दिल्ली
की हवा इन दिनों काफी बदली बदली नज़र आती है। लुटियन की दिल्ली में नौकरशाह,
नेता, पत्रकार और काम करवाने वाले “असरदार” लोग काफी असमंजस की स्थिति में हैं। सत्ता के
गलियारों में अब माहौल काम का हो गया है। भारतीय जनता पार्टी के एक कार्यकर्ता ने
दो दिन पहले मुझे कहा कि “बड़ा अलग सा माहौल है। अभी तक मंत्रियों को फूल देकर
शुभकामनाएँ देने तक का मौका तक नहीं मिला।“ उनका कई शीर्ष भाजपा नेताओं के यहाँ
चुनाव तक खूब आना जाना था। मैंने कहा कि इसमें क्या परेशानी है। आप इन लोगों की
कोठियों पर चले जाते। वे बोले “यही तो मुश्किल है, हर मंत्री नौ बजे दफ्तर
पहुँच जाता है और फिर देर रात के बाद लौटता है।“ मिलना मुश्किल हो गया है।
नौकेरशाह भी नए माहौल से अचकचाए हुए हैं, गोल्फ तो बंद हो ही गई है। काम भी करना पड़ रहा है।
काम करवाने वालों की मुश्किल भी ख़ासी है, पहले नए मंत्री बनते ही दो चार दिन में “जुगाड़
फिट” हो ही जाती थी मगर नई सरकार में अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है।
सबसे
बड़ी दिक्कत पत्रकारों की है। उनकी समस्या वाकई “रीयल” और गंभीर है। 1989 में जबसे
दिल्ली में गठबंधन की सरकारों का चलन शुरू हुआ, खबरों का मतलब ही बादल
गया था। इस दौरान किसी भी घटक दल के नेता का बयान राजनीतिक तौर से महत्वपूर्ण हो
गया था। क्योंकि राजनीतिक पावर कई दलों में बट रही थी इसलिए पावर संतुलन बनाने का
काम भी नाज़ुक था। हर दल और नेता के पास इस बैलेन्स को हिला देने की ताकत सी आ गई
थी। इसलिए किसी दल के पास अगर चार-पाँच सांसद भी होते थे वह भी इस संतुलन को
गड़बड़ाने की ताकत रखता था। इसलिए नेताओं के बयान ही नहीं बल्कि उनके हावभाव,
उनकी “बॉडी लैंगवैज” तक खबर बन जाती थी। याद कीजिये जयललिता की “टी पार्टी”,
ममता के नखरे, सीताराम येचुरी का “हम भोंकते ही नहीं काटते भी
हैं” वाला बयान, रामदास का मेडिकल इंस्टीट्यूट न जाना आदि आदि। यानि
छोटे मोटे दल के नेता का बयान भी राजनीति और दिल्ली के सत्ता संतुलन को गड़बड़ा सकता
था।
इसका
असर ये हुआ कि यही बयानबाज़ी बड़ी खबर बन जाती थी। सारे अखबारों की हेडलाइन और टीवी
चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज़। शाम के दौरान हर टीवी स्टुडियो में उसी पर घंटों और कई
बार तो पूरे हफ्ते इसी पर चर्चा होती थी। कुछ लोग थोड़ा आगे गए,
और बयान निकलवाये जाने लगे। यूपीए 2 के दौरान बेनी प्रसाद वर्मा के “प्रलाप” इसके
उदाहरण हैं। पिछले पच्चीस साल में दिल्ली की पत्रकारिता सत्ता संतुलन के इस खेल के
इर्दगिर्द ही सिमट कर रह गई। कई पत्रकार इसी खेल के निष्णात या “एक्सपर्ट” हो गए।
इनकी पत्रकारिता में जो खोज, अध्ययन, फील्ड रिपोर्ट आदि के तत्व तकरीबन गायब हो गए।
अब
दिल्ली में सत्ता संतुलन का खेल बादल गया है। इसका उदाहरण है शिवसेना के अनंत गीते।
खबर आई कि वे अपने मंत्रालय से खुश नहीं हैं। गठबंधन के दौर में ये बड़ी खबर थी।
आदतन इसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनाया गया। मगर मजबूत और “असरदार”
प्रधान मंत्री के दौर की राजनीति में ये खबर कब आई कब गई मालूम ही नहीं पड़ा। ‘नाराज़’ गीते और शिवसेना कब उसी मंत्रालय से ‘अति
प्रसन्न’ हो गए पता ही नही चला। याद कीजिये,
कभी शिवसेना प्रमुख जैसे क्षेत्रीय राजनेताओं को छींक आने वाली है इस आशंका मात्र
से दिल्ली के सत्ता गलियारों में कइयों को जुकाम हो जाया करता था।
सत्ता
के अनेक केंद्र से अब सत्ता की एक धुरी और एक केंद्र हो जाने के काल की पत्रकारिता
भी अलग होगी, यह जानना बहुत ज़रूरी है। मगर मुश्किल यह है कि पत्रकारों की एक पीढ़ी ने
सिर्फ बहुकेंद्रीय सत्ता संतुलन ही देखा है और उनके लिए ख़ासी मुश्किल का वक़्त होने
वाला है। ये बात टीवी पत्रकारिता पर और ज़्यादा सटीक बैठती है। आप देखें तो देश के
अंदर टीवी न्यूज़ का फैलाव इसी दौर में हुआ है। अधिकांश चैनल और टीवी पत्रकार चैट
शो से बाहर की दुनिया से वाकिफ ही नहीं लगते। एक बयान पर कुछ और बयान लेकर बहुत से
‘एक्सपर्ट’ के साथ स्टुडियो में बैठकर राष्ट्र के नाम संदेश
देने वाले पत्रकार अब क्या करेंगे ये बहुतों को समझ नहीं आ रहा होगा।
देश
की पत्रकारिता भी अब “चिकचिक खिचखिच” के दौर से बाहर आएगी ये बिलकुल साफ है। ‘उसने
कहा था’ का दौर अब खत्म हो गया
है। पत्रकारों को अब स्टोरी लेने के लिए वातानुकूलित स्टुडियो,
गूगल सर्च और न्यूज़ रूम से बाहर जाकर देश की गली कूँचों और गावों की खाक छाननी
पड़ेगी। यह पूरे देश के लिए एक अच्छी खबर है क्योंकि लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ एक
सकारात्मक परिवर्तन की तरफ जाये इससे सबका भला ही होगा।
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