जी हां, मैं पद्मावत का विरोध करता हूं क्योंकि यह पराजित मानसिकता का जयगान करने वाली फिल्म है। इस फ़िल्म का कथ्य यानि नेरैटिव विजय का नहीं बल्कि पराजय की अपरिहार्यता का उत्सव मनाता है। मुझे आपत्ति फिल्म के चित्रण से नहीं बल्कि उसके पूरे हेतु से है। फिल्म में जो दिखाया गया है उससे कहीं अधिक महत्व रखता है वह जो फिल्म कहने का प्रयास करती है। यदि एक वाक्य में कहा जाए तो फिल्म का कथ्य है 'हार गए तो कोई बात नहीं, मगर खेले तो अच्छा!’ मुझे इस से घोर आपत्ति है।
भारत के इतिहास को, उसकी युद्धगाथाओं को देखने का ये घिसापिटा और दासीय तरीका उस मनोवृति का परिचायक है, जो इस राष्ट्र को हारते हुए देखने में आनन्दित होती है। हर देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि वह किस नेरैटिव यानि कथ्य को जीता है।यह कथ्य बनता है साहित्य से, कला से कहानियों से और एक हद तक फिल्मों से भी। इसलिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में बनी पद्मावत को सिर्फ यह कह कर खारिज नहीं किया जा सकता कि 'इतना होहल्ला क्यों हो रहा है, आखिर यह एक फिल्म ही तो है।’
राजपूताना शान, उनकी कहानियों, गाथाओं को सिर्फ राजस्थान या एक वर्ग विशेष से जोड़ कर ही नहीं देखा जाना चाहिए। राजपूतों के संघर्षों की गाथाएं विदेशी आक्रमणकारियों के सामने खड़े होने वाले राष्ट्रीय स्वाभिमान , इस माटी की अस्मिता, तथा साधनहीनता के बीच अदम्य साहस के परिचय की कहानियां हैं। आतताइयों, लुटेरों, क्रूर विधर्मियों और इस धरती का शीलहरण करने वाले ज़ालिम हत्यारों के सामने निद्र्रन्द खड़े रहने वाले वीरों और वीरांगनाओं की कथाएं हैं। लबे समयतक चले सांस्कृतिक और राजनीतिक पराधीनता के दौर में ये राजपूती किस्से इस समाज एकमात्र मानसिक का संबल रहे हैं। इनसे छेड़छाड़ एक तरह से इस देश के स्वाभिमान और अस्मिता से खिलवाड़ है।
पद्मावत को अगर आप गौर से देखें तो यह कह रही है कि निर्लज्ज, वहशी और क्रूर अलाउद्दीन खिलजी के हाथों राजपूतों की हार तयशुदा थी। भारत की इन आतताइयों के हाथों हार और उससे उत्पन्न हताशा से पैदा होने वाले जौहर को ये फिल्म तर्कसंगत बनाती है। उसे ये एक राजनीतिक वैधता प्रदान करती है।आतताइयों की विजय को राजनीतिक वैधता प्रदान करने का ये नेरेटिव यानि कथ्य देश में लंबे समय से चल रहा है। इसका एक प्रति कथ्य या'काउन्टर नैरेटिव’ होने की आवश्यकता है। यह नया कथ्य इस देश की विजय गाथाओं का होना चाहिए। पराजय को महिमामंडित करके आप सिर्फ़ विवशता और दयनीयता के भाव को बढ़ावा देते हैं। पद्मावतका अन्तर्निहित संदेश यही लगता है।
देश में आज हर मुद्दे को 'बोलने की आजादी' पर हमले के साथ जोड़ देने का चलन सा हो गया है। हैरानी की बात है कि सीता की अग्निपरीक्षा के कारण पूरे रामचरितमानस को स्त्री विरोधी करार देने वाली जमात आज पद्मावत फिल्म के पक्ष में हल्लाबोल पर उतर आई है। चूंकि ये नेरैटिव भारत के जयघोष से जुड़ा हुआ नहीं है इसलिए इस बुद्धिजीवी ब्रिगेड को अब जौहर पर भी आपत्ति नहीं है। कल्पना कीजिए कि किसी अन्य फिल्ममेकर ने अगर सीताजी की अग्निपरीक्षा दिखाई होती तो आज जौहर के पक्ष में खड़े लोग कैसे सेंसर बोर्ड पर टूट पड़े होते? इस ब्रिगेड को भारतीय आत्मगौरव से ही संभवत: चिढ़ है, इसलिए जौहर को लेकर ये लोग बौद्धिक उलटबांसी कर रहे हैं।सिर्फ़ जौहर को ही महिमामंडित करने के आधार पर ही ये फिल्म नहीं बननी चाहिये थी। न्यायपालिका कैसे इस आत्मदाह के दृश्यों को मंजूरी दे सकती है? बौद्धिक स्वतंत्रता के इन झंडाबरदारों से पूछना चाहिये कि क्या वे इस आत्मदाह को बौद्धिक तौर पर मान्य ठहराते हैं?
फिल्म में अभिनय, दृश्य, सेट, भव्यता - सब अच्छे हैं और आकर्षक भी। परन्तु समाज और देश के लिए जरूरी है उसका अन्तर्निहित भाव और उससे निकलता संदेश और इसी कारण मैं पद्मावत से सहमत नहीं हूँ । उसके विरोध को मैं सही मानता हूं। हां एक बात स्पष्ट है कि ये विरोध जिस तरीके से कुछ स्थानों पर हुआ है वह घोर निंदनीय है।इस तरह के हिंसक विरोध प्रदर्शन की हमारे लोकतंत्र में कोई जगह नहीं। आप कितने भी उत्तेजित क्यों न हों, विरोध शांतिपूर्ण होना चाहिये।
वैसे, इस समय संजयलीला भंसाली सबसे खुश होंगे क्योंकि उनके एक विशुद्ध व्यावसायिक प्रकल्प पर एक बड़ा सैद्धांतिक मुल्लमा जो चढ़ गया है। इन विवादों और हंगामों ने उनकी फिल्म की कमाई को कई गुना बढ़ा दिया है। मगर मुझे इस बारे में कोई संदेह नहीं कि देश की गाथाएं इन व्यावसायिक प्रकल्पों की भेंट नहीं चढऩी चाहिये। इसलिए पद्मावत को देखने के बाद मैं अपना विरोध दर्ज कराते हुए कहना चाहता हूँ कि मैं संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत का भी उतना ही विरोध करता हूं जितना उसके खिलाफ हो रहें हिंसक प्रदर्शनो का।
उमेश उपाध्याय
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