फ़िल्म अभिनेत्री श्रीदेवी का निधन यूँ तो एक हादसे में हुआ पर टी.वी. चैनलों की रिपोर्टिंग में वे हर पल तिलतिल कर मर रही हैं।उनके साथ ही उनके परिवार, बेटियों और शोकाकुल हितैषियों की संवेदनाओं का खुलेआम कत्ल हो रहा है। श्रीदेवी की मृत्यु की खबरों की कवरेज में कई मीडिया कर्मियों ने अपनी कल्पना के घोड़ों को रेगिस्तान में चलने वाली धूल भरी आंधी की तरह खुला छोड दिया है।
कल्पना के इन घोड़ों को टी.वी. चैनलों के ग्राफ़िक्स, नाट्य रूपांतरण, रिपोर्टरों के पीस टू कैमरा और स्वनामधन्य एंकरों की चर्चाओं में देखा जा सकता है।
कई चैनलों को देखकर तो लगता है कि संवेदनाओं के साथ-साथ पत्रकारीय मर्यादाओं का भी अब पूरी तरह अंत हो गया है। न्यूज स्टूडियो बाथरूम में तब्दील हो गए हैं, तो बाथटब अब ‘पीस टू कैमरा’ करने का नया स्पॉट बन गया है।
पुलिस की जांच की एक तरफ़ रख, एंकर मानो मौत की तफतीश करने वाले प्राईवेट जासूसों में तब्दील हो गए हैं।
इन्हें इस बात की परवाह ही नहीं कि दुबई पुलिस ने इस मौत में किसी षडयंत्र की आशंका से इंकार कर दिया है। इसके बाद भी दिमागी पतंगबाज़ी जारी है और #SrideviDeathMystery जैसे हैशटैग धड़ल्ले से सोशल मीडिया पर इस्तेमाल किये जा रहे हैं।
ये सही है कि मीडिया को सवाल उठाने और घटनाक्रम की पड़ताल करने का हक है।
यह भी सही है कि श्रीदेवी की असामयिक मौत से एक जबरदस्त सदमा लगा है और शुरू-शुरू में साफ-साफ़ खबरें आने में थोड़ी देर लग रही थी। परन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि हम बेसिर-पैर के अनुमान लगाने बैठ जाएं।
या फिर अपनी खबरें बेचने के लिए ऐसे ग्राफिक्स का उपयोग करने लगें जो किसी की मौत को एक हास्यास्पद टेलीविजन कॉमेडी में तब्दील कर रहे हैं। ये बिलकुल भूल जाएँ कि किसी की मां, किसी की पत्नी, किसी की भाभी और किसी की बहन का निधन हुआ है। और परिवार अंतिम संस्कार के लिए पार्थिव शरीर का इंतज़ार कर रहा है। खबर दिखाने के के नाम पर किसी की मौत को तमाशे में बदल देना किसी भी कारण से उचित नहीं कहा जा सकता।
इस हादसे का कवरेज से सवाल तो कई उठते हैं।
मगर दो बातें जहन में तेज़ी से उभरती है। पहला सवाल : ये कि क्या अंतिम रूप से मान लिया जाये कि अब टीवी न्यूजरूम में संवेदनाओं का अंत हो चुका है। मानवीय संवेदनाएं अब टी आर पी के मैदान में लाश की तरह दफनाई जा चुकी हैं? अगर ऐसा है तो फिर कुछ समय बाद ऐसे टीवी न्यूज चैनलों को खबरों के कब्रिस्तान में बदलने से भी कोई नहीं रोक पाएगा।
दूसरा सवाल : किसी नागरिक को निजता का अधिकार है कि नहीं ? किसी परिवार और व्यक्ति को गमी के समय में एकांत में दो आंसू बहाने की आजादी है कि नहीं? क्या मीडिया होने के नाते हमें ये अधिकार मिल जाता है कि किसी के इन बेहद नाजुक और एकाकी पलों में जबरदस्ती घुस जाएं? उनकी भावनाओं से खेलें? क्या श्रीदेवी के पति उनकी बेटियों और परिवार के सदस्यों को ये हक हासिल नहीं कि वे उनके साथ हुए इस हादसे को सार्वजनिक बहसका हिस्सा बनने से रोक सकें?
बड़ा जरूरी है कि मीडियाकर्मी एक दूसरे से ये सवाल पूछें। ऐसी घटनाओं को कवर करने की मर्यादाएं तय करें।
नहीं तो जिस तरह भगवान बुद्ध ने अंगुलिमाल से कहा था कि 'तू कब रूकेगा; उसी तरह पूरा समाज पूछेगा कि ये मीडिया कहाँ रुकेगा?
#Sridevi #SrideviFinalJourney #SrideviDeath
उमेश उपाध्याय
28 फरवरी 2018
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