ये भक्ति का सीजन है। हम महाशिवरात्रि पर भगवान शिव की भक्ति की बात नहीं कर रहे, हम तो राजनीतिक मौसम में भक्ति की बात कर रहे हैं। वैसे तो संकट की घड़ी में मनुष्य भगवान को याद करता ही है। इस नाते यदि कांग्रेस को भगवान की भक्ति याद आ रही है तो अचरज नहीं होना चाहिए। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी पहले गुजरात में और अब कर्नाटक में मन्दिरों के दर्शन कर रहे हैं। वैसे ये अच्छा ही है क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि आप किसी भी बहाने भगवान का नाम लें, आपको उसका फल मिलता ही है। वैसे इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं कि कांग्रेस ने जब राहुल गाँधी को किस फल की आशा में जनेऊधारी शिवभक्त घोषित किया है? राजनीति के मैदान में तो सत्ता का मीठा फल ही सबसे बड़ा आशीर्वाद होता है। पर क्या ये फल राहुल बाबा की झोली में भोले शंकर डालेंगे?
कुछ भी हो, भोले की शरण में कोई भी जाए उसका स्वागत ही होना चाहिए। असल बात तो ये है कि भारत की राजनीति में जमीनी स्तर पर हो रहे बुनियादी और बड़े बदलाव हो रहे हैं। इस जमीनी परिवर्तन का ही असर है कि एक रोमन कैथोलिक की कोख से जन्मे राहुल गाँधी अब भोले बाबा की शरण में जा रहे हैं। इसे सिर्फ ये कहकर खारिज करना भी ठीक नहीं होगा कि वे राजनीतिक कारणों से मजहब का सहारा ले रहे हैं। इस काम में राहुल अकेले नहीं हैं। राजनीतिक स्वार्थ के लिए मजहब का इस्तेमाल करने वालों की फेहरिस्त काफी लम्बी है। टोपी लगाकर राजनीतिक इफतारो का आयोजन तकरीबन सभी पार्टियों ने किया है। तो फिर राहुल के शिवभक्त होने पर ही हो हल्ला क्यों?
यों तो भक्ति और पूजा अर्चना हर एक भारतीय का बिल्कुल निजी मामला है, परन्तु जब सार्वजनिक तौर पर चुनावी यात्राओं के दौरान ऐसा हो रहा तो कुछ सवाल तो बनते ही हैं। भक्ति का सार्वजनिक प्रदर्शन पूरी तरह से 'टैक्टिकल' यानि राजनीतिक रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है। परन्तु कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते राहुल गाँधी को एक बात स्पष्ट करनी चाहिए । काँग्रेस के सर्मथन से गुजरात में जीते जिग्नेश मेवानी आजकल दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की कोशिश कर रहे हैं। क्या राहुल गाँधी इस मुस्लिम दलित गठजोड़ के राजनीतिक पहलुओं से सहमत है? क्या बृहत भारतीय समाज के प्रति जिग्नेश के विचारों से कांग्रेस की सहमति है? एक तरफ ''जनेऊधारी"
हिन्दू बताकर सॉफ्ट हिन्दुत्व का प्रदर्शन और दूसरी तरफ दलित-मुस्लिम गठजोड़ को आर्शिवाद ? इन दोनों बातों में काफी विरोधाभास है।
मेरा दूसरा प्रश्न राहुल गाँधी से। उनकी पार्टी के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है। क्या कांग्रेस पार्टी की नीति में इसे लेकर परिवर्तन आया है? यूपीए शासन में ही सच्चर कमीशन का गठन हुआ था। जिसकी सिफरिशों के आधार पर कांग्रेस ने कई नीतियां बनाई थी। क्या राहुल गाँधी सच्चर कमीशन की बुनियादी सोच से सहमत है? या फिर उनकी पार्टी की सोच में अब बदलाव आया है? देश में अल्पसंख्यक अधिकारों और बहुसंख्यक हितों को लेकर उनकी पार्टी की नीति और नजरिया क्या है? ये राहुल गाँधी को स्पष्ट करना चाहिए।
एक और सवाल उनसे बनता है। रामजन्म भूमि को लेकर उनका और उनकी पार्टी का आधिकरिक रवैया और नीति क्या है? उनकी पार्टी के बड़े नेता कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में आग्रह किया है कि रामजन्म भूमि बाबरी मस्जिद केस की सुनवाई 2019 के आम चुनावों के बाद होनी चाहिए । अयोध्या में रामजन्म स्थान पर मंदिर के निर्माण का मुद्दा एक बड़ा नाज़ुक मुद्दा है। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि राहुल गाँधी के पिता और देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने 1989 में ताला खुलवाकर राम मंदिर की आधारशिला रखी थी। इसलिए राहुल गाँधी को देश को बताना चाहिए कि अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर उनकी सोच क्या है? क्या वे भी कपिल सिब्बल की राय से इतिफाक रखते हैं। क्या कांग्रेस पार्टी चाहती है कि इस मामले को और लटकाया जाए। क्या राहुल गाँधी अयोध्या में रामजन्मभूमि केस के फैसले में देरी चाहते है?
सवाल तो और भी कई है मगर फागुन के इस महीने में महाशिवरात्रि के मौके पर शिवभक्त राहुल से साफगोई की उम्मीद लोगों को है। भोले शंकर के भक्त बड़े उल्लास और सादगी के साथ इस पर्व को मनाते है। नीलकण्ठ महादेव की सादगी, स्पष्टता और भोलापन जगजाहिर है। राहुल गाँधी की शिवभक्ति को लेकर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। लेकिन उसके राजनीतिक पहलुओं पर राहुल गाँधी और उनकी पार्टी को सीधी बात करनी चाहिए।
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उमेश उपाध्याय
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