Thursday, May 19, 2016

देश को चाहिए माँ-बेटे से मुक्त कोंग्रेस

कोंग्रेस आईसीयू में तो पहले से थी ही पांच राज्यों के चुनाव परिणाम के बाद अब वेंटिलेटर पर चली गयी लगती है. देश की सबसे पुरानी पार्टी गहरे संकट में हैं. कोंग्रेस मुक्त भारत का बीजेपी का नारा परवान चढ़ रहा है. भाजपा का ये नारा राजनीतिक तौर पर उसके लिए मुफीद है क्योंकि वह कोंग्रेस के स्थान पर देश की सर्वग्राही पार्टी बनने की दिशा में चल रही है. यहाँ तक तो ठीक है, मगर क्या देश को एक ही राष्ट्रीय पार्टी चाहिए? सवाल ये है कि अगर देशभर में कोंग्रेस की जगह भाजपा ले रही है तो भाजपा जो विपक्ष की जगह खाली कर रही है उसे कौन भरेगा?

क्या राज्यों में कोंग्रेस की जगह क्षेत्रीय पार्टियाँ आयेंगी या फिर दिल्ली जैसा “आप” का प्रयोग होगा? राजनीतिक तौर पर देखा जाए तो ये भी भी गलत नहीं है मगर अगर दलगत राजनीति से ऊपर उठकर व्यापक देशहित में सोचा जाए तो बेहतर होगा कि देश में दो बड़ी पार्टियाँ ज़रूर हों. वो इसलिए क्योंकि कई बार छोटे दल देशव्यापी मुद्दों पर उस तरह का रुख लेने की स्थिति में नहीं होते जो राष्ट्र के दीर्घकालीन हित में हो. इस नाते कोंग्रेस का वेंटिलेटर पर देर तक पड़े रहना ठीक नहीं है. जब में ये लिख रहा हूँ तो इस बात से वाकिफ हूँ कि यूपीए के काल में कोंग्रेस का बर्ताव देश की सुरक्षा और भ्रष्टाचार के मामलों में बड़ा गड़बड़ था. इशरत जहान के मामले में गलत हलफनामा दायर करने से लेकर भ्रष्टाचार के लम्बे पुलिंदों का बचाव कोई भी कैसे कर सकता है? इसी बात को अगर आगे बढ़ाया जाये तो लगता है कि कोंग्रेस की सोचने की ताकत में ही कहीं घुन लग गया है और उसके मौजूदा नेता आगे की सोच नहीं पा रहे.

विधानसभा चुनावों  के नतीजों से और भी साफ़ है कि कोंग्रेस का मौजूदा नेतृत्व सिर्फ 10 जनपथ की सुघड़भलाई और चापलूसी को ही देशहित से जोड़ कर देखता है. यही कारण है कि आज ये पार्टी महज़ कर्नाटक, उत्तराखंड, हिमाचल, पांडिचेरी, बिहार और कुछेक उत्तरपूर्वी राज्यों में सिमट कर रह गयी है. बड़े राज्यों में देखा जाए तो अपने दम पर पार्टी के पास सिर्फ कर्नाटक में ही सत्ता बची है. उत्तराखंड में उसके कई विधायक छोड़ कर जा सके हैं और अदालती फैसले से अब वहां उसकी सरकार चल रही है. बिहार में पार्टी एक छोटी पार्टी बन गयी है और नीतीश कुमार और लालू के रहमोंकरम पर है. इस मायने में असम में पार्टी की जो मट्टी पलीद हुई है वह दूरगामी मायने रखती है.   

जैसा कि आमतौर पर होता है चुनाव नतीजों के बाद  आदत के अनुसार कुछ लोग सोनिया-राहुल को बचाने की पीपनी लोग बजाना शुरू कर देंगे और चाटुकारिता में लिप्त नेता बस समय निकालने की जुगत में लग जायेंगे. मगर क्या इसीसे कोंग्रेस अपनी इस ख़राब हालत से बाहर आ सकती है? नहीं, गंभीर रूप से बीमार मरीज़ को बचाने के लिए डाक्टर को कई मर्तबा साहसिक फैसले लेकर बीमारी के अनुसार दिल, किडनी या लीवर तक को बदलना पड़ता है ताकि उसे नयी ज़िंदगी मिले. कोंग्रेस को भी इस समय शायद ऐसी ही ज़रूरत है. उसके ज़मीन से जुड़े नेताओं को सोचना पड़ेगा कि वे सिर्फ 10 जनपथ की ठकुरसोहाती करके पार्टी को जिंदा नहीं रख सकते. दरअसल कोंग्रेस की समस्या अब बीजेपी नहीं बल्कि उसका खुद अपना घर है.

राहुल गांधी के बारे में तो साफ है कि वे मजबूरी में नेता बने हैं. उनका आचरण बार बार यह सिद्ध भी करता है. कोंग्रेस के किसी भी जानकार से पूँछ लीजिये वह जानता है कि राहुल का मन राजनीति में नहीं हैं. तो भई, उन्हें छोड़ देना चाहिए ताकि कोंग्रेस में नया नेतृत्व आगे आये. माँ होने के नाते सोनिया गांधी का राहुल पर प्यार स्वाभाविक है मगर क्या यही कारण पर्याप्त है कि पार्टी परिवार से आगे नहीं सोच पाए?

कोंग्रेस को ज़रुरत है नए नेतृत्व की जो ज़मीन से जुड़ा हो और एक परिवार के बुरे-भले से आगे सोच सके और देश को ज़रुरत है एक ऐसी पार्टी की जो बीजेपी के द्वारा खाली किये गए विपक्ष के स्थान को भर सके. इसके लिए अब कोंग्रेस के नेताओं को अपनी पार्टी को नया नेतृत्व देने के बारे में सोचने की ज़रुरत है - एक नयी कोंग्रेस जो माँ बेटे से मुक्त होकर देश की तरक्की में एक ज़िम्मेदार पार्टी और सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभा सके.


उमेश उपाध्याय,
19 मई 2016


No comments:

Post a Comment