगो ने विकास के लिए तो दिया ही है। मगर उन्होने नरेंद्र मोदी की वैचारिक स्पष्टता, दृढ़ता और बेकार की सांकेतिकता में ना पड़ने की आदत के कारण भी उन्हें पसंद किया है। वोटर, खासकर जो युवा नागरिक हैं वे समझ गए हैं कि सिर्फ इफ्तार की दावतें देने और रस्मी टोपी पहनने वाले उनका भला नहीं कर सकते। वे भी “चेज़” चाहते है। वे आम हिन्दुस्तानी की तरह सोचते हैं ना कि किसी मजहबी यूनिट के तरह। उन्होने मोदी की स्पष्टवादिता को पसंद किया है नहीं तो यूपी, बिहार, राजस्थान और महाराष्ट्र में उन्हें इतने वोट और सीटें नहीं मिलती। विश्लेषक आज भी उन्हें सिर्फ एक मजहबी चश्में से देख रहे है। जबकि अब्दुल और दिलनवाज़ जैसे लाखों हिन्दुस्तानी कह रहें है कि चश्मा उतार कर देखो तो मालूम पड़ेगा कि सबकी चिंताएँ और सपने एक जैसे ही है। और नरेंद्र मोदी में उन्हें एक बौद्धिक ईमानदारी ढिखाई देती है। इसी कारण शायद देश ने उनपर भरोसा किया है।

https://www.facebook.com/uu.umeshupadhyay/posts/627414097350941 

Narendra Modijanlokpal ‪#‎ModiVictoryLap‬ @NitiCentral @thekiranbedi @BJP4India ‪#‎Modiheadsto7RCR‬ @GarimaSanjay
उमेश उपाध्याय
17 मई 2014

Friday, May 2, 2014

#Elections2014 बदनाम हुए तो भी नाम तो होगा !


ऐसा लगता है कि कुछ नेताओं को लगता है कि 16 मई के आगे कोई दुनिया नहीं होगी। न आपसी रिश्ते रहेंगे न नेता आपस में मिलेंगे जुलेंगे। बताइये तो सही, कोई दलितों के घर के दौरे को हनीमून बता रहा है, कोई किसी को राक्षस बता रहा है, कोई किसी को पाकिस्तान भेज रहा है तो किसी को देश तोड़ने वाला करार दे रहा है? किस किस तरह के बयान दिये जा रहे हैं? कुछ बयानों की बानगी तो देखिये।

बाबा रामदेव ने 25 अप्रेल को लखनऊ में कहा कि “ वह (राहुल गांधी) दलितों के घर पिकनिक और हनीमून मनाने जाते है”। राजदीप सरदेसाई के साथ गूगल हैंग आउट में आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी को “राक्षस और गुंडा” तक कह डाला। कॉंग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने विज्ञापन में भाजपा के नेताओं को देश को तोड़ने वाला और “भारतीयता और हिंदुस्तानियत” के खिलाफ बता दिया। तो भाजपा के नेता और बिहार में नवादा लोकसभा क्षेत्र से प्रत्याशी गिरिराज सिंह ने यहाँ तक कह दिया कि “जो लोग नरेंद्र मोदी को रोकना चाहते हैं..... आने वाले दिनों में इन लोगों के लिए जगह हिंदुस्तान में नहीं ....... पाकिस्तान में होगा”। समाजवादी पार्टी के नेता मुलायमसिंह यादव ने बसपा नेता मायावती की वैवाहिक स्थिति पर अजीब सी टिप्पड़ी कर डाली “ मैं उसे कुमारी कहूँ, श्रीमती कहूँ या बहन कहूँ”?

इन बयानों को चुनाव की गर्मी में दिये बयान कह कर खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि इनमें कई बयान किसी छोटे मोटे नेता ने नहीं बल्कि जिम्मेदार नेताओं ने दिये हैं। ये लोग कई हार जीत और चुनाव झेल चुके हैं। तो फिर ऐसा क्या हो रहा है कि ऐसे बयान आ रहे हैं?

इसका एक कारण तो ये है कि कई मायनों में इस बार के चुनाव अनूठे हैं। एक तो अब तक जहां भी मतदान हुआ है यदि कुछ स्थानों को छोड़ दिया जाये तो वहाँ वोटों का प्रतिशत पिछले चुनावों के मुक़ाबले काफी ज़्यादा रहा है। इससे जो आज सता मैं हैं वे विचलित हो गए हैं और लगता है कि अपनी पार्टी की साख बचाने के लिए उन्होने सारी मर्यादाओं और सीमाओं को लांघ दिया है।

इस चुनाव में दो नए घटक हैं एक तो आम आदमी पार्टी और दूसरा नरेंद्र मोदी का घमासान प्रचार। जहां आम आदमी पार्टी ताश के खेल के एक ब्लाईंड कार्ड की तरह है वहीं नरेंद्र मोदी की राजनीतिक आक्रामकता विरोधियों के लिए परेशानी का सबब बनी हुई है। आम आदमी पार्टी की मुश्किल ये है कि वह मीडिया पर बहुत निर्भर है और जब मीडिया में उनकी कवरेज कम होती है तो उनका नेतृत्व बौखला जाता है और उनके यहाँ से ऐसे बयान आते हैं कि वे फिर मीडिया में आ जाएँ। उनकी फितरत ये हो गई है कि बदनाम हुए तो भी नाम तो होगा। अरविंद केजरीवाल के बयान को उसी संदर्भ में समझा जा सकता है।

सोनिया गांधी का विज्ञापन आधे से ज़्यादा चुनाव बीतने के बाद आया। इससे दो बातें साफ दिखतीं हैं। एक कि उन्होने स्वीकार कर लिया कि राहुल का असर नहीं हो रहा। और दूसरा ये कि मुसलमान और तथाकथित सेकुलर वोटों को कॉंग्रेस से खिसकने से बचाने के लिए मोदी का डर दिखाना ज़रूरी है। उधर मुलायम सिंह यादव को भी शायद लगता है कि मायावती की पार्टी मुसलमान वोट ना ले जाये सो उन्होने भी कमर से नीचे वार किया है।

भाजपा में गिरिराज सिंह के बयान को आप छोटे नेता का बयान कहकर नज़रअंदाज़ कर भी जाएँ पर बाबा रामदेव का बयान पूरी तरह से अशोभनीय और असंवेदनशील था। ऐसा कहकर उन्होने राहुल और दलितों का नहीं बल्कि स्वयम अपना ही कद गिराया है। साधुओं से तो कम से कम कोई ऐसी अपेक्षा नहीं करता।

हालांकि फ़ारुक अब्दुल्ला अपने विवादस्पद बयानों के लिए ही जाने जाते हैं मगर उनका ये कहना कि जो मोदी के लिए वोट कर रहे हैं उन्हे समुंदर में फेंक दिया जाना चाहिए, कुछ ज़्यादा ही हो गया ! ये मोदी का नहीं देश के मतदाताओं का अपमान है। सारे गुजरातियों का अपमान है जो मोदी को तीसरी बार मुख्यमंत्री बना चुके हैं। जो भी इस बार कई लोगों ने लक्ष्मण रेखाओं को लांघा है। ये सही है कि चुनाव आयोग ने इस बार सख्ती अपनाई है मगर फिर भी नेताओं को को सोचना चाहिए कि हार हो या जीत 16 मई के भी आगे एक दुनिया है।

उमेश उपाध्याय
1 मई 2014