अब्दुल ने मोदी को वोट क्यों दिया !!
Twitter @upadhyayumesh
आज सुबह जब अब्दुल ने मुझसे कहा कि “साब मोदी को पता होएगाँ न कि हमने भी उसी को वोट दिया है?” तो में सोचने लगा कि ये सवाल मैंने उससे क्यों पूंछा? क्योंकि वो मुसलमान है? और मैं भी उसे आम हिन्दुस्तानी ना समझकर मजहब के खांचे में डालकर देखता हूँ। अब्दुल मेरा ड्राईवर है। उम्र होगी कोई 30-32 वर्ष। मुंबई में ही जन्मा और पला बढ़ा है। न सिर्फ उसने, बल्कि उसने बताया कि उसके परिवार ने भी इस बार मोदी को ही वोट दिया। उसने ऐसा क्यों किया तो अब्दुल हँसकर बोला साब क्यों पूंछते हो? आप ही तो हमेशा बात करते हो कि “इस बार सरकार चेंज करना जुरूरी था ना सर।” मैं सोचने को मजबूर हुआ कि क्या अब्दुल अकेला ऐसा अपवाद है तो मुझे याद आया कि पिछले महीने दिल्ली के दिलनवाज ने भी ऐसा ही कुछ मुझे कहा था।
दिलनवाज़ दिल्ली में मेरु टॅक्सी चलाता है। “सर इस बार मैंने और मेरे कुनबे के 36 लोगों ने बीजेपी को वोट दिया है। हमेशा से ही हम कॉंग्रेस को वोट देते रहे हैं। मगर इस बार जी खट्टा हो गया। सोचा इस मोदी को भी मौका देकर देखें।“ ये बताते हुए तकरीबन 35 उम्र के दिलनवाज़ के चेहरे पर कोई खास भाव नहीं थे। मैंने उसे थोड़ा उकसाया और कहा कि “लोग इल्ज़ाम लगाते हैं कि मोदी ने तो गुजरात में दंगे कराये थे?” तो वो बोला “साहब दंगे कौन नहीं कराता? हर पार्टी इसकी कुसूरवार रही है तो सिर्फ मोदी पर ही निशाना क्यों? और फिर हम दिल्ली के लाड़ोसराय इलाके में बिलकुल ठीक कुतुबमीनार के अहाते में पीढ़ियों से रह रहे हैं। दिल्ली में कोई दंगे कराएगा तो हम उसे देख लेंगे। किसी की हिम्मत नही होगी।” ये कहते हुए उसकी आँखों में गज़ब का विश्वास था। दिलनवाज़ ने मुझसे कहा कि अब मुल्क थोड़ी सख्ती की ज़रूरत है। हमने 60 साल कॉंग्रेस को बरता है। 60 महीने मोदी को भी देकर देख लेते हैं।
ये दोनों उदाहरण इसलिए देने पड़े क्योंकि मतगणना शुरू होने के बाद जैसे ही रुझान आने आरंभ हुए और बीजेपी को बढ़त मिलने लगी तो बस टीवी पर एक ही सुर बजने लगा। वो ये कि ये “सांप्रदायिक ध्रुवीकरण” का नतीजा है। पटना में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते हुए नीतीश कुमार ने भी यही कहा और लखनऊ में मायावती ने भी ऐसा ही बोला।ये मुद्दे का बहुत ही सरलीकरण है और लोगों को एक खांचे या एक स्टीरियो छवि में बांधकर देखने की कोशिश है।
यहाँ हमारा मक़सद ये बताना कदापि नहीं है कि मुसलमानों ने बीजेपी को वोट दिया या नहीं। बल्कि ये कहना है कि हमारा सोचने का तरीका सांप्रदायिक हो गया है। चुनाव विश्लेषण के हमारे तरीके बहुत पुराने हो गए है जबकि देश के लोग, चाहे वे किसी भी मजहब के क्यों न हों, बहुत आगे बढ़ गए हैं। जबकि हमारे ज़्यादातर विचारक, बुद्धिजीवी और पत्रकार अभी 2002 पर ही अटके हुए हैं। तब से अबतक साबरमती में बहुत पानी बह गया है। इसी कारण अभी तक बहुत सारे लोग भौचक हैं। पचा नहीं पा रहे कि ऐसा कैसे हो गया?
बीजेपी को इतना सारा समर्थन देश के लोंगो ने विकास के लिए तो दिया ही है। मगर उन्होने नरेंद्र मोदी की वैचारिक स्पष्टता, दृढ़ता और बेकार की सांकेतिकता में ना पड़ने की आदत के कारण भी उन्हें पसंद किया है। वोटर, खासकर जो युवा नागरिक हैं वे समझ गए हैं कि सिर्फ इफ्तार की दावतें देने और रस्मी टोपी पहनने वाले उनका भला नहीं कर सकते। वे भी “चेज़” चाहते है। वे आम हिन्दुस्तानी की तरह सोचते हैं ना कि किसी मजहबी यूनिट के तरह। उन्होने मोदी की स्पष्टवादिता को पसंद किया है नहीं तो यूपी, बिहार, राजस्थान और महाराष्ट्र में उन्हें इतने वोट और सीटें नहीं मिलती। विश्लेषक आज भी उन्हें सिर्फ एक मजहबी चश्में से देख रहे है। जबकि अब्दुल और दिलनवाज़ जैसे लाखों हिन्दुस्तानी कह रहें है कि चश्मा उतार कर देखो तो मालूम पड़ेगा कि सबकी चिंताएँ और सपने एक जैसे ही है। और नरेंद्र मोदी में उन्हें एक बौद्धिक ईमानदारी ढिखाई देती है। इसी कारण शायद देश ने उनपर भरोसा किया है।
https://www.facebook.com/uu.umeshupadhyay/posts/627414097350941
Narendra Modijanlokpal #ModiVictoryLap @NitiCentral @thekiranbedi @BJP4India #Modiheadsto7RCR @GarimaSanjay
उमेश उपाध्याय
17 मई 2014
Twitter @upadhyayumesh
आज सुबह जब अब्दुल ने मुझसे कहा कि “साब मोदी को पता होएगाँ न कि हमने भी उसी को वोट दिया है?” तो में सोचने लगा कि ये सवाल मैंने उससे क्यों पूंछा? क्योंकि वो मुसलमान है? और मैं भी उसे आम हिन्दुस्तानी ना समझकर मजहब के खांचे में डालकर देखता हूँ। अब्दुल मेरा ड्राईवर है। उम्र होगी कोई 30-32 वर्ष। मुंबई में ही जन्मा और पला बढ़ा है। न सिर्फ उसने, बल्कि उसने बताया कि उसके परिवार ने भी इस बार मोदी को ही वोट दिया। उसने ऐसा क्यों किया तो अब्दुल हँसकर बोला साब क्यों पूंछते हो? आप ही तो हमेशा बात करते हो कि “इस बार सरकार चेंज करना जुरूरी था ना सर।” मैं सोचने को मजबूर हुआ कि क्या अब्दुल अकेला ऐसा अपवाद है तो मुझे याद आया कि पिछले महीने दिल्ली के दिलनवाज ने भी ऐसा ही कुछ मुझे कहा था।
दिलनवाज़ दिल्ली में मेरु टॅक्सी चलाता है। “सर इस बार मैंने और मेरे कुनबे के 36 लोगों ने बीजेपी को वोट दिया है। हमेशा से ही हम कॉंग्रेस को वोट देते रहे हैं। मगर इस बार जी खट्टा हो गया। सोचा इस मोदी को भी मौका देकर देखें।“ ये बताते हुए तकरीबन 35 उम्र के दिलनवाज़ के चेहरे पर कोई खास भाव नहीं थे। मैंने उसे थोड़ा उकसाया और कहा कि “लोग इल्ज़ाम लगाते हैं कि मोदी ने तो गुजरात में दंगे कराये थे?” तो वो बोला “साहब दंगे कौन नहीं कराता? हर पार्टी इसकी कुसूरवार रही है तो सिर्फ मोदी पर ही निशाना क्यों? और फिर हम दिल्ली के लाड़ोसराय इलाके में बिलकुल ठीक कुतुबमीनार के अहाते में पीढ़ियों से रह रहे हैं। दिल्ली में कोई दंगे कराएगा तो हम उसे देख लेंगे। किसी की हिम्मत नही होगी।” ये कहते हुए उसकी आँखों में गज़ब का विश्वास था। दिलनवाज़ ने मुझसे कहा कि अब मुल्क थोड़ी सख्ती की ज़रूरत है। हमने 60 साल कॉंग्रेस को बरता है। 60 महीने मोदी को भी देकर देख लेते हैं।
ये दोनों उदाहरण इसलिए देने पड़े क्योंकि मतगणना शुरू होने के बाद जैसे ही रुझान आने आरंभ हुए और बीजेपी को बढ़त मिलने लगी तो बस टीवी पर एक ही सुर बजने लगा। वो ये कि ये “सांप्रदायिक ध्रुवीकरण” का नतीजा है। पटना में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते हुए नीतीश कुमार ने भी यही कहा और लखनऊ में मायावती ने भी ऐसा ही बोला।ये मुद्दे का बहुत ही सरलीकरण है और लोगों को एक खांचे या एक स्टीरियो छवि में बांधकर देखने की कोशिश है।
यहाँ हमारा मक़सद ये बताना कदापि नहीं है कि मुसलमानों ने बीजेपी को वोट दिया या नहीं। बल्कि ये कहना है कि हमारा सोचने का तरीका सांप्रदायिक हो गया है। चुनाव विश्लेषण के हमारे तरीके बहुत पुराने हो गए है जबकि देश के लोग, चाहे वे किसी भी मजहब के क्यों न हों, बहुत आगे बढ़ गए हैं। जबकि हमारे ज़्यादातर विचारक, बुद्धिजीवी और पत्रकार अभी 2002 पर ही अटके हुए हैं। तब से अबतक साबरमती में बहुत पानी बह गया है। इसी कारण अभी तक बहुत सारे लोग भौचक हैं। पचा नहीं पा रहे कि ऐसा कैसे हो गया?
बीजेपी को इतना सारा समर्थन देश के लोंगो ने विकास के लिए तो दिया ही है। मगर उन्होने नरेंद्र मोदी की वैचारिक स्पष्टता, दृढ़ता और बेकार की सांकेतिकता में ना पड़ने की आदत के कारण भी उन्हें पसंद किया है। वोटर, खासकर जो युवा नागरिक हैं वे समझ गए हैं कि सिर्फ इफ्तार की दावतें देने और रस्मी टोपी पहनने वाले उनका भला नहीं कर सकते। वे भी “चेज़” चाहते है। वे आम हिन्दुस्तानी की तरह सोचते हैं ना कि किसी मजहबी यूनिट के तरह। उन्होने मोदी की स्पष्टवादिता को पसंद किया है नहीं तो यूपी, बिहार, राजस्थान और महाराष्ट्र में उन्हें इतने वोट और सीटें नहीं मिलती। विश्लेषक आज भी उन्हें सिर्फ एक मजहबी चश्में से देख रहे है। जबकि अब्दुल और दिलनवाज़ जैसे लाखों हिन्दुस्तानी कह रहें है कि चश्मा उतार कर देखो तो मालूम पड़ेगा कि सबकी चिंताएँ और सपने एक जैसे ही है। और नरेंद्र मोदी में उन्हें एक बौद्धिक ईमानदारी ढिखाई देती है। इसी कारण शायद देश ने उनपर भरोसा किया है।
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उमेश उपाध्याय
17 मई 2014
अब्दुल और दिलनवाज ही नहीं, देश के 3 फीसदी मुस्लिमों ने भी मोदी को वोट किया है। उनके साथ भाजपा को वोट देकर बहुमत के आकड़े पर पहुंचाने वाले 31 फीसदी मतदाताओं की उम्मीद है कि जो गुजरात में विकास हुआ। वैसा ही देश में भी होगा। वहीं मोदी के सामने चुनौती है कि देश को साथ लेकर चलना होगा और राष्ट्र को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाना।
ReplyDeleteVery well said Manish.
Deleteapki sabhi baate bilkul sahi hai sir, or mai bhi yehi sochta hu.
ReplyDeleteexcellent
ReplyDeleteसर आपके विचार पढ़कर बहुत अच्छा लगा. मैं ये तो नहीं जानता कि अब्दुल या असलम या
ReplyDeleteकिसी और ने मोदी को वोट दिया या नहीं लेकिन एक बात तय है कि जो पार्टियां टोपी के इर्द गिर्द
खेल रचाकर वोट पाने की कोशिश में थी उन्हें खास कामयाबी हाथ नहीं लगी या ये कहें कि उन्ही का
वोट सबसे ज्यादा बंटा या कटा है। दूसरी ओर एक बड़े धड़े ने मोदी के लिए वोट किया।
मोदी की विचारधारा के लाखों -करोड़ों लोग कायल है.....मोदी की कार्यशौली और गुजरात
मॉडल की चर्चा हर दिन टीवी पर दिखाई पड़ती है। आम आदमी गुजरात की बातें सिर्फ
टीवी या अखबार में देखकर ही उसके बारे में अनुमान लगाता है। गुजरात के मॉडल में असल
में क्या खासियत या कमियां है ये शायद ही वो जानता हो। लेकिन अबतक महंगाई,भ्रष्टाचार,
गरीबी और दंगों की मार झेलता आ रहे आम आदमी ने एक उम्मीद को
वोट दिया है जिसका है नरेंद्र मोदी....इस उम्मीद पर हक सबका है वो फिर राम हो या असलम...