Wednesday, May 25, 2016

मोदी सरकार के दो साल और विरोधियों की वैचारिक चिल्लपों

  
“मोदी अगर चुनाव जीत गए तो मैं विदेश जाकर बस जाउंगी”, 2014 के चुनाव से पहले ये बयान था मेरी एक जानकार संभ्रांत महिला का जो बीजेपी और आरएसएस की विचारधारा की विरोधी हैं. प्रजातंत्र में ये राजनीतिक विरोध तो ठीक मगर देश की एलीट का प्रतिनिधित्व करने वाली ये मेरी दोस्त आजतक स्वीकार नहीं कर पायीं है कि मोदी देश के प्रधानमंत्री बन गए हैं. बताना चाहूँगा कि मोदी के चुने जाने पर वे विदेश तो नहीं गयीं मगर पहले ही दिन से मोदी सरकार के हर कदम को वे संदेह और कई बार घृणा की दृष्टी से देखती रहीं हैं.

मैंने उनका उल्लेख इसलिए किया क्योंकि वे एक सोच का प्रतिनिधित्व करतीं हैं जो बीजेपी के वैकल्पिक राजनीतिक विचार को को वे एक स्वीकार्य विरोधी विचारधारा की तरह नहीं मानती. उनके अनुसार भाजपा और आरएसएस के विचार को ज़िंदा रहने का ही अधिकार नहीं है. उनके मन में मोदी के लिए घृणा और जुगुप्सा का भाव रहता है. इस सोच को मानने वाला वर्ग देश के सत्ता प्रतिष्ठान पर आज़ादी के बाद से लगातार काबिज़ रहा है और आदतन इसे अपनी सल्तनत मनाता है. ऐसे लोगों में राजनीतिक दल, एनजीओ, पत्रकार विरादरी का एक बेहद प्रभावशाली तबका, अकादमिक संस्थानों से जुड़े लोग, कला-साहित्य के क्षेत्र में बड़े पदों पर काबिज़ वर्ग और नौकरशाही का एक हिस्सा शामिल है. इस वर्ग के लिए सहिष्णुता और वैचारिक स्वतंत्रता उनके बनाए दायरे के बाहर के लोगों के लिए नहीं है. इस खेल के वकील, मुवक्किल और मुंसिफ तीनों हमेशा यहीं लोग रहे है.

प्रधानमंत्री मोदी के किसी भी आकलन को इस वैचारिक पृष्ठभूमि के बिना नहीं किया जा सकता. मोदी को जनता ने जब प्रधानमंत्री चुना था तो वह पाँच साल के लिए था इसलिए साल दर साल का रिपोर्ट कार्ड मांगना और देना दोनों ही मुझे बेकार की बहस का मुद्दा लगते हैं. मगर ये भी असलियत है कि उनके वैचारिक विरोधियों ने तकरीबन पहले दिन से ही मोदी को कठघरे में खडा कर रखा है और आये दिन किसी न किसी मुद्दे पर प्रधानमंत्री से अपेक्षा की जाती है कि वे कुछ कहें और करें. पाँच साल के लिए प्रचंड बहुमत से जनता के द्वारा चुनी गयी सरकार को आप कुछ वक़्त तो देंगे हीं? मगर मोदी के मामले में ऐसा नहीं हुआ.

याद दिलाना ज़रूरी है कि मोदी ने जब नृपेन्द्र मिश्रा को अपने प्रधान सचिव के रूप में चुना तो उसे लेकर भी विवाद खड़ा कर दिया गया. अब बताईये कि प्रधानमंत्री किसे अपने कार्यालय में रखना चाहते है, ये विवाद का मुद्दा कैसे हो सकता है? मगर शुरू से ही विवाद खड़ा करने का एक माहौल बना दिया गया. इसका मकसद देश की आवोहवा को हमेशा तनाव और संघर्ष के आलम में रखना. और जब कोई विवाद न हो तो फिर विवाद इजाद करना. अगर आप देंखें तो इन दो सालों में कौन से बड़े सवाल हुए जिनपर मोदी सरकार का विरोध किया गया. घर-वापसी, पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में नियुक्ति, जेएनयू में भारतविरोधी नारे, असहिष्णुता, उत्तर प्रदेश में अख़लाक़ की हत्या आदि.

एक अखलाक की हत्या को छोड़ दिया जाए जो कि एक संवेदनशील मुद्दा है, बाकी मुद्दे क्या हैं? और अखलाक की हत्या भी कहाँ हुई? उत्तरप्रदेश में, जहाँ पर बीजेपी का नहीं बल्कि समाजवादी पार्टी का शासन है. इसपर अगर कोई जवाबदेही बनती थी वो थी यूपी सरकार की. लेकिन गज़ब की बात है कि प्रदेश की कानून व्यवस्था ठीक करने के लिए लखनऊ में हल्ला हंगामा नहीं किया गया बल्कि इसे एक  अलग ही रंग देकर मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा किया गया. ये देखने और जानने की ज़रुरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है?

दो साल में अगर देखा जाए तो ऐसा तो नहीं है कि मोदी की सरकार ने कुछ अचंभित करने वाला काम कर दिखाया हो. ऐसी उम्मीद करना आमतौर पर तो ठीक नहीं है लेकिन चुनाव दर चुनाव अपेक्षाओं का एक सैलाब खुद प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी ने ही तो पैदा किया है जिससे लोग हर मोर्चे पर सबकुछ जल्दी से एक साथ पूरा  हो जाने का सपना देखने लगे हैं. उम्मीदों का ये उबार ज़रूर लोगों को की आशाओं को कुछ तोड़ता हुआ नज़र आता है.  

लेकिन अगर वास्तविकता की ज़मीन पर देखा जाए तो 2014 के चुनाव से पहले और आज के भारत के माहौल में ज़मीन आसमान का फर्क है. अनिश्चय, आशंका, अविश्वास की जगह आज आशा, विश्वाश और कुछ बेहतर होने का माहौल बना है. आर्थिक, प्रसाशनिक, देश की सुरक्षा और आधारभूत ढांचे को लेकर  सरकार का निश्चय, नीति और दिशा कुल मिलाकर सकरात्मक है. लोग सवाल भी कर रहें हैं तो इसकी गति को लेकर न कि सरकार की मंशा को लेकर. बेईमानी और भ्रष्टाचार का कोई मामला आज चर्चा का विषय नहीं है. दिल्ली में सत्ता के गलियारे हर मायने में अपेक्षाकृत साफ़ दिखाई देते है. अपने आप में दो साल में ये कोई छोटी उपलब्धि नहीं है.

मोदी के विरोधी भी उनके शासन में कोई मूल खोट नहीं निकाल पाये हैं इसीलिए वे बार बार ऐसे ही मुद्दे उछालते हैं जो न तो जनता के हित से सीधे जुड़े हैं और न ही जिनमें कोई खास वज़न है. मगर जिस वर्ग के हाथ से सत्ता चली गयी हो और जिसने आजतक भी मन से मोदी को प्रधानमंत्री नहीं माना हो उन्हें इस सरकार का कुछ भी ठीक नहीं लगेगा. जनता की अदालत में हारने के बाद वैचारिक मलखम्भ करने में मशगूल ये वर्ग जाहिर है, कुछ तो चिल्लपों तो मचाएगा ही?


उमेश उपाध्याय

25 मई 2016 

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