#त्रिपुरा में #भाजपा की जीत के बाद #लेनिन की प्रतिमा तोड़े जाने को लेकर मार्क्सवादियों और उनके समर्थको का विलाप जारी है। मूर्ति तोड़ने को वे लोकतांत्रिक परम्पराओं के खिलाफ बता रह हैं। ऐसा बताया जा जा रहा है मानो लेनिन दुनिया में लोकतंत्र के कोई बड़े पुरोधा रहे हैं। और उनकी मूर्ति तोड़कर जैसे लोकतंत्र के किसी बड़े प्रतीक की हत्या हो गई हैं। वैसे शुरू में ही यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि किसी भी प्रतिमा को तोडऩा भारतीय संस्कार के हिसाब से अनुचित है। इसकी निन्दा होनी ही चाहिए।कोई भी व्यक्ति चाहे वह देशी हो या विदेशी उसकी मूर्ति इस तरह से गिराना ठीक नहीं था।
परन्तु साम्यवादियों को इस पर भाषण देने का अधिकार कब से हो गया? किस नैतिक, राजनैतिक या सैद्धांतिक आधार पर वे इस मूर्ति भंजन पर लेक्चर दे रहे हैं? स्वयं लेनिन से लेकर केरल और त्रिपुरा में साम्यवादियों के दोनों हाथ वैचारिक विरोधियों के खून से सने हैं। विश्व में जहां भी मार्क्सवादी सत्ता में आए हैं, उन्होंन सुनियोजित तरीक़े से हत्याओं का दौर चलाया है- उन्होंने किसी भी विरोधी को बख्सा नहीं हैं।चुन-चुनकर अपने राजनैतिक विरोधियों की नृशंस हत्या करने वाले जब सिर्फ़ लेनिन की मूर्ति तोडऩे पर रोते हैं, तो उनके इस दोहरे चरित्रपर सिर्फ हंसी ही आ सकती हैं।
क्या वे भूल गए कि 1917 में लेनिन कैसे रूस में लोकतांत्रिक सरकार को हटाकर रक्त रंजित बोल्शेविक क्रंति लेकर आए थे?रूस में स्टालिन ने और माओं चीन में ने विचारधारा के आधार पर किस तरीके से लाखों लोगों को मौत के कुएं में धकेला था?
दरअसल इतना भी दूर जाने की जरूरत नहीं । आज जो बुद्धिजीवी लेनिन की मूर्ति तोडऩे वालों को तालिबानी बता रहे हैं, उन्हें याद दिलाना जरूरी हैं कि उन्होंने त्रिपूरा में क्या किया था।केरल में राजनीतिक हत्याओं का दौर क्यों जारी है? जब त्रिपुरा में नृपेन चक्रवर्ती मुख्यमंत्री बने तो क्या ये सर्कुलर नहीं जारी किया गया था कि सरकारी दफ्तरों से गांधी और नेहरू के चित्र हटा लिए जाएँ? क्या ये सही नहीं हैं कि तब इन्दिरा गांधी की मूर्ति भी तोड़ी गई थी? अगर लेनिन की मूर्ति तोड़ने वाले तालिबानी हैं तो ज़िन्दा लोगों को मौत के घाट उतारने वाले मार्क्सवादी फिर तो तालिबान के बाप माने जाएंगे?
त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति तोड़े जाने की निन्दा होनी चाहिए। ऐसा करने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। क्योकि ऐसा करना इस देश की माटी, भारत की अन्तर्निहित परम्पराओं और गूढ़ लोकतांत्रिक आस्थाओं के खिलाफ है। इस देश की विरासत तो “यावत जीवेत् सुखम जीवेत् , ऋणम कृत्वा, घृतम पीवेत्” का विचार देने वाले चार्वाक को भी ऋषि मानती है। उनका तिरस्कार नहीं करती।
मार्क्सवाद का तो अन्तर्निहित चरित्र ही विरोधियों का दमन और विनाश हैं। वे मुर्तियों का भंजन नहीं बल्कि उनसे अलग विचार रखनेवालों की क्रूर हत्या में विश्वास रखते हैं। इसलिए माक्र्सवादियों और उनसे वैचारिक तथा राजनीतिक सहानुभूति रखने वालों को इस पर उपदेश देने से पहले अपने गिरेबान में झाकना चाहिए।इस देश में सहिष्णुता का पाठ अगर किसीको पढ़ना है तो वे हैं वामपन्थी पार्टियाँ और उनके मानसिक दत्तक पुत्र।
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